लिखूँगा तो रेतों पर ही
लिखूंगा तो रेतों पर ही
चाहे वह मिट जाए पल में
आज अगर मैं जी न सका तो
क्या रखा?
अनदेखे कल में।
तुम हँसते हो या रोता मैं
अपना अपना हँसना रोना
समय गुजरता
साथ सभी ले
तुम्हे याद हो- साथ पढ़ी थी
लिखी हवा पे
कोई इबारत
चला गया था धीर समीरे
याद कई दिन तक आया था
कई तर्क रचकर बैठे थे
जीवन की खुशियाँ थी मन में
तर्क आज जब तुम करते हो
मेरे इस असफल जीवन के
पाते हो कुछ नए ठिकाने
जो न कहीं दर्ज मिला था
मेरे जीवन की पोथी में
लिखूं रेत पर
कोई पढ़े तो वह शाश्वत सा हो जाएगा
वर्ना कई सुनहरे अक्षर
अंधेरों में है, गुमसुम है……
मैं तो निर्जन रेतों पर ही
अपना सब पैगाम लिखूंगा
मिट जाए या रच-बस जाए
नीचे अपना नाम लिखूंगा
लिखूंगा तो रेतों पर ही।
देह से करती बातें देह
जुबान से जुबान करती है बात
यह जानकर अचरज नहीं होता
आँखों-आँखों में भी हो जाया करती हैं बातें
ऐसा भी कहा जाता है सदियों से
लेकिन नहीं हो पाती है तृप्ति
इन माध्यमों से करके बातें
बाते चाहे कितनी भी लम्बी और गहरी क्यों न हो
जब बातें करती है
देह से देह
और जब फूट पड़ता सोता स्नेह का
उस मसृण स्पर्श से
हो उठता है अन्तरंग सराबोर
आँखों में छा जाता है इन्द्रधनुषी खुमार
कि लगने लगती है मौत भी झूठी
क्षण में समा जाता है जीवन का आनन-फानन
करने लगता है मानुष
खुद से ही प्यार
तब, जब करती है बातें देह से देह
हाय रे स्नेह !
जीवन इतना छोटा क्यों है!
चोर….. चोर..
चोर…. चोर….. मैं ऐसा चोर
जो चोरी से भी गया, हेरा-फेरी से भी गया ।
मैं कभी जब सोता हूँ
उससे पहले सोचता हूँ कि सोने से कुछ नुकसान तो नहीं होगा
सोच की गहराई कब नींद में बदल जाती है
पता नहीं चल पाता
मैं हर मोड़ पर, चाहे रस्ते का हो या जीवन का ,
मैं ठिठक जाता हूँ
मोड़ के सही होने के सवाल पर
और कभी न तो किसी सवाल का
न ही किसी बवाल का
जबाव मिलता है
लेकिन एक मैं हूँ जो छोड़ता ही नहीं सोचना ……
बाढ़ में , बियावान में या रेगिस्तान में
अकेले भटक जाने से बढ़ जाता है खतरा
कभी भटका नहीं
लेकिन कल्पना से गुदगुदा उठता है मन
मैं कवि हूँ न
कभी भी लिख लेता हूँ अननुभूत तथ्य
और निहारता आस-पास की आँखों में
चाहे राजा मरे
या रानी चरित्र च्युत हो जाय
देश तो देश ही रहता है
ढंग से पैदा किया जाय तो
कुकुरमुत्ता हो जाता है मशरूम
चोर हो जाता है गुप्तचर
बशर्ते कि उसे भी मिल जाये सरकारी संरक्षण ।
अन्धा कुआँ है यह कोशिश
मैं जानता हूँ
अन्धा कुआँ है यह कोशिश
तुम्हारी ओर आने की
मैं जानता हूँ
मिटा दिया है तुमने मेरे नाम
हर उस जगह से
जहाँ भी फैल सकता है तुम्हारा विस्तार
मैं जानता हूँ यह भी
कि बस एक भूले हुए नाम से अधिक कुछ भी नहीं है
तुम्हारे लिए मेरा वजूद
बड़ी मेहनत से रची हुई अल्पना को जैसे
