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Ankit-kavyansh-

ओ मन्दिर के शंख, घण्टियों / अंकित काव्यांश

ओ मन्दिर के शंख, घण्टियों तुम तो बहुत पास रहते हो,
सच बतलाना क्या पत्थर का ही केवल ईश्वर रहता है?

मुझे मिली अधिकांश
प्रार्थनाएँ चीखों सँग सीढ़ी पर ही।
अनगिन बार
थूकती थीं वे हम सबकी इस पीढ़ी पर ही।

ओ मन्दिर के पावन दीपक तुम तो बहुत ताप सहते हो,
पता लगाना क्या वह ईश्वर भी इतनी मुश्किल सहता है?

भजन उपेक्षित
हो भी जाएं फिर भी रोज सुने जाएंगे।
लेकिन चीखें
सुनने वाला ध्यान कहाँ से हम लाएंगे?

ओ मन्दिर के सुमन सुना है ईश्वर को पत्थर कहते हो!
लेकिन मेरा मन जाने क्यों दुनिया को पत्थर कहता है?

अभिलाषाओं के दिवास्वप्न

अभिलाषाओं के
दिवास्वप्न पलकों पर बोझ हुए जाते
फिर भी जीवन के चौसर पर साँसों की बाज़ी जारी है।

हारा जीता
जीता हारा मन सम्मोहन का अनुयायी।
हालाँकि लगा
यह बार बार सब कुछ पानी में परछाई।

हर व्यक्ति
डूबता जाता है परछाई को छूते छूते
फिर भी काया नौका हमने भँवरों के बीच उतारी है।

जो कुछ
लिख गया कुंडली में वह टाले कभी नहीं टलता।
जलता है
अहंकार सबका सोने का नगर नहीं जलता।

हम रोज
जीतते हैं कलिंग हम रोज बुद्ध हो जाते हैं
फिर भी इच्छाओं की गठरी अन्तर्ध्वनियों पर भारी है।

मन की मनमानी में

तन नौका में
सवार मन की मनमानी में।
स्वप्न हो गये नाविक जीवन के पानी में।

मन कभी
सुझाता है डूब जाऐं भँवरों में
कहता है गहराई में मोती पाना है।

या कभी
सुझाता है पार चलें जल्दी से
रेत के धरातल पर रेत को बिछाना है।

रेतीले तट पर
जो मोती लुटवाता है,
ऐसा क्या होगा उस सीप की कहानी में?

दुखवाही
धारा में सुखवाही कछुए से
पानी के पार मिलो बस इतना कहते हैं।

अक्सर यह
देखा है बेकाबू लहरों में
बड़े बड़े नाविक भी कितना कुछ सहते हैं!

काल-मछेरा आएगा किसी बहाने से
टूटी पतवार लिए जाएगा निशानी में।

सब पतंगे उड़ गए

दीप
बेचारा बुझा क्या
सब पतंगे उड़ गए।

अब अँधेरे के
नगर में बातियों की अस्थियाँ
ताकती हैं जल-कलश को निज विसर्जन के लिए।
स्नेह सारा
चुक गया था मूर्तियों के सामने
प्रार्थना में तन हवन है अब समर्पण के लिए।

ज्यों
उठा हल्का धुंआ क्या!
लोग घर को मुड़ गए।

एक कोरी
पुस्तिका में पृष्ठ मिट्टी के टँके
दे गया जीवन-नियंता साँस के बाज़ार में।
जिस किसी की
उम्र दुःख की बारिशों में ही ढ़ले
वह बताओ क्या भला लिख पाएगा संसार में!

