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अगर फूल-काँटे में फरक हम समझते

अगर फूल-काँटे में फर्क हम समझते
बेवफा तुमसे मुहब्बत न हम करते

जो मालूम होता अन्जामे-उल्फत
यूँ उल्फत से गले न हम लगते

बहुत दे चुके हैं इन्तहाएं मुहब्बत
न होती मजबूरियाँ, शिकायत न हम करते

अगर होता मुमकिन तुम्हें भूल जाना
खुदा की कसम मुहब्बते-खत न हम लिखते

जो मालूम होता, मुहब्बते बरबादी में तुम भी हो
शामिल, तो एहदे मुहब्बत न हम करते

आ रहा है गाँधी फिर से

सुनकर चीख दुखांत विश्व की
तरुण गिरि पर चढकर शंख फूँकती
चिर तृषाकुल विश्व की पीर मिटाने
गुहों में, कन्दराओं में बीहड़ वनों से झेलती
सिंधु शैलेश को उल्लासित करती
हिमालय व्योम को चूमती, वो देखो!
पुरवाई आ रही है स्वर्गलोक से बहती
लहरा रही है चेतना, तृणों के मूल तक
महावाणी उत्तीर्ण हो रही है,स्वर्ग से भू पर
भारत माता चीख रही है, प्रसव की पीर से
लगता है गरीबों का मसीहा गाँधी
जनम ले रहा है, धरा पर फिर से
अब सबों को मिलेगा स्वर्णिम घट से
नव जीवन काजीवन-रस, एक समान
कयोंकि तेजमयी ज्योति बिछने वाली है
जलद जल बनाकर भारत की भूमि
जिसके चरण पवित्र से संगम होकर
धरती होगी हरी, नीलकमल खिलेंगे फिर से
अब नहीं होगा खारा कोई सिंधु, मानव वंश के अश्रु से
क्योंकि रजत तरी पर चढकर, आ रही है आशा
विश्व -मानव के हृदय गृह को, आलोकित करने नभ से
अब गूँजने लगा है उसका निर्घोष, लोक गर्जन में
वद्युत अब चमकने लगा है, जन-जन के मन में

अभी मरने की बात कहाँ

अभी मरने की बात कहाँ
अभी तो हूँ मैं बंद कली
भौंरे ने घूँघट खोला ही नहीं
मृदु जल से नहलाया ही नहीं
जीवन परिक्रमा पूरी हुई कहाँ
अभी मरने की बात कहाँ

उठते सूरज को देखा ही नहीं
चाँदनी में नहाया ही नहीं
आकांक्षाएँ मेरी बाँहों को थामी ही नहीं
धरा से धैर्य सीखी ही नही
सुंदरता अंगों से लिपटी कहाँ
अभी मरने की बात कहाँ

अभी डाली पर कोमल पत्ते भरे नहीं
पौधे जमीन को जड़ से जकड़े नहीं
सौरभ सुगंध का व्यापारी
भौंरा अभी तक पहुँचा कहाँ
अभी मरने की बात कहाँ

गुलशन में बहार आई नहीं
चम्पा की कतार सजी नहीं
मोलसिरी की छाँव में बैठी नहीं
मतवाली कोयल को अमुआ की
डाली पर पी- पी पुकारते सुनी कहाँ
अभी मरने की बात कहाँ

सीने से लगाकर हवा ने दुलराया नहीं
पुष्प, पुष्प को पहचाना नहीं
अभी तो हूँ , मैं एक बंद कली
मेरे विकसित रूप को बाग का
माली ने देखा कहाँ
अभी मरने की बात कहाँ

दहाड़ उठता है, विवश माँ का हृदय

हे माँ देवी कैलासिनी
जगत जननी कल्याणी
तुम हो सारे जगत की माता
मैं निज बेटे की हतभागिन जननी

माँ तुमको मालूम है, जिसके लिए मैं
तुमसे करूणा की भीख मांगने आई हूँ
वह कोई अपराधी नहीं, मेरा अंश है
मेरे जीने का अभिप्राय है,बुढ़ापे की लाठी है
झुकी और कमजोर अस्थियों की शक्ति है

मेरे सुत के तन से मधुर भाव छलकता है
अमृत से भरा वह प्याला है
जिसे चूम – चूम कर मैं जीती हूँ
इसलिए मेरी प्रार्थना, तुम स्वीकार करो
और मेरे सुत को मंगलमय वरदान दो