किसी शैतान बच्चे ने उजाड़ दिया हो
वैसे ही तो उजड़ गई है मेरी जिन्दगी
और शायद तुम्हारी भी
किन्तु शेष है तुम्हारे पास अभी भी
प्रतिशोध की तपिश
नहीं हो पाते होगे एकांत
विरूद्धवाद में होती है बड़ी उत्तेजना
ज़माने ने इसी का तो फायदा उठाया है
खल-नायक तो मैं था
वनवास मिला तुम्हे
आस-पास की हवाओं ने, फजाओं ने
जैसे सराहा हो तुम्हारे इस फैसले को
कुछ-कुछ ऐसा ही महसूस होता होगा तुम्हे
नहीं पहुँच पाउँगा तुम्हारे पास मैं
जानता हूँ
फिर भी आ रहा हूँ मैं तुम्हारी ओर
जानता हुआ
कि अन्धा कुआँ है यह कोशिश।
पिकनिक ( बाल-कविता)
वन के राजा शेरशाह ने पहले सबको खूब हंसाया
तरह तरह का भांति-भांति का मजेदार चुटकुला सुनाया
सबको टॉफी, सबको कुल्फी, सबको खट्टा चाट खिलाया
सबने काफी मज़े किये और सबको काफी सैर कराया
इसी तरह से शेरशाह ने पिकनिक देकर उन्हें लुभाया
वे थे सीधे सच्चे भोले सो मन में संदेह न आया
लेकिन शेरशाह तो भाई! खानदान से राजा ही था
लोकतंत्र का मुश्किल रास्ता उसके जी को कभी न भाता
वापस जब सब वन में आये शेरशाह ने उन्हें बताया
तुम सबने जो मज़े किये उसके बदले क्या दोगे तुम?
वन के वासी भारत वासी लगे सोचने बैठे गुमसुम
शेरशाह फिर से मुस्काया बोला मुझको दो मतदान
वरना पिकनिक का खर्चा दो बोलो देना है आसान
सबकी ख़ुशी हुई छूमंतर सबके होश ठिकाने आए
सच कहते हैं ज्ञानी ध्यानी रिश्वत का दावत न खांए
मुफ्त खोर तुम बन जाओगे सभी करेंगे ऐसी तैसी
हालत सबकी हो जाएगी वन के उन पशुओं के जैसी।
कहनी न थी जो बात वो
कहनी न थी बात जो
कहना पड़ा मुझे
तेरे बगैर, कैसे कहूँ ,
खुश बहुत रहना पड़ा मुझे।
इन्सान जो इन्सान है
मजबूर है बहुत
इंसानियत का दर्द भी
सहना पड़ा मुझे।
तेरे बगैर कैसे कहूँ
खुश बहुत रहना पड़ा मुझे।
करते हैं लोग बाग
यूँ बदनाम जब तुझे
होगी कोई गलती मेरी
कहना पड़ा मुझे ।
तेरे बगैर……..
तुम थे कि हो मासूम
मुझको पता है ये
लेकिन से क्यों कहूँ
सहना पड़ा मुझे।
तेरे बगैर जिन्दगी होती है
जानकर
आंसू के रास्ते ही
चुप बहना पड़ा मुझे……… ।
बहुत देर हो जाएगी तब तक
तुम कहाँ गलत थे !
या मैं कहाँ गलत था !
ये ऐसे सवाल हैं जिनके जबाव का अब कोई मतलब न रहा ।
हम छूट चुके हैं कहीं सैलाब में बह चले
अनाथ तिनकों की तरह
बेसहारा , बेनाम, और शायद बेवजह भी
नहीं करता हूँ कोई शिकायत
कि तुमने नहीं निभाई रवायतें
पर यह भी सच ही है
कि हमारा अपना आगोश भी मज़बूरी से पट गया है
मौत आने से कितनी तकलीफ होती है
नहीं मालूम
लेकिन घर का उजड़ना तो बदतर है जिन्दा मौत से
कि जब तुम देखते रहते हो
बिखरता हुआ एक-एक तिनका
महसूस करते हो दिल पर लगते हुए एक-एक जख्म
किया होगी मैंने कोई बहुत बड़ा गुनाह
वरना क्यों चल पड़ते थे ऐसे
उजाड़ कर अपना बसा -बसाया आशियाना !