अश्रु-स्याही
से लिखा क्या!
पृष्ठ सब तुड़-मुड़ गए।

दीप हो या
व्यक्ति हो अभिव्यक्ति हो रौशन सदा
हर प्रकाशित पुंज का बुझना नियत है सृष्टि में।
स्वार्थों की
आँधियों में लौ भले मद्धिम पड़े
किन्तु जलकर पथ सजाना है सभी की दृष्टि में।

दृष्टि में
दर्शन मिला क्या!
पंथ सारे जुड़ गए।

द्वंद में रोया हुआ पंछी

डालियों के
द्वंद में रोया हुआ पंछी,
कोपलों के आगमन पर क्रुद्ध होता है।

एक दिन था जब
यही जंगल उसे अच्छा लगा था,
एक दिन था जब यहाँ हर पल उसे अच्छा लगा था।

एक दिन था जब
उड़ानों का यही आधार था बस,
तब हमेशा पंख पर बादल उसे अच्छा लगा था।

बरगदों की
छाँह को ढोया हुआ पंछी,
बादलों के स्याह तन पर क्रुद्ध होता है।

राम जाने
किस दिशा से आ गयीं कैसी हवाएँ?
स्वर्ण मृग की ओर झुकती ही गयीं सारी लताएँ।

थक गया है
कंठ में प्रतिरोध भर-भरकर यहाँ वह,
बहुत संभव है कि अब वह तोड़ दे सारी प्रथाएँ।

चीखने में
स्वर सभी खोया हुआ पंछी,
कोयलों के हर वचन पर क्रुद्ध होता है।

प्रतिरोधी सबका स्वर होगा

प्रतिरोधी
सबका स्वर होगा।
सोचो कैसा मंज़र होगा!

बहता नीर
नदी का हूँ मैं तटबन्धों के संग क्यों बहूँ?
सृष्टि नियामक एक तत्व हूँ मुझमें हलचल है मैं जल हूँ।
मेरी गति ही
जीवन गति है फिर भी इस गति पर पहरा है!
नदियों! ध्वस्त करो सारे तट यह मंतव्य अभी उभरा है।

आप सभी तो
समझदार हैं क्या यह उचित फ़ैसला होगा?
अनुशासन के बिना धरा पर नदियाँ नहीं ज़लज़ला होगा।
सबकी
आँखों में डर होगा।
सोचो कैसा मंज़र होगा!

मुझसे ऊँचा
कौन विश्व में मैं ऊँचाई का मानक हूँ।
मैं ही चंदा की शीतलता मैं ही सूरज का आतप हूँ।
मुझको अपने
विराट तन पर पंछी दल अनुचित लगते हैं।
आओ सूरज का अग्नि-अंश चिड़ियों के ऊपर रखते हैं।

आकाश अगर
इस ज़िद पर है फिर किसका क्या उड़ान भरना!
अब तो पेड़ों मुंडेरों पर कोयल का आहत स्वर सुनना।
ख़तरा हर
पंछी पर होगा।
सोचो कैसा मंज़र होगा!

कितने वचन लौट जाएँगे 

होंठों तक आ
आकर जाने कितने वचन लौट जाएँगे!

कितना मुश्किल
दुविधाओं के पहरे से बचकर आ पाना,
कितना मुश्किल
मजबूरी की देहरी लाँघ निकल कर आना।

कितना मुश्किल
हँसते रहने का वादा कर रोते रहना,
कितना मुश्किल
दो पाँवों पर इक भारी मन ढोते रहना।

इतनी
मुश्किल सहकर जाने कितने चरण लौट जाएँगे!

मन माटी
जैसा ही रखना कोई चाहे कुछ भी बो ले।
इतनी आँच
न देना मौला मन माटी से पत्थर हो ले।

जिस मंदिर
का देव स्वयं ही शापित जीवन जीता होगा।
वहाँ याचनाओं
का हर घट या खण्डित या रीता होगा।

वहाँ तिरस्कृत
होकर जाने कितने भजन लौट जाएँगे!

तुम हमारे द्वार पर

तुम हमारे द्वार पर दीवा जलाना चाहते हो,
बात अच्छी है, मगर
उस दीप की बाती हमारे रक्त से ही क्यों सनी है!

