प्रीत नैना चोरा के राखल बा (ग़ज़ल)
सगरो ऐना चोरा के राखल बा।
सच के गहना चोरा के राखल बा।
ऊ कसम खाके झूठ बोलै ले
प्रीत नैना चोरा के राखल बा।
तबले धनवान बा सभे केहू
जबले सपना चोरा के राखल बा।
बंट गइल खेत, दुआरे बखरा
केकर अंगना चोरा के राखल बा।
बात तू मान ल दुलरला पर
वरना पैना चोरा के राखल बा।
बैरी दुनिया में फकत तोहरा बदे
दिल खेलौना चोरा के राखल बा।
केतनो पोस तू प्राण पाखी ह
ओकर डैना चोरा के राखल बा।
सब पिपिहरी प दीवाना ‘अभिज्ञात’
अउर मैना चोरा के राखल बा।
राख की तरह
(भाऊ समर्थ की स्मृति में)
राख की तरह
अन्तिम सिगरेट खलास करो
उन्होंने कहा
और वे खूब हँसे
एक निश्छल हँसी
जो दीवार में सेंध लगा सकती थी
उस दिन जबकि श्रद्धा पराते
पढ़ रही थीं उनके अतीत के मधु-क्षण
वह अन्तिम सिगरेट
मैंने जी
मेरे होंठ, मेरी उँगलियां, मेरे फेफड़े
भर गए एक साथ सिगरेट और
हँसी से ।
उनके हाथ सहसा मेरे हाथ में थे
मिलना चाहते होंगे हाथ
उस सिगरेट से
जो उनके खलास होने के बाद
बची रहनी है कुछ दिन और
मैं उस खलास की हुई अन्तिम सिगरेट के एवज में
कहीं भीतर सुलग रहा हूँ
उनके अदृश्य हाथों में
दबा हुआ उनकी निश्छल हँसी वाले होठों से
धीरे-धीरे
मेरी आत्मा झड़ रही है
राख की तरह ।
सपने
(देवदास के बहाने उसके रचनाकार शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय को याद करते हुए)
मेरे पास कुछ नहीं था क्योंकि मेरे पास
केवल सपने थे
उनके पास कुछ नहीं था
क्योंकि उनके पास सब कुछ था
बस सपने नहीं थे
वे मेरे सपने खरीदना चाहते थे
मैं उन्हें दे आया मुफ़्त
जो मेरी कुल संपदा थी
अब उनकी बारी थी
उन्हें सब कुछ लुटाना पड़ सकता था मेरे सपनों पर
और इतना ही नहीं
होना पड़ सकता है उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी कर्ज़दार
वे अगर सचमुच डूबना चाहते हैं मेरे सपनों की थाह लेने ।
हूक
एक हूक
गाँव से काम की तलाश में आए
भाई को टालकर विदा करते उठती है परदेस में
एक हूक
जो बूढ़े पिता की
ज़िम्मेदारियों से आँख चुराते हुए उठती है
माँ की बीमारी की सोच
उठती है रह-रह
बहन की शादी में
छुट्टी नहीं मिलने का बहाना कर
नहीं पहुँचने पर
मैं उस हूक को
कलेजे से निकाल
बेतहाशा चूमना चाहता हूँ
मैं प्रणाम करना चाहता हूँ
कि उसने ही मुझे ज़िन्दा रखा है
मैं चाहता हूँ कि वह ज़िन्दा रहे
मेरी आख़िरी साँस के बाद भी
मैं आँख के कोरों में
बेहद सम्भाल कर रखना चाहता हूँ
कि वह चुए नहीं
हूक ज़रूरी है
सेहत के लिए
हूक है कि
भरोसा है अभी भी अपने होने पर
हूक एक गर्म अंवाती बोरसी है
सम्बन्धों की शीतलहरी में।
निहितार्थ के लिए
मैंने सम्पादक से कहा
यह कविता नहीं आंदोलन है
जवाब मिला – इसे किसी संगठन के हवाले कर दो
