घोड़ा और चिड़िया
उसकी पूंछ की मार से
मर सकती है
वह चिड़िया
जो शरारत
या थकान से
आ बैठी है
घास चर रहे
घोड़े की पीठ पर
शायद घास बहुत स्वादिष्ट है
और घोड़ा बहुत भूखा
कि उसका सारा ध्यान
सिंर्फ चरने पर है
लेकिन चिड़िया
नहीं जानती कि
बेध्यानी में भी
कुछ ठिकाना नहीं है
घोड़े की पूंछ का
पत्थर मारकर झूठ-मूठ का
क्यों न मैं ही उड़ा दूं उसे?
000
हाथों के प्रति
ंखुद के साथ
ऐड़ी
कूल्हे
घुटने
टूटने से
बचाने के लिए
कुछ पकड़ना चाहते थे हाथ
लेकिन कुछ नहीं था
जिसे वो पकड़ लेते
पैर जब
रपट रहे थे
फिर भी
दायीं कलाई में
हल्की मोच के साथ
कामयाब रहे हाथ
ऐड़ी
कूल्हे
और घुटनों को
बचाने में
गलती के अहसास से ग्रस्त
ंखैर मनाते
अति कृतज्ञ हैं पैर
हाथों के प्रति
ऐड़ी से कूल्हे तक
और इसी क्रम में
सिर
चेहरे
और कंधों की भी
हिंफाात के लिए
जो चोटिल होते तो
णरुर लानत भेजते उन पर
000
अब सोचने से क्या
‘हां’ के बाद
अब कोई सवाल
नहीं उठना चाहिए
लेकिन सवाल ही सवाल
उठ रहे हैं
जिसके कारण दिमांग में उलझन है
दिल में धड़कन
अब एकदम से ‘ना’
कैसे जवाब हो सकता है
अब तो समय बतायेगा
कि सिला मिलेगा कि नहीं
मिलेगा तो कब
और कितना
‘हां’ के पहले
नहीं सोचा तो
अब सोचने से क्या?
संभावना
यह रोग की यातना है
जिससे मुक्त होना चाहती है काया
किसी भी प्रकार से
जिनके लिए
रोज़ बीसियों
जाने कौन-कौन से टेबलेट्स
और कैप्सूल्स खाती है
जाने कौन-कौन सी मशीनों पर चढ़ती-उतरती है
जाने किन-किन देवी-देवताओं से करती है प्रार्थना
आखिरी विकल्प के रूप में
मृत्यु तक की करती है कामना
मगर यह रोग की है यातना
जो मुक्त नहीं करना चाहती काया को
क्योंकि घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या
और जोंक खून से दोस्ती करेगी तो पीएगी क्या
मगर घास
घास ही है
ख़ून, ख़ून ही है
जब तक बची है घास एक पत्ती
या बचा है ख़ून एक कतरा
इस मिट्टी की काया में जान है
और है पुन: हरियाली और लाली की
पूरी संभावना
एक हलवाहे का हल चलाना देखकर
वह हल चलाता है
और मजूरी पाता है
वह जो मजूरी पाता है
उसी से घर चलाता है
वह कैसे चलाता है घर
मैं नहीं जानता
मगर मैं देख रहा हूँ
कैसे चलाता है हल
देख रहा हूँ
कितनी कारीगरी है
उसके हल चलाने में
ज़मीन के कैनवास पर
ज्यामितिक एक सुन्दर-सी आकृति बनाने में
जिसकी एक-एक रेख कितनी सधी और
सीधी है
जो देखने के आनंद के अलावा अन्न भी
देती है
मगर दोस्तो!