कहीं ऐसा तो
नहीं पहले अँधेरा भेजते हो,
फिर सितारों की दलाली कर उजाला बेचते हो।

क़ैद-ख़ाने में
पड़ा सूरज रिहाई माँगता हो,
या सकल आकाश आँगन में तुम्हारे नाचता हो।

कहीं ऐसा तो नही तुम स्वर्ग पाना चाहते हो,
बात अच्छी है, मगर
उस स्वर्ग की सीढ़ी हमारी अस्थियों से क्यों बनी है!

क्या पता हम
रात भर उत्सव मनाने में जगें फिर,
ठीक अगली भोर अपनी नींद पाने में जगें फिर।

छाँव का व्यापार
होने लग गया तो क्या करेंगे,
और कब तक हम उनींदे नयन में आँसू भरेंगे।

तुम मुनादी पीटकर हमको जगाना चाहते हो,
बात अच्छी है, मगर
अब उस नगाड़े पर हमारी खाल मढ़कर क्यों तनी है!

जन्म क्या है 

जन्म क्या है! बस
नदी का बर्फ़ में रूपांतरण,
और जीवन आयु की तपती शिलाओं का वरण।

कुछ उजाले
ज़िन्दगी में इंद्रधनुषी रंग लाते,
कुछ अंधेरे सिसकती रोती निगाहों में समाते,

संतुलन के लिए
ही मन की तुला पर बोझ सहते,
यह समय की जय-पराजय है जिसे कुछ लोग कहते
भाग्य या दुर्भाग्य का प्रारम्भ या अंतिम चरण।
जन्म क्या है! बस नदी का बर्फ़ में रूपांतरण।

फिर वही
जंगल मिला है किन्तु पथ फिर ढूँढना है।
इस जनम भी पार जाने की तड़प में भटकना है।

अनुभवी पँछी
बताता यह कि जंगल तैरता है
कामना के द्वीप से जीवन पिघलकर निकलता है।
कुल मिलाकर बर्फ़ का फिर से नदी होना मरण।
जन्म क्या है! बस नदी का बर्फ़ रूपांतरण।

दिखा नही मेले में मुझको

ऐसा कुछ भी
दिखा नही मेले में मुझको
बहुत समय तक जिसके पास ठहर जाऊँ मैं।

रंग बिरंगे दृश्य चतुर्दिक् पाँव पसारे
मुझको बाँहों में भर लेने को इच्छुक थे।
मूल्य गिरा सकने की कला अगर होती तो
सुविधाओं के ठाटबाट मेरे सम्मुख थे।

तोल-मोल में
माहिर व्यापारी थे सारे
सोचा ख़ाली हाथ लिए ही घर जाऊँ मैं।

रामकथा का मंचन करती हुई मण्डली
दूर गोलबंदी करने में जुटा मदारी।
मुझे आगमन से लेकर प्रस्थान बिंदु तक
या तो अभिनय दिखा, दिखी या फिर लाचारी।

करतब जादू
खेल-तमाशा देख लिया सब
खड़ा भीड़ में उलझन लिए, किधर जाऊँ मैं!

जाते जाते सोचा चलो पूछ लेता हूँ
शायद कोई हो जो उससे मिलकर आया।
चकाचौंध में डूबा हुआ एक भी मानुष
अक्षय आकर्षण का पता नहीं दे पाया।

अपनी पूँजी
भर का झूल चुका हूँ झूला
ऊब गया हूँ, मन कर रहा उतर जाऊँ मैं।

ढह गया दिन

ढल गई फिर शाम देखो ढह गया दिन

भूल जाती है सुबह,
सुबह निकलकर
और दिन दिनभर पिघलता याद में।
चान्दनी का महल
हिलता दीखता है
चांद रोता इस क़दर बुनियाद में।

कल मिलेंगे आज खोकर कह गया दिन।
ढल गई फिर शाम देखो ढह गया दिन।

रोज़ अनगिन स्वप्न,
अनगिन रास्तों पर,
कौन किसका कौन किसका क्या पता?
हाँ, मगर दिन के लिए,
दिन के सहारे,
रात दिन होते दिखे हैं लापता।

