फुलबसिया
फुलबसिया फुलबसिया
उतर गई
खेतों में
हाथों में लेकर हँसिया
फुलबसिया की काया
साँवली अमा है
चमक रहा हाथों में
किन्तु चन्द्रमा है
यह चन्द्रमा
दूध-भात
क्या देगा बच्चों को
लाएगा पेज और पसिया
फुलबसिया
पल्लू को खींच
कमर काँछ कर
साँय-साँय काट रही
बाँह को कुलाँच कर
रीपर से तेज़ चले
सबसे आगे निकले
झुकी-झुकी-सी एकसँसिया
फुलबसिया
खाँटी है खर खर खुद्दार है
बातों में पैनापन
आँखों में धार है
काटेगी जड़
इक दिन
बदनीयत मालिक की
बनता है साला रसिया ।
यह नदी
यह नदी
रोटी पकाती है
हमारे गाँव में
हर सुबह
नागा किए बिन
सभी बर्तन माँज कर
फिर हमें
नहला-धुला कर
नैन ममता आँज कर
यह नदी
अंधन चढ़ाती है
हमारे गाँव में
सूखती-सी
क्यारियों में
फूलगोभी बन हँसे
गंध
धनिए में सहेजे
मिर्च में ज्वाला कसे
यह कड़ाही
खुदबुडाती है
हमारे गाँव में
यह नदी
रस की नदी है
हर छुअन है लसलसी
ईख बनने
के लिए
बेचैन है लाठी सभी
गुनगुना कर
गुड़ बनाती है
हमारे गाँव में ।
क्या तुम्हें भी ?
यह फूल
कैलेण्डर छपा-सा लगे
क्या तुम्हें भी ?
ये तितलियाँ
उस फ़ोन के
विज्ञापनों में थीं
ये ख़ुशबुएँ
स्कीम वाले
साबुनों में थीं
यह ‘कुहुक’
सी० डी० में सुना-सा लगे
क्या तुम्हें भी ?
ये हवा
शीतल है मगर
ज़्यादा न कूलर से
सच है
कि कोंपल नर्म है
पर कम ज़रा
अपने नए गुदगुदे बिस्तर से
वह दृश्य
टी० वी० पर दिखा-सा लगे
क्या तुम्हें भी ?
वह चीख़ है
या गान फिर
झुरमुटों-छाँवों में
अब घर चलें
जल्दी
कि कोई हादसा भी
इन दिनों
संभव है गाँवों में
यह इलाका
पेपर पढ़ा-सा लगे
क्या तुम्हें भी ?
ससुराल से बेटी
खिलखिलाती आ गई
ससुराल से बेटी
मन गुटुरगूँ हुआ
जैसे कबूतर सलेटी
आँख से
कहने लगी
सारी कथा
भूल कर
दो बूँद
रोने कि प्रथा
रह गए रिक्शे में
पाहुर पर्स और पेटी
दौड़ माँ को
भर गई
अँकवार में
पिता ने
जब भाल चूमा
फ़्रॉक हुई दुलार में
और बहना को
हवा में उठा कर भेंटी
और फिर
शिकवे-नसीहते
रात भर
भाइयों से भी
लड़ी कुछ
चूड़ियाँ झनकार कर
चार दिन में हो गई
चौदह बरस जेठी ।
तितलियाँ पकड़ने के दिन
तितलियाँ पकड़ने के दिन
बीत गए मरु की यात्राओं में
क्या होगा
अब कोई
छींटदार पंख लिए
आँगन की
थाली में
व्योम का मयंक लिए
बिजलियाँ
जकड़ने के दिन
बीत गए तम की व्याख्याओं में
नाज पलीं
त्रासदियाँ
प्यास पली लाड़ से
फिर भी
खारी नदियाँ
स्वप्न के पहाड़ से
झील के लहरने के दिन
बीत गए तट की चिन्ताओं में
काफ़ी था
एक गीत
एक उम्र के लिए
लगता है
व्यर्थ जिए
पी-पी कर काफ़िये
शब्द में
उतरने के दिन
बीत गए व्योम की कथाओं में ।
जरीब गिरा खन
खेत में
जरीब गिरा खन
काँप-सा गया
बूढ़े हरिया का मन
पटवारी पंच और
तीन-तीन बेटे
सब-सब अपने मन में
आग कुछ समेटे
चार पेड़ महुआ
छह क्यारी की बात नहीं
बँटने को है अपनापन
बड़का, मंझला या फिर
छोटका अपनाएगा
सोच रहा है ख़ुद
