भाव दो,भाषा प्रखर दो शारदे
भाव दो, भाषा प्रखर दो शारदे
लेखनी में प्राण भर दो शारदे
मेरे मानस का अँधेरा मिट सके
ज्ञान के कुछ दीप धर दो शारदे
सत्य को मैं सत्य खुल कर कह सकूं
ओज दो, निर्भीक स्वर दो शारदे
शब्द मेरे काल-कवलित हों नहीं
पा सकें अमरत्व , वर दो शारदे
मेरे जीवन के हर इक पल को ‘यती’
सर्जना के नाम कर दो शारदे
मदद करना बहुत दुश्वार था
मदद करना बहुत दुश्वार था
ज़रूरतमंद भी खुद्दार था
जहाँ बिकने को थे बेताब सब
हमारे हर तरफ बाज़ार था
रियाया दे रही थी थैलियाँ
सियासत का अजब दरबार था
ज़रूरत पर पडोसी आ गए
ये उसका प्रेम था, व्यवहार था
मैं खुश था मुफ़लिसी में इसलिए
कि मेरे पक्ष में परिवार था
लोग सिर्फ औरों को फलसफे पढ़ाते हैं
लोग सिर्फ़ औरों को फ़लसफ़े पढ़ाते हैं
उनपे खुद नहीं चलते राह जो दिखाते हैं
बेटी और बेटे में फ़र्क अब नहीं कोई
ये भी छोड़ जाती हैं वो भी छोड़ जाते हैं
घर सभी का सपना है, देखिए परिन्दे भी
जोड़ –जोड़ तिनकों को घोंसले बनाते हैं
उसपे कितना चलते हैं ये तो उनकी मर्ज़ी है
लोग फिर भी बच्चों को रास्ता दिखाते हैं
नफ़रतों की आँधी भी कुछ ज़रूर सोचेगी
आइए मोहब्बत के दीप कुछ जलाते हैं
मन में भाव बुरे लाने से आखिर क्या हो जाएगा
मन में भाव बुरे लाने से आखिर क्या हो जाएगा
अच्छा-अच्छा सोचेंगे तो सब अच्छा हो जायेगा
तंगदिली तो छोड़ें, मन के खिड़की-रोशनदान खुलें
साधन मिल ही जायेंगे जब दिल दरिया हो जाएगा .
भाई ने भाई को मारा, बेटे-बाप बने दुश्मन
रिश्तों का धागा कैसे इतना कच्चा हो जाएगा
हरदम इसको ठोकर मारी,उसने कब ये सोचा था
सबसे ताक़तवर इक दिन ये ही पैसा हो जाएगा
उसके आ जाने भर से ही घर में इक उत्सव सा है
बेटी जब जाएगी, आँगन फिर सूना हो जाएगा
हँसी आती नहीं है …
हँसी आती नहीं है और रो सकते नहीं हैं
बहुत अफ़सोस है हमको कि हम बच्चे नहीं हैं
बिठाकर पीठ पर बच्चे को खुद बहला दिया कर
खिलौने आजकल बाज़ार में सस्ते नहीं हैं
ग़लत हो या सही, दौलत कमानी ही पड़ेगी
हमारे सामने क्या दूसरे रस्ते नहीं हैं ?
कभी इंसानियत की शर्त होती थी यही शय
मगर अब दूर तक ईमान के चर्चे नहीं हैं
दिखाना पड़ गया औलाद को क़ानून का डर
बुज़ुर्गों के लिए हालात ये अच्छे नहीं हैं
पहलू में ही डर कर प्यार सिमट आया है
पहलू में ही डरकर प्यार सिमट आया है
अपनी दुनिया का आकार सिमट आया है
साथ नहीं हैं माँ, बाबूजी, भइया, भाभी
पत्नी-बच्चों तक परिवार सिमट आया है
टी.वी.-कम्प्यूटर ही हैं बच्चों का जीवन
इनमें ही उनका संसार सिमट आया है
शादी-ब्याह, खुशी-मातम किसको फ़ुरसत है
सम्बन्धों का कारोबार सिमट आया है
खीर-सिवैयाँ, रंग-गुलाल वही हैं लेकिन
अपने आँगन तक त्यौहार सिमट आया है
छिपे हैं मन में जो ..