एक मंज़िल की तरह ही रह गया दिन।
ढल गई फिर शाम देखो ढह गया दिन।

दूर वह जो रेत का तट
है खिसकता
देखना मिल जाएगा एक दिन नदी में।
नाव मिट्टी की लिए
इतरा रहे जो
दर्ज होना चाहते हैं सब सदी में।

किन्तु घुलना एक दिन कह बह गया दिन।
ढल गई फिर शाम देखो ढह गया दिन।

समझदार होने में खोया

समझदार होने में खोया हमने भावुक मन

हँसता आँगन देख सँवरती नटखट चौखट
पुरखों की चौपालें जुमले और कहानी।
उलझन सुलझाने में माहिर दादी वाले
किस्सों में ही राह सुझाते राजा रानी।

लौट गए सब वापस अपने कथा लोक में
जाने क्या कुछ और ले गया अँधा पागलपन
समझदार होने में खोया हमने भावुक मन।

बिम्ब बनाना भूल गए अब नील गगन पर
सपनों की किरचन रह रह कर चुभती रहती।
अनचाहे संघर्षो तक थककर आ सिमटी
साँसों की लय काल-ताल को सहती सहती।

एक हिरन तो दूजे को बतला सकता था
कस्तूरी तेरे भीतर मत घूम अनेकों वन।
समझदार होने में खोया हमने भावुक मन।

मन-नगर में है दिवाली

जगमगायी
स्वप्न कुटिया, मन-नगर में है दिवाली।
आज तुमने ज्योत्स्ना बन, भर दिया मुझमे उजाला।

गोद भर
मिट्टी ज़माने की धधक में
कई सालों तक तपी तब दीप जन्मा।

देख तुमको
यूं लगा बाती मिली फिर
कुलबुलाईं कामनाएं अग्निधर्मा।

ज्यों किसी मृग ने
हमेशा से सुपरिचित गन्ध पाली
उस तरह मैंने तुम्हारा रूप यादों में संभाला।
आज तुमने ज्योत्स्ना बन भर दिया मुझमें उजाला।

देह-वन में
इक अपूरित प्यास फिरती
सोचती वनवास का कब हो समापन।

आज तक
लांघी न कोई लखन-रेखा
इसलिए कि हो न जाए कम समर्पण।

आसुँओं के पार
झिलमिल दृश्य में तुम ने जगह ली
आज से मैं देहरी हूँ और तुम हो दीपमाला
आज तुमने ज्योत्स्ना बन भर दिया मुझमें उजाला।

तुम्हारे बिना टूटकर

जी रहा हूँ तुम्हारे बिना टूटकर,
क्या मिला है तुम्हें इस तरह रूठकर।

जब अहं के शिखर से उतरना न था,
सिंधु की कामना क्यों जगाती रहीं।
था मिटाना तुम्हे एक दिन फिर कहो,
प्यार की अल्पना क्यों सजाती रहीं?

नेह के पनघटों पर प्रफुल्लित दिखी
आज गागर वही रो रही फूटकर।

मैं मिलन की हठी प्यास के साथ में,
कर रहा था तुम्हारी प्रतीक्षा वहाँ।
एक सम्भावना भाग्य से थी लड़ी,
थी तुम्हारी समर्पण परीक्षा वहाँ।

छोड़कर घर नही आ सकीं तुम मगर
जा चुकी थी सभी गाड़ियाँ छूटकर।

रेत का तन भिगोए लहर लाख पर,
सूखना ही उसे अंततः धूप में।
जो हुआ सो हुआ अब किसे क्या कहूँ,
खुश रहो तुम हमेशा किसी रूप में।

मान लूँगा समय का लुटेरा कहीं
जा चुका है मुझे पूर्णतः लूटकर।

आज अंतिम बार

आज अंतिम बार तेरे द्वार पर आना पड़ा।

छीन ली जातीं उड़ानें मन परिंदों की यहाँ
नाप लें इच्छित गगन यह भाग्य में उनके कहाँ
इस हठी संसार में अपना मिलन सम्भव न था

