आँखों में जब सपने न थे तो टूटने का भय न था
आँखों में जब सपने न थे तो टूटने का भय न था
कितने भले थे दिन कि जब तुझसे मेरा परिचय न था
जब तू मिला ऐसा लगा जैसे मिला जीवन नया
वो ज़िन्दगी अबतक जिया जिसका कोई आशय न था
इक दूसरे के हो गये इक दूसरे में खो गये
जो कुछ हुआ होता गया उसमें तनिक अभिनय न था
तेरी ख़ुशी मेरी ख़ुशी ,दुख में तेरे मैं भी दुखी
विश्वास ही विश्वास था,शिक़वे न थे संशय न था
कैसे अचानक हो गया हम दूर हैं,मजबूर हैं
अवशेष शायद कोष में अब पुण्य का संचय न था
इंसाँ के जज़्बात देखना
इंसाँ के जज़्बात देखना
क्योंकर उसकी ज़ात देखना
आँखों को अच्छा लगताहै
खिड़की से बरसात देखना
मत जाना केवल चेह्रे पर
उसकी इक-इक बात देखना
आँखों में ठहरे हैं बादल
अब इनकी बरसात देखना
नज़र डालना अपने क़द पर
फिर मेरी औक़ात देखना
किस दर्जा दिलक़श होता है
छज्जे से बारात देखना
सब्र न अपना खो देना तुम
जब भी झंझावात देखना
नन्हें जुगनू का सपना है
अँधियारे की मात देखना
नगर भूल जाओगे अपना
आकर तुम देहात देखना
कल सबके होठों पर होंगे
‘सौरभ’ के नग़मात,देखना
ग़ुज़रना है उन्हें तूफ़ान होकर
ग़ुज़रना है उन्हें तूफ़ान होकर,
तो हम भी हैं खड़े चट्टान होकर।
हमारी ज़ीस्त का मक़सद यही है,
जलेंगे आग में लोबान होकर।
कभी देखा है तुमने सच बताओ,
किसी के होठ की मुस्कान होकर।
सभी ,अपने नज़र आने लगेंगे,
कभी देखो तो हिन्दुस्तान होकर।
तेरी राहों में नाकामी खड़ी है,
कहीं भिक्षा कहीं अनुदान होकर।
उन्हीं से आजकल मिलना कठिन है
जो मिलते थे बहुत आसान होकर।
फ़िज़ाओं में बिखर जायेंगे ‘सौरभ ‘,
हम अपने दौर की पहचान होकर।
बेमतलब वो कब खुलते हैं
बेमतलब वो कब खुलते हैं,
जब खुलना हो तब खुलते हैं।
चुप रहते हैं मेरे आगे,
मेरे पीछे सब खुलते हैं।
आप खुलें तो दुनिया देखे,
सचमुच आप गज़ब खुलते हैं।
खुल न सकी ये बात अभीतक,
आख़िर कब साहब खुलते हैं।
रोज़ छला जाता है इंसाँ,
रोज़ नये मज़हब खुलते हैं।
उठजाता है जिसदम पर्दा
कितनों के करतब खुलते हैं।
खुल जाती हैं आँखें सबकी,
जब ‘सौरभ’ के लब खुलते हैं।
जिस्म सन्दल,कारनामे हैं मगर अंगार से।
जिस्म सन्दल,कारनामे हैं मगर अंगार से।
आप की सूरत अलग है आपके किरदार से।
आपके सारे मुखौटे अब पुराने हो गये,
और कुछ चेह्रे नये ले आइए बाज़ार से।
ख़ाक हो जाएगी बस्ती,क्या महल क्या झोपड़ी,
दूर रखिए आग को,बारूद के अम्बार से।
अपना चेह्रा साफ़ करिए,आइने मत तोड़िए,
हल न होंगे मस्अले,यूँ नफ़रतो-तक़रार से।
दुम अभी तक हिल रही हैं,हाथ अब भी हैं जुड़े,
आप शायद आ रहे हैं लौटकर दरबार से।
सुरमई शाम ढलने को है
सुरमई शाम ढलने को है
चाँद बिल्कुल निकलने को है
फ़ोन करनेको मत भूलना
जाओ अब,ट्रेन चलने को है
बाँह मेरी तू अब थामले
पाँव एकदम फिसलने को है
जानेवाला चला ही गया
अबतो बस हाथ मलने को है
आग कोई लगाकर गया
उम्रभर कोई जलने को है
छँट गये मेघ बूँदें थमीं
