अगर अनार में वो रौशनी नहीं भरता
अगर अनार में वो रौशनी नहीं भरता
तो ख़ाक-सार दम-ए-आगही नहीं भरता
ये भूक प्यास बहर-हाल मिट ही जाती है
मगर है चीज़ तो ऐसी कि जी नहीं भरता
तू अपने आप में माना कि एक दरिया है
मिरा वजूद भी कूज़ा सही नहीं भरताब
ये लेन-देन की अपने हदें भी होती हैं
कि पेट भरता है झोली कोई नहीं भरता
हमारा कोई भी नेमुल-बदल नहीं होगा
हमारी ख़ाली जगह कोई भी नहीं भरता
मुआफ़ करना ये ख़ाका कहाँ उभरता है
अगर ये दस्त-ए-हुनर रंग ही नहीं भरता
कहाँ ये ‘ख़ैर’ कहाँ हार जीत का ख़दशा
कि जिस्म ओ जान की बाज़ी से जी नहीं भरता
धरती से दूर हैं न क़रीब आसमाँ से हम
धरती से दूर हैं न क़रीब आसमाँ से हम
कूफ़े का हाल देख रहे हैं जहाँ से हम
हिन्दोस्तान हम से है ये भी दुरूस्त है
ये भी ग़लत नहीं कि हैं हिन्दोस्ताँ से हम
रक्खा है बे-नियाज़ उसी बे-नियाज़ ने
वाबस्ता ही नहीं हैं किसी आस्ताँ से हम
रखता नहीं है कोई शहादत का हौसला
उस के ख़िलाफ लाएँ गवाही कहाँ से हम
महफ़िल में उस ने हाथ पकड़ कर बिठा लिया
उठने लगे थे एक ज़रा दरमियाँ से हम
हद जिस जगह हो ख़त्म हरीफ़ान-ए-‘ख़ैर’ की
वल्लाह शुरू होते हैं अक्सर वहाँ से हम
गिरफ़्तारी के सब हरबे शिकारी ले के निकला है
गिरफ़्तारी के सब हरबे शिकारी ले के निकला है
परिंदा भी शिकारी की सुपारी ने के निकला है
निकलने वाला ये कैसी सवारी ले के निकला है
मदारी जैसे साँपों की पटारी ले के निकला है
बहर-क़ीमत वफ़ा-दारी ही सारी ले के निकला है
हथेली पर अगर वो जान प्यारी ले के निकला है
सफ़ारी सूट में टाटा सफ़ारी ले के निकला है
वो लेकिन ज़ेहन ओ दिल पर बोझ भारी ले के निकला है
यक़ीनन हिजरतों की जानकारी ले के निकला है
अगर अपने ही घर से बे-क़रारी ले के निकला है
खिलौने की तड़प में ख़ुद खिलौना वो न बन जाए
मिरा बच्चा सड़क पर रेज़-गारी ले के निकला है
अगर दुनिया भी मिल जाए रहेगा हाथ फैलाए
अजब कश्कोल दुनिया का भिकारी ले के निकला है
ख़ता-कारी मिरी उम्मीद-वार-ए-दामन-ए-रहमत
मगर मुफ़्ती तो क़ुरआन ओ बुख़ारी ले के निकला है
झलकता है मिज़ाज-ए-शहरयारी हर बुन-ए-मू से
ब-ज़ाहिर ‘खैर’ हर्फ़-ए-ख़ाक-सारी ले के निकला है
हम अगर रद्द-ए-अमल अपना दिखाने लग जाएँ
हम अगर रद्द-ए-अमल अपना दिखाने लग जाएँ
हर घमंडी के यहाँ होश ठिकाने लग जाएँ
ख़ाक-सारों से कहो होश में आने लग जाएँ
इस से पहले कि वो नजरों से गिराने लग जाएँ
देखना हम कहीं फूले न समाने लग जाएँ
इंदिया जैसे ही कुछ कुछ तिरा पाने लग जाएँ
फूल चेहरे ये सर-ए-राह सितारा आँखें
शाम होते ही तिरा नाम सुझाने लग जाएँ
अपनी औक़ात में रहना दिल-ए-ख़ुश-फ़हम ज़रा
वो गुज़ारिश पे तिरी न खुजाने लग जाएँ
हड्डिया बाप की गूदे से हुई हैं ख़ाली
कम से कम अब तो ये बेटे भी कमाने लग जाएँ
एक बिल से कहीं दो बार डसा है मोमिन
ज़ख़्म-ख़ुर्दा हैं तो फिर ज़ख़्म न खाने लग जाएँ
दावा-ए-ख़ुश-सुख़नी ‘ख़ैर’ अभी ज़ेब नहीं
चंद ग़ज़लों ही पे बग़लें न बजाने लग जाएँ