त्याग कर संसार तेरे द्वार पर आना पड़ा।

आँख में सपने संभाले कामना रोती रही
सिर्फ तन मन का हवन सी जिन्दगी होती रही
मुझको मेरी मुक्ति का अधिकार देना है तुम्हे

मांगने अधिकार तेरे द्वार पर आना पड़ा।

छोड़ आया हूँ किनारे पर धुंआ उठते हुए
घाट पर मजबूरियों में लोग कुछ जुटते हुए
एक तेरा प्यार ही था पंचतत्वों से बड़ा

सौंपने वह प्यार तेरे द्वार पर आना पड़ा।

लो विदा दे दी तुम्हे 

लो विदा दे दी तुम्हें इस जन्म में,
किन्तु अगले जन्म का वादा करो
तोड़कर बन्धन सभी सँग सँग रहोगी।

सुमन अर्पण, आचमन या मन्त्र में
है सभी में मन मगर खुलकर नहीं।
अब न रखना व्रत मुझे मत माँगना
यत्न कोई भाग्य से बढ़कर नहीं।

छोड़ दो करनी प्रतीक्षा द्वार पर
देहरी का दीप आँगन में धरो
और कब तक लांछनों को यूँ सहोगी।

मान्यताएँ हैं जमाने की कठिन
किन्तु अपना प्यार है सच्चा सरल।
परिजनों की बात रखनी है तुम्हें
इसलिए मैं हारता हूँ “आज, कल”।

मान लोगी बात सबकी ठीक पर
सात जन्मों के लिए होंगे वचन
सोंचता हूँ हाय तब तुम क्या कहोगी।

तुम्हारी याद छाँव है

छोड़कर चले गए कभी कभी सभी
रूठती हुईं लगीं दिशाएं जब कभी
यूं लगा कि मन दुःखों का धूप गाँव है
किन्तु गाँव में तुम्हारी याद छाँव है।

प्यार की मरुस्थलीय भूमि के लिए
त्याग आयीं तुम सुखों की लाडली नदी।
तुम मिली तो लग रहा हुआ कुछ इस तरह
रुक गयी हो एक पल के वास्ते सदी।

तुम कहो तो एक बात आज मैं कहूँ।
फ़र्क़ ही नही कि डूब जाऊं या रहूँ।
अब तुम्हारा साथ ही नदी है नाव है।

नीम से नियम समाज के न मानकर
हाथ थाम संग चल पड़ीं जहाँ कहा।
जो तुम्हारे भाग्य में लिखे नही गए
उन दुःखों को भी ख़ुशी ख़ुशी सदा सहा।

आस पास प्यास का नगर बसा लिया
फिर तुम्हे नगर का राजपाठ दे दिया
जिंदगी का आख़िरी यही तो दाँव है।

हमने हारे दिये चुन लिए

हमने हारे दिये चुन लिए
अंधियारे के संग युद्ध में ।

दंभ सहन करना मुश्किल था
जीते हुये दियों का मौला।
हमने आसानी से पहले
अपनी कठिनाई को तौला।

हम उस अंतर में दीखेंगे
जो अंतर पागल प्रबुद्ध में
हमने हारे दिये चुन लिए
अँधियारे के संग युद्ध में।

दोहरा चेहरा दिखा न पाये
इतिहासों में नाम न होगा।
हमें शिखण्डी कहे न दुनिया
अतः पराजय को ही भोगा।

हम उस अंतर में दीखेंगे
जो अंतर कबिरा व बुद्ध में
हमने हारे दिये चुन लिए
अँधियारे के संग युद्ध में।

दुनिया भर के अंधियारे को

दुनिया भर के अंधियारे को शब्द ज्योति से दूर भगाना
साथी मेरे अपने गीतों से जन जन का मन बहलाना।

गीत न लिखना केवल नदिया की बलखाती लहरों पर तुम
पल पल मिटते जाते तटबंधों की भी तुम गाथा लिखना।
हरियाती लहराती फसलों की केवल खुशबू मत लिखना
पगडंडी पर आस लिए बैठे किसान का माथा लिखना।

