हाइकु
आया सावन
नदी नाले जवान
केंचुए उगे
अब आदमी का इक नया
अब आदमी का इक नया प्रकार हो गया,
आदमी का आदमी शिकार हो गया,
जरुरत नहीं आखेट को अब कानन गमन की,
शहर में ही गोश्त का बाजार हो गया |
माँ के जाते ही
माँ के जाते ही बाप गैर हो गया,
अपने ही लहू से उसको बैर हो गया,
घर ले आया इक पति हंता नार को,
आप ही कुटुंब पर कहर हो गया|
आपने तारीफ की
आपने तारीफ की हम खूबसूरत हो गये,
आइना देखते हम खुद में ही खो गये,
जाने क्या जादू किया आपके इल्फजों ने,
निखर कर हम सोंदर्य की मूरत हो गये|
यादों के जंगल में
कल रात भर
मैं तन्हा ही भटकता रहा
यादों के बियाबान जंगल में
जंगल भरा पड़ा था
खट्टी मीठी और कड़वी
यादों के पेड़ पौधों से
जंगल के बीचोंबीच उग आए थे
कुछ मीठे अनुभवों के विशालकाय दरख़्त
जो लदे पड़े थे मधुर एहसासों के फूलों-फलों से
बीच-बीच में उग आई थी
कड़़वे प्रसंगों की तीखी काँटेदार झाड़ियाँ
जिनके पास से गुज़रने पर
आज भी ताज़ा हो जाती है वो चुभन
और उछल पड़ता है दिल
मेरे एकदम सामने बैठी
जुगनुओं जड़ी चादर ओढ़े
मनमोहक, साँवली-सलोनी निशा
नींद की बोतल से भर भर
नैन कटोरे
पिलाती रही मुझे
रात रस
लेकिन मैं बहका नहीं
बढ़ता ही गया आगे
और आगे ।
जंगल में एक साथ
कईं दरख़्तों का सहारा ले
झुलती नन्हीं समृतियों की बेलें
पाँव से उलझ पड़ी अचानक
और मैं गिरते गिरते बचा !
जंगल ने पीछा नहीं छोड़ा मेरा
मैं भागना चाहता था
मैंने कईं बार छुपाया स्वयं को
रजाई में मगर जंगल था कि
उसके भी भीतर आ गया
उसने क़ैद करके रखा मुझे
सुबह होने तक ।
कामचोर सावन
उनकी मेरी और तुम्हारी
टनों गालियाँ सुनने के बाद
आख़िर कामचोर सावन याद आया
अपना कर्तव्य
खोल कर मुँह
अमृत-रस घट का
उसने उड़ेल दिया
उस विशालकाय छलनी पर
और बुनती चली गई
आड़ी-तिरछी चमकीली तारों की जाली
जिसने बाँध लिया
खेत खलिहान, जंगल, पर्वत, रात दिन
सूरज चाँद तारों, बूढ़ों और नौजवानों को
केवल बच्चे करते रहे अठखेलियाँ
करते रहे उछल-कूद और सावन पान ।
घर की छत पर लगी पाइप ने छोड़ा
छत पर उतरा सावन
और बाँट दिया एक रजत रस्सा
जिससे नाप सके दूरी छत से धरती तक की
जो बढ़ती है हर सावन इंच दो इंच
भले ही रस्सा टूटता रहा
टुकड़ा-टुकडा़ चूम कर पाँव
स्वजनी के ।
सावन संग हँसते-खेलते बच्चों ने चाहा
झूलना झूला
और चले पकड़ने रजत रस्सा
लेकिन नहीं छुड़ा पाए
इसका कोई सिरा
धरती से बँधा या छत पर लगी पाइप से जुड़ा
बार-बार प्रयास करते बच्चे
रह गए हाथ मलते ।
समरस आलू प्याज
मैं हेरान हुआ !
एक ही दुकान में
एक ही टोकरी के अन्दर
शरीर से शरीर सटाए
एक साथ चुपचाप पड़े हैं
आलू और प्याज !
एकदम निश्चिन्त ।
कोई लड़ाई न झगड़ा
न भेद न मतभेद, कोई ग्लानि न खेद
सुख-दुख में इक दूजे का साथ देते
पूछते , सहलाते, सांत्वना देते
मैं हैरान था !
प्राण लेवा रोग से ग्रस्त कुछ
आलू प्याज, एक दूसरे के शरीर से निकलता
मवाद, बदबूदार पीक, सड़ान्ध मारता पानी
ले रहे थे अपने ऊपर
बिना किसी परेशानी के ।
मैं हैरान था !
यहाँ कोई हड़बड़ाहट
कोई जल्दबाज़ी नहीं थी
न कोई प्रतिस्पर्धा न होड़
न बिकने की जल्दी न होड़
न कोई बेईमानी न जत्थेबन्दी
न अलगाव न बहकाव
न कोई आरक्षण न विरोध
न स्ट्राइक, न प्रदर्शन
आवश्यकता ही नहीं !
क्योंकि यहाँ कोई किसी का हक नहीं मारता
ये सभ्यता है
इन्सानियत से भी बहुत पहले की
अक्षुण्ण ।
सब एक दूसरे के बीच यूँ पड़े थे
ज्यूँ शाम के समय शेड बन्द हो जाती हैं
गडरिए की भेड़-बकरियाँ
कोई पाँव में कोई गोद में
कोई सिर पर तो कोई बाँहों में ।
प्रेम भाव से दुकान में खड़ी
बिकने की प्रतीक्षा में पंक्तिबद्ध
तेल की बोतलें
कईं बार गिरा देती थी एक दूसरे को
लेकिन आलू-प्याज को देख
अब खड़ी रहती हैं
एकदम शान्त ।
बस मुस्कुरा भर देती हैं
जब भी दिखता है उन्हें कोई
इन्सान…