छिपे हैं मन में जो भगवान से वो पाप डरते हैं
डराता वो नहीं है लोग अपने आप डरते हैं
यहाँ अब आधुनिक संगीत का ये हाल है यारो
बहुत उस्ताद भी भरते हुए आलाप डरते हैं
कहीं बैठा हुआ हो भय हमारे मन के अन्दर तो
सुनाई मित्र की भी दे अगर पदचाप ,डरते हैं
निकल जाती है अक्सर चीख जब डरते हैं सपनों में
हक़ीक़त में तो ये होता है हम चुपचाप डरते हैं
नतीजा देखिये उम्मीद के बढते दबावों का
उधर सन्तान डरती है इधर माँ-बाप डरते हैं
कितने टूटे कितनों का मन हार गया
कितने टूटे , कितनों का मन हार गया
रोटी के आगे हर दर्शन हार गया
ढूँढ रहा है रद्दी में क़िस्मत अपनी
खेल-खिलौनों वाला बचपन हार गया
ये है जज़्बाती रिश्तों का देश, यहाँ
विरहन के आँसू से सावन हार गया
मन को ही सुंदर करने की कोशिश कर
अब तू रोज़ बदल कर दर्पन हार गया
ताक़त के सँग नेक इरादे भी रखना
वर्ना ऐसा क्या था रावन हार गया
कुछ ऐसा अभिशाप रहा….
कुछ ऐसा अभिशाप रहा
जीवन भर चुपचाप रहा
दोष किसी को क्या दूँ मैं
अपना दुश्मन आप रहा
माया की इस नगरी में
सबको फलता पाप रहा
पूज नहीं पाया उसको
इसका पश्चाताप रहा
पूरा गीत रहे तुम ही
मैं तो बस आलाप रहा
छीन लेगी नेकियाँ…
छीन लेगी नेकियाँ ईमान को ले जाएगी
भूख दौलत की कहाँ इंसान को ले जाएगी
आधुनिकता की हवा अब तेज़ आँधी बन गई
सोचता हूँ किस तरफ़ संतान को ले जाएगी
शहर की आहट दिखाएगी हमें सड़कें नई
फिर हमारे खेत को, खलिहान को ले जाएगी
बेचकर गुर्दे, असीमित धन कमाने की हवस
किस जगह इस दूसरे भगवान को ले जाएगी
सिन्धु हो,सुरसा हो,कुछ हो किन्तु इच्छाशक्ति तो
हैं जहाँ सीता वहाँ हनुमान को ले जाएगी
गाँव की बोली तुझे शर्मिंदगी देने लगी
ये बनावट ही तेरी पहचान को ले जाएगी
बहुत नज़दीक का भी साथ सहसा छूट जाता है
बहुत नज़दीक का भी साथ सहसा छूट जाता है
पखेरू फुर्र हो जाता है पिंजरा छूट जाता है
कभी मुश्किल से मुश्किल काम हो जाते हैं चुटकी में
कभी आसान कामों में पसीना छूट जाता है
छिपाकर दोस्तों से अपनी कमज़ोरी को मत रखिए
बहुत दिन तक नहीं टिकता मुलम्मा छूट जाता है
भले ही बेटियों का हक़ है उसके कोने-कोने पर
मगर दस्तूर है बाबुल का अँगना छूट जाता है
भरे परिवार का मेला लगाया है यहाँ जिसने
वही जब शाम होती है तो तन्हा छूट जाता है
इस तरह कब तक हँसेगा गाएगा
इस तरह कब तक हँसेगा-गाएगा
एक दिन बच्चा बड़ा हो जाएगा
आ गया वह फिर खिलौने बेचने
