आतिश-ए-ग़म में भभूका दीदा-ए-नमनाक था
आतिश-ए-ग़म में भभूका दीदा-ए-नमनाक था
आँसुओं में जो ज़बाँ पर हर्फ़ था बेबाक था
चैन ही कब लेने देता था किसी का ग़म हमें
ये न देखा उम्र भर अपना भी दामन चाक था
हम शिकस्ता-दिल न बहरा-मंद दुनिया से हुए
वर्ना इस आलूदगी से किस का दामन पाक था
जौहर-ए-फ़न मेरा ख़ुद मेरी नज़र से गिर गया
हर्फ़-ए-दिल पर भी ज़माना किस क़दर सफ़्फ़ाक था
रात की लाशों का कूड़ा सुब्ह-दम फेंका गया
क्या हमारे दौर का इंसाँ ख़स-ओ-ख़ाशाक था
कितना ख़ुश होता था पहले आसमाँ ये देख कर
जो तमाशा था जहाँ में वो तह-ए-अफ़्लाक था
मेरा दुश्मन जब हुआ राज़ी तौ हैरानी हुई
मेरे आगे और भी इक रू-ए-हैबतनाक था
कितनी बातें थीं हमारे ज़ेहन का हिस्सा मगर
तजरबे के बाद उन का और ही इदराक था
ख़ू-ए-इंसाँ को अज़ल से ही ये दुनिया तंग है
जो वरक़ तारीख़ का देखा वो इबरतनाक था
हम जो आ बैठे कभी तो तन में काँटे ही चुभे
साया-ए-गुल भी हमें कितना अज़ीयत-नाक था
जल्वा-ए-फ़ितरत नुमायाँ है लिबास-ए-रंग में
हुस्न हर तहज़ीब में मिन्नत-कश-ए-पोशाक था
सर के नीचे ईंट रख कर उम्र भर सोया है तू
आख़िरी बिस्तर भी ‘आमिर’ तेरा फ़र्श-ए-ख़ाक था
अगरचे हाल ओ हवादिस की हुक्मरानी है
अगरचे हाल ओ हवादिस की हुक्मरानी है
हर एक शख़्स की अपनी भी इक कहानी है
मैं आज कल के तसव्वुर से शाद-काम तो हूँ
ये और बात कि दो पल की ज़िंदगानी है
निशान राह के देखे तो ये ख़याल आया
मिरा क़दम भी किसी के लिए निशानी है
ख़िज़ाँ नहीं है ब-जुज़ इक तरद्दुद-ए-बेजा
चमन खिलाओ अगर ज़ौक़-ए-बाग़बानी है
कभी न हाल हुआ मेरा तेरे हस्ब-ए-मिज़ाज
न समझा तू कि यही तेरी बद-गुमानी है
न समझे अश्क-फ़िशानी को कोई मायूसी
है दिल में आग अगर आँख में भी पानी है
मिला तो उन का मिला साथ हम को ऐ ‘आमिर’
न दौड़ना है जिन्हें और न चोट खानी है
चंद घंटे शोर-ए-ओ-ग़ुल की ज़िंदगी चारों तरफ़
चंद घंटे शोर-ए-ओ-ग़ुल की ज़िंदगी चारों तरफ़
और फिर तन्हाई की हम-साएगी चारों तरफ़
घर में सारी रात बे-आवाज़ हंगामा न पूछ
मैं अकेला नींद ग़ाएब बरहमी चारों तरफ़
देखने निकला हूँ अपना शहर जंगल की तरह
दूर तक फैला हुआ है आदमी चारों तरफ़
मेरे दरवाज़े पे अब तख़्ती है मेरे नाम की
अब न भटकेगी मिरी आवारगी चारों तरफ़
मेरे घर में ही रहा ता-उम्र मेरा वाक़िआ
अपनी अपनी वर्ना अर्ज़-ए-वाक़ई चारों तरफ़
चाँदनी रातों की बस्ती में हूँ मैं सहमा हुआ
ख़ौफ़ से लिपटी हुई है रौशनी चारों तरफ़
है कोई चेहरा शनासा ढूँढता हूँ भीड़ में
इतनी रौनक़ में भी इक बे-रौनक़ी चारों तरफ़
पहले मेरी बात हँस कर टाल भी देते थे वो
लेकिन अब तस्दीक़ मेरी बात की चारों तरफ़
बज़्म में यूँ तो सभी थे फिर भी ‘आमिर’ देर तक
तेरे जाने से ही इक ख़ामुशी चारों तरफ़
इक ख़ला सा है जिधर देखो इधर कुछ भी नहीं
इक ख़ला सा है जिधर देखो इधर कुछ भी नहीं
आसमाँ कौन-ओ-मकाँ दीवार-ओ-दर कुछ भी नहीं
बढ़ता जाता है अंधेरा जैसे जादू हो कोई
कोई पढ़ लीजे दुआ लेकिन असर कुछ भी नहीं
जिस्म पर है कौन से इफ़रीत का साया सवार