हार गया मैं जिन मोड़ों पर उन मोड़ों पर आना जाना।
साथी मेरे अपने गीतों से जन जन का मन बहलाना।

बहुत मिलेंगे यार तुम्हे दुनियादारी सिखलाने वाले
लेकिन आंसू देख किसी के अपनी भी आँखे नम करना।
इच्छित मंजिल पा लेने की ज़िद में ध्यान रहे यह प्यारे
भाग्य बड़ा होता जीवन में अनुचित पथ पर पाँव न धरना।

स्वाभिमान की क़ीमत पर जो मिले उसे फ़ौरन ठुकराना।

पतझर को नियुक्त कर बैठे

पतझर को नियुक्त कर बैठे हम बसन्त की रखवाली में
आओ पत्तों की ढेरी में आग लगाकर हाथ सेंक लें।

घूम रहे हैं पूंछ उठाये घूरे घूरे कुत्ते कुतिया
कूँ कूँ करते पीछे पीछे दौड़ लगाते पिल्ले पिलिया।
उबकाई सी छिपी हुई है सूरज की बेबस लाली में
आओ पत्तों की ढेरी में आग लगाकर हाथ सेंक लें।

लोटा भर पानी सूरज पर चढ़ा चढ़ाकर हार गए हैं।
अबके बार सुना है चन्दा जुटा जुटा हरिद्वार गए हैं।
गंगाजल भरकर लाएंगे शायद वो फूटी थाली में।
आओ पत्तों की ढेरी में आग लगाकर हाथ सेंक लें।

अगर कनस्तर खाली हैं तो गन्दी थाली नही मिलेगी।
बकरी गाय शुअर संभालू तो हरियाली नही मिलेगी।
लो फिर से नवजात मिली है सुबह सुबह गन्दी नाली में
आओ पत्तों की ढेरी में आग लगाकर हाथ सेंक लें।

गीत अपने प्यार का मैं

गीत अपने प्यार का मैं गाऊँ जिनमें झूमकर
वे सभी स्वर और व्यंजन वर्णमाला में नहीं।

भीग जाना जब कभी बरसात में तुम
मान लेना गीत का मुखड़ा गया बन।
बारिशें जैसे उतरती हैं जमीं तक
प्यार में वैसे उतरता बावला मन।

जो अलौकिक बात इस बरसात में मिल जाएगी
वो किसी भी चर्च मस्जिद या शिवाला में नहीं।

देखना नदिया किनारे बैठकर तुम
तोड़ती तट बन्ध कुछ लहरें मिलेंगी।
मान लेना गीत के ये अंतरे हैं
औ मचलती धार में बहरें मिलेंगी।

जो सिखाये प्यार का अध्याय नदिया की तरह
शिक्षिका ऐसी किसी भी पाठशाला में नहीं।

आभार देना याद रखता हूँ

गीत सुन
उपलब्धियां जब भी बुलातीं हैं
मैं तुम्हे आभार देना याद रखता हूँ।

साथ मेरे
गुनगुनाता है सफ़र का शोर हर पल
मील का पत्थर किनारे पर चिढ़ाता फिर गुज़रता।

पाँव अनियंत्रित
भटकते हैं अपरिचित पन्थ पर जब
तब अधूरा गीत अपनी पूर्णता को प्राप्त करता।

और मन की
बाँसुरी जब स्वर सजाती है
होंठ पर तुमसे हुए संवाद रखता हूँ।

काश हम दोनों
नदी होते तटों को ध्वस्त करते
प्यार की अदृश्य धारा ढूंढते सब तब मिलन में।

मांगते सब
मुक्ति आकर घाट पर मेरे तुम्हारे
और हम उन्मुक्त हो फिरते सदा जीवन गगन में।