सारे बच्चों को रुलाकर जाएगा
हर समय ईमानदारी की ही बात
एक दिन यह आदमी पछताएगा
फ़ाइलें यदि मेज़ पर ठहरें नहीं
दफ़्तरों के हाथ क्या लग पाएगा
‘रेस’ जीतेंगी यहाँ बैसाखियाँ
पाँव वाला दौड़ता राह जाएगा
मन में मेरे उत्सव जैसा हो जाता है
मन में मेरे उत्सव जैसा हो जाता है
तुमसे मिलकर ख़ुद से मिलना हो जाता है
चिड़िया, तितली, फूल, सितारे, जुगनू सब हैं
लेकिन इनको देखे अर्सा हो जाता है
दिन छिपने तक तो रहता है आना-जाना
फिर गाँवों का रस्ता सूना हो जाता है
भीड़ बहुत ज़्यादा दिखती है यूँ देखो तो
लेकिन जब चल दो तो रस्ता हो जाता है
जब आते हैं घर में मेरे माँ-बाबूजी
मेरा मन फिर से इक बच्चा हो जाता है
तुम्हें कल की कोई चिन्ता नहीं है
तुम्हें कल की कोई चिन्ता नहीं है
तुम्हारी आँख में सपना नहीं है।
ग़लत है ग़ैर कहना ही किसी को
कोई भी शख्स जब अपना नहीं है।
सभी को मिल गया है साथ ग़म का
यहाँ अब कोई भी तनहा नहीं है।
बँधी हैं हर किसी के हाथ घड़ियाँ
पकड़ में एक भी लम्हा नहीं है।
मेरी मंज़िल उठाकर दूर रख दो
अभी तो पाँव में छाला नहीं है।
दुख तो गाँव-मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी
दुख तो गाँव–मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी
पर जिनगी की भट्ठी में खुद जरते आए बाबूजी।
कुर्ता,धोती,गमछा,टोपी सब जुट पाना मुश्किल था
पर बच्चों की फ़ीस समय से भरते आए बाबूजी।
बड़की की शादी से लेकर फूलमती के गौने तक
जान सरीखी धरती गिरवी धरते आए बाबूजी।
एक नतीजा हाथ न आया,झगड़े सारे जस के तस
पूरे जीवन कोट–कचहरी करते आए बाबूजी।
रोज़ वसूली कोई न कोई,खाद कभी तो बीज कभी
इज्ज़त की कुर्की से हरदम डरते आए बाबूजी।
नाती–पोते वाले होकर अब भी गाँव में तन्हा हैं
वो परिवार कहाँ है जिस पर मरते आए बाबूजी।
कौन मानेगा नसीहत ही मेरी
कौन मानेगा नसीहत ही मेरी
खुल गई है जब हक़ीक़त ही मेरी।
चुटकुले सब आपके दिलचस्प हैं
अनमनी कुछ है तबीयत ही मेरी।
कौन अपमानित कराता है मुझे
सच कहूँ तो सिर्फ़ नीयत ही मेरी।
साथ होगा कौन अन्तिम दौर में
तय करेगी अब वसीयत ही मेरी।
यार तुम भी सज गए बाज़ार में
पूछते फिरते थे क़ीमत ही मेरी।
क्यों शहरों में आकर ऐसा लगता है
क्यों शहरों में आकर ऐसा लगता है
जीवन का रस सूखा–सूखा लगता है।
मानें तो सबके ही रिश्ते हैं सबसे
वर्ना किसका कौन यहाँ क्या लगता है?