मेरा बेटा स्वभाव का बड़ा ही मीठा है
दुख के करुवेपन सह नहीं सकता है
मेरे आँगन का चाँद है, अँधेरे का उजाला है
सुबह की उषा किरण की तरह सुखदायी है
ओस कण की तरह प्यारा और मनमोहक है

तुम्हारे सिवा , इस लोक में मेरा कौन है माता
तुम भलीभांती जानती हो, इस दुनिया में
केवल माँ बन जाने से ममत्व पूरा नहीं हो जाता
इसलिए विनती है, मेरे सुत का मंगलमय कर दो जीवन
बदले में तुम ले लो मेरा, कोई भी स्वर्णिम क्षण

तुम प्रकाश की महासिंधु हो
थोडी रोशनी मेरे सुत को भी दे दो
तुम्हारे मन की ये कैसी दुबिधा
कि देवी होकर भी मेरे पुत्र का
मधुमय जीवन लौटाने से हिचक रही हो

तुम मेरी तरह असहाय नारी नहीं हो
तुम महाशक्ति की देवी हो
फिर क्यों नहीं, मेरे सुत के दुख–दर्द
के गरल को अमृत समझ पी लेती हो
और अपना प्रेम-पीयूष बरसाकर
उसके तन-मन को शीतल कर देती हो

जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया

जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
तुमने मुझको जैसा रखा, वैसा मैं रहा
अपने तन को तिल – तिल जलाकर
तुम्हारे आगे रोशनी किया
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
कभी साँसों का हार बनाया
कभी तन, धूप, दीप जलाया
कभी आँखों से आँसू लेकर
तुम्हारे मंदिर को धोया
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
कभी अनल जल स्नान किया
कभी काँटों पर सोया
फाड़कर अपनी पुरानी धोती
ओढ़ा और ओढ़ाया
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
तुम्हारे चिन्ह अनेक मिले
पर तुम न पड़ी, कहीं दिखाई
घर त्यागकर आज मैं
तुम्हारे शरण में आया
जवानी बीती, बुढ़ापा आया
फिर भी तुम से कभी कुछ कहा
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
कभी साँसों का दीप जलाया
कभी तन का भोग लगाया
कभी अपने व्यथित हृदय को
गले लगाकर समझा और समझाया
कभी दुख की दरिया में डूबकर
सुख- माया के संग खेला
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
कभी तुम्हारे चौकठ पर सर पटका
कभी अपने लिए दुआ माँगा
कभी बेबसी और लाचारी सुनाकर
बिलख – बिलखकर रोया
कभी अपने भाग्य पर जी भर हँसा
कभी दूसरे को भी हँसाया
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
कभी तो तुमने ये कहा , जीने का ध्येय
कृति नहीं, धन नहीं ,सुख नहीं, दर्शन नहीं
क्या कभी मैंने तुमसे इसके लिए हठ किया
तुमने जैसा चाहा, मैंने वैसा जीया
जब- जब दुख- विष का प्याला भेजा
मैंने अमृत समझ चुपचाप पीया
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया
पहनूँगी मैं मुक्ता की माला
चाँदी का दे दो मुझको दोशाला
रत्न – जडित महल हो मेरा
जहाँ बजता हो ढाक – मजीरा
ऐसा कुछ, मैंने तुमसे कभी माँगा
तुमने जैसा रखा, मैं वैसा रहा
जितना मुझसे हो सका, उतना मैंने किया

औरत हूँ, ताकतवर भी,कमजोर भी

औरत हूँ, ताकतवर भी, कमजोर भी
कभी मैं स्वयं कुरबान हो जाती हूँ
कभी मेरी कुरबानी जबरन ली जाती है
मेरी कुरबानी सदा नदारद ही जाती है
कुरबानी मेरी फितरत जो है
निस्वार्थ कुरबानी मेरी ताकत है
और यही मेरी कमजोरी भी है
बेटे के लिए दूध में मिसरी और
बेटी के हाथों पर रोटी-
नमक धरनेवाली मैं ही हूँ
सास बनकर बहू को खड़ी-खोटी
सुनानेवाली भी मैं ही हूँ
और बहू बनकर सास को जहर
देनेवाली औरत भी मैं ही हूँ
यही मेरी ताकत है और कमजोरी भी
मेरा अपना आपा कुछ नहीं है
समाज, संस्कार और संस्कृति
यही मेरा वजूद है
मेरी पैदाइश ही अशुभ और बोझ है
मेरी आँखों से आँसू की जगह खून टपकता है
तब भी मैं उफ तक नहीं करती हूँ
यही मेरी ताकत है और कमजोरी भी
पसीमा की तरह मेरी आँखों से
अविरल आँसू झरते रहते हैं
फिर भी कोयल की तरह मेरी
जुबान मीठी है और मधुर भी
अखंड पवित्रता पर दाग न लगे
स्वयं अपनी हाथों अपनी चिता
सजानेवाली पद्मिनी भी मैं ही हूँ
यही मेरी ताकत है और कमजोरी भी
मेरी अपनी कोई पहचान नहीं
मेरे शरीर के हजार टुकड़े हैं
किन-किन को गिनाऊँ, बस
यूँ समझ लो कि इस दुनिया को
रचनेवाली देवी मैं ही हूँ
और मिटानेवाली भी मैं ही हूँ
यही मेरी ताकत है और कमजोरी भी

