ब-रोज़-ए-हश्र मिरे साथ दिल-लगी ही तो है
ब-रोज़-ए-हश्र मिरे साथ दिल-लगी ही तो है
कि जैसे बात कोई आप से छुपी ही तो है
न छेड़ो बादा-कशो मय-कदे में वाइज़ को
बहक के आ गया बेचारा आदमी ही तो है
क़ुसूर हो गया क़दमों पे लोट जाने का
बुरा न मानिए सरकार बे-ख़ुदी ही तो है
रियाज़-ए-ख़ुल्द का इतना बढ़ा चढ़ा के बयाँ
कि जैसे वो मिरे महबूब की गली ही तो है
यक़ीं मुझे भी है वो आएँगे ज़रूर मगर
वफ़ा करेगी कहाँ तक कि ज़िंदगी ही तो है
मिरे बग़ैर अंधेरा तुम्हें सताएगा
सहर को शाम बना देगी आशिक़ी ही तो है
ब-चश्म-ए-नम तिरी दरगाह से गया ‘फ़ारूक़’
ख़ता मुआफ़ कि ये बंदा-परवरी ही तो है
ब-रोज़-ए-हश्र मिरे साथ दिल-लगी ही तो है
ब-रोज़-ए-हश्र मिरे साथ दिल-लगी ही तो है
कि जैसे बात कोई आप से छुपी ही तो है
न छेड़ो बादा-कशो मय-कदे में वाइज़ को
बहक के आ गया बेचारा आदमी ही तो है
क़ुसूर हो गया क़दमों पे लोट जाने का
बुरा न मानिए सरकार बे-ख़ुदी ही तो है
रियाज़-ए-ख़ुल्द का इतना बढ़ा चढ़ा के बयाँ
कि जैसे वो मिरे महबूब की गली ही तो है
यक़ीं मुझे भी है वो आएँगे ज़रूर मगर
वफ़ा करेगी कहाँ तक कि ज़िंदगी ही तो है
मिरे बग़ैर अंधेरा तुम्हें सताएगा
सहर को शाम बना देगी आशिक़ी ही तो है
ब-चश्म-ए-नम तिरी दरगाह से गया ‘फ़ारूक़’
ख़ता मुआफ़ कि ये बंदा-परवरी ही तो है
दिल-ए-ईज़ा-तलब ले तेरा कहना कर लिया मैं ने
दिल-ए-ईज़ा-तलब ले तेरा कहना कर लिया मैं ने
किसी कि हिज्र में जीना गवारा कर लिया मैं ने
बुत-ए-पैमाँ-शिकन से इंतिक़ामन ही सही लेकिन
सितम है वादा-ए-तर्क-ए-तमन्ना कर लिया मैं ने
नियाज़-इश्क़ को सूरत न जब कोई नज़र आई
जुनून-ए-बंदगी में ख़ुद को सज्दा कर लिया मैं ने
वफ़ा-ना-आश्ना इस सादगी की दाद दे मुझ को
समझ कर तेरी बातों पर भरोसा कर लिया मैं ने
मोहब्बत बे-बहा शय है मगर तक़दीर अच्छी थी
मता-ए-दो-जहाँ दे कर ये सौदा कर लिया मैं ने
मिला तो दीद को मौक़ा मगर ग़ैरत को क्या कहिए
जब आई वादी-ए-ऐमन तो पर्दा कर लिया मैं ने
बड़ी दौलत है हक़ के नाम पर दौलत लुटा देना
जहाँ में फूँक कर चाँदनी को सोना कर लिया मैं ने
किसी के एक दर्द-ए-बंदगी से क्या मिली फ़ुर्सत
कि दिल में सौ तरह का दर्द पैदा कर लिया मैं ने
तमाशा देखते ही देखते उन की अदाओं का