जीवन का अंजाम नज़र में रख लें तो
सब कुछ जैसे एक तमाशा लगता है।
गाँव छोड़कर शहरों में जब आए तो
हमको अपना नाम पुराना लगता है।
बारुदी ताक़त है जिसके हाथों में
उसको ये संसार ज़रा-सा लगता है।
रिश्तों का उपवन इतना वीरान नहीं देखा
रिश्तों का उपवन इतना वीरान नहीं देखा।
हमने घर के बूढ़ों का अपमान नहीं देखा।
जिनकी बुनियादें ही धन्धों पर आधारित हैं
ऐसे रिश्तों को चढ़ते परवान नहीं देखा।
कोई तुम्हारा कान चुराकर भाग रहा, सुनकर
उसके पीछे भागे ,अपना कान नहीं देखा
दो पल को भी बैरागी कैसे हो पाएगा
उसका मन, जिसने जाकर शमशान नहीं देखा।
दिल से दिल के तार मिलाकर जब यारी कर ली
हमने उसके बाद नफ़ा–नुक़सान नहीं देखा।
इक नयी कशमकश से गुजरते रहे
इक नई कशमकश से गुज़रते रहे
रोज़ जीते रहे रोज़ मरते रहे
हमने जब भी कही बात सच्ची कही
इसलिए हम हमेशा अखरते रहे
कुछ न कुछ सीखने का ही मौक़ा मिला
हम सदा ठोकरों से सँवरते रहे
रूप की कल्पनाओं में दुनिया रही
खुशबुओं की तरह तुम बिखरते रहे
जिंदगी की परेशानियों से “यती”
लोग टूटा किये,हम निखरते रहे
आएगी सरकार किसकी
आएगी सरकार किसकी, है बड़ा संकट मियाँ,
देखिए अब बैठता है ऊँट किस करवट मियाँ
कुछ ज़रूरत ज़िंदगी की, कुछ उसूलों के सवाल,
चल रही है इन दिनों खुद से मेरी खट-पट मियाँ
मुश्किलें आएं तो हँसकर झेलना भी सीखिए,
जिंदगी वर्ना लगेगी आपको झंझट मियाँ
तुम चले जाओ भले संसद में, ये मत भूलना
चूमनी है लौटकर कल फिर यही चौखट मियाँ
बदहवासी का ये आलम क्यूँ है बतलाओ ज़रा,
लोग भागे जा रहे हैं किसलिए सरपट मियाँ
जिनसे हम उम्मीद करते हैं संवारेंगे इसे,
कर रहे हैं मुल्क को वो लोग ही चौपट मियाँ
गाँव आकर ढूँढता हूँ गाँव वाले चित्र वो,
छाँव बरगद की किधर है? है कहाँ पनघट मियाँ?
पीढ़ियों को कौन समझाएगा कल पूछेंगी जब,
लाज क्या होती है और क्या चीज़ है घूँघट मियाँ?
अँधेरे जब ज़रा सी रौशनी से भाग जाते हैं
अँधेरे जब ज़रा-सी रौशनी से भाग जाते हैं
तो फिर क्यों लोग डरकर ज़िन्दगी से भाग जाते हैं
हमें मालूम है फिर भी नहीं हम खिलखिला पाते
बहुत से रोग तो केवल हँसी से भाग जाते हैं
निभाने हैं गृहस्थी के कठिन दायित्व हमको ही
मगर कुछ लोग इस रस्साकशी से भाग जाते हैं
यहाँ इक रोज़ हड्डी रीढ़ की हो जाएगी ग़ायब
चलो ऐसा करें इस नौकरी से भाग जाते हैं
लिखा था बालपन का सुख यशोदा-नन्द के हिस्से
तभी तो कृष्ण काली कोठरी से भाग जाते हैं
हक़ीक़त ज़िन्दगी की ठीक से जब जान जाओगे
हक़ीक़त ज़िन्दगी की ठीक से जब जान जाओगे
मुसीबत के समय भी तुम हँसोगे-मुस्कराओगे
सुना है चाँद-तारे घर में भरना चाहते हो तुम
खुशी कुछ और ही शय है उसे इनमें न पाओगे
निराशा जब भी घेरे, उसमें मत डूबो निकल आओ
वहीँ उम्मीद की कोई किरन भी पा ही जाओगे
अँधेरों की हमें आदत है हम जी लेंगे लेकिन तुम
उजालों को बहुत दिन क़ैद में रख भी न पाओगे
सड़क चिकनी है, अच्छे पार्क हैं, चौराहे सुन्दर हैं
मगर वो खेत, वो जंगल कहाँ हैं कुछ बताओगे ?