उसे इसकी ज़्यादा ज़रूरत होगी
क़िताबों के ताबूत में दफ़न नहीं होनी चाहिए क्रांतियाँ
उसे चाहिए आम जनता की शिरकत
मैंने संगठनों से कहा
यह लो भई
यह आंदोलन नहीं आग है
दहकते हुए अंगारे
चिंगारी से बढ़कर
तब तक संगठन एन०जी०ओ० की शक्ल ले चुके थे
ख़ैर तो यह हुई कि उन्होंने मुझे भठियारों के पास भेज दिया
कहा – वहीं है आग का असली कद्रदान
वह कर पाएगा आँच व तपिश का
एकदम सही इस्तेमाल
मैंने वैसा ही किया
भठियारे से कहा-
यह आग नहीं कोयला भी है
बल्कि तुम्हारे लिए तो कोयला ही
जब-जब चाहोगे इसकी मदद से
लाल दहकते अंगार से भर उठेगी तुम्हारी भट्ठी
इसका कोयला कायम रहेगा जलने के बाद भी
कई-कई सदियों तक
पुश्त दर पुश्त
कोयले की यह असीम विरासत तुम सम्भालो
उसने कहा-
ले जाओ इसे किसी गाँव की गृहिणी के पास
वहाँ इसकी सख़्त ज़रूरत है
वहाँ नहीं है ईंधन
जलावन नहीं बचे अब गाँव में
बोरसियाँ तक ठंडी पड़ी हैं
कोयला तो गाँव तक पहुँचता ही नहीं
मैं ख़ुश था
मिल गया था मुझे सही ठौर
मैं गाँव-गाँव घर-घर घूमा
मैंने गृहिणियों से कहा
इसे रखो सहेज कर
यह ईंधन भर नहीं है
कि झोंक दो चूल्हे में
ताप जाओ किसी ठंडी रात में जला एक अलाव की तरह
यह और भी बहुत कुछ
इसका स्वाद तुम्हारी रोटियों में पहुँच जाएगा
दौड़ने लगेगा
तुम्हारी धमनियों में
तुम्हारे रोम-रोम में समा जाएगा
रफ़्ता-रफ़्ता यह ईंधन ज़रूरी हो जायेगा तुम्हारी साँसों के लिए
यह कविता की तरह है
बल्कि यह कविता ही है
उत्फुल्ल होते लोग सहसा उदास हो गये
उन्होंने मुझे लौटा दिया एक और पता दे
यह सम्पादक का था
अब मैं कहाँ जाऊँ…
निहितार्थ के लिए
कविता के अलावा
बंद हैं हर जगह दरवाज़े।
अपने भी विरुद्ध
कृत्रिम मोर्चों पर
जूझने के उत्साह
विजयोल्लास
प्रशस्ति अर्जन से अपरास्त
तुम स्वयं
कभी आओ
मेरी टोनही मानसिकता को झाड़ो
मेरा कंठ
आवेश के कारण
रुद्ध है
और सबके साथ-साथ
अपने भी विरुद्ध है।
मल्लाहनामा
न जाने किस घोंघे से
निकल आते हैं मल्लाह
मगर वे जब भी आते हैं
ले आते हैं अपने साथ तिलस्म
तिलस्म जो कभी नहीं टूटता।
मल्लाह ले आते हैं अपने साथ मल्लाहनामा
कि मल्लाह खुद तय करता है
सुरक्षित घाट, सवारी से भी पहले।
मल्लाह कभी नहीं डूबता
भले डूब जाए नाव
उस पर के सारे सवार
मल्लाह पैदा होता है मल्लाह से
कहता है एक और
समर्थन में
सिर झुका देते हैं कई
मल्लाह पूछता है लोगों से
तुमने देखी है कभी नाव?
क्या होती है कीमत नाव की
कैसे और किस चीज़ की बनती है?
लोग अनभिज्ञता से हिला देते हैं सिर।
कहते हैं दो एक बच्चे
उन्होंने पढ़ी है नाव इतिहास में
यह उनके जनम से पहले की बात है
पता नहीं अब वह कैसे होगी
और कितनी बदल गई होगी
उसका कोई निश्चित रूप होगा भी या नहीं ?