जब पसंदीदा
शहर की बात आती है
सामने सबके इलाहाबाद रखता हूँ।

कितनी बार नदी के तट तक

जाने कितनी बार
नदी के तट तक मेरा घट पहुंचेगा
एक बार में भर जाना शायद नसीब में लिखा नहीं।

छोटे मोटे ताल तलैय्या
क्या जाने क्या थाह प्यास की।
कृष्णपक्ष मय जीवन जानेगा केवल महिमा उजास की।

अनगिन गीत
पढ़े हैं मैंने नचिकेता के प्रश्नों जैसे
लेकिन उनका उत्तर मुझको कालपृष्ठ पर दिखा नहीं।

माना सब कुछ
नदी बहाकर सागर तट तक ले जाती है।
किन्तु, कहाँ, कब, कैसे, क्यों की अग्नि नहीं बुझने पाती है।

परछाई को उजला
करना चाह रहा है दीपक लेकिन
दीपक के नीचे उजियारा करने वाली शिखा नहीं।

भावना के हिमशिखर से

भावना के हिमशिखर से गीत की यमुना
निवेदन कर रही है
मुझे गाओ मुझे गाओ मुझे गाओ
मगर मन अनमना है।

कई वर्षो तक सँजोई उस अभागी
चांदनी पर दोपहर का आवरण है।
हो गयी जाने कहाँ किसकी उपेक्षा
लक्ष्मण सा मूर्छित अंतःकरण है।

द्रोण पर्वत सा हृदय हो यदि तुम्हारा
फिर
तुम्ही संजीवनी बन
चले आओ चले आओ चले आओ
अधूरी चेतना है।

तुम लगाकर छोड़ आईं, आज भी उस
पावनी को अश्रुओं से सींचता हूँ।
कह दिया है दल इसी का होंठ पर हो
जिस समय भी लोचनों को मीचता हूँ।

लौटना तुमको नही है इसलिए ही
देह घाटी में सदा अब
नहीं जाओ नहीं जाओ नहीं जाओ
यही स्वर गूँजना है।

और कब तक मैं तुम्हे गाता रहूंगा
अब स्वयं ही तुम सम्भालो व्यंजनाएं।
तुम नया उपमान गढ़ दो प्रेम का अब
तोड़कर अलकापुरी की वर्जनाएं।

मेघदूतों की प्रथा भी अब नही है
इसलिए तुम मान जाओ
नहीं जाओ चले आओ मुझे गाओ
यही अभ्यर्थना है।

बौने पेड़ों के सब पत्ते 

बौने पेड़ों के सब पत्ते चबा गयी बकरी।

माली भी ऊँचे पेड़ों को सींच रहा है
अपनी कमजोरी पर कुढ़ता बौना पौधा।
हरियाली बिन उसको सामाजिक छवि के हित
गन्दे नालों से भी करना पड़ता सौदा।

तना खीजकर रहा सुनाता सबको खरी खरी।
बौने पेड़ों के सब पत्ते चबा गयी बकरी।

न्याय बंधा है दौलतमंदों के खूंटो पर
खूंटे देकर पछताती हैं बेबस शाख़ें।
नंगे पाँव नही आएगा कोई मिलने
राह ताक कर थकी हुई हैं बूढी आँखें।

जूठे बेर फेंककर जंगल में बैठी शबरी।
बौने पेड़ों के सब पत्ते चबा गयी बकरी।

अपना उल्लू सीधा करके निकले सारे
आश्वासन की छाँव तले अंकुर फूटेगा।
नयी कोपलें उग आएँगी फिर पेड़ों पर
लोगों का विश्वास एक दिन फिर टूटेगा।

चौपट शासन पर ख़ुश होती है अंधी नगरी।
बौने पेड़ों के सब पत्ते चबा गयी बकरी।

बहुप्रतीक्षित झूठ पर सब मुग्ध हैं

बादलों ने ढँक लिया आकाश है बहुप्रतीक्षित झूठ पर सब मुग्ध हैं।

मालकिन ने कल जरा सी बात पर
पीट डाला एक नौकर को कहीं।
योजना फ़ौरन बनी उस रात में
चोर बन कर घुस गया नौकर वही।