धूप शायद निकलने को है
इसके लब कँपकँपाने लगे
अब ये पत्थर पिघलने को है
चमकता चेह्रा है किसका सवाल यह भी है
चमकता चेह्रा है किसका सवाल यह भी है
चरित्र किसका है कैसा सवाल यह भी है
भटकता कौन है प्यासा सवाल यह भी है
है किसके क़ब्ज़े में दरिया सवाल यह भी है
ज़रूरी सबके लिए हैं ये रोटियाँ लेकिन
ज़ियादा कौन है भूखा सवाल यह भी है
सवाल कैसा है ये बात अह्म है लेकिन
जवाब कैसा है ,पुख़्ता सवाल यह भी है
यही नहीं कि अँधेरा है कितना ताक़तवर
डरासा क्यों है उजाला सवाल यह भी है
हमारी आँख में आँसू के ये क़तरे क्यों हैं
तुम्हारी ओर से अच्छा सवाल यह भी है
सवाल येही नहीं किसने लिखा है कितना
अदीब कौन है सच्चा ,सवाल यह भी है
कुछ लालच कुछ डर बैठा है,
कुछ लालच कुछ डर बैठा है,
कुर्सी पर अफ़सर बैठा है।
चारा डाले जाल बिछाये,
दफ़्तर का दफ़्तर बैठा है।
मालिक बैठा है धरती पर,
गद्दी पर नौकर बैठा है।
शीश झुकाये था जो कल तक,
आज वही तनकर बैठा है।
उस रस्ते से बचकर जाना,
उसपर तो अजगर बैठा है।
बारी जब आयी लड़ने की,
छुट्टी लेकर घर बैठा है।
चेह्रा उड़ा–उड़ा सा क्यों है,
तू ऐसा क्या कर बैठा है।
ये कैसा साधू है,
ये कैसा साधू है,
मन तो बेक़ाबू है।
ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू है,
तू ही तू हरसू है।
पर्वत सा अन्धेरा,
नन्हा सा जुगनू है।
बचिए तन्हाई से,
तन्हाई बिच्छू है।
सुख रूपी सिक्के का,
दुख भी इक पहलू है।
इक शीशा, इक पत्थर,
मैं ,मैं हूँ, तू ,तू है।
हर क़तरा पानी का,
समझो तो आँसू है।
मैं भोली गर्दन हूँ,
वो पागल चाकू है।
दरिया है आँखों में,
मुट्ठी में बालू है।
पीड़ा है रुनझुन में,
घायल हर घुँघरू है।
साँसों की बस्ती में,
ये कैसा कर्फ़्यू है।
ये कैसा साधू है,
मन तो बेक़ाबू है।
ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू है,
तू ही तू हरसू है।
पर्वत सा अन्धेरा,
नन्हा सा जुगनू है।
बचिए तन्हाई से,
तन्हाई बिच्छू है।
सुख रूपी सिक्के का,
दुख भी इक पहलू है।
इक शीशा, इक पत्थर,
मैं ,मैं हूँ, तू ,तू है।
हर क़तरा पानी का,
समझो तो आँसू है।
मैं भोली गर्दन हूँ,
वो पागल चाकू है।
दरिया है आँखों में,
मुट्ठी में बालू है।
पीड़ा है रुनझुन में,
घायल हर घुँघरू है।
साँसों की बस्ती में,
ये कैसा कर्फ़्यू है।
खुले-खुले हों पंख हवा के,बाग़ में पंछी गाये तो
खुले-खुले हों पंख हवा के,बाग़ में पंछी गाये तो,
चहक उठेगा मंज़र सारा भोर सुहानी आये तो।
साथ हवा के पौधे नाचें,देखके बादल नाचे मोर,
ठुमक-ठुमककर मैं भी नाचूँ,देखके जी ललचाये तो।
रूप सलोना आँख में भरलूँ रंग उतारूँ जीवन में,
मैं अपनी साँसों में भरलूँ,ख़ुश्बू फूल लुटाये तो।
लहक उठें फ़स्लें खेतों में,मन किसान का झूम उठे,
धरती बहुत दुआएँ देगी बादल प्यास बुझाये तो।
हँसी उड़ायें चाँद-सितारे,हवा ठिठोली करती है,
क्या कहकर समझाऊँ दिल को तेरी याद सताये तो।