मल्लाह बड़े अदब से
ले आता है एक काग़ज़ की नाव
(जो उसके जूते के आकार की होती है)
धर देता है मेज़ पर
और दिलाता है यकीन
इसी से पार हो जाएगी वैतरिणी।
कुर्सी पर बैठकर
निहारता है उसे
और सो जाता है कुर्सी पर ही।
लोग रह-रह कर देखते हैं अपनी प्रगति
जिस पर साधुवाद देते हैं मल्लाह के खर्राटे।
जब दीमकें चाट जाती हैं नाव
खुलती है नींद मल्लाह की।
लोग चुप और अनुशासनबद्ध सब देखते हैं ।
आख़िरकार वे जानते हैं
नाव से बड़ा होता है मल्लाह।
नाव बनाता है मल्लाह।
वे मल्लाह नहीं बदलते
वे देखते हैं
मल्लाह से ही
पैदा होते मल्लाह को।
धन्यवाद चीटियो धन्यवाद
कई दिनों बाद यकायक मुझे पता चला
मेरे लिखे पर बहुत बड़ी दावेदारी उन चीटियों की है
जो आराम से रह रही थीं मेरे कम्प्यूटर के की-बोर्ड में
और मैं नज़र गड़ाए रहता था उनकी कारगुज़ारियों से बेपरवाह
कम्प्यूटर के स्क्रीन पर
जबकि में लिख रहा था दुनिया जहान पर
इस तरह जैसे कि मैं अकेला और केवल मैं ही सोच
रहा था तमाम गंभीर मसलों पर
और जैसे कि मेरा सोचना ही हल कर देगा मसलों को
और उन्हें लिख देना कोई बहुत बड़ी कारर्वाई हो अमल से मिलती-जुलती या फिर उससे भी अहम
सहसा मुझे दिख गयी चींटी
और फिर मैंने उत्स जानना चाहा
आखिर कहाँ से आ गयी चींटी कम्प्यूटर के स्क्रीन पर
कहीं तो होगा उनका कुनबा
मैंने अनुभव से जाना है
कभी अकेली नहीं होती चींटी
आदमी के अकेलेपन को मुँह चिढ़ाती हुई
चींटी का चेहरा हमारे पूर्वजों से कितना मेल खाता है आज भी
मैंने खोज डाला टेबिल जिस पर था कम्प्यूटर नहीं मिली वैसी ही कोई दूसरी चींटी
जैसी एक थी
हाँ वैसी ही
न जाने क्यों मुझे हर चींटी एक जैसी ही लगती है
सौ चीटियां में हर एक लगती है एकदम दूसरे जैसी
जैसे पेड़ की एक पत्ती का चेहरा मिलता है दूसरे से
आदमी का भी मिलता होगा कभी
फिलहाल तो नहीं
और खोज के उपक्रम में नज़र गयी की-बोर्ड पर
ब्लैक की-बोर्ड पर लाल-लाल छोटी चींटियाँ
न जाने कब से बना रखा था उन्होंने की-बोर्ड को अपना ठिकाना
मैंने बहुत सोचा आखि़र क्या कर रही थीं वे की-बोर्ड में
जबकि बाहर बेहद गर्मी पड़ रही थी क्या उन्हें यहाँ मिल रही थीं ठंडक
जो कम्प्यूटर में टाइप होते हुए अक्षरों से पहुँच रही थी उन तक
क्या उन्हें भली लग रही थी वह थरथराहट और वह लय और ताल
जो आदमी को आदमी से जोड़ने वाले शब्दों के ढाले जाने के उपक्रम में पैदा होती है
क्या उन्हें भली लग रहा थी उन उंगलियों की बेचैनी जो
शब्द में जान पैदा करने की कोशिश में उठती हैं
या वे लिख रही थी संवेदना के इतिहास में अपना योगदान
मेरे की-बोर्ड से मेरे शब्दों की फाँक में
या फिर मैंने नहीं स्वयं उन्होंने लिखवाई हो वह तमाम इबारतें
जिनके बारे में मैं सोच रहा था निकल रही हैं मेरे मन के किसी तहखाने से
क्या आदमी के काम में चीटिंयों ने हाथ बँटाने की ठान ली थी
मेरे हाथ, मेरी उंगलियों और पूरी मनुष्य जाति की ओर से
धन्यवाद! चीटियो धन्यवाद!!
हवा में उछलते हुए
हवा में उछलते हुए
गेंद
उछल रही है
उससे पहले मेरे टखने
एड़ियाँ
पंजे
गेंद में देख रहे हैं मेरे पैर
अपनी उछाल
मेरे पैर गेंद के अन्दर हैं
पैर को यूँ उछलता देख
बेचैन होता है मेरा सिर
देने के लिए-शाबाशी
कोई देख सकता है मुझे यूँ
हवा में उछलते हुए।
असमय आए
तुम असमय आए, पर आए
आने का मोल
चुकाऊँ क्या?
मधु रीत गया
घट फूट गए
फेरे बसंत के
ऱूठ गए
मन भग्नप्राय, जर्जर प्रासाद
तुम असमय गाए, पर गाए
गाने का मोल
चुकाऊँ क्या?
हेठी सहकर
अनुबंधों की
तजकर गरिमा
प्रतिबंधों की
मरुथल के मूक निमंत्रण पर
तुम असमय छाए, पर छाए
छाने का मोल
चुकाऊँ क्या?
