चांद और घास
मेरा और तुम्हारा
सारा फ़र्क
इतने में है
कि तुम ऊपर उगते हो
मैं नीचे उगती हूँ
और कितना फ़र्क हो जाता है इससे
तुम सिर्फ़ दमकते हो
मैं हरियाता हूँ…।
जो खिल रहा है…
जो खिल रहा है…
बीड़ी-सा सुलगता हुआ…
टेढ़ी हवा का रुख़ और जिसे सुलगाता है
वह…
मेरे ईमान की मिट्टी में
खिला
बुरूँश है…।
अमृता प्रीतम के लिए…
वह अकेली थी
और अनंत थी…
वह तो अपने ही अंधेरे में
चिराग़-सी जल रही थी।
निनाद
घने वनों के पार
चट्टानों पर गिरती जलधाराओं का
जो खनखनाता निनाद है…
सगर की उत्तुंग उठी गर्वीली लहरों की
कगार पर
विक्षुब्ध पछाड़ों का
जो हिनहिनाता निनाद है…
ऊँचे कद्दावर दरख़्तों को
हिलाती
गुंजान हवाओं का
जो खिलखिलाता निनाद है…
गूँजती हुई वीणा की तरंगों पर
थिरकता
जो दिपदिपाता निनाद है…
वही निनाद… मैं हूँ!
अपनी ही पुकार की अनुगूँजों के पीछे
बजता हुआ…।
छन्द
वरिष्ठ कवि प्रमोद त्रिवेदी की कविता पढ़कर!
चिड़ियाँ सौंपेंगी हमें अपनी उड़ान
तितलियाँ थोड़ी चंचलता
शंखपुष्पी थोड़ी रोशनी
पंडूक आकाश सौंपेंगे हमें
और नदी
अपनी कल-कल हँसी…
वृक्ष देंगे अपनी सम्पूर्णता
और बारिश अपनी मधुर आसावरी
धरती हमें
कायान्तरण
बतर्ज़ शमशेर
तुमने मुझे और गहरा
और पवित्र
और अनन्त बना दिया…
एक ही चम्पई धूप-सी
पृथ्वी के तमाम रंगों पर छा गई
मैं और भी हरा हो गया…
तुम्हारे होने की उजली चाँदनी में
पिघलने के बाद
मैं…
भोर की एक पीली इबारत से
धुन की तरह उठा
और उठता ही चला गया…
वासन्ती छन्द देगी
और हम-
तुम्हारा आना…
बही गूँजती पगवाहट आली-सा
और भीतर के संसार में
कुछ बजता-सा…
मन की हरी टहनी हिलाकर कहता हूँ
कि तुम आई हो-
हवा के ठंडे झोंके की तरह!
नश्वरता को नकार देंगे!
पुल
अनुभूति और एकान्त ने
एक-दूसरे से
इतनी बार
इतनी बातें की थीं…
कि उनके बीच
एक थरथराता पुल बन गया
गोकि शब्द
उसके ऊपर होकर नहीं गुज़रा…
गोकि एक सोच, एक सम्वेदना
उस थरथराते पुल के नीचे
हरहराती रहे बरसों…!
मौन
मैं जब मौन में रहा…तुम्हारे लिए
चुप्पियों की सारंगी बजाता रहा
अब
हज़ारों वाद्यों से घिरा हूँ…
मौन नहीं है मेरे पास!
अभी-अभी
अभी-अभी
लहरों को छोड़कर
गुज़र गई है शोख हवा
लहरें देर तक बजती रहेंगी…!
इन्तज़ार
बहुत समय से
नहीं हुई बारिश…
सूने… तपते पहाड़ों के बीच
ठहरी हुई एक बेचैन नदी
इन्तज़ार
ख़बर
अपने हरेपन में विहँसता
एक पत्ता
एक शाम झर गया शाख़ से
चिड़ियों के
इंतज़ार
बहुत समय से
नहीं हुई बारिश…
सूने… तपते पहाड़ों के बीच
ठहरी हुई
एक बेचैन नदी
इंतज़ार में है
पास
उसकी ख़बर नहीं थी !
में है…!