किसके हिस्से जाएगा
उसके हिस्से में
अब थाली भर भात
और
बहुओं के सूप भर वचन ।
चूल्हा अलग हुआ
चूल्हा अलग हुआ
बँटी फिर आग भी
आग न केवल वह
जो हंडी में
अंधन खौलाए
वह भी
रक्त शिराओं में
जो ज्वाला तरल बहाए
जुदा हुए हल बैल
भोग और भाग भी
आँगन छोटे हुए
तो फिर
आकाश न क्यों कम-कम हो
तिरछी धूप किसे
और किसकी
चाँदनियों में ख़म हो
आते पाहुन बेटे
मुंडेरे काग भी
अपनों के
अब अपनेपन की
अपनी सीमाएँ हैं
बहुत जला कर
ईंटों को
दीवारें चिनवाएँ हैं
घर में उगा पड़ोस
दिलों में नाग भी ।
पहिए से आदमी
चक्रव्यूह में खड़े-खड़े
पहिए से आदमी लड़े
एक साँस
जीने का क्षण
महासमर लगे
एक तह कुरेदे
तो
यातना अमर लगे
छाती तक रेत में गड़े
पहिए से आदमी लड़े
समझौते
कंधों पर
विंध्याचल धर गए
बहके तो
विष निर्झर
कान में उतर गए
चेहरे को पेट पर मढ़े
पहिए से आदमी लड़े
कोई
तेजाब नदी
शीश पर गुज़र गई
बौना-मन
बर्फ़ रहा
ज़िन्दगी कुहर गई
कूपों के एटलस पढ़े
पहिए से आदमी लड़े ।
गुनगुनाती है
स्वरों पर
कुछ शब्द आते हैं
कि ज्यों नाख़ून पर
चाँदी के सिक्के
टनटनाते हैं
कहीं पर
आघात की हलचल
कहीं पर
कुछ चोट का अनुभव
चोट पर
कुछ चिनगियाँ बेचैन
और फिर
विस्फोट का अनुभव
इसी विस्फोट से
इक मोमबत्ती को जलाते हैं
नाचता है फ़ैन इक लय में
गुनगुनाती है दरो-दीवार
ताल पर
खिड़कियों के पल्ले
अलगनी
बजती है जैसे तार
तरब के तार अपने
हम इसी सुर से मिलाते हैं ।
पहली ही तितली
पहली ही तितली
हत्यारे फूल पर मिली
कैसे होगा
वसन्त का
अब संकीर्तन
हरे-हरे
आश्वासन
पीले परिवर्तन
पुरवा का झोंका
चिड़िये की झोंपड़ी हिली
पेड़ से प्रकाशित
कुछ
हरे समाचार हैं
नीचे
सूखे पत्ते
बासी अख़बार हैं
भौरे को मुँह में
दाब रही एक छिपकली
प्यास नदी
बह निकली
बालू पर वक़्त के
कंठ तरल करने को
उठ आए
टेसू कण
अपने ही रक्त के
साए में आकर
बैठ गई धूप मुँहजली ।
देखता क्रिकेट एक आदमी
देखता क्रिकेट
एक आदमी
सूखी-सी डाल पर
तालियाँ बजाता है
एक-एक बॉल पर
मन में
स्टेडियम प्रवेश की
चाहत तो है
लेकिन हैसियत नहीं
इतनी ऊँचाई पर
भीड़-भाड़ गर्मी से
राहत तो है
लेकिन कैफ़ियत नहीं
भागा है काम से
नहीं गया
आज वह खटाल पर
दिखता है
ख़ास कुछ नहीं लेकिन
भीतर है
नन्हा-सा आसरा
इधर उठेगा
कोई छक्का तो
घूमेगा स्वतः कैमरा
पर्दे पर आने की
यह ख़्वाहिश
कितनी भारी आटे-दाल पर ।
गगन हरा हुआ
पीली तितलियों से,
भरा हुआ
सारा नीला गगन
हरा हुआ
तितलियाँ उतर आईं
सरसों के खेत में
अलग-अलग एक रंग
सिमटे समवेत में
हर दाना सोन-सा
खरा हुआ
तितलियाँ उतर आईं
पहाड़ी ढलान पर
जटगी के फूल नए
थे जहाँ उठान पर
तैल कुम्भ उनका
गहरा हुआ
तितलियाँ उतर आईं
हल्दी की बाड़ में
सोने की गाँठ बँधी
एक-एक झाड़ में
परिणय का रंग
सुनहरा हुआ ।
चायवाली
एक प्याली
बिना शक्कर चाय हूँ
पहचानती है वह मुझे
पूछती फिर भी कि
मीठी चलेगी क्या ?