खेतों-खलिहानों की,फसलों की खुशबू
खेतों- खलिहानों की, फ़सलों की खुशबू
लाते हैं बाबूजी गाँवों की खुशबू
गठरी में तिलवा है ,चिवड़ा है,गुड़ है
लिपटी है अम्मा के हाथों की खुशबू
मंगरू भी चाचा हैं, बुधिया भी चाची
गाँवों में ज़िन्दा है रिश्तों की खुशबू
बाहर हैं भइया की मीठी फटकारें
घर में है भाभी की बातों की खुशबू
खिचड़ी है,बहुरा है,पिंड़िया है,छठ है
गाँवों में हरदम त्यौहारों की खुशबू
कटा जो मुश्किलों से उस सफ़र की याद आती है
कटा जो मुश्किलों से उस सफ़र की याद आती है
मुझे काँटों भरी टेढ़ी डगर की याद आती है
घरों में बैठकर बेकार अच्छा भी नहीं लगता
निकल जाओ अगर घर से तो घर की याद आती है
कटाकर हाथ, दुनिया को अचम्भा दे गए कैसा
इमारत देखकर उनके हुनर की याद आती है
कभी इंसान को दिल चैन से रहने नहीं देता
इधर की याद आती है, उधर की याद आती है
मैं अब भी आँधियों को कोसता हूँ खूब जी भर के
मुझे जब नीम के बूढ़े शज़र की याद आती है
ज़रा सी चीज़ भी कितना कठिन उनके लिए तब थी
पिता की ज़िन्दगी के उस समर की याद आती है
क्या खोएंगे आज न जाने
क्या खोएँगे आज न जाने
हम निकले हैं फिर कुछ पाने
ज़ाहिर खूब करें याराने
भीतर साधें लोग निशाने
कैसे – कैसे काम बनेगा
बुनते रहते ताने – बाने
अब भी यूँ लगता है जैसे
अम्मा बैठी है सिरहाने
घर ने मुझको ऐसे घेरा
छूटे सारे मीत पुराने
बेपरवाही भूल गए हम
रहते हैं हरदम कुछ ठाने
अम्मा तो जी भर के रोई
पीर सही चुपचाप पिता ने
नौकरी की शर्त पूरी की नहीं
नौकरी की शर्त पूरी की नहीं
चापलूसी, जी-हुज़ूरी की नहीं
बन न पाए साहबों के खास हम
क्योंकि बँगलों की मजूरी की नहीं
यूँ मुलाकातें हुईं उनसे बहुत
बात वो जो थी ज़रूरी,की नहीं
धाम साईंनाथ के जाते रहे
उम्र भर लेकिन सबूरी की नहीं
थी जहाँ श्रद्धा, समर्पित भी हुए
साधना आधी-अधूरी की नहीं
पता है अन्त में किस राह पर..