तुम चाहो
तुम चाहो, मत प्रीत जताना
तुम चाहो, आगोश न देना
तुम बिन यदि मैं भटक गया तो
मुझको कोई दोष न देना।
दुनिया भर की रीत निभाओ
मुझसे बंधकर क्या पाओगी
सच पूछो विश्वास नहीं कि
मेरा दर्द बंटा पाओगी
मैं तो कब का छोड़ चुका हूं
लेकर नाम तेरा संसार
मेरे साथ है जीता-मरता
इक तेरा मुट्ठी भर प्यार
मुझे न दुनियादारी भायी
मुझको तुम ये होश न देना।
मैं तो अब तक चलता आया
तेरी सुधि की बांह गहे
पथिक कोई मिल जाये राह में
साथ चल पड़े कौन कहे
संभव है कि बिसरा दूं मैं
तुझ पर लिखे हुए सब गीत
और तेरा विश्वास तोड़ दूं
भूले से मेरे मनमीत
तुम्हें भुलाकर भी मैं जी लूं
मुझको ये संतोष न देना।
तराशा उसने
दे के मिलने का भरोसा उसने
मुझको छोड़ा न कहीं का उसने
दूरियाँ और बढ़ा दी गोया
फ़ासला रख के ज़रा-सा उसने
यों भी तीखा था हुस्न का तेवर
संगे दिल को भी तराशा उसने
मेरे किरदारे वफ़ा को लेकर
सबको दिखलाया तमाशा उसने
हमने दिल रक्खा था लुटा बैठे
हुस्न पाया है भला-सा उसने
खत तो भेजा है मुहब्बत में मगर
अपना भेजा नहीं पता उसने
मेरे आगे वो बोलता ही नहीं
तुझसे क्या क्या कहा बता उसने
साइकिल को बैलगाड़ी की तरह हांकती लड़की
वह एक लेडीज़ साइकिल थी
जिसे चलाता हूं मैं
मगर उस पूरी तरह से नियंत्रण है मेरी बेटी का
जो बैठी होती है मेरे पीछे कैरियर पर
लेकिन वह साइकिल को इस तरह हांकती है
जैसे वह साइकिल नहीं
कोई बैलगाड़ी हो
और मैं बैल
पापा थोड़ा दाएं
अरे इतना नहीं
नाली में घुसा देंगे क्या
ज़रा धीरे
क्या आगे वाले को टक्कर मारे देंगे
उफ इतना भी धीरे नहीं
क्या साइकिल चलाते-चलाते सोने लगे
हवा कम है लगता है पिछले टायर में
चेक क्यों नहीं कर लेते
घर से निकलने से पहले
ब्रेंक तो कभी ठीक रहता नहीं
यहां रोकने के बदले वहां रोकते हैं
आपसे तो कुछ भी नहीं होता पाप
क्या हो गये एकदम बूढ़े
आफिस देर से पहुंचूंगी
कैसा लगेगा
यदि को टोक दे तो
अपनी वज़ह से मुझे कभी नहीं हुई देर
इत्ते लम्बे-लम्बे बाल मैंने कितनी जल्दी संवारे
मां के घर नहीं रहने पर
मैंने कितनी जल्दी किया नाश्ता
कोई ना-नुकुर नहीं की बाई के हाथ की बनी सब्जी खाने में
टिफिन बाक्स भी आपने नहीं
बाई ने तैयार किया था
आप करते ही क्या है मेरे लिए
और मैं तो कहती हूं
पूरी ज़िन्दगी आपने कुछ नहीं किया मेरे लिए
बस नर्सरी में गये होंगे एडमिशन कराने
सभी बच्चों के मां-बाप
आते हैं स्कूल छोड़ने
ज्यादातर बच्चों की मां तो दोपहर में भी
रहती है स्कूल के आस-पास किसी पार्क में
ताकि खाना खिला सकें
स्कूल में लंच के वक़्त
और जाते समय उन्हें लेते जायें
स्कूल छूटने पर अपने साथ
कई गार्जियन तो घर में टीवी तक नहीं देखते कि कहीं बच्चा भी न देखने लगे
और हो जाये उसकी पढ़ाई का नुकसान
ज़्यादातर गार्जियंस को तो याद रहता है अपने बच्चों का पाठ्यक्रम
क्योंकि वे ख़ुद पढ़कर उन्हें पढ़ाते हैं
वे बच्चों के टाइम टेबुल के हिसाब से
फिक्स कर लेते हैं अपनी दिनचर्चा
और एक आप हैं
आप देखने नहीं देते मेरी पसंद का सीरियल और अपनी पसंद का मुशायरा देखते रहते हैं ईटीवी पर