आज उसके गाँव में उल्लास है, रात की उस लूट पर सब मुग्ध हैं।

उल्लुओं के न्याय में दिन था नहीं
रात वाली बात को धोखा कहा।
चोर नौकर, मालकिन या न्याय था
अब बताओ कौन दोषी था वहाँ।

मामला अब ज्योतिषी के पास है, ग्रहों में इस फूट पर सब मुग्ध हैं।

क्या ग्रहों की चाल होगी क्या पता
एक तांत्रिक खोज नौकर ने लिया।
बाँध कर ताबीज है संतुष्ट वो
मुस्कुरातीं हैं इधर अब रूढ़ियाँ।

हर जगह प्रतिशोध का इतिहास है,भावना के ठूँठ पर सब मुग्ध हैं।

पुनर्जन्म मांगे है

एक अरसे से कोई गीत दफ़न है मन में
सूनी गलियां दिखें तो पुनर्जन्म मांगे है।

लाख बहाने हैं मेरे पास उसे कहने को।
कई यादें हैं उसके पास मौन रहने को।
बहरी दुनिया में गूंजने के भला क्या माने!
जिनकी मुट्ठी में नमक है वो जलन क्या जानें।

बन्द आँखों में एक चाँद लिए सोऊँ तो
रात फिर रात भर दिनों का भरम जागे है।

मुझसे पहले भी कितने गीतऋषि रोये हैं।
सबने आधी उमर के मायने भिगोये हैं।
लौट आये उन्ही के गीत उनके कानों में।
ओढ़ा सन्यास है थक हार के वीरानों में।

भूल जाओ कभी वापस न आ सकूंगा मैं
अब तो हर छाँह मुझे बोधिवृक्ष लागे है।

सुमन की मन-व्यथा क्या है

ओ बगीचे!
पूछ कर लिख भेजना मुझको कभी तुम
कंटकों वाले सुमन की मन-व्यथा क्या है?

बिम्ब आभासी
दिखाना चाहता हर एक दर्पण।
एक स्वर
मतभिन्नता का एक करता है समर्पण।

युद्ध का
आरम्भ हो या आरती का हो समापन
शंख की ध्वनि में निमन्त्रण की प्रथा क्या है?

हर कहानी में
नियति का जाल कुछ ऐसा बुना है।
जो महामानव
हुआ उसने सदा दुःख ही चुना है।

एक टूटन
जोड़ती भी है असंभव सा लगे पर
रामेश्वरम के सेतु की पावन कथा क्या है?

मैं तुम्हे आवाज दे दे कर

लौट आया हूँ तुम्हारे द्वार से प्रियतम, थक गया था मैं तुम्हे आवाज़ दे दे कर।

मोड़ पर वादा तुम्हारा आँख में आँसू लिए
लौट जाने की विनय करता हुआ व्याकुल मिला।
तब तुम्हारे मौन का रूमाल उसको सौंपकर
कह दिया अब फायदा क्या! क्या शिकायत! क्या गिला!

रह गया मेरा समर्पण ही कहीं कुछ कम, इसलिए ख़ामोश था शायद तुम्हारा घर।

एक बिन्नी टूटकर जो थी बनी वरदायिनी
आज मुझसे कह रही तुमने मुझे माँगा न था।
बाँध आयीं डोर कच्ची बरगदों ने यह कहा
मावसों पर जो बंधा वह प्यार का धागा न था।

कुल मिलाकर दांव पर हैं आज मेरे भ्रम, हार जाओगी बहुत कुछ जीतकर चौसर।

स्वप्न में भी मांग लो वह भी मिले तुमको सदा
प्रार्थना में मांग बैठा था कभी भगवान से।
आज मेरी प्रार्थना का फल तुम्हें मिल जाएगा
मुक्त कर दूंगा स्वयं को प्यार के अहसान से।

अब सतायेंगे मुझे बस याद के मौसम, और गीतों में तुम्हारे नाम के अक्षर।

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