द्यूत क्रीड़ा-गृह है, सजा हुआ

दुनिया के इस द्यूत क्रीड़ा- गृह में
मामा शकुनि के चतुर- पास में
परम-पूज्य पितामह हैं मौजूद
सिंहासन पर बैठी गांधारी सी
सासें भी हैं, जो स्वयं बाँध रक्खी हैं
आँखों पर अंधेपन की पट्टी
धृतराष्ट्र सा मधुर वचन बोलने वाला
ससुर भी है नेत्रहीन, गंभीर, बधिर
तुम्हारा प्यारा देवर, दुःशासन भी है
जो आँखों की पुतलियों में छुपाये हुए है
तुम्हारे चीर-हरण का भावी तसवीर
सत्यवादी युधिष्ठिर सा पति भी है
तुमको दाव पर लगाने को है आतुर
श्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन भी है, जो
ला देगा तुमको सुभद्रा सी सौतन
किस बात की कमी रह गई है
इस द्यूत क्रीड़ा-गृह में पांचाली
जो तुम अभी तक नहीं आई
विदुर सा नीतिशास्त्र का ज्ञाता
काकाश्री इस दुनिया में अब नहीं रहे
उनसे तुम्हारा परिचय करबाऊँ कैसे
हाँ, दुःशासन सा देवर तुम्हारा
चीर- हरण को यहीं है बैठा
कुरूवंश के रखवाले द्रोणाचार्य
और पितामह भी यहीं हैं
सभी शांत, आतुर पलकें बिछाए
अपने आसन पर बैठे हुए हैं
सिर्फ तुम्हारा चीर- हरण होना है बाकी
अब न कोई व्यास, महाभारत रचेगा
न ही कृष्ण किसी को बहन बनायेगा
अब द्रौपदी कम , सीता यहाँ ज्यादा आयेगी
क्योंकि हर सीता को वन में जाना है
और अग्निकुंड में कूदकर पातिव्रत का
सबूत देकर भी, धरती में समा जाना है
पर अब दुर्योधन के शासन-काल में
द्रौपदी का आना नितांत आवश्यक है
जो अपने पति से कह सके
अपनों की छाती का लहू ला दो
मुझे शोणित-स्नान करना है
पर अफसोस तो यह है कि
द्रौपदी को भीम सा पति मिलना मुश्किल है
द्रौपदी जब तक द्यूत क्रीड़ा-गृह में
चीर-हरण करबाने नहीं आयगी
तब तक दुर्योधन, दुःशासन और शकुनि
ऐसे ही द्यूतशाला को सजाते रहेंगे
द्रौपदी के हमशक्ल का चीरहरण होता रहेगा
क्योंकि कृष्ण तुमको छोड़कर और
किसी को बहन नहीं मानते, वरना एक बार
फिर से नारी- रक्षा को यहाँ नहीं आते