या फिर बूढ़ों के इश्क के सीरियल
आपने स्कूल व कॉलेज की फीस
देने के अलावा किया ही क्या है मेरे लिए
जल्दी ही शादी कर चली जाऊंगी अपनी ससुराल
और आपको कभी याद नहीं करूंगी
आपने याद रखने लायक
किया ही क्या है
और वह तो रिक्शेवालों के कपड़े और देह मारती रहती है बदबू
वरना मैं कभी नहीं आती आपके साथ साइकिल से ट्रेन पकड़ने
मेरे आफिस के लोग सुनेंगे तो हंसेंगे
एक आफिसर स्टेशन आती है बाप के साथ साइकिल पर
और हां, इस साइकिल पर मत इतराइये
इसे मुझे दिया था मेरी दादी ने
मेरे 12 वें जन्म दिन पर
वह तो मैंने नहीं चलाया
तो आपको मिल गयी
आपसे इतना तो हुआ नहीं कि
दूसरी ले लें
10-12 से खींच रहे हैं इसी को
रोज कोई न कोई पुर्जा दे जाता है
जवाब
जितना रिपेयरिंग में खर्च करते हैं
उतने में आ जायेगी नयी
कई बार कहा है स्कूटर ले लो
पर एक्सीडेंट से कितना डरते हैं आप
मां ठीक कहती है
आप हैं एकदम घोंचू
देखिये गिराइये मत
आपका कोई ठिकाना नहीं
पता नहीं क्या सोचते हुए साइकिल चलाते हैं
अनिल अम्बानी को देखिये क्या हैं उसके बेटे के ठाट
विजय माल्या ने तो अपन बेटे सिद्धार्थ को
बर्थडे गिफ्ट दिया था प्लेन
काश मैं भी किसी मालदार की बेटी होती
तो न साइकिल पर जाना पड़ता
ट्रेन में खाने पड़ते धक्के
मैं तो अपने बच्चों को
वह कष्ट नहीं दूंगी
जो दिये हैं आपने मुझे
एक-एक चीज़ के लिए तरसा दिया
कई बार तो तोड़ कर ले लिया
गुल्लख तोड़ कर मेरे पैसे
छीः पापा छीः
आप पर मुझे आती है शर्म
आपकी सैलरी है मेरी पहली सैलरी से भी कम
पढ़कर क्या किया पापा आपने
शेम आन यू
वो तो मैं पढ़ गयी अपने बलबूते
वरना आपने कब पढ़ाया ट्यूशन
फिर भी इतराते हैं इतनी ऊंची पढ़ाई
कराई
मैं भी यदि अन्य बच्चों की तरह पढ़ती कई-कई ट्यूशन
तब देखती क्या करते आप
आपको तो शुक्रगुज़ार होना चाहिए
मैंने बचाये हैं आपके कितने ही रुपये
और प्लीज़ मेरी शादी की बात
मत करने लगियेगा सुबह-सुबह
मैं आपकी पसंद के
लड़के से नहीं करूंगी शादी
मैं आपकी पसंद जानती हूं
कैसा भी लड़का आपको पसंद आ जायेगा
और नहीं तो अपने जैसा कोई
बोर टाइप का लड़का खोज लेंगे
या फिर कोई फौजी
किसी बैंक आफिसर नहीं
मैं अपनी पसंद के लड़के से शादी करूंगी
जो दिखता हो रणबीर कपूर जैसा
आपको चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं
मैं खोज लूंगी
लो यह क्या, रास्ते भर आप बड़-बड़ करते रहे
और आज भी छुड़ा दी लेडीज़ स्पेशल
अब धक्के खाते हुए जाना पड़ेगा
दूसरी ट्रेन से
मम्मी से करूंगी आपकी शिकायत
कभी टाइम पर तैयार नहीं होते
रोज़ करा देते हैं देर।
धूप
नंगे पाँव चल के मैं आया था धूप में
तू था, किसी दरख्त का साया था धूप में
कुछ अपनी भी आदत सी हो गयी थी दर्द की
कुछ हौसला भी उसने बढा़या था धूप में
सबके लिये दुआएं उसने मांगी दवा की
मुझको ही मसीहा ने बुलाया था धूप में
अपनी तो सारी उम्र ही इसमें निकल गई
मत कर हिसाब खोया क्या पाया था धूप में
गैरों ने क्या किया था ये याद क्या करें
खुद अपना भी तो साया पराया था धूप में
शब्द पहाड़ नहीं तोड़ते
आदमी के रक्त में
