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रामेश्वर शुक्ल ‘करुण’की रचनाएँ

दोहा / भाग 1

कबहुँ तप्यो-पर-ताप ते, हरी कबहुँ पर-पीर।
आसा-हीन अधीर-कहँ, कबहुँ बँधायी धीर।।1।।

नारकीय कहुँ यातना, सुनि हरिजन की कान।
पश्चाताप-विलाप तें, तड़पाये तन-प्रान।।2।।

सुनि श्रमजीवी दीन की, करुणा जनक-पुकार।
तिलमिलाय तड़पाय कहुँ, कीन्ह्यों कछु प्रतिकार।।3।।

विधि से, निधि से, नेम से, गुरु से ग्यानी, गन्य।
रवि से, छवि से, छेय से, कबि से कबिवर धन्य।।4।।

करुण कथा कोउ दीन की, कहतो सुकबि प्रबीन।
किमि लहतो उपहास इमि, मोसम मनुज मलीन।।5।।

कह्यो कबिन शृंगार ही, यद्यपि सुषमा-सार।
सोहै किन्तु मसान महँ, कबहुँ कि राग मलार।।6।।

देखि दशा सुकबीन की, सुधि आवै उपखान।
भौन जरै इक दीन को, इक गावै मृदु तान।।7।।

देखि देश-कानन दह्यो, दुसह दुकाल-दवाग।
कबि कोकिला अलापही, ठूँठन बैठि सुराग।।8।।

निस-दिन ‘झंझावात’ के, मरमर सुनत महान।
आवत कृशित किसान की, किन्तु कराह न कान।।9।।

परै प्रलोभन कोटि किन, करै न चंचल कोय।
खरो कसौटी तें कढ़ै, नेता कहिये सोय।।10।।

दोहा / भाग 2

बेड़ा भारत भूमि कौ, किमि करिहैं ये पार।
नित्य नशा नेतृत्व कौ, जिन पै रहत सवार।।11।।

पावस के कृमि कीट लौं, उपजैं नेता भूरि।
सोई सुजन सराहिये, करै श्रमिक-दुख दूरि।।12।।

होत, भये, ह्वै हैं सदा, सकै न कोई थाम।
रोटी के बिन विश्व में, नर-नाशक संग्राम।।13।।

एक दिवस की भूख तें, होत मनुज बेहाल।
तीसौ दिन भूखे रहैं, तिनके कौन हवाल।।14।।

किमि दानवता भूख की, समझै धनिक अमीर।
कबहुँ कि जानै बाँझ हूँ, प्रबल प्रसूती-पीर।।15।।

सेवा-धरम निबाहि नित, करत अपावन पूत।
छूत छुड़ावत जगत की, ते किमि भये अछूत।।16।।

चोरी-जारी नहिं करहिं, नहिं नित बैठे खाहिं।
केहि कसूर धौं बिप्र जी, हम सों सदा घिनाहिं।।17।।

क्यों न अभागे हिन्द की, बढ़हि बिपत्ति अकूत।
कोटिन पूत-सपूत जहँ समझे जात अछूत।।18।।

सेवा के शुभ मर्म कौ, करि नीके निरधार।
गाँधी याँचत ईश ते, हरिजन-घर अवतार।।19।।

विश्वम्भर, महि-देव, शिव, ग्राम-देव, गुनधाम।
महा महीपति, धान्यपति, कृषिपति, कृषक-ललाम।।20।।

दोहा / भाग 3

सीस गठा, पग पान ही, कर हँसिया रज माथ।
यहि बानिक उरपुर बसौ, सदा सुखेती-नाथ।।21।।

रहे सकल सुख साज के, साधन-मूल-किसान।
तिनके नासत ही भयो, बंटाढ़ार, महान।।22।।

याहू तें बढ़ि विश्व मँह, ह्वैहै कहुँ अन्याय।
जो उपजावत अन्न वह, मरत अन्न बिनुहाय।।23।।

दीन-मलीन अधीन ह्वै, कब तें करत पुकार।
बन-रोदन सी होत है, किन्तु किसान-गुहार।।24।।