उसकी यह कला
महज दस-बीस रूपयों की मजूरी
जो वह पाता है
जबकि दूसरों की कमाऊ खेती है
कार्रवाई जारी है
बेशक, प्रताड़ित था वह
यह टूटी चप्पल फटे कुरते
और माथे से बहते
रक्त से प्रमाणित था
लेकिन चमाचम बूट
और लकालक वर्दियाँ
संतुष्ट नहीं थीं
वे ठोस सबूत चाहती थीं
ठोस सबूत
हीरे-सा
या पाषाण-सा
कहाँ से लाता वह
ग़रीब और कमज़ोर व्यक्ति
इसलिए
ठोस सबूत के अभाव में
द्रवित कर देने वाली उसकी रिपोर्ट
लिखी नहीं गई
लेकिन कोई बात नहीं
अगर उसकी रिपोर्ट किसी थाने ने नहीं लिखी
ज़माने ने लिख ली है
और कारवाई जारी है
देखना-सुनना-कहना
किसी का सिर
आ जाता है आड़े
किसी की टोपी
किसी का कंधा
पूरा-पूरा दिखाई नहीं पड़ता है गोरखधंधा
और पूछिए तो
एक अलग कहानी सुनाता है हर बंदा
फिर कहिए भी तो
क्या कहिए !
स्वांतः सुखाय
न आत्मीय मंच आयोजक
न शुभचिन्तक सम्पादक
न संरक्षक प्रकाशक
स्वांत: सुखाय बस चल रही है मेरी कविता
नदी में नाव-सी
वृक्षों में हवा-सी
धमनी में रक्त-सी
और बहुत कुछ वक़्त-सी
आप के रूप में
आज जो मिला है
एक अच्छा भावक
इस स्वांतः सुखाय के लिए
हर्षप्रद यही है
और प्रेरणादायक
निराला के नाम
पदों
और कुण्डलियों के आगे
केंचुआ छन्द को लाने वाला,
उसे कालातीत जीत दिलाने वाला
निराला ही हो सकता था।
इस केंचुआ छ्न्द द्वारा जोती हुई मिट्टी में
गुलाबों से शानदार कुकुरमुत्ता उगाने वाला
निराला ही हो सकता था।
आज उसी निराला के नाम
मेरा यह केंचुआ छन्द
और जुही की कलियाँ चन्द!
गीत-संगीत
एक शोर है
मेरे भीतर
एक शोर है
मेरे बाहर
गाँव-गाँव
नगर-नगर
मेरे भीतर का शोर
अगर एक कान चाहता है
जो इसे सुने
तो मेरे बाहर का शोर
मेरे कान फ़ोड़ता है
मेरा ध्यान तोड़ता है
कि मेरे भीतर का शोर
गीत न बुने
बहुत चाहता हूँ
कब वह पल आए
मेरे भीतर का शोर
एक गीत में बदल जाए
बाहर का शोर जिसमें
संगीत-सा ढल जाए
आदमी रह गया हूँ
सरों से
उतारा जा चुका हूँ
दिलों से
निकाला जा चुका हूँ
और अब सड़क पर हूँ
क़ायम मगर
अपनी उसी अकड़ पर हूँ
जो समझौता नहीं करती
विचारों की पतनशीलता से
भावों की
पाशविकता से
इसलिए खेद है कि
अकेला हो गया हूँ
मगर ख़ुशी है कि
आदमी रह गया हूँ
जिधर खुला व्योम होता है (कविता)
तंग करती है-
तंगनिगाही,
तंग करती है
तंगमिज़ाजी,
तंग करती है
तंगदिली
उनकी
इसलिए
विक्षोभ होता है
और मैं भागता हूँ उस अलंग
जिधर खुला व्योम होता है
उधर ही
हवा, हरियाली और मौसम से सँयुक्त मैं
महसूस करता हूँ मन को अपने राग-द्वेष से मुक्त मैं
और उन्मुक्त उड़ता हूँ-
एक परिन्दे की तरह
फूल के गुच्छे और
किसी दुपट्टे की तरह
हरा न होगा
वह ठूँठ-सा पेड़
जो प्यास से सूख गया था
इस वक़्त
कैसा पी रहा है पानी
नदी में शीश डुबाकर
पर अब वह
पूरी नदी ही सोख ले तो भी
हरा न होगा
नदी किनारे सूरज चमका
लहरों में नाचा
फूलों में महका
पत्तों में सरसराया
रंगों में छलका
घंटियों में गूंजा
चिड़ियों में चहका
हवाओं में झूमा
पगडंडियों में घूमा
अंकुर में उभरा
ओस में टपका
नई किनारे सूरज चमका
रावण दहन
कितना आसान है
रावण का पुतला बनाना
और जलाना
जिसे मेरे बच्चे ने भी बना दिया
और जला दिया
छत पर ले जाकर
मगर हमीं जानते हैं
कितना मुश्किल है
किसी रावण को हराना
चाहे वह हमारे भीतर हो
या बाहर
मृग
भय के संसार में
भागता हुआ मृग
जीवन भी पाता है;
ठंडा-ठंडा पानी पीता
हरी घास खाता है,
मृगी के संग
आनंद मनाता है।
लेकिन पुल
जो राह किनारे था
बीच राह में है
जो प्रवाह के ऊपर था
प्रवाह में है
पेड़ तो माना
पुराना था
लेकिन पुल?