निरंतर हिमोग्लोबीन कम होता जा रहा है
यह किसी डॉक्टर की रिपोर्ट नहीं
मेरी कविता पढ़कर भाँप सकते हो
अपनी कछुआ खंदकों से निकल कर कहता हूँ
किसी से न कहना कि तुमने मेरी बात सुनी है
सुनना कहने से अधिक ख़तरनाक हो सकता है
यह सुनकर तुम हाँफ जाओगे कि शब्द पहाड़ नहीं तोड़ते
पहाड़ का छोटा-सा पर्याय रचते हैं
यह तुम किसी पर्वतारोही से पूछो
कितनी अलंघ्य ऊँचाई होती है पहाड़ के पर्याय की
जिसकी यात्रा
आदमी को एक घुप अंधेरी भाड़ में झोंक देती है
जहाँ वह अपनी जयगाथा
उन पत्थरों से कहने को अभिशप्त है
जिनके कान अभी उगने को है।
सिलसिला रखिए
बारहा तोहमतें गिला रखिए
आप हमसे ये सिलसिला रखिए
लूटने वाला हँसी है इतना
जाँ से जाने का हौसला रखिए
दिल की खिड़की अगर खुली हो तो
दिल के चारों तरफ़ किला रखिए
हमको देना है बहुत कुछ लेकिन
क्या बताएँ कि आप क्या रखिए
और क्या आजमाइशें होंगी
पास आकर भी फ़ासला रखिए
फिर भी तनहाइयाँ सताएँगी
आप चाहे तो काफ़िला रखिए
फूटती हैं कोपलें
बार-बार
अपनी इबारतें बदलते-बदलते
मेरा मत
इतना घिस चुका है
कि
अंतिम खड़ा है
पहले के ही विरुद्ध।
हर चीज़ की शिनाख़्त ऐसे ही खोती है।
मेरी
शुबहाग्रस्त ईमानदार अभिव्यक्ति
अपनी क्रमिक आत्महत्या के बाद
एक ठूँठ है
जिस पर
अतिरिक्त अन्न खाकर
की हुए पक्षी की बीट से
फूटती हैं कोपलें।
सच के पास आदमी नहीं है
सच का भूत
घूम रहा है दरबदर
ढूंढ़ता हुआ एक आदमी
उसे आदमी नहीं मिलते
वह जिसके साथ रह सके।
चारों तरफ भरा पड़ा है सच।
हज़ार-हज़ार आँखों से देखा जा सकता है।
क्षण-क्षण महसूस किया जा सकता है
मगर उसके पीछे आदमी नहीं है
इसलिए सच-सच नहीं है।
आदमी
सच से भयभीत
बुदबुदाता है कहीं नहीं है सच।
सच का अभाव है
सच का नहीं है अस्तित्व।
आदमी के पास सच नहीं है
और
सच के पास
आदमी नहीं है।
आदमी बचा रहना चाहे तो
हां, यह ठीक है
पूजा के दिनों में
आती है याद भगवान की
करता है वह पूजा
वह पूजा करता है
पुजारी कोई न बचे
कोई देवी-देवता ने बचें
अगर आदमी ठीक-ठाक
बचा रहना चाहे तो
जब तक भगवान होंगे
होती रहेंगी पूजाएं
चन्दे के नाम पर
लूट लिया जायेगा उसका पसीना
सरे आम
वह लुटेगा और लुटेरे
उसे लूट की रसीद देंगे
और बनायेंगे उससे-हथियार
हथियार बनेंगे और चलेंगे
वह मारा जायेगा अकस्मात
तरकारी ख़रीदते
उनकी आपसी मुठभेड़ में।
उमर में डूब जाओ
आज तुम संयम की तज पतवार को
मेरी बाँहों के भँवर में डूब जाओ!
मेरे आँगन से तुम्हारी ड्योढ़ी तक
अनगिनत हैं प्यास के डेरे लगे
इक सुबह से लेके आधी रात तक
रोज ही इस स्वप्न के फेरे लगे
मैं तुम्हारे नाम का चिन्तन करूँ
तुम मेरे हस्ताक्षर में डूब जाओ!
लोग कहते हैं कि कोई गुम हुआ
औ, किसी ने है, किसी को पा लिया
कोई अपनी खो चुका आवाज़ तो
कोई सारे गीत उसके गा लिया
ये खबर चाहे नई हो या पुरानी
इस खबर के हर असर में डूब जाओ!
मंज़िलों से कौन-सा रिश्ता मेरा
और तुम जाकर किनारे, क्या करोगी
हो अगर जो नेह का संबल कोई
दुनिया के लाखों सहारे क्या करोगी
मैं तेरा हर एक क्षण अपना बना लूँ
और तुम मेरी उमर में डूब जाओ!
