तू क्या जाने तेरी बाबत क्या क्या सोचा करते हैं
आँखें मूँदे रहते हें और तुझ को सोचा करते हैं

दूर तलक लहरें बनती हैं फैलती हैं खो जाती हैं
दिल के बासी ज़हन की झील में कंकर फेंका करते हैं

एक घना सा पेड़ था बरसों पहले जिस को काट दिया
शाम ढले कुछ पंछी हैं अब भी मंडलाया करते हैं

अक्सर यूँ होता है हवाएँ ठट्ठा मार के हँसती हैं
और खिड़की दरवाज़े अपना सीना पीटा करते हैं

तू ने बसाई है जो बस्ती उस की बातें तू ही जान
याँ तो बच्चे अब भी अम्माँ अब्बा खेला करते हैं

उम्र गुज़र जाती है क़िस्से रह जाते हैं

उम्र गुज़र जाती है क़िस्से रह जाते हैं
पिछली रात बिछड़े साथी याद आते हैं

लोगों ने बतलाया है हम अब अक्सर
बातें करते करते कहीं खो जाते हैं

कोई ऐसे वक़्त में हम से बिछड़ा है
शाम ढले जब पंछी घर लौट आते हैं

अपनी ही आवाज़ सुनाई देती है
वर्ना तो सन्नाटे ही सन्नाटे हैं

दिल का एक ठिकाना है पर मिरा क्या
शाम जहाँ होती है वहीं पड़ जाते हैं

कुछ दिन हस्ब-ए-मंशा भी जी लेने दे
देख तिरी ठुड्डी में हाथ लगाते हैं

उसे न मिलने की सोचा है यूँ सज़ा देंगे 

उसे न मिलने की सोचा है यूँ सज़ा देंगे
हर एक जिस्म पे चेहरा वही लगा देंगे

हमारे शहर में शक्लें हैं बे-शुमार मगर
तिरे ही नाम से हर एक को सदा देंगे

हम आफ़्ताब को ठंडा न कर सके ऐ ज़मीं
अब अपने साए की चादर तुझे ओढ़ा देंगे

भुलाए बैठे हैं जिस को हम एक मुद्दत से
गर उस ने पुछ लिया तो जवाब क्या देंगे

बदन समेत अगर वो कभी जो आ जाए
बदन को उस के बदन अपना बा-ख़ुदा देंगे