चार दिन भी न हुए थे
उद्घाटन को उसके
कहाँ से आ गया वातुल !
ख़ुशबू
एक हाथ से
जब दूसरे या तीसरे हाथ में जाती है
मंद पड़ जाती है ख़ुशबू
एक के बाद
एक को छोड़
जब हम लपकते हैं
किसी और इरादे की ओर
यही होता है
तितली
तितली !
इस ख़ूबसूरत शय ने
मुझे छला है कितनी बार
हथेलियाँ मेरी खरोंचों से भर गई हैं तब
और वह उड़कर
दूसरे फूल पर जा बैठी है
या सिर्फ़ इन्तज़ार के लिए
तन पर सितारे टाँके
माथे पर चांद की बिन्दिया लगाए
बेले की ख़ुशबू से सराबोर
यह रात
किसी से प्यार के लिए है
या सिर्फ़
उसके इन्तज़ार के लिए है?
ज़िन्दगी कब बसन्ती होगी
आज मरूँ तो
चालीस साल
चार साल बाद मरूँ तो
चौवालीस साल
और दस बरस और जी लूँ तो
स्वर्ण जयन्ती होगी
और अगर पचास साल और जी लूँ तो
एक और स्वर्ण जयन्ती होगी
मगर ज़िन्दगी तो
आज भी मटमैली
ऊसर-धूसर
यह कब बसन्ती होगी?
जब बीड़ी से धुवाँ उठेगा
चित्रात्मकता का अप्रतिम प्रतिमान
रक्तिम लपटॊं में घिरा
शाम का आसमान
पर वे इसका आनन्द नहीं उठा सकते
तलब है बीड़ी की
जिसे वे उन लपटॊं से नहीं जला सकते
माचिस की डिबिया भूल आए हैं
यह ध्यान तब आया है
जब नदी के कूल आए हैं
लपटों से घिरे चित्रमय आसमान से
उनका मन तभी जुड़ेगा
जब उनकी बीड़ी से धुवाँ उठेगा
आओ विचार करें
दो गाँवों का जीवन
चल रहा है एक नदी से
लेकिन एक-दूसरे से कटा हुआ
कितना भला हो वास्तव में
यदि जु़ जाएँ
ये दो गाँव
ये दो जीवन
आपस में
आओ, बात करें, विचार करें
कैसे इस नई पर एक पुल तैयार करें।
वसन्त विभ्रम
खेतों में
खिली सरसों है
या हवा में लहराता पीला पल्लू ?
देखूँ भी तो क्या देखूँ ?
मेरी पलकों पर छाया तो वही है हर सू !
सुनूँ भी तो क्या सुनूँ ?
सुनूँ बस अपनी ही साँसों का सरगम
जबकि सरसरा रहे होते हैं
सरसों के फूल
हवा में मद्धम-मद्धम
समझूँ भी तो क्या समझूँ ?
कल्पना में ही होकर रह जाएगा मिलन हमारा
या मिलेंगे हम वास्तविकता में
इस बार
इस वासंतिक वाटिका में
क्या कर रहा है
चढ़ रहा है
या उतर रहा है ?