इस हृदय के वेदना की थाह मत लो
गीत यदि अच्छा लगे तो गुनगुनाओ
दर्द कुछ गहरा लगे तो वाह कह दो
बस, यही सम्बंध रखना हो सके तो
इस हृदय के वेदना की थाह मत लो
तुम पूनम की चांदनी, दूधिया धवल
मावसी कलिमा का मैं शरणार्थी हूं
तुम किसी देवी की प्रतिमा हो यक़ीनन
मैं तो केवल इक बुझी सी आरती हूं
हां, भला कैसे मिले विपरित दिशाएं
हर नियम का एक निश्चित सा नियम है
मेल होना है तो फिर होता रहेगा
शेष तो तन का अभी लाखों जनम है
इसलिए तुमसे ये आग्रह है कि फिर से
कल्पना में भी अभागी चाह मत लो।
हर सुबह कुछ पीर से की रास मैंने
सांझ को है कुछ व्यथाएं ब्याह लाया
आंख में अंजन लगाकर आंसुओं के
हां पुरस्कृत हो गया मैं, आह लाया
भीड़ में इक बार जो मुझको मिला था
उस अजाने मीत को मैं खोजता हूं
जिसमें जन जीवन का दर्पण मिल गया था
उस झलकते गीत को मैं खोजता हूं
इस पथिक की राह अनजानी अनूठी
व्यर्थ है तुम इस पथिक की राह मत लो।
देखना है तम के कदमों का निशां
कब तलक मिटता नहीं अंगार से
कब तलक जग खेल सीखेगा नहीं
जो सिखाना चाहता मैं प्यार से
मैं न जाने कब तुम्हारा हाथ चूमूं
कब पपीहे को लगे पी की लगन
यायावर इन कल्पनाओं की उड़ानें
पा सकेंगी जाने कब किस क्षण थकन
है किसी बाती से भी तीखी जलन
मेरी मानो तुम प्रतीक्षा दाह मत लो।
विश्वास कोई टूटा
एक, निःश्वास और छूटा है
अभी-अभी
सहसा विश्वास कोई टूटा है
मृगतृष्णा रीत-रीत
जाने का हादसा
अच्छा है जीवन का
पहलू उन्माद सा
किसको क्या मिल गया
जाने दो प्रश्न ये
जिससे जितना बना
उतना मुझे लूटा है
सांसों से जुड़ा जुड़ा
छंद है पलायन का
वनवासी कामनाएं
अर्थ मेरे गायन का
बार बार
लौट लौट आता हूं
लगता है मोह तेरा खूंटा है।
मुझको पुकार
तू एक बार मुझको पुकार
बस एक बार मुझको पुकार।
मन के साध न सध पाये
यौवन की हाला रीत गयी
स्वर भंग आलाप न ले पाया
निष्ठुर खामोशी जीत गयी
थक गया एकाकी थाम मुझे
मैं इस जीवन से गया हार।
कितने हलाहल वर्ष पिये
घन-तिमिर से निकला ना प्रभात
कितने ही झंझावातों ने
आ चूमे ये रूखे गात
अब चलाचली की बेला है
आ जाने दे कुछ तो निखार।
सौ-सौ जन्मों के पुण्य कहाँ
कि हो पात तुमसे मिलाप
नियति से उपहार मिला है
रंग-रंग में मुझको विलाप
अब प्रणय यज्ञ सध जाने दे
धुल जाये सब मन के विकार।
ख़्वाब देखे कोई और
मेरे साथ ही ख़त्म नहीं हो जायेगा
सबका संसार
मेरी यात्राओं से ख़त्म नहीं हो जाना है
सबका सफ़र
अगर अधूरी है मेरी कामनाएँ
तो हो सकता है तुममें हो जाएँ पूरी
मेरी अधबनी इमारतों पर
कम से कम परिन्दे लगा लेंगे घोंसले
मैं
अपने आधे-अधूरेपन से आश्वस्त हूँ
कितना सुखद अजूबा हो
कि
मैं अपनी नींद सोऊँ
उसमें ख़्वाब देखे कोई और
कोई तीसरा उठे नींद की ख़ुमारी तोड़ता
ख़्वाबों को याद करने की कोशिश करता।
हावड़ा ब्रिज
बंगाल में आये दिन बंद के दौरान
किसी डायनासोर के अस्थिपंजर की तरह
हावड़ा और कोलकाता के बीचोबीच हुगली नदी पर पड़ा रहता है हावड़ा ब्रिज
जैसे सदियों पहले उसके अस्थिपंजर प्रवाहित किये गये हों हुगली में
और वह अटक गया हो दोनों के बीच
लेकिन यह क्या
अचानक पता चला
डायनासोर के पैर गायब थे