मैं जो तुमसे कहूँ भी
काला था चाँद उस दिन का
या जुबान पर आ गया था आफत-आसमानी
या शायद किस्मत ने मेरे साथ किया कोई मजाक
तो क्या यकीन होगा तुम्हें !
गुजर चुके है महीने-महीने
गुजरती जा रही जिन्दगी भी
इतने प्रदूषण के बावजूद नहीं घुटता है मेरा दम
गलती नहीं थी तुम्हारी
इसका का एक यही मतलब निकलता है
कि उजाड़ लो अपना ही आशियाना
मैं नहीं कहता कि मुझे तुम्हारा इंतजार है
नहीं , मुझे तो अफ़सोस है
जो कदम तुम चले हो
कल तुम्हे पछताना न पड़े
और तब तक शायद देर हो जाएगी बहुत ।
ज़िन्दगी भी अजीब है
बार-बार, कई बार परीक्षा करके देख लिया
बुजुर्गों के बताए जुगत भिडाये
क्या क्या जतन न किए
फिर भी फिसल ही तो गई जिन्दगी
बंद मुट्ठी की रेत मानिंद
और हम देखते रहे – अवाक्, अवसन्न ।
खिड़की , दरवाजे खुली ही रखते थे
कि आएगी रौशनी, हवा, धूप वगैरह
कभी कभार पंछी-पखेरू भी आकर करते थे चुनमुन-चुनमुन
खिड़की, दरवाजे खुले रखो
मन के भी ……..
तोते का पिंजरा, पिंजरे का तोता
और आस-पास आज़ादी की कहानियां
तोता बाहर-भीतर करता है
उसे अन्दर का मलाल है
उसे बाहर का ख़याल है,
उसे एक रस जिन्दगी से बोरियत होने जो लगी थी
पिंजरा तो पिंजरा है
बहुत मिलते है …….. सो उड़ गया तोता
हमने सोचा कि कहाँ जाएगा
आ ही जाएगा शाम तक
कहा न पहले ही
सचमुच जिन्दगी बड़ी अजीब होती है
तोते की भी
हमने सोचा कि तोता सोचता नहीं
सोचते तो सिर्फ हम हैं
पर तोता नहीं आया आजतक
गुजर गया अरसा
हम बैठे बैठे बस इतना सोच पा रहे हैं-
जिन्दगी भी अजीब है
चाहे हमारी या फिर तोते की !
जो सबसे पहले तुम्हारे पास पहुँचने की कोशिश करेगा
वह, जो सबसे पहले तुम्हारे पास पहुँचने की कोशिश करेगा
सदी का सबसे खतरनाक आदमी होगा
चाहे जीता हुआ या फिर हरा हुआ
रक्ताभ आँखें, ओठों पर मुस्कान और पंजों में थरथराहट लिए
जो तुम्हे जीतना चाहेगा
नहीं कर पाएगा यात्रा नियत रास्तों से कभी
बुद्ध, शंकर, कबीर या गाँधी की तरह
नहीं करेगा कभी कोशिश
फटे वक्त पर पैबंद लगाने की
प्रत्युत फटे वक्त की दरार से
निकल भागेगा उस पार वह
नियमित नहीं कर पाएगी तुम्हारी व्यवस्था उसे
एक वही होगा
जो भूल चुका होगा हँसना , रोना या सहमना
कर्ण या अर्जुन की मानिंद
नहीं लगाएगा निशाना मछली की आँख पर
वह तो चलाएगा सम्मोहक बाण
उसे नहीं चाहिए द्रौपदी, नहीं चाहिए न्याय
वह तो जीतना चाहता है अभिलाषा
तेरी-मेरी- इसकी-उसकी सबकी
वाही तो है जो घुस गया है सबकी नथनों में
हवा में फैली मादक खुशबू की तरह …….
ऐसे में मेरा सच इतना भर है
कि मैं भयभीत तो हूँ
पर पहचानता नहीं !