जानती है कभी
मीठी भी चलाता हूँ
उसे क्या मालूम
शूगर कम हुआ तो
मैं बहुत मज़बूरियों में
सिर हिलाता हूँ
दूध खालिस अधिक पत्ती
अलग बरतन गैस भी तो
क्या न झंझट
मानती है वह मुझे
चाय डिस्पोजल में देना
जब कहा तो
व्यंग्य से बोली
कि डिस्पोजल नहीं है
जानिए
सुबह झाड़ू मारने वाले
भी तो हैं आदमी
इस ज़माने में
न इतना
छुआछूत बखानिए
कूट अदरक डाल पत्ती
खौलने तक रंग ला कर
धार दे कर
छानती है वह मुझे ।
धान की यह फ़सल
लहलहाती
धान की यह फ़सल
आएगी खलिहान में
लेकर हिसाब
सूद कितना
और कितना असल
खेत पुरखों से हमारे
बीज
पिण्डों-सा दिया
पम्प से पानी पटा कर
समझ लो तर्पण किया
वे न पढ़ पाए बही
शायद पढ़े यह शकल
लोग कहते हैं
पटा मत
लिख शिकायत
होड़ कर
हम भला
कैसे मरेंगे
कर्ज़ कफ़नी ओढ़कर
लोग हँसते हैं
बड़ी हैं भैंस
या फिर अकल ।
जंगल कपड़े बदल रहा है
सारा जंगल
कपड़े बदल रहा है
कोई जलसा
हफ़्तों चल रहा है
इनके कपड़े
वसन्त ने सिले हैं
शेड्स रंगों के
सूर्य से मिले हैं
फ़िट कुछ इतने
बदन-बदन खिले हैं
मैं भी पहनूँ
ये मन मचल रहा है
मैं भी बढ़िया
हरी कमीज़ लाकर
उसको पहना
अपने को कुछ लगा कर
पेड़ देखे
हँसने लगे ठठाकर
कोई नकली
असली में खल रहा है
तब मैं समझा
सुना भी था बड़ों से
ये हरियाली
मिलती न टेलरों से
कोई रस है
आता है जो जड़ों से
मेरे नीचे
मार्बल फिसल रहा है ।
रंग मरे हैं सिर्फ़
पात झरे हैं सिर्फ़
जड़ों से मिट्टी नहीं झरी
अभी न कहना ठूँठ
टहनियों की
उँगली नम है
हर बहार को
खींच-खींच कर
लाने का दम है
रंग मरे हैं सिर्फ़
रंगों की हलचल नहीं मरी
अभी लचीली डाल
डालियों में
अँखुएँ उभरे
अभी सुकोमल छाल
छाल से
गंधिल गोंद ढुरे
अंग थिरे हैं सिर्फ़
रसों की धमनी नहीं थिरी
ये नंगापन
सिर्फ़ समय का
कर्ज़ चुकाना है
फिर तो
वस्त्र नए सिलवाने
इत्र लगाना है
भृंग फिरे हैं सिर्फ़
आँख मौसम की नहीं फिरी ।
खेल बिन बच्चा
इस मुहल्ले में
नहीं मैदान
बच्चा कहाँ खेले?
घर बहुत छोटा
बिना आंगन
बिना छत और बाड़ी,
गली में
माँ की मनाही
तेज़ आटो तेज़ गाड़ी
हाथ में बल्ला
मगर मुँह म्लान
बचा कहाँ खेले?