जो शायद आये दिन बंद से ऊब चले गये हैं कहीं और किसी शहर में तफरीह करने
या फिर अंतरिक्ष में होंगे कहीं
जैसे बंद के कारण चला जाता है बहुत कुछ
बहुत कुछ दबे पांव
फिलहाल तो डायनासोर का अस्थिपंजर एक उपमा थी
जो मेरे दुख से उपजी थी
जिसका व्याकरण बंद के कारण हावड़ा ब्रिज की कराह की भाषा से बना था
जिसे मैंने सुना
उसी तरह जैसे पूरी आंतरिकता से सुनती हैं हुगली की लहरें
क्या आपने गौर किया है बंद के दिन अधिक बेचैन हो जाती हैं हुगली की लहरें
वे शामिल हो जाती हैं ब्रिज के दुख में
बंद के दौरान हावड़ा ब्रिज से गुज़रना
किसी बियाबान से गुज़रना है महानगर के बीचोबीच
बंद के दौरान तेज़-तेज़ चलने लगती हैं हवाएं
जैसे चल रही हों किसी की सांसें तेज़ तेज़
और उसके बचे रहने को लेकर उपजे मन में रह-रह कर सशंय
बंद के दौरान बढ़ जाती है ब्रिज की लम्बाई
जैसे डूबने से पहले होती जाती हैं छायाएं लम्बी और लम्बी
बंद में कभी गौर से सुनो तो सुनायी देती है एक लम्बी कराह
जो रुकने की व्यवस्था के विरुद्ध उठती है ब्रिज से
और पता नहीं कहां-कहां से, किस-किस सीने से
प्रतिदिन पल-पल हजारों लोगों और वाहनों को
इस पार से उस पार ले जाने वाले ब्रिज के कंधे
नहीं उठा पा रहे थे अपने एकेलेपन का बोझ
देखो, कहीं अकेलेपन के बोझ से टूटकर किसी दिन गिर न जाये हावड़ा ब्रिज
सोचता हूं तो कांप उठता हूं
बिना हावड़ा ब्रिज के कितना सूना-सूना लगेगा बंगाल का परिदृश्य
ब्रिज का चित्र देखकर लोग पहचान लेते हैं
वह रहा-वह रहा कोलकाता
अपनी ही सांस्कृतिक गरिमा में जीता और उसी को चूर-चूर करता
तिल-तिल मरता
सामान्य दिनों में हावड़ा ब्रिज पर चलते हुए
कोई सुन सकता है उसकी धड़कन साफ़-साफ़
एक सिहरन सी दौड़ती रहती है उसकी रगों में
जो हर वाहन ब्रिज से गुज़रने के बाद छोड़ जाता है अपने पीछे
देता हुआ-धन्यवाद, कहता हुआ-टाटा, फिर मिलेंगे
वाहनों की पीछे छूटी गर्म थरथराहट
ब्रिज के रास्ते पहुंच जाती है आदमी के तलवों से होती हुई उसकी धमनियों में
और आदमी एकाएक तब्दील हो जाता है
स्वयं हावड़ा ब्रिज की पीठ में, उसके किसी पुर्जे में
जिस पर से हो रहा है होता है पूरे इतमीनान के साथ आवागमन
और यह मत सोचें कि यह संभव नहीं
पुल दूसरों को पुल बनाने का हुनर जानता है
हर बार एक आदमी एक वाहन एक मवेशी का पुल पार करने
पुल को नये सिरे से बनाता है पुल
हर बार वह दूसरे के पैरों से, चक्कों से करता है अपनी ही यात्रा
पुल दूसरों के पैरों से चलता है अपने को पार करने के लिए
अपने से पार हुए बिना कोई कभी नहीं बन सकता पुल
जो यह राज़ जानते हैं वे सब हैं पुल के सगोतिये
अंग्रेज़ी राज में गांधी जी ने भी बंद को बनाया था पुल
लेकिन अब बंद पुल नहीं है
पुल नहीं रह गया है बंद
सुबह से शाम तक
हर आने जाने वाले से कहता है हावड़ा ब्रिज
यह एक पुल के ख़िलाफ़
आदमी के पक्ष में की गयी कार्रवाई नहीं है
यह पुल के अर्थ को बचाने की पुरज़ोर कोशिश है
और आख़िरकार हर कोशिश
एक पुल ही तो है!
कई बार मुझे लगा है कि बंगाल के ललाट पर रखा हुआ एक विराट मुकुट है-हावड़ा ब्रिज
यदि वह नहीं रहा तो..
तो उसके बाद बनने वाले ब्रिज होंगे उसके स्मारक
लेकिन मुकुट नहीं रहेगा तो फिर नहीं रहेगा।