सर-ए-महफ़िल ख़ुद अपने को तमाशा कर लिया मैं ने
किसी की राह में ‘फ़ारूक़’ बर्बाद-ए-वफ़ा हो कर
बुरा क्या है कि अपने हक़ में अच्छा कर लिया मैं ने
कभी बे-नियाज़-ए-मख़्ज़न कभी दुश्मन-ए-किनारा
कभी बे-नियाज़-ए-मख़्ज़न कभी दुश्मन-ए-किनारा
कहीं तुझ को ले न डूबे तिरी ज़िंदगी का धारा
मिरी कुव्वत-ए-नज़र का कई रूख़ से इम्तिहाँ है
कभी उज़्र-ए-लन-तरानी कभी दावत-ए-नज़ारा
ग़म-ए-इश्क़ ही ने काटी ग़म-ए-इश्क़ की मुसीबत
इसी मौज ने डुबोया इसी मौज ने उभारा
तिरे ग़म की पर्दा-पोशी जो इसी की मुक़तज़ी है
तो क़सम है तेरे ग़म की मुझे हर ख़ुशी गवारा
दम-ए-सुब्ह-ए-नौ-बहाराँ जो कली चमन में चटकी
तो गुमाँ हुआ कि जैसे मुझे आप ने पुकारा
मिरे नाख़ुदा न घबरा ये नज़र है अपनी अपनी
तिरे सामने है तूफ़ाँ मिरे सामने किनारा
मिरी कश्ती-ए-तमन्ना कभी ख़ुश्कियों में डूबी
कभी बहर-ए-ग़म का तिनका मुझे दे गया सहारा
तिरा हक़ भी सर ब-ज़ानू मिरा कुफ्र भी पशीमाँ
मुझे आगही ने लूटा तुझे ग़फ़लतों ने मारा
ये करम ये मेहरबानी तिरी फ़ारूक़-ए-हज़ीं पर
ये गिला है क्यूँ न बख़्शा मुझे शुक्रिये का यारा
जो रहा यूँ सलामत मिरा जज़्ब-ए-वालहाना
जो रहा यूँ सलामत मिरा जज़्ब-ए-वालहाना
मुझे ख़ुद करेगा सज्दा तिरा संग-ए-अस्ताना
रह-ए-हक़ के हादसों का न सुना मुझे फ़साना
तिरी रहबरी ग़लत थी कि बहक गया ज़माना
मैं जहान-ए-होश-ओ-इरफ़ाँ ब-लिबास-ए-काफ़िराना
ब-हिजाब-ए-पारसाई तू हमा शराब-ख़ाना
तुझे याद है सितमगर कोई और भी फ़साना
वही ज़िक्र-ए-आब-ओ-दाना वही फ़िक्र-ए-ताएराना
मिरी ज़िंदगी का महवर यही सोज़ ओ साज़-ए-हस्ती
कभी जज़्बा-ए-वालिहाना कभी ज़ब्त-ए-आरिफ़ाना
तिरा जज़्बा-ए-रिफ़ाक़त मिरा साथ कैसे देगा
कि मैं ज़िंदा-ए-कोहिस्ताँ तू हलाक-ए-आशियाना
मिरी बज़्म-ए-फ़िक्र में है यही कशमकश अज़ल से
कभी छा गई हक़ीक़त तो कभी जम गया फ़साना
वो बजाए आह ‘फ़ारूक़’ अभी वाह कर रहे हैं
अभी दर्द से है ख़ाली ये नवा-ए-आशिक़ाना
ख़ुशी से फोलें न अहल-ए-सहरा अभी कहाँ से बहार आई
ख़ुशी से फोलें न अहल-ए-सहरा अभी कहाँ से बहार आई
अभी तो पहुँचा है आबलों तक मिरा मज़ाक़-ए-बरहना-पाई
तिरे मुफ़क्किर समझ न पाए मिज़ाज-ए-तहजीब-ए-मुस्तफ़ाई
उसूल-ए-जोहद-ए-बक़ा के बंदे बुलंद है ज़ौक़-ए-ख़ुद-फ़नाई
ख़लील मस्त-ए-मय-ए-जुनूँ था मगर मैं तुम से ये पूछता हूँ
