गो कठिन है तय करना उम्र का सफ़र
गो कठिन है तय करना उम्र का सफ़र तनहा
लौट कर न देखूँगा चल पड़ा अगर तनहा
सच है उम्र भर किस का कौन साथ देता है
ग़म भी हो गया रुख़्सत दिल को छोड़ कर तनहा
आदमी को गुम-राही ले गई सितारों तक
रह गए बयाबाँ में हज़रत-ए-ख़िज़्र तनहा
है तो वज्ह-ए-रुसवाई मेरी हम-रही लेकिन
रास्तों में ख़तरा है जाओगे किधर तनहा
ऐ ‘शुऊर’ इस घर में इस भरे पड़े घर में
तुझ सा ज़िंदा-दिल तनहा और इस क़दर तनहा
हो गए दिन जिन्हें भुलाए हुए
हो गए दिन जिन्हें भुलाए हुए
आज कल हैं वो याद आए हुए
मैं ने रातें बहुत गुज़ारी हैं
सिर्फ़ दिल का दिया जलाए हुए
एक उसी शख़्स का नहीं मज़कूर
हम ज़माने के हैं सताए हुए
सोने आते हैं लोग बस्ती में
सारे दिन के थके थकाए हुए
मुस्कुराए बग़ैर भी वो होंट
नज़र आते हैं मुस्कुराए हुए
गो फ़लक पे नहीं पलक पे सही
दो सितारे हैं जगमगाए हुए
ऐ ‘शुऊर’ और कोई बात करो
हैं ये क़िस्से सुने सुनाए हुए
जो सुनता हूँ कहूँगा मैं जो कहता
जो सुनता हूँ कहूँगा मैं जो कहता हूँ सुनूँगा मैं
हमेशा मजलिस-ए-नुत्क़-ओ-समाअत में रहूँगा मैं
नहीं है तल्ख़-गोई शेव-ए-संजीदगाँ लेकिन
मुझे वो गालियाँ देंगे तो क्या चुप साध लूँगा मैं
कम-अज़-कम घर तो अपना है अगर वीरान भी होगा
तो दहलीज़ ओ दर ओ दीवार से बातें करूँगा मैं
यही एहसास काफ़ी है के क्या था और अब क्या हूँ
मुझे बिल्कुल नहीं तश्वीश आगे क्या बनूँगा मैं
मेरी आँखों का सोना चाहे मिट्टी में बिखर जाए
अँधेरी रात तेरी माँग में अफ़शाँ भरूँगा मैं
हुसूल-ए-आगही के वक़्त काश इतनी ख़बर होती
के ये वो आग है जिस आग में ज़िंदा जलूँगा मैं
कोई इक आध तो होगा मुझे जो रास आ जाए
बिसात-ए-वक़्त पर हैं जिस क़दर मोहरे चलूँगा मैं
अगर इस मर्तबा भी आरज़ू पुरी नहीं होगी
तो इस के बाद आख़िर किस भरोसे पर जियूँगा मैं
यही होगा किसी दिन डूब जाऊँगा समंदर में
तमन्नाओं की ख़ाली सीपियाँ कब तक चुनूँगा मैं
मैं बज़्म-ए-तसव्वुर में उसे लाए
मैं बज़्म-ए-तसव्वुर में उसे लाए हुए था
जो साथ न आने की क़सम खाए हुए था
दिल जुर्म-ए-मोहब्बत से कभी रह न सका बाज़
हालांकि बहुत बार सज़ा पाए हुए था
हम चाहते थे कोई सुने बात हमारी
ये शौक़ हमें घर से निकलवाए हुए था
होने न दिया ख़ुद पे मुसल्लत उसे मैं ने
जिस शख़्स को जी जान से अपनाए हुए था
बैठे थे ‘शऊर’ आज मेरे पास वो गुम-सुम
मैं खोए हुए था न उन्हें पाए हुए था
मैं ख़ाक हूँ आब हूँ हवा हूँ
मैं ख़ाक हूँ आब हूँ हवा हूँ
और आग की तरह जल रहा हूँ
तह-ख़ाना-ए-ज़ेहन में न जाने
क्या शय है जिसे टटोलता हूँ
दुनिया को नहीं है मेरी परवा
मैं कब उसे घास डालता हूँ
अच्छों को तो सब ही चाहते हैं
है कोई के कहे मैं बुरा हूँ
पाता हूँ उसे भी अपनी जानिब
मुड़ कर जो किसी को देखता हूँ
बचना है मुहाल इस मर्ज़ में
जीने के मर्ज़ में मुब्तला हूँ
औरों से तो इज्तिनाब था ही
अब अपने वजूद से ख़फ़ा हूँ
बाक़ी हैं जो चंद रोज़ वो भी
तक़दीर के नाम लिख रहा हूँ
कहता हूँ हर एक बात सुन कर
ये बात तो मैं भी कह चुका हूँ
