Skip to content

रंजूर अज़ीमाबादी की रचनाएँ

देता है मुझ को चर्ख़-ए-कुहन बार बार दाग़ 

देता है मुझ को चर्ख़-ए-कुहन बार बार दाग़
उफ़ एक मेरा सीना है उस पर हज़ार दाग़

देते हैं मेरे सीने में क्या ही बहार दाग़
खाए न उन को देख के क्यूँ लाला-ज़ार दाग़

लाला करेगा दिल की मिरे क्या बराबरी
उस पर है एक दाग़ यहाँ बे-शुमार दाग़

दुनिया के सारे सदमे हैं कम हिज्र-ए-यार से
दे मुद्दई को भी न ये परवरदिगार दाग़़

रखता है इश्क़-ए-लाला-रूख़ाँ दिल में वो निहाँ
सीने पे माहताब के है आश्कार दाग़

ज़ुल्मत से दी नजात दिल-ए-दाग़दार ने
रौशन मिसाल-ए-शम्अ है ज़ेर-ए-मज़ार दाग़

हर दम न क्यूँ लगाए रखें सीने से उसे
इक माह-रू के इश्क़ की है यादगार दाग़

क़ातिल मिरे लहू ने भी क्या खिलाए हैं
दामन पे तेरे देते हैं क्या ही बहार दाग़

जो ज़ुल्म चाहे रख दिल-ए-‘रंजूर’ पर रवा
दे तू मगर उसे न जुदाई का यार दाग़

जनाज़ा धूम से उस आशिक़-ए-जाँ-बाज़ का निकले 

जनाज़ा धूम से उस आशिक़-ए-जाँ-बाज़ का निकले
तमाशे को अजब क्या वो बुत-ए-दम-बाज़ आ निकले

अगर दीवाना तेरा जानिब-ए-कोहसार जा निकले
क़ुबूर-ए-वामिक़-ओ-मजनूँ से शोर-ए-मरहबा निकले

अभी तिफ़्ली ही में वो बुत नमूना है क़यामत का
जवानी में नहीं मालूम क्या नाम-ए-ख़ुदा निकले

कहाँ वो सर्द-मेहरी थी कहाँ ये गर्म-जोशी है
अजब क्या इस करम में भी कोई तर्ज़-ए-जफ़ा निकले

मिरा अफ़्साना है मज्ज़बू की बड़ गर कोई ढूँढे
न ज़ाहिर हो ख़बर उस की न उस का मुब्तदा निकले

वो मेरे लाशे पर बोले नज़र यूँ फेर कर मुझ से
चले हूरों से तुम मिलने निहायत बेवफ़ा निकले

हमारा दिल हमारी आँख दोनों उन के मस्कन हैं
कभी इस घर में जा धमके कभी इस घर में आ निकले

पड़ा किस कशमकश में यार के घर रात मैं जा कर
न उठ कर मुद्दई जाए न मेरा मुद्दआ निकले

तड़पता हूँ बुझा दे प्यार मेरी आब-ए-ख़ंजर से
कि मेरे दिल से ऐ क़ातिल तिरे हक़ में दुआ निकले

दिखा कर ज़हर की शीशी कहा ‘रंजूर’ से उस ने
अजब क्या तेरी बीमारी की ये हकमी दवा निकले

मैं और हम-आग़ोश हूँ उस रश्क-ए-परी से 

मैं और हम-आग़ोश हूँ उस रश्क-ए-परी से
कब इस की तवक़्क़ो मुझे बे-बाल-ओ-परी से

जागेंगे नसीब अपने न आह-ए-सहरी से
आगाह हैं उस आह की हम बे-असरी से

है वस्ल की ख़्वाहिश तुझे उस रश्क-ए-परी से
हैराँ हूँ मैं ऐ दिल तिरी बेहूदा-सारी से

ईमान में ज़ाहिद के भी आ जाए तज़लज़ुल
देखे जो मिरा बुत उसे काफ़िर-नज़री से

इन आँखों के रस्ते से मिरे दिल में चले आए
इस तरह ग़रज़ पहुँचे वो ख़ुश्की में तरी से

क़ासिद से न बर्दाश्त हुए उन के मज़ालिम
बाज़ आया वो आख़िर मिरी पैग़ाम-बरी से

आँचल की हवा दे कोई इस ग़ुंचा-ए-दिल को
वा हो नहीं सकता ये नसीम-ए-सहरी से

ये शीशा-ए-दिल दें तो हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-रू
पर इस में न बाल आए तिरी बे-हुनरी से

होश उड़ गए जाता रहा क़ाबू से दिल अपना
आँखें जो मिरी चार हुईं एक परी से

कब हाथ उठा कर मैं दुआ वस्ल की माँगूँ
फ़ुर्सत है जुनूँ में कब इन्हें जामा-ज़री से

बाज़ू भी हिलाए बहुत और पाँव भी पटके
पर उड़ न सकी चाल तिरी कुब्क-दरीसे

‘रंजूर’ न होगा मरज़-ए-इश्क़ से जाँ-बार
ऐ चारागर अब हाथ उठा चारागरी से

मैं और हम-आग़ोश हूँ उस रश्क-ए-परी से
कब इस की तवक़्क़ो मुझे बे-बाल-ओ-परी से

जागेंगे नसीब अपने न आह-ए-सहरी से
आगाह हैं उस आह की हम बे-असरी से

है वस्ल की ख़्वाहिश तुझे उस रश्क-ए-परी से
हैराँ हूँ मैं ऐ दिल तिरी बेहूदा-सारी से