प्रेम रोग

कोहरे में लिपटा इस धरा गर्त के अतल से
निकलकर , असंख्य दुख , विपदाएं , शत -शत
भुज फैलाए , अग्नि – ज्वाल की लपटों सी
अँगराई लेती रहती हैं, इसलिए जीवन इस
कंदर्प में खिला, मनुष्यत्व का यह पद्म
खिलते ही मुरझा जाता है, फिर भी मनुज
मुरझाने से पहले, अपनी आकांक्षा के तरु को
हृदय सरोवर के शीतल जल से सीचना चाहता है
नियति के इस निर्मम उपहास से मर्माहत हो उठी
मनुज की मूक चेतना में गहरे व्रण पड़ जाते हैं
तब वह आकांक्षा के प्रीति पाश से बाँधकर काँपती
छाया के पुलकित दूर्वांचल में, कुछ देर ही सही
बैठकर समीर – सा सौरभ पीना चाहता है जिससे
जीवन संघर्षों की प्रतिध्वनियाँ उठकर संगीत में
बदल सके और सिहर रहे पत्रों के थर-थर सुख से
विभोर होकर , गंध पवन में भीनी- भीनी साँसें ले
रही, अर्द्धविकसित कलियों का मुख चूम सके
जिससे हृदय की शिरा – शिरा में रोर रहे
प्रीति सलिल की शीतल धारा में स्नान कर
अंतरमन विनाश के महाध्वंश में नवल सृजन कर सके
मगर इस दुनिया में यह प्रेम बड़ा कठिन रोग होता है
जिसे लगता, रातों की नींद चली जाती है, दिल
का चैन चला जाता है, दवा और दुआ कुछ काम नहीं
आता, आषाढ की घनाली छाया, मदहोश किए रहती है
एक सरोज मुख के बिना, जीवन अधूरा लगता है
आँखों को दामिनी चकित नहीं करती, कामिनी करती है
अधरों से नव प्रवाल की मदिरा निकलकर तन के
रोओं में आकर दीपक सा जलता रहता है, जिसकी
सभी महिमा फैली हुई है भुवन मे कामद – सा
जिसका जयगान सिंधु, नद, हिमवत् सभी करते हैं
प्रेमी मन उसे भी भूल जाता है, कब दिन उगा
कब शाम हुई, कब दिन ढला, कुछ ग्यान नहीं रहता
मगर चाँदनी मलिन और सूरज तापविहीन दीखता है
क्या साधु क्या फकीर, क्या राजा क्या रंक
क्या देवता क्या दानव , सभी यही सोचते हैं
ऐसा मनोमुग्धकारी पुष्प इस जहाँ में
दूसरा और कोई नहीं हो सकता, जिसमें
रूप, रंग,गंध के संग-संग मदिर भाव भी रहता है
जिसको पाकर योगी योग तक भूल जाता है, और
ग्यानी ग्यान भूल जाता है
दिवस रुदन में, रात आह में कट जाती है
इस दुनिया में प्रेम रोग सब