एक नन्हें दोस्त
के संग
बाप की बैठक निहारे
एक गुंजाइश
बहुत संकरी लगे
सोफ़ा किनारे
बीच में पर
काँच का गुलदान
बच्चा कहाँ खेले?
खेल बिन बच्चा
बहुत निरुपाय
बहुत उदास है
खेल का होना
बिना बच्चा
नहीं कुछ ख़ास है
रुक गई है
बाढ़ इस दौरान
बच्चा कहाँ खेले?
सिर्फ़
पात झरे हैं सिर्फ़
जड़ों से मिट्टी नहीं झरी।
अभी न कहना ठूँठ
टहनियों की उंगली नम है।
हर बहार को
खींच-खींच कर
लाने का दम है।
रंग मरे है सिर्फ़
रंगों की हलचल नहीं मरी।
अभी लचीली डाल
डालियों में अँखुए उभरे
अभी सुकोमल छाल
छाल की गंधिल गोंद ढुरे।
अंग थिरे हैं सिर्फ़
रसों की धमनी नहीं थिरी।
ये नंगापन
सिर्फ़ समय का
कर्ज़ चुकाना है
फिर तो
वस्त्र नए सिलवाने
इत्र लगाना है।
भृंग फिरे हैं सिर्फ़
आँख मौसम की नहीं फिरी।
बैल मत ख़ुद को समझ
मुट्ठियाँ मत भींच
तनगू मुट्ठियाँ,
भूल जा सरपंच की धमकी
खड़ी बेपर्द गाली
खींच मांदर गा लगा ले ठुमकियाँ ।
बैल मत ख़ुद को समझ
हैं बैल के दो सींग भी ।
भौंकता वह
मारना मत श्वान वाली डींग भी ।
देखकर तुझको फ़कत
शरमा रही हैं बकरियाँ ।
साँवला यह मेघ-सा तन
स्वेद का सावन झरे ।
पर न कोई गड़गड़ाहट
गाज या बिजली गिरे ।
जबकि रखतीं आग हैं
मृत फास्फोरस हड्डियाँ ।
धान कब
किसने चुराया ?
जबकि तू पहरे पे था ?
चर गए
क्यों ढोर खेती ?
क्या नहीं अहरें पे था ?
तू खुरच कर सो बदन से
प्रश्न की ये चिप्पियाँ ।
एक अदद तितली
पंखों पर
जटगी के खेत लिए
एक अदद तितली इस शहर में दिखी
इसके पहले ये मन
गाँव-गाँव हो उठे
नदिया के तीर की
कदम्ब छाँव हो उठे
वक्ष पर
कुल्हाड़ों की चोट लिए
एक गाछ इमली इस शहर में दिखी
उठता है सूर्य यहाँ
ज्यों शटर दुकान में
गिरती है संध्या
रोकड़ बही मीजान में
नभ के चंगुल में
बंधक जैसी
चंदा की हँसली इस शहर में दिखी
उत्तेजित भीड़ पुलिस
गलियाँ ख़ूनी हुईं
जब तक समझे क्या है
सड़कें सूनी हुईं
और तभी
होठों पर तान लिए
एक नई पगली इस शहर में दिखी
विज्ञापन झोंक गए
हमको बाज़ार में
बंदी हैं पचरंगे रैपर में
जार में
यहीं से सुदूर
भरी लाई से
बाँस बनी सुपली इस शहर में दिखी ।
पिछला घर
होता है
अन्तत: विदा घर से
वह पिछला घर
शीतल आशीष भरा
एक कुआँ छोड़कर ।
चाह तो यही थी
वह जाए
पर उसका कोई हिस्सा
ठहरे कुछ दिन
चूने की परतों में
बाबा माँ बाप रहें
बच्चे लिखते रहें
ककहरे कुछ दिन ।
लेकिन वह समझ गया
वक्त की नज़ाकत को
सिमटा फिर
हाथ पाँव मोड़कर ।
चली कुछ दिनों तक
पिछले घर की
अगली यात्रा की
तैयारी पुरज़ोर
मलवा ओ माल
सब समेटा
कुछ बासी कैलेण्डर
कुछ फ्रेम काँच टूटे
सब कुछ लिया बटोर ।