न सह सकूँगा ग़म-ए-ज़ात को
न सह सकूँगा ग़म-ए-ज़ात को अकेला मैं
कहाँ तक और किसी पर करूँ भरोसा मैं
हुनर वो है के जियूँ चाँद बन कर आँखों में
रहूँ दिलों में क़यामत की तरह बरपा मैं
वो रंग रंग के छींटे पड़े के उस के बाद
कभी न फिर नए कपड़े पहन के निकला मैं
न सिर्फ़ ये के ज़माना ही मुझ पे हँसता है
बना हुआ हूँ ख़ुद अपने लिए तमाशा मैं
मुझे समेटने आया भी था कोई जिस वक़्त
दयार ओ दश्त ओ दमन में बिखर रहा था मैं
ये किस तरह की मोहब्बत थी कैसा रिश्ता था
के हिज्र ने न रुलाया उसे न तड़पा मैं
पड़ा रहूँ न क़फ़स में तो क्या करूँ आख़िर
के देखता हूँ बहुत दूर तक धुँदलका मैं
बहुत मलूल हूँ ऐ सूरत आश्ना तुझ से
के तेरे सामने क्यूँ आ गया सरापा मैं
यही नहीं के तुझी को न थी उम्मीद ऐसी
मुझे भी इल्म नहीं था के ये करूँगा मैं
मैं ख़ाक ही से बना था तू काश यूँ बनता
के उस के हाथ से गिरते ही टूट जाता मैं
सुलैमान-ए-सुख़न तो ख़ैर किया
सुलैमान-ए-सुख़न तो ख़ैर किया हूँ
यके अज़ शहर-ए-यारान-ए-सबा हूँ
वो जब कहते हैं फ़र्दा है ख़ुश-आइंद
अजब हसरत से मुड़ कर देखता हूँ
फ़िराक़ ऐ माँ के मैं ज़ीना-बा-ज़ीना
कली हूँ गुल हूँ ख़ुश-बू हूँ सबा हूँ
सहर और दोपहर और शाम और शब
मैं इन लफ़्ज़ों के माना सोचता हूँ
कहाँ तक काहिली के तान सुनता
थकन से चूर हो कर गिर पड़ा हूँ
तरक़्क़ी पर मुबारक बाद मत दो
रफ़ीक़ो में अकेला रह गया हूँ
कभी रोता था उस को याद कर के
अब अक्सर बे-सबब रोने लगा हूँ
सुने वो और फिर कर ले यक़ीं भी
बड़ी तरकीब से सच बोलता हूँ
ये ख़ुद को देखते रहने की है जो
ये ख़ुद को देखते रहने की है जो ख़ू मुझ में
छुपा हुआ है कहीं वो शगुफ़्ता-रू मुझ में
माह ओ नुजूम को तेरी जबीं से निस्बत दूँ
अब इस क़दर भी नहीं आदत-ए-ग़ुलू मुझ में
तग़य्युरात-ए-जहाँ दिल पे क्या असर करते
है तेरी अब भी वही शक्ल हू-ब-हू मुझ में
रफ़ू-गरों ने अजब तबा-आज़माई की
रही सिरे से न गुंजाइश-ए-रफ़ू मुझ में
वो जिस के सामने मेरी ज़बाँ नहीं खुलती
उसी के साथ तो होती है गुफ़्तुगू मुझ में
ख़ुदा करे के उसे दिल का रास्ता मिल जाए
भटक रही है कोई चाप कू-ब-कू मुझ में
उस एक ज़ोहरा-जबीं के तुफ़ैल जारी है
तमाम ज़ोहरा-जबीनों की जुस्तुजू मुझ में
नहीं पसंद मुझे शेर ओ शाएरी करना
कभी कभार बस उठती है एक हू मुझ में
मैं ज़िंदगी हूँ मुझे इस क़दर न चाह ‘शुऊर’
मुसाफ़िराना इक़ामत-गुज़ीं है तू मुझ में
ज़हर की चुटकी ही मिल जाए बराए
ज़हर की चुटकी ही मिल जाए बराए दर्द-ए-दिल
कुछ न कुछ तो चाहिए बाबा दवा-ए-दर्द-ए-दिल
रात को आराम से हूँ मैं न दिन को चैन से
हाए है वहशत-ए-दिल हाए हाए दर्द-ए-दिल
दर्द-ए-दिल ने तो हमें बे-हाल कर के रख दिया
काश कोई और ग़म होता बजाए दर्द-ए-दिल
उस ने हम से ख़ैरियत पूछी तो हम चुप हो गए
कोई लफ़्ज़ों में भला कैसे बताए दर्द-ए-दिल
दो बालाएँ आज कल अपनी शरीक-ए-हाल हैं
इक बलाए दर्द-ए-दुनिया इक बलाए दर्द-ए-दिल
ज़िंदगी में हर तरह के लोग मिलते हैं ‘शुऊर’
आश्ना-ए-दर्द-ए-दिल ना-आश्ना-ए-दर्द-ए-दिल