भागता है सर से धड़ जैसे कि सर कुछ भी नहीं
हर नया रस्ता निकलता है जो मंज़िल के लिए
हम से कहता है पुरानी रहगुज़र कुछ भी नहीं
एहतिमाम-ए-ज़िंदगी से हैं ये सब नक़्श ओ निगार
वर्ना घर कुछ भी नहीं दीवार-ओ-दर कुछ भी नहीं
घर में अपने साथ जब रक्खोगे ‘आमिर’ देखना
जिस को तुम कहते हो अब रश्क-ए-क़मर कुछ भी नहीं
क्या हुआ हम से जो दुनिया बद-गुमाँ होने लगी
क्या हुआ हम से जो दुनिया बद-गुमाँ होने लगी
अपनी हस्ती और भी नज़दीक-ए- जाँ होने लगी
धीरे धीरे सर में आ कर भर गया बरसों का शोर
रफ़्ता रफ़्ता आरज़ू-ए-दिल धुआँ होने लगी
बाग़ से आए हो मेरा घर भी चल कर देख लो
अब बहारों के दिनों में भी ख़िजाँ होने लगी
चंद लोगों की फ़राग़त शहर का चेहरा नहीं
ये हक़ीक़त सब के चेहरों से अयाँ होने लगी
याद है अब तक किसी के साथ इक शाम-ए-विसाल
फिर वो रातें जब दम-ए-रूख़्सत अज़ाँ होने लगी
बाद-ए-नफ़रत फिर मोहब्बत को ज़बाँ दरकार है
फिर अज़ीज़-ए-जाँर वही उर्दू ज़बाँ होने गली
ज़िक्र तूफ़ान-ए-हवादिस का छिड़ा जो एक दिन
होते होते दास्ताँ मेरी बयाँ होने लगी
सख़्त मंज़िल काट कर हम जब हुए कुछ सुस्त-पा
तेज़-रौ कुछ और भी उम्र-ए-रवाँ होने लगी
छू रही है आसमानों की बुलंदी फिर नज़र
फिर हमारी ज़िंदगी अंजुम-निशाँ होने लगी
लो यक़ीं आया कि दिल के दर्द की तासीर है
अब तो इक इक चीज़ हम से हम-ज़बाँ होने लगी
घर की मेहनत से मिरी रौशन हुए ऐवान-ए-ज़र
रौशनी होनी कहाँ थी और कहाँ होने लगी
सच कहूँ ‘आमिर’ कि अब उस दौर में जीते हो तुुम
रस्म-ए-उल्फ़त भी जहाँ सूद-ओ-ज़ियाँ होने लगी
न पूछो ज़ीस्त-फ़साना तमाम होने तक
न पूछो ज़ीस्त-फ़साना तमाम होने तक
दुआओं तक थी सहर और शाम रोने तक
मुझे भी ख़ुद न था एहसास अपने होने का
तिरी निगाह में अपना मक़ाम खोने तक
हर एक शख़्स है जब गोश्त नोचने वाला
बचेगा कौन यहाँ नेक-नाम होने तक
चहार सम्त से रहज़न कुछ इस तरह टूटे
कि जैसे फ़स्ल का था एहतिमाम बोने तक
बता रहा है अभी तक तिरा धुला दामन
कि दाग़ भी हैं नुमायाँ तमाम धोने तक
हज़ार रंग-ए-तमन्ना हज़ार पछतावे
अजब था ज़ेहन में इक इजि़्दहाम सोने तक
सुना है हम ने भी आज़ाद था कभी ‘आमिर’
किसी की चाह का लेकिन ग़ुलाम होने तक
नज़रों में कहाँ उस की वो पहला सा रहा मैं
नज़रों में कहाँ उस की वो पहला सा रहा मैं
हँसता हूँ कि क्या सोच के करता था वफ़ा मैं
तू कौन है ऐ ज़ेहन की दस्तक ये बता दे
हर बार की आवाज़ पे देता हूँ सदा मैं
याद आता है बचपन में भी उस्ताद ने मेरे
जिस राह से रोका था वही राह चला मैं
जी ख़ुश हुआ देखे से कि आज़ाद फ़ज़ा है
बस्ती से गुज़रता हुआ सहरा में रूका मैं
मुद्दत हुई देखे हुए वो शहर-ए-निगाराँ
ऐ दिल कहीं भूला तो नहीं तेरी अदा मैं
मंज़िल की तलब में न था आसान गुज़रना
पत्थर थे बहुत रात में गिर गिर के उठा मैं
क्या दिन हैं कि अब मौत की ख़्वाहिश है बराबर
क्या दिन थे कि जब जीने की करता था दुआ मैं
सच कहियो कि वाक़िफ़ हो मिरे हाल से ‘आमिर’
दुनिया है ख़फ़ा मुझ से कि दुनिया से ख़फ़ा मैं