साफ़ नहीं बिल्कुल नज़र आ रहा है।
झाँक रहा हूँ हैरान
ताल के दरपन में
शायद दरपन दिखाए
दृश्य साफ़-साफ़
पर वह तो इस झूमती हवा से भी ज़्यादा
हिल-डुल रहा है
कोई बताए तो
ताड़ के पेड़ पर
चांद क्या कर रहा है ?
वे लौट आएँ
वे तीर्थयात्रा पर गए हैं
और इधर घर में उनके
चिड़ियों मे बना डाले हैं घोंसले
काश, इनके अंडे देने से पहले
वे लौट आएँ
या फिर आएँ तब
जब अंडे इनके उड़ जाएँ
कि एक भारी अनर्थ से बच जाएँ
ये भी
और वे भी !
झाड़ू का तिनका
वह झाड़ू
जिससे तुम चमकाया करती थीं
अपना घर
उसी फूल झाड़ू का
टूटा हुआ
वह नरम, हल्का, पंखदार तिनका
चिड़िया की चोंच में
लग रहा है
पहले से भी सुन्दर
पहले से भी उपयोगी
एक नज़र
क्या इधर भी
ध्यान दोगी ?
बच्चे का प्रश्न
मैं जहाँ जाता हूँ
भगवान राम को देखता हूँ
सीता जी के साथ
या भाई लक्ष्मण
या भक्त हनुमान जी के साथ
या इन सबके साथ
मैं क्यों नहीं देखता हूँ कभी उन्हें
लव-कुश के साथ ?
मेरे बच्चे के प्रश्न का उत्तर
नहीं है मेरे पास
क्या बतलाएगा कोई व्यास?
विदाई
ये कैसे शब्द हैं
जो स्मृतियों को जगाते हुए
विस्मृति में लीन होते जा रहे हैं,
ये कैसे पुष्पहार हैं
जो हृदय को घेरते हुए
सम्बन्धों की डोर खोते जा रहे हैं,
ये कैसे उपहार हैं
जिन्हें पाकर दामन से ज़्यादा
दृग गए हैं भर
ये कैसी मुक्ति है
जो क़ैद से ज़्यादा लग रही है कष्टकर !
फल
टूट सकता था
अंधड़ों, आंधियों में
मैं फल कच्चा था
मगर नहीं टूटा
यह अच्छा था
अच्छा था, चाहूँ मैं
आगे भी अच्छा हो
मैं गिर जाऊँ टूटकर
इससे पहले कि सड़न
मुझमें पैदा हो
नाम
हो जाए
कितना भी खंडहर
नाम ’रानी का महल’
कहीं जाएगा,
नाम कहीं जाता है
नाम नहीं जाता है
धूल की तरह उड़ता है
खंडहर में
नाम
दुष्काल
जीवन का ताप देते-देते
संताप देने लगे
क्यों सूर्य !
स्वयं सूरजमुखी का सर लटक गया है
लता सूख गई है फूलों की
हरा सब झुरा गया है
डाली-डाली विवस्त्र है
जल और छाया का हो गया अकाल है
तुम्हारा लाया
यह कैसा उष्काल है
हिमकाल की यातनाओं से उबारनहार !
पतझर में पेड़
विचार-विस्मित हूँ
और मुग्ध-भाव उन्हें देख-देख
प्रकृति के ये रंग-बिरंगे चित्र
जो नए सिरे से रंगे जाने के लिए
फिर से बन गए हैं स्केच
न आता इधर तो
न आता इधर तो
कैसे एख पाता
दूर-दूर तक फैली हरी-भरी धरती
और गायें दूब चरतीं
न आता इधर तो
कैसे जुड़ाते ये नयन
कैसे नहाता
दूध से मन !
लौटना तुम
प्रतीक्षा करूंगा
ऐ शाख़ से झरती पत्ती
लौटना तुम
बहारें लेकर !