आओ हम धरा को स्वर्ग बना लें

विषमता की धारा मुक्त होकर , धरा पर बहने न पावे
मानवता की चट्टान बनाकर हम इसे यहीं रोक लें
आओ, हम सब मिलकर इस धरती को स्वर्ग बना लें
जाति , वर्ण, गौरव से पीड़ित , भू जन के अंतरमन में
शिल्पी – सी चेतना को जागृत करें, व्यर्थ है पूरब
पश्चिम का दिगभ्रम फैलाना, इससे मानवता हो रही है
खंडित , इनके अन्तर दृष्टिग्यान को हम ज्योतित करें
आओ, हम सब मिलकर इस धरती को स्वर्ग बना लें
नई अनुभूति की खान है नीचे दबी, उसे खोजें
नए स्वर से भरा कोष है ,यहाँ कहीं गड़ा, उसे खोदें
भ्रांति होगी छाया के हाथों बिककर , गगन में जाना
फूलों का सौरभ वायु संग जो उड़ रहा नभ में, वह
यहीं धरती की छाती से लिपटकर सोता है रातों में
कहते हैं जिसको माया नहीं मिलती, उसे राम मिलते हैं
हम उस सौरभ के पीछे न भागकर उस फूल को उगाएँ
जिसे लोग स्वप्न में देह धरकर,सीने से लिपटाए रखते हैं
विश्व मानव का रुद्ध हृदय, स्वर्गलय से है वंचित
प्रीति लहरों से उद्वेलित न होकर,निज रुचि से है आन्दोलित
मानव उर से प्रीति, विनय आदर सभी विदा हो गए हैं
भू का दूर्वाचल, पाप तप से उगता ज्वालाओं में रहता हरित
हमें ऐसे जीर्ण प्राणों के छिन्न वसनों को उतारकर
नव वसनों से करना होगा उन्हें विभूषित , तभी बदलेगा
विषन्न वसुधा का आनन स्वर्ग बनेगी धरती,राग दोषों से
चिर मथित मानव इच्छाओं का स्तर – स्तर होगा हर्षित
इस धरा पर रंग तरंगित है, जिस श्री से हम
उस देवी को हृदय असन पर विराजमान करें
कोमलता बढती जिसको छूकर उस देह तनिमा को जानें
कली-कली से इस भू को रँगकर शोभना को करें सुसज्जित
जन – जन के उर – उर से ऐसा सुरभित गंध बहे , जिसे
देख ज्योत्सना रहे विस्मित, तारिकाएँ रहें अचम्भित
विश्व मानव के अंतरमन को प्रीति दर्प दिखाकर
फिर से भू जन की आत्मा को नूतन करना होगा
निष्ठुर इन्द्र के वज्रघात से क्रोधित होकर
प्रलय आह्वान करना ठीक नहीं है,जिसके चरणों में
नत रहता अनिल ,तरंगित उदधि, सूर्य,शशि, गगन
हम ऐसे त्रिया का क्षीरोज्ज्वल पीकर बड़े हुए हैं
आतप ताप की हलचल में यह धरा लुप्त हो जाए
ऐसा करना ठीक नहीं है, जिससे कि दैन्य दूरित
तमस घन हट जाए, प्रभात स्वर्ण जड़ित हो विश्व
का प्रांगण , लदा रहे फूलों से भू मानव के
जीवन की कोमल डाली, ऐसा कोई काम करें
जिस जगती का चित्र प्रकृति के कण- कण से होता मुखरित
वहाँ की मिट्टी स्वतः शत-शत रंगों से क्यों न रहे कुसुमित
धरा पर प्रेम, प्यार, करुणा का सागर स्वयं रहे तरंगित
काँटों का जग सद्यफुटित सरोज मुख से रहे शोभित
जिससे तमस हृदय ,अलोक स्रोत को पा सके
अत्म का संचरण ,मन को करे आलोकित, और यह
धरती देवताओं के स्वर्ग खंड –सा हो सके प्रतिष्ठित
तभी आतप ताप से बंधा मानव का प्राण सुवासित होगा
रक्त पंकिल धरा की मिट्टी से सौंधी-सौंधी महक आएगी
ज्वाल वसन कुसुमों के तन पर रंग प्राण लहराएगा
देव- शासित लोक गगन से अमर संगीत,धरा पर उतरेगा
यह धरती जो सिंधु ज्वार सी स्तंभित है इसमें
आनन्द, उल्लास तरंगित होगा, यहाँ भी मानव भविष्य
का चित्र दर्पण की छाया – सी पहले से चित्रित रहेगा

से कठिन रोग होता है

रात काटती प्रहरी -सा

मेरे नयनों से पीड़ा छलकती, मदिरा -सी
प्राणों से लिपटी रहती सुरभित चंदन -सी
वह ज्वाल जिसे छूकर मेरा स्वप्न जला
लगती सगही – सी , ढाल- ढालकर अंगारे
पिलाती, कहती संजीवनी है पदमर्दितों की
उर पर आँसुओं का हार चमकता हीरे सा
कब दुख आ जाए, जयमाल पहनाने
रात काटती प्रहरी–सा,दुख तुषार को जगाती मैं
छलकाकर वेदना अपनी चितवन की
संध्या के आँसू में घुल जाती अंजन सी
धरती से अम्बर तक,बिछ जाती मैली चादर-सी
इन आँखों से देखा नहीं कभी मैंने उन
चरणों को ,मगर उनकी पदध्वनि है पहचानी सी
बरसों से धोती आई हूँ मैं, अपने अश्रु – जल से
मल-मलकर मैं सुख से चंचल,दुख से बोझिल-सी
रातों को पंथहीन तम में, स्नेह भरा जलता है
वह , चमकता है दृगों में सितारों- सी
मल्लिका – मलय , कली तगर गंध
कभी मेरी राह में बाधा नहीं बनाती
बल्कि अपने सौरभ गंध प्रवाह को
विपरीत दिशा में फैलाकर मेरी
मृत्यु -राह की दिशा निर्देश कराती
मेरा चिर परिचित सूनापन
मुझमें ही लय होकर जीता
मेरी परछाईं से चित्रित
सजल रोमों को गले लगाए रखता
सघन वेदना के अंचल में, तम
मेरी सुधि लेने आता, मेरे
जीवन नद के दोनों किनारे
धूल,शूल, व्यंग्यमय फूल खिलाकर
अमिट चित्र अंकित कर जाता
विश्व कोहरे में सिमटने चला
दीखता नहीं दूर तक आगे है क्या
बस मुझे इतना है मालूम कि
मेरे दुख का राज्य अनन्त है
अशेष है निश्चल अम्बर सा

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