रज़ा-ए-हक़ की छुरी के नचे हयात आई की मौत आई
जो क़िल्लत-ए-सीम-ओ-ज़र का ग़म है तो आओ क़ैसर के जानाशीनो
तुम्हारी ख़ातिर ज़रा झुका दूँ मैं अपना ये कासा-ए-गदाई
बजा तिरा नाज़-ए-बे-नियाज़ी मगर ये इंसाफ़ भी नहीं
कि तेरी दुनिया में तेरे बंदे बुतों की देते फिरें दुहाई
नदीम तारीख़-ए-फ़तह-ए-दानिश बस इतना लिख कर तमाम कर दे
कि शातिरान-ए-जहाँ ने आख़िर ख़ुद अपनी चालों से मात खाई
चलो कि ‘फ़ारूक़’ मय-कदे में दिमाग़ ताज़ा तो पहले कर लें
फिर आ के अहल-ए-हरम को देंगे पयाम-ए-तजदीद-ए-पारसाई
कोहसार का ख़ूगर है न पांबद-ए-गुलिस्ताँ
कोहसार का ख़ूगर है न पांबद-ए-गुलिस्ताँ
आज़ाद है हर क़ैद-ए-मक़ामी से मुसलमाँ
घर कुंज-ए-क़फ़स को भी बना लेती है बुलबुल
शाहीं की निगाहें में नशेमन भी है ज़िंदाँ
अल्लाह के बंदों की है दुनिया ही निराली
काँटे कोई बोता है तो उगते हैं गुलिस्ताँ
कह दो ये क़यामत से दबे पाँव गुज़र जाए
कुछ सोच रहा है अभी भारत का मुसलमाँ
ऐ शेख़-ए-हरम आज तिरा फ़ैसला क्या है
सफ़-बंदी-ए-मस्जिद कि सफ़-आराई-ए-मैदाँ
सीने में शिकम ले के उभरती हैं जो क़ौमें
बन जाती हैं आख़िर में ख़ुद आज़ूक़ा-ए-दौराँ
चलती हुई इक बात है ना-मो‘तबर इक चीज़
ना-अहल की दौलत हो कि नादार का ईमाँ
मुल्ला का ये फ़तवा है कि ‘फ़ारूक’ है मुल्हिद
ऐ दीन-ए-मोहम्मद तिरा अल्लाह निगेह-बाँ
तुम्हारे क़स्र-आज़ादी के मेमारों ने क्या पाया
तुम्हारे क़स्र-आज़ादी के मेमारों ने क्या पाया
जहाँ-बाज़ों की बन आई जहाँ-कारों ने क्या पाया
सितारों से शब-ए-ग़म का तो दामन जगमगा उठा
मगर आँसू बहा कर हिज्र के मारों ने क्या पाया
नक़ीब-ए-अहद-ए-ज़र्रीं सिर्फ़ इतना मुझ को बतला दे
तुलू-ए-सुब्ह-ए-नौ बर-हक़ मगर तारों ने क्या पाया
जुनूँ की बात छोड़ों इस गए घर का ठिकाना क्या
फ़रेब-ए-अक़्ल ओ हिकमत के परस्तारों ने क्या पाया
सर-अफ़राज़ी मिली अहल-ए-हवस की पारसाई को
मगर तेरी मोहब्बत के गुनहगारों ने क्या पाया
खिलौने दे दिए कुछ आप ने दस्त-ए-तमन्ना में
ब-जुज़ दाग़-ए-जिगर आईना-बरदारों ने क्या पाया
मिली सर फोड़ते ही क़ैद-ए-हस्ती से भी आज़ादी
रूकावट डाल कर ज़िंदाँ की दीवारों ने क्या पाया
हमारे सामने ही बैठ कर ‘फ़ारूक़’ मसनद पर
हमीं से पूछते हो फिर कि ग़द्दारों ने क्या पाया