वहीं
कितने पौधे
सूखे जा रहे हैं
वहीं, जहाँ लोग
सूखे हुए पीपल को
सींचे जा रहे हैं।
उजाड़ बगिया में
न कहीं चह-चह
न कहीं कू-कू है आज
उजाड़ बगिया में केवल
विशालकाय डैनों की फड़-फड़
और हू-हू है आज
हवा-1
यह हड्डियों के आर-पार बह रही है
इसमें टूट रहे हैं रोयें
इसमें रुदन के स्वर उभर रहे हैं
इसमें उड़ रही है शमशान की राख
इसमें फड़फड़ा रहे हैं प्राण
हवा-2
यह दृष्टियों के आर-पार बह रही है
इसमें मज़े लूट रहे हैं रोयें
इसमें गान के स्वर मचल रहे हैं
इसमें उड़ रहा है फूलों का पराग
इसमें गुदगुदा उठे हैं प्राण
केवल इतना जाना
मेरा रंग चलेगा
मेरा रूप चलेगा
मेरी ख़ुशबू चलेगी
मगर मेरा घमंड नहीं चलेगा
मैंने केवल इतना जाना
फूल होकर
एक दिन
धूल होकर
शाम-1
मंद हुआ
दिन का उजाला
तीव्र हुआ
चिड़ियों का चहचहाना
तीव्रतर हुई
मेरी पीड़ा
जिसका कोई न उपचार
सिवाय प्यार
शाम-2
इसे एक मित्र ख़ुशगवार बना सकता है
इसे एक स्त्री यादगार बना सकती है
नहीं तो यह
कल की तरह ही
आज भी
ढल जायेगी
बालू की भीत
बना रहे वे
बाढ़ रोकने हेतु
बालू की भीत
बालू की भीट
हवा गिरा देती है
बाढ़ तो दूर
लक्ष्य सुदूर
भोजपत्र से
कम्प्यूटर तक की
कविता-यात्रा
फिर भी रहा
हृदय की वाणी का
लक्ष्य सुदूर
निकास बनाम विस्तार
मेरी नाली का पानी
सरोवर में जा रहा था
मैंने अपनी नाली में
जलकुम्भी देखी
सरोवर की काई
सरोवर के पानी पर
काई की यह हरी चादर
धोखा दे रही है
हरी ज़मीन की
कहीं जान न ले ले यह
प्रेमावेग में दौड़े
किसी जवान
किसी हसीन की
नगर निगम वाले चेतें
प्रेमी कहाँ तक देखें
सूखा
आकाश में भी देखो तो
वही दृश्य
चंद धुआँसे पेड़
और मीलों परती
सूखा यहाँ भी
सूखा वहाँ भी
युद्ध क्षेत्रे
मरे
गले मिल रहे हैं
जीवित
लड़ रहे हैं
दो तरह की बातें
शान्ति स्मारकों पर
फूल बरसाओ
शान्ति समारोहों में
कबूतर उड़ाया करो
मगर बम बनाया करो
बमवर्षक बनाया करो
कानून बड़ा काम आया
कानून का तो नाम ही नहीं आया
और काम कुल हो गया
काम कुल हो गया
तो कानून का नाम आया
किए जा चुके काम के हित में
कानून बड़ा काम आया
क़सूर
सुबह कहती है– उठो!
शाम कहती है– बैठो!
उठो-बैठो
किस कसूर की
सज़ा है यह?
क्यों
धूप की यात्रा में
सुबह शामिल होते हैं जो
शाम को बुझ जाते हैं क्यों?
क्या मंज़िल पर पहुँच जाते हैं वे?
या मंज़िल नहीं पाते हैं वे?
जैसा जो पात्र है
यह नदी है
यह नाली है
यह गागर है
यह सागर है
जैसा जो पात्र है
वैसा जल मात्र है
जैसा जो पल है
यह जमने का समय है
यह पिघलने का
यह कलकल करते हुए बहने का समय है
यह न दिखते हुए उड़ने का
और यह उमड़-घुमड़ बरसने का
जैसा जो पल है
वैसा यह जल है