पता है अन्त में किस राह पर संसार जाता है
मगर मन है कि माया की तरफ हर बार जाता है
वहाँ बस नेकियाँ ही साथ जा पाती हैं, सुनते हैं
यहीं पर छूट धन-दौलत का ये अम्बार जाता है
सिमटता जा रहा है जिस्म के ही दायरे में बस
कहाँ अब रूह की गहराइयों तक प्यार जाता है
कोई मासूम बच्चा छोड़ता है नाव काग़ज़ की
तो इक चींटा भी लेकर के उसे उस पार जाता है
जिसे हम धर्म का प्रहरी समझते हैं वही इक दिन
जुए में घर की इज़्ज़त, घर की शोभा हार जाता है
क्रोध में आई अगर तो
क्रोध में आई अगर तो ज़िंदगी ले जाएगी
घर, मवेशी, खाट,छप्पर सब नदी ले जाएगी
हैं अभी खुशियाँ,अभी मिल जाएगी ऐसी खबर
जो लबों पर आह रख देगी, हँसी ले जाएगी
जब अँधेरों में चलेंगे, है भटकना लाज़िमी
मंज़िलों की ओर तो बस रोशनी ले जाएगी
साँस जितनी भी मिली है नेकियाँ करते चलो
मौत चुपके से किसी दिन धौंकनी ले जाएगी
जो मेरी तन्हाइयों में पास आती है मेरे
महफ़िलों में भी मुझे वो शाइरी ले जाएगी
गाँव की समझी कभी क़ीमत नहीं ..
गाँव की समझी कभी क़ीमत नहीं
रौशनी को शहर से फ़ुरसत नहीं
सत्य की ही जीत होगी अन्तत:
हर कोई इस बात से सहमत नहीं
क्या चुनावों का यही निष्कर्ष है ?
सज्जनों के साथ है जनमत नहीं
ठीक है वो लोग हैं भटके हुए
प्रेम है इसकी दवा, नफ़रत नहीं
हर ज़रूरत पर दुआएँ चाहिए
यूँ बुज़ुर्गों की भले इज़्ज़त नहीं
खेत सारे छिन गए…
खेत सारे छिन गए घर – बार छोटा रह गया
गाँव मेरा शहर का बस इक मुहल्ला रह गया
सावधानी है बहुत ,खुलकर कोई मिलता नहीं
आदमी पर आदमी का ये भरोसा रह गया
प्रेम ने तोड़ीं हमेशा जाति – मज़हब की हदें
पर ज़माना आज तक इनमें ही उलझा रह गया
बेशक़ीमत चीज़ तो गहराइयों में थी छिपी
डर गया जो,वो किनारे पर ही बैठा रह गया
जिससे अपनी ख़ुद की रखवाली भी हो सकती नहीं
घर की रखवाली की ख़ातिर वो ही बूढ़ा रह गया
थके मजदूर रह-रह कर…
थके मज़दूर रह-रह कर जुगत ऐसी लगाते हैं
कभी खैनी बनाते हैं कभी बीड़ी लगाते हैं
जहाँ नदियों का पानी छूने लायक़ भी नहीं लगता
हमारी आस्था है हम वहाँ डुबकी लगाते हैं
ज़रूरतमंद को दो पल कभी देना नहीं चाहा
भले हम मन्दिरों में लाइनें लम्बी लगाते हैं
यहाँ पर कुर्सियाँ बाक़ायदा नीलाम होती हैं
चलो कुछ और बढ़कर बोलियाँ हम भी लगाते हैं
नहीं नफ़रत को फलने-फूलने से रोकता कोई
यहाँ तो प्रेम पर ही लोग पाबन्दी लगाते हैं
अपने भीतर क़ैद बुराई से लड़ना
अपने भीतर क़ैद बुराई से लड़ना
मुश्किल है कड़वी सच्चाई से लड़ना
ऐसे वार कि भाँप नहीं पाता कोई
सीख गए हैं लोग सफ़ाई से लड़ना
झूठ का पर्वत लोट रहा है क़दमों में
चाह रहा था सच की राई से लड़ना
जो मित्रों का भेष बनाए रहता है
