किस शय का सुराग़ दे रहा हूँ
किस शय का सुराग़ दे रहा हूँ
अंधे को चराग़ दे रहा हूँ
देते नहीं लोग दिल भी जिस को
मैं उस को दिमाग़ दे रहा हूँ
बख़्षिष में मिली थीं चंद कलियाँ
तावान में बाग़ दे रहा हूँ
तू ने दिए थे जिस्म को ज़ख़्म
मैं रूह को दाग़ दे रहा हूँ
ज़
जो कर्ज़ मुझ पे है वो बोझ उतारता जाऊँ
जो कर्ज़ मुझ पे है वो बोझ उतारता जाऊँ
कोई सुने न सुने मैं पुकारता जाऊँ
मिटा चुका हूँ जिसे अपने सफ़्हा-ए-दिल से
ग़ज़ल ग़ज़ल वही चेहरा उभारता जाऊँ
न जाने मेरे तआकुब में कौन कौन आए
मैं अपने नक़्श-ए-कफ़-ए-पा उभारता जाऊँ
जो मेरे पास है अपने लिए बचा रक्खूँ
जो मेरे पास नहीं तुझ पे वारता जाऊँ
क़दम क़दम पे नए लोग सामने आएँ
क़दम क़दम पे नए रूप धारता जाऊँ
कहीं बने न अना मेरी राह में दीवार
ये तौक़ अपने गले से उतारता जाऊँ
मुक़ाबला तो करूँ ‘राशिद’ अपने दुश्मन से
ये और बात है जीतूँ कि हारता जाऊँ
ख़्मों से लहू टपक रहा
हवा के लम्स से भड़का भी हूँ मैं
हवा के लम्स से भड़का भी हूँ मैं
शरारा ही नहीं शोला भी हूँ मैं
वो जिन की आँख का तारा भी हूँ मैं
उन ही के पाँव का छाला भी हूँ मैं
अकहरा है मिरा पैराहन-ए-ज़ात
बुरा हूँ या भला जैसा भी हूँ मैं
हवा ने छीन ली है मेरी ख़ुश्बू
मिसाल-ए-गुल अगर महका भी हूँ मैं
मिरे रस्ते में हाइल है जो दीवार
उसी के साए में बैठा भी हूँ मैं
तरस जाता हूँ जिस के देखने को
उसी इक शख़्स से बचता भी हूँ मैं
मैं जिन लोगों की सूरत से हूँ बे-ज़ार
उन्हीं में रात दिन रहता भी हूँ मैं
जो मेरी ख़ुश-लिबासी के हैं क़ाएल
उन ही के सामने नंगा भी हूँ मैं
सरासर झूठ है जो बात मेरी
उसी इक बात में सच्चा भी हूँ मैं
अगरचे फ़ितरतन कम-गो हूँ फिर भी
जो सच पूछो तो कुछ बनता भी हूँ मैं
बहुत इस शहर में रूस्वा हूँ ‘राशिद’
मगर क्या वाक़ई ऐसा भी हूँ मैं
है
क़ातिल को सुराग़ दे रहा हूँ