ईमान में ज़ाहिद के भी आ जाए तज़लज़ुल
देखे जो मिरा बुत उसे काफ़िर-नज़री से

इन आँखों के रस्ते से मिरे दिल में चले आए
इस तरह ग़रज़ पहुँचे वो ख़ुश्की में तरी से

क़ासिद से न बर्दाश्त हुए उन के मज़ालिम
बाज़ आया वो आख़िर मिरी पैग़ाम-बरी से

आँचल की हवा दे कोई इस ग़ुंचा-ए-दिल को
वा हो नहीं सकता ये नसीम-ए-सहरी से

ये शीशा-ए-दिल दें तो हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-रू
पर इस में न बाल आए तिरी बे-हुनरी से

होश उड़ गए जाता रहा क़ाबू से दिल अपना
आँखें जो मिरी चार हुईं एक परी से

कब हाथ उठा कर मैं दुआ वस्ल की माँगूँ
फ़ुर्सत है जुनूँ में कब इन्हें जामा-ज़री से

बाज़ू भी हिलाए बहुत और पाँव भी पटके
पर उड़ न सकी चाल तिरी कुब्क-दरीसे

‘रंजूर’ न होगा मरज़-ए-इश्क़ से जाँ-बार
ऐ चारागर अब हाथ उठा चारागरी से

रोता हमें जो देखा दिल उस का पिघल गया

रोता हमें जो देखा दिल उस का पिघल गया
जादू-ए-चश्म उस बुत-ए-पुर-फ़न पे चल गया

आते ही उल्टे पाँव जो पैक-ए-अजल गया
बे-यार मुझ को देख के क्या वो भी टल गया

ये किस का ध्यान आ के मिरा दिल मसल गया
बे-साख़्ता जो नाला-ए-दहन से निकल गया

शादी-ए-वस्ल से ग़म-ए-हिज्राँ बदल गया
फ़स्ल-ए-बहार आई ख़जाँ का अमल गया

आया भी गर कभी दिल-ए-आवारा राह पर
देखा जब उस को देखते ही फिर मचल गया

क्यूँ सर-ब-ख़ाक है ये मिरा नौ-निहाल दिल
कौन आ के पा-ए-नाज़ से इस को कुचल गया

रातें रहीं वो रातें न दिन ही रहे वो दिन
तुम क्या बदल गए कि ज़माना बदल गया

अब इस से क्या उम्मीद कि ये लाएगा समर
नख़्ल-ए-मुराद आतिश-ए-हिज्राँ से जल गया

कहना वो उन का हाए शब-ए-वस्ल नाज़ से
अरमान अब तो आप के दिल का निकल गया

मुँह से तो बोलने में निकलते न थे शरर
क्यूँ दिल मिरा रक़ीब की बातों से जल गया

रिंदों ने मय-कदे में उछल कूद की तो क्या
अम्मामा भी तो शैख़ के सर से उछल गया

याद आ गया तो बुत मुझे हूरों के ज़िक्र से
वाइज़ के वाज़ से भी मिरा काम चल गया

देखे जो चिकने उस बुत-ए-तौबा-शिकन के गाल
पा-ए-सबात-ए-शैख़ भी आख़िर फिसल गया

है नज़अ में भी गेसू-ए-पुर-ख़म की दिल में याद
गो रस्सी जल गई मगर उस का न बल गया

बोले फ़ुजूल मुझ से है उम्मीद दाद की
‘रंजूर’ जब मैं उन को सुनाने ग़ज़ल गया

सौदा-ए-सज्दा शाम ओ सहर मेरे सर में है 

सौदा-ए-सज्दा शाम ओ सहर मेरे सर में है
ऐ बुत कशिश कुछ ऐसी तिरे संग-ए-दर में है

मैं कब हूँ ये मिरा तन बे-जाँ हज़र में है
रूह-ए-रवाँ-ए-क़ालिब-ए-तन तो सफ़र में है

ये एक असर तो अदविया-ए-चारागर में है
शिद्दत अब और भी मेरे दर्द-ए-जिगर में है

सौदा-ए-इश्क़ ज़ुल्फ़-ए-सियह जिस के सर में है
कब मुतलक़ इम्तियाज़ उसे नफ़ा ओ ज़रर में है

क्या आएगा किसी बुत-ए-शीरीं-दहन पे दिल
क्यूँ मीठा मीठा दर्द हमारे जिगर में है

छेड़ा मुझे कि नौ का तूफ़ाँ बपा हुआ
इक बहर-ए-अश्क बंद मिरी चश्म-ए-तर में है

पहुँचा किसी को सदमा कि हम लोटने लगे
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है

नोक-ए-मिज़ा का रहने लगा दिल में फिर ख़याल
शिद्दत की टीस फिर मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर में है

सौदा-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार में है दर्द-ए-सर ज़रूर
इक ख़ास लुत्फ़ भी मगर इस दर्द-ए-सर में

मेरा ये नख़्ल-ए-दिल भी है आज़ाद मिस्ल-ए-सर्व
गुल इस शजर में है न समर इस शजर में है

चाहे तो ला-मकाँ की भी ले आए ये ख़बर
ये ज़ोर ताएर-ए-दिल-ए-बे-बाल-ओ-पर में है

दुश्नाम से भी यार की आती है बू-ए-लुत्फ़
कुछ शक नहीं कि ख़ैर निहाँ उस के शर में है

कुछ शक नहीं कि क़ुर्ब-ए-क़यामत की है दलील
ये फ़ित्ना ओ फ़साद कि अब बहर ओ बर में है

हो उस से मेरे दीदा-ए-तर का मुक़ाबला
‘रजूंर’ इस की ताब कहाँ अब्र-ए-तर में है

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.