उस दुश्मन से कुछ चतुराई से लड़ना
सेनाओं से लड़ने वाले क्या जानें
कितना मुश्किल है तन्हाई से लड़ना
आदमी क्या रह नहीं पाए सम्हल के देवता
आदमी क्या, रह नहीं पाए सम्हल के देवता
रूप के तन पर गिरे अक्सर फिसल के देवता
भीड़ भक्तों की खड़ी है देर से दरबार में
देखिए आते हैं अब कब तक निकल के देवता
की चढ़ावे में कमी तो दण्ड पाओगे ज़रूर
माफ़ करते ही नहीं हैं आजकल के देवता
भीड़ इतनी थी कि दर्शन पास से सम्भव न था
दूर से ही देख आए हम उछल के देवता
कामना पूरी न हो तो सब्र खो देते हैं लोग
देखते हैं दूसरे ही दिन बदल के देवता
है अगर किरदार में कुछ बात तो फिर आएंगे
कल तुम्हारे पास अपने आप चल के देवता
शाइरी सँवरेगी अपनी हम पढ़ें उनको अगर
हैं पड़े इतिहास में कितने ग़ज़ल के देवता
दिल में सौ दर्द पाले बहन-बेटियाँ
दिल में सौ दर्द पाले बहन–बेटियाँ
घर में बाँटें उजाले बहन–बेटियाँ
कामना एक मन में सहेजे हुए
जा रही हैं शिवाले बहन–बेटियाँ
ऐसी बातें कि पूरे सफ़र चुप रहीं
शर्म की शाल डाले बहन–बेटियाँ
हो रहीं शादियों के बहाने बहुत
भेड़ियों के हवाले बहन–बेटियाँ
गाँव–घर की निगाहों के दो रूप हैं
कोई कैसे सँभाले बहन–बेटियाँ
स्वार्थ की अंधी गुफ़ाओं तक रहे
स्वार्थ की अंधी गुफ़ाओं तक रहे
लोग बस अपनी व्यथाओं तक रहे।
काम संकट में नहीं आया कोई
मित्र भी शुभकामनाओं तक रहे।
क्षुब्ध था मन देवताओं से मगर
स्वर हमारे प्रार्थनाओं तक रहे।
लोक को उन साधुओं से क्या मिला
जो हमेशा कन्दराओं तक रहे।
सामने ज्वालामुखी थे किन्तु हम
इन्द्रधनुषी कल्पनाओं तक रहे।
होने में सुबह पलक झपकने की देर है
होने में सुबह पलक झपकने की देर है
सूरज में जमी बर्फ़ पिघलने की देर है।
यह भीड़ तोड़ डालेगी हर शीशमहल को
पत्थर कहीं से एक उछलने की देर है।
बनने लगेगा कारवां आने लगेंगे लोग
घर छोड़ के बस तेरे निकलने की देर है।
फूलों के बिस्तरे पे पहुँचना नहीं कठिन
काँटों के रास्ते से गुज़रने की देर है।
जिस काम को ‘यती’ समझ रहे हो असंभव
उस काम को करने पे उतरने की देर है।
देखो कितने अच्छे मेरे साथी हैं
देखो कितने अच्छे मेरे साथी हैं
पेड़, किताबें, बच्चे मेरे साथी हैं।
मुझको बतलाते हैं मेरी कमियां भी
लोग वही जो मन से मेरे साथी हैं।
निष्ठा का तो ये है हाल सियासत में
रोज़ बदलते झण्डे मेरे साथी थी हैं।
काम पड़े तब देखें आते हैं कितने
कहने को तो नब्बे मेरे साथी हैं।
अपने और पराए का अन्तर कैसा
सब अल्ला के बन्दे मेरे साथी हैं।
हँसी को और खुशियों को हमारे साथ रहने दो
हँसी को और खुशियों को हमारे साथ रहने दो
अभी कुछ देर सपनों को हमारे साथ रहने दो।
तुम्हें फुरसत नहीं तो जाओ बेटा आज ही जाओ
मगर दो रोज़ बच्चों को हमारे साथ रहाने दो।