कृषक-बधूटेन की दशा, को कवि सकै बखान।
लाज निवारन हेतु जो, नहिं पातीं परिधान।।25।।

कीन्हे रूप कुरूप यह, लीन्हे लरिका चार।
कौन खरी बिपदा भरी, दरति दराने दार।।26।।

श्रमिकः श्रमिक, हाँ हौं वहै, बेंचहिं श्रम अनमोल।
दीन दशा तिनकी न क्यों, देखहु आँखिन खोल।।27।।

जब लौं ‘श्रम’ अरु ‘उपज’ कौ, होत न साम्य विभाग।
बुझै बुझाए किमि कहौ, यह अशान्ति की आग।।28।।

इक फूँकहिं बहु बित्त नित, पान-सियारन माहिं।
एकहिं करि श्रम कठिन हूँ रोटिन को ढँग नाहिं।।29।।

इक शतरंजन मैं रमे, मनरंजन के हेत।
एकहिं घोर-कठोर

दोहा / भाग 4

पढ़त न एकन के तनय, कीन्हे यत्न अनेक।
रहत अभागे मूढ़ ह्वै, शुल्क बिना सुत एक।।31।।

करहिं कठिन श्रम नित्य इक, बाँधि पेट श्रम कार।
उपभोगहिं, इक चैन सों, पूँजीपति-बेकार।।32।।

धनि-धनि न्यायाधीश जी, धनि तव न्यायागार।
तीन हाथ भू हेतु हम, खोये तीन हजार।।33।।

यदि डर विधवा को मनहुँ, करत बिवाह न आन।
‘दाल मंडई’ देश की, ह्वै जैहैं बीरान।।34।।

शान्ति-सुकृति-सौरभ कहाँ, कहँ साँचो सुख चाव।
युवा-शक्ति कानन दह्यो, बेकारी-दुख-दाव।।35।।

कष्ट किसानन के गुनै, तुम सम को जग अन्य।
युवक-हृदय-सम्रात, श्री बीर जवाहर! धन्य।।36।।

दल्यो विरोधिन के दलन, चल्यो स्वचेती चाल।
हिल्यो न हित की राह तें, धनि मुस्तफा कमाल।।37।।

धर्मराज से सत्य प्रिय, अर्जुन से मतिमान।
जर-जमीन-जन-हेतु हा, जूझि भये म्रियमान।।38।।

सुरगण हू ह्वै मुग्ध जहँ, चाह्यो निज अवतार।
मच्यो आज वा भूमिं पै, चहुँदिशि हाहाकार।।39।।

भेदी भलो न भौन को, करि देख्यों निरधार।
घर के भेदिन सों भयो, भारत गारत-छार।।40।।

श्रम, साँसहुं लेन न देत।।30।।

दोहा / भाग 5

बढ़ो महा तम बक्र बनि, सरल भये दुख भार।
लखे सरल पशु-बक्र नहिं, होत मनुज आहार।।41।।

कारे-गोरे भेद, सों, कहँ बदलै आदर्स।
जैसे ‘बिड़ला-बन्धु’ हैं, त्यों ‘राली बादर्स।।42।।

श्याम पताका लै करहिं, गाँधी-स्वागत धाय।
रहे पताका मिस मनहुँ, उर-का रौंच दिखाय।।43।।

होत सदा जेहि आड़ लै, अत्याचार अपार।
क्यों न कहैं तेहि ‘धर्म’ कहँ, कोटि बार धिक्कार।।44।।

घोर विसमता-व्याधि तें, पावन चाहौ त्रान।
करहु उच्च स्वर सों सदा, साम्यवाद-गुन-गान।।45।।

कोटि कोटि हरिजन जहाँ बिलपहिं दीन-अधीन।
क्यों न होय तिहि जाति को, छिन-छिन जीवन छीन।।46।।

लदे लता-तरु पुंज तें, सोहत सुखद सुधाम।
नंदन-कुंज-निकुंज? नहिं, भारत-ग्राम ललाम।।47।।

नहि शिक्षा नहिं सभ्यता, तापै नित्य दुकाल।
ग्राम अभागे हिन्द के, हैं दारिद-दुःख जाल।।48।।

किते न ज्ञानी गुन-भरे, काहि न कौन सिखाय।
कौने तजी न शुभ-गली, सत्ता-मद बौराय।।49।।

बितवान, धर्मी, सुधी, पापी, वित बिहीन।
बित्ताराधन मैं सदा, देख्यों बिश्व-विलीन।।50।।

 

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