एक मूर्ति का टुकड़ा
था जो भगवान कभी
जाता है
सब कृपा निचोड़ कर ।
कुएँ का तिलस्म
कौन समझे
पहले तो गरमी के
सूखे में
दिख जाता था तल
लेकिन अब रहता
आकण्ठ लबालब हरदम
छत पर चढ़ जाता है
घुमड़-घुमड़ गाता है
बनकर बादल
पितरों का जलतर्पण ।
क्या कोई विनियोजन
लौटा है ब्याज जोड़कर ।
दिन भर का मैनपाट
भोर
दूर खड़ी
बौनी घाटियों की
धुन्धवती मांग में
ढरक गया सिन्दूरी पानी
सालवनों की
खोई आकृतियां
उभर गई
दूब बनी चाँदी की खूंटी
छहलाए तरुओं में
चहकन की
एक एक और शाख फूटी।
पंखों के पृष्ठों पर
फिर लिक्खी जाएगी
सुगना के खोज की कहानी,
कानों के कोर
हो गए ठंडे
होठों ने
वाष्प सने अक्षर कह डाले।
छानी पर
कांस के कटोरों में
आज पड़ गए होंगे पाले।
गंधों की पाती से
हीन पवन
राम राम कह गया जुबानी,
॥ ॥ ॥
दोपहर
वन फूलों की
कच्ची क्वांरी खुशबू
ललछौहें पत्तों का प्यार लो,
जंगल का इतना सत्कार लो,
कुंजों में इठलाकर,
लतरों में झूलकर
जी लो
विषवन्त महानगरों को
भूलकर
बाहों में भर लो ये सांवले तने,
पांवों में दूब का दुलार लो,
घुटनों बैठे पत्थर
डालियां प्रणाम सी,
दिगविजयी अहमों पर
व्यंग्य सी विराम सी
झुक झुक स्वीकारो यह गूंजता विनय
चिड़ियों का मंगल आभार लो।
झरने के पानी में
दोनों पग डालकर
कोलाहल
धूल धुआं त्रासदी
खंगाल कर
देखों लहरों की कत्थक मुद्राएं
अंजुरी में फेनिल उपहार लो।
पगडन्डी ने पी है
पैरी की वारुणी,
कोयल ने
आमों की कैरी की वारुणी।
तुम पर भी गहराया दर्द का नशा
हिरनी की आंख का उतार लो,
॥ ॥ ॥
सन्ध्या
धूप के स्वेटर
पहनते हैं पहाड़
धुन्ध डूबी घाटियों में
क्या मिलेगा?
कांपता वन
धार सी पैनी हवाएं
सीत में भीगी हुर्इं
नंगी शिलाएं
कोढ़ से गलते हुए
पत्ते हिमादित
अब अकिंचन डालियों में
क्या मिलेगा?
बादलों के पार तक
गरदन उठाए
हर शिखर है
सूर्य की धूनी रमाए।
ओढ़ कर गुदड़ी हरी
खांसे तराई
धौंकनी सी छातियों में
क्या मिलेगा?
कांपता बछड़ा खड़ा
ठिठुरे हुए थन,
बूंद कब ओला बने
सिहरे कमल वन
हो सके तो
उंगलियां अरिणी बनाओ
ओस भीगी तीलियों में
क्या मिलेगा?
॥ ॥ ॥
रात
ढरक गया नेह
नील ढालों पर
शिखरों की पीर व्योम पंखिनी
पावों में
टूटता रहा सूरज
कांधे चुभती रही मयंकिनी,
भृंग, सिंह,
आंख पांख की बातें
कुतुहल कुछ स्नेह
कुछ संकोच भी,
पीड़ों पर
रीछ पांज के निशान
मन में कुछ
याद के खरोंच भी
विजनीली हवा
कण्व-कन्या सी
पातों पर प्रेमाक्षर अंकिनी,
थन भरे
बथान से अलग बंधे
बछड़ा
खुल जाने की शंका,
ग्वालिन की बेटी
की पीर नई
नैन उनींदे उमर प्रियंका
कड़ुए तेल का
दिया लेकर
गोशाला झांकती सशंकिनी।