ये जंगल कट गए तो किसके साए में गुज़र होगी
हमेशा इन बुजुर्गों को हमारे साथ रहने दो।
हरा सब कुछ नहीं है इस धरा पर हम दिखा देंगे
ज़रा सावन के अंधों को हमारे साथ रहने दो।
ग़ज़ल में, गीत में, मुक्तक में ढल जाएंगे ये इक दिन
भटकते फिरते शब्दों को हमारे साथ रहने दो।
नदी कानून की, शातिर शिकारी तैर जाता है
नदी कानून की, शातिर शिकारी तैर जाता है।
यहाँ पर डूबता हल्का है भारी तैर जाता है।
ज़रूरत नाव की,पतवार की है ही नहीं उसको
निभानी है जिसे लहरों से यारी, तैर जाता है।
बताते हैं कि भवसागर में दौलत की नहीं चलती
वहाँ रह जाते हैं राजा भिखारी तैर जाता है।
समझता है तुम्हारे नाम की महिमा को पत्थर भी
तभी हे राम! मर्ज़ी पर तुम्हारी तैर जाता है।
निकलते हैं जो बच्चे घर से बाहर खेलने को भी
मुहल्ले भर की आँखों में ‘निठारी’ तैर जाता है।
न शाहों में है ना अमीरों में है
न शाहों में है ना अमीरों में है
जो देने की कुव्वत फ़कीरों में है
मैं मंज़िल की परवाह करता नहीं
मेरा नाम तो राहगीरों में है
जो हासिल न थी बादशाहों को भी
वो ताक़त यहाँ अब वज़ीरों में है
वतन के लिए दे गया जान जो
वो ज़िंदा अभी भी नज़ीरों में है
हथेली बता किस तरह से जिऊँ
अभी और क्या-क्या लकीरों में है
सही इंसान बनने के इरादों पर अमल होगा
सही इंसान बनने के इरादों पर अमल होगा
किसी के काम आएंगे तभी जीवन सफल होगा
ठिकाना है नही जब एक पल का,एक लम्हे का
बहुत मुश्किल है ये कहना कहाँ फिर कौन कल होगा
भटकता फिर रहा हूँ पर मुझे मालूम है यह भी
वहीँ जाएगी बेटी जिस जगह का अन्न-जल होगा
मुकद्दर का लिखा कितना सही होगा खुदा जाने
मगर जो कर्म से लिख दोगे वो बिलकुल अटल होगा
ज़माने के हर इक दुख-दर्द से जुड जायेंगे जब हम
कहीं भी देख कर आँसू हमारा मन सजल होगा
जहाँ कोई न होगा और मुश्किल सामने होगी
वहाँ भी साथ देने को तुम्हारा आत्मबल होगा
कुछ नमक से भरी थैलियाँ खोलिए
कुछ नमक से भरी थैलियाँ खोलिए
फिर मेरे घाव की पट्टियाँ खोलिए ।
मेरे ‘पर’ तो कतर ही दिए आपने
अब तो पैरों की ये रस्सियाँ खोलिए ।
पहले आहट को पहचानिए तो सही
जल्दबाज़ी में मत खिड़कियाँ खोलिए ।
भेज सकता है काग़ज के बम भी कोई
ऐसे झटके से मत चिटिठयाँ खोलिए ।
जिसको बिकना है चुपके से बिक जाएगा
यूँ खुले आम मत मण्डियाँ खोलिए ।
फूस–पत्ते अगर नहीं मिलते
फूस – पत्ते अगर नहीं मिलते
जाने कितनों को घर नहीं मिलते।
देखना चाहते हैं हम जिनको
स्वप्न वो रात भर नहीं मिलते।
जंगलों में भी जाके ढूँढ़ो तो
इस क़दर जानवर नहीं मिलते।
दूर परदेश के अतिथियों से
दौड़कर ये नगर नहीं मिलते।
चाहती हैं जो बाँटना खुशबू
उन हवाओं को‘पर’नहीं मिलते।