पद / 1
पग दाबे तो जीवन मुक्ति लही।
विष्णुपदी सम पति-पदपंकज छुवत परमपद होवे सही॥
निरखि निरखि मुख अति सुख पावत प्रेम समुद के धार बही।
रिद्धी सिद्धि सकल सुख देवैं सो लक्ष्मी पद हरि के गही॥
जहाँ पति-प्रीति तही सुख सरबस यही बात स्रुति साँच कही।
पद / 2
पिय चलती बेरियाँ, कछु न कहे समझाय।
तन दुख मन दुख, नैन दुख हिय भे दुख की खान।
मानो कबहूँ ना रही, वह सुख से पहचान॥
मन में बालम अस रही, जनम न छोड़ति पाय।
बिछुड़न लिखा लिलार में, तासों कहा बसाय॥
बालम बिछुड़न कठिन है करक करेजे हाय।
तीर लगे निकसे नहीं, जब लौं प्रान न जाय॥
जगन्नाथ के सिंधु में, डोंगी की गति जोय।
तास मति पिय के बिरह में, हाय हमारी होय॥
पद / 3
पिय के पदकंजन-राती।
विष्णु बिरंचि संभु पति में छिन छिन प्रेम लगाती।
तन मन बचन छांड़ि छल भमिनि पति सेवन बहु भाँती॥
कबहुँ नहिं प्रीति सुनाती।
पिय के.॥
दासीसम सेवति जननीसम खान पान सब लाती।
सखिसम केलि करत निसिबासर भगिनी सम समझाती॥
बंधु सम सँग-सँगाती।
पिय के.॥
प्रिय पति बिरह अमरपुरहू में रहति सदा अकुलाती।
पतिसँग सघन बिपिन को रहिबो सेवन रस मदमाती॥
हृदय मानहि बहु भाँति।
पिय के.।
नाहिं द्वार रहति नहि परघर एकाकिन कहि जाती
मूँदति नैन ध्यान उर आनति, ‘गुनवति’ पति गुन गाती।
नहिं मन मोद समाती।
पिय के.॥
पद / 4
फिरै चारिहु धाम करै ब्रत कोटि कहा बहु तीरथ तोय पिये तें।
जप होम करै अनगंत कछू न सरै नित गंग नहान किये तें॥
कहा धेनु को दान सहस्रन बार तुला गज हेम करोर दिये तें।
‘रघुबंशकुमारी’ बृया सब है जब लौं पति सेवै न नारि हिये तें॥
पद / 5
जेहि के बल संकर सुद्ध हिये धरि ध्यान सदाहिं जपै गुन गाम।
जेहि के बल गीध अजामिल हूँ सेवरी अति नीच गई सुरधाम॥
जेहि के बल देह न गेह कछू बसुधा बस कीनों सबै सुर-काम।
धनु बान लिये तुम आठहु जाम अहो श्रीराम बसौ उर-धाम॥
पद / 6
सीतल मन्द सुगंध समीर लगे जपि सज्जन की प्रिय बानी।
फूलि रहे बन-बाग समूह लहै निमि कीर्ति गुणकार ज्ञानी॥
नीक नवीन सुपल्लव सोह वढ़ै जिमि प्रीति के स्वारथ जानी।
गान रै कल कीर चकोर बढ़ैं जिमि बिप्र सुमंगल बानी॥
पद / 7
कहत पुकार कोइलिया हे ऋतुराज।
न्याय-दृष्टि से देखहु बिपिन-समाज॥
सोना सम्पति काज त्यागि सब साज।
भये उदासी बिरिया बिसरो लाज॥
ध्यान करहु इत अब सुध कस नहिं लेत।
तीछन बहत बयरिया करत अचेत॥