प्रेम बहुत मासूम होता है
प्रेम बहुत मासूम होता है
यह होता है बिल्कुल उस बच्चे की तरह
टूटा है जिसका दूध का एक दाँत अभी-अभी।
माँ ने कहा है कि जा ! गाड़ दे, दूब में इसे
उग आये जिससे यह
फिर से और अधिक धवल होकर
और वह चल पडता है
ख़ून से सना दाँत हाथ में लेकर खेतों की ओर ।
प्रेम बहुत भोला होता है
यह होता है मेले में खोई उस बच्ची की तरह
जो चल देती है चुपचाप
किसी भी साधू के पीछे-पीछे
जिसने कभी नही देखा उसके माँ-बाप को ।
कभी-कभी मिटना भी पडता है प्रेम को
सिर्फ़ यह साबित करने के लिए
कि उसका भी दुनिया में अस्तित्व है ।
लेकिन प्रेम कभी नही मिटता
वह टिमटिमाता रहता है आकाश में
भोर के तारे की तरह
जिसके उगते ही उठ जाती है गाँँवों में औरतें
और लग जाती हैं पीसने चक्की
बुजुर्ग करने लग जाते हैं स्नान-ध्यान
और बच्चें माँँगने लग जाते हैं रोटियां
कापी-किताब, पेन्सिल और टॉफियांं ।
प्रेम कभी नही मरता
वह आ जाता है फिर से
दादी की कहानी में
माँँ की लोरी में ,
पिता की थपकी में
बहिन की झिड़की में
वह आ जाता है पड़ोस की ख़िडकी में
और चमकता है हर रात आकर चाँद की तरह ।
गाँव में प्रेम
बेजा लड़ती थी
आपस में काट-कड़ाकड़
जब नयी-नयी आई थी
दोनो देवरानी- जेठानी ।
नंगई पर उतर जाती
बाप-दादा तक को बखेल देती
जब लड़ धापती
पतियों के सामने दहाड़ मारकर रोती
कभी-कभी भाई भी खमखमा जाते
तलवारें खिंच जाती
बीच-बचाव करना मुश्किल हो जाता ।
कई दिनों तक मुँह मरोड़ती
टेसरे करती आपस में
भाई भी नही करते कई दिनों तक
एक दूसरे से राम-राम ।
फिर बाल-बच्चे हुए तो कटुता घटी,
सात घड़ी बच्चों के संग से थोड़ा हेत बढ़ा ।
जैसे-जैसे उम्र पकी
गोडे टूट गए, हाथ छूट गए
एकदम से दोनों बुढ़िया
एक-दूजे की लाठी बन गई ।
अब दोनों बुढ़िया एक दूसरे को
नहलाती है, चोटी गूँथती हैंं
साथ मंदिर जाती हैं
साथ दीप जलाती, गीत गाती हैंं ।
जो भी होता, बाँटकर खाती
एक बीमार हो जाये तो
दूसरी की नींद उड़ जाती ।
उनका प्रेम देखकर
दोनों बूढ़े भी खखार थूककर
कऊ पर बैठने लगे हैं,
साथ हुक्का भरते हैं ।
ठहाका लगाते हैं,
पुरानी बातें याद कर ।
अन्दर चूल्हे पर बैठी
दोनों बुढ़िया भी सुल्फी धरती हुई
एक-दूसरे के कान में
कुछ कहती हैं और हँसती है हरहरार ।
शहर से गुज़रते हुए प्रेम
मैं जब-जब शहर से गुज़रता हूँ
सोचता हूँ
किसने बसाये होंगे शहर ?
शायद गाँँवों से भागे
प्रेमियों ने शहर बसाये होंगे
ये वो अभागे थे,
जो फिर लौटना चाहते थे गाँव
पर लोक-लाज से ठिठक गये पाँँव
सिर्फ़ यादों में रह गये गाँँव ।
शहर से गुज़रते हुए
मैंं जब भी गाँव को याद करता हूँ
गाँव आकर भर लेता है मेरी बाथ
मैं सोच भी नही सकता
कि छोड़ दूँ उसका हाथ ।
फिर मैं भी रोने लगता हूँ
अपने बिछुड़े गाँव के साथ ।
कविता पढ़ना
मैं कविताओं को पढ़ता नही
सुनता हूँ
इसलिए पंखा बंद कर देता हूँ
कि कोई भी शोर ना हो ।
मैं कोशिश करता हूँ
कविताओं की आवाज़ मुझ तक पुहंचे
मूल रूप से उसी भाव के साथ
जो वो कहना चाहती है ।
फिर भी कोई ना कोई शोर
होता रहता है इस दरम्यान
पत्नी चाय के लिए लगाती है आवाज
बच्चा आकर रोता है गोद के लिए
बरामदें में करते हैंं कबूतर गूटरगू ।
फिर मैं चाय पीकर
बच्चे को गोद में ले
धीमा पंखा चलाकर
कबूतरों की गूटरगू के साथ
सुनता हूँ कविताएँ ।
बेबसी
सर्दी की रात तीसरे पहर
जब चाँद भी ओस से
भीगा हुआ सा है
आकाश की नीरवता में
लगता है जैसे रो रहा हो
अकेला किसी की याद में
सब तारें एक-एक करके चले गये हैं ।
बार-बार आती है कोचर की आवाज़
रात के घुप्प अँधेरे को चीरती हुई
और दिल के आर-पार निकल जाती है
पांसूओं को तोड़ती हुई
झींगुरों की आवाज़ मद्धम हो गई है
रात के उतार के साथ।
हल्की पुरवाई चल रही है
काँप रही है नीम की डालियां
हरी-पीली पत्तियों से ओस चू रही है
ऐसे समय में सुनाई देती है
घड़ी की टिक-टिक भी
बिल्कुल साफ और लगातार बढ़ती हुई ।
बाड़े में बँधें ढोरों के गलों में घंटियां बज रही हैं
अभी मंदिर की घंटियां बजने का समय
नही हुआ है
गाँव नींद की रजाई में दुबका है ।
माँ सो रही है पाटोड़ में
बीच-बीच में खाँसती हुई
कल ही देवर के लड़के ने
फावड़ा सर पर तानकर
जो मन में आई
गालियाँ दी थी उसे
पानी निकासी की ज़रा सी बात पर ।
बड़े बेटे से कहा तो जवाब आया
“माँ ! आपकी तो उम्र हो गयी
मर भी गई तो कोई बात नही
आपके बड़े-बड़े बेटे है !
हमारे तो बच्चे छोटे हैं !
हम मर गए तो उनका क्या होगा ?”
माँ सोते हुए अचानक बड़बड़ाती है
डरी हुई काँपती हुई,
घबराती आवाज़ में रूदन
सीने में कुछ दबाव सा है ।
मैं माँ के बगल वाली खाट पर सोया हूँ
मुझे अच्छी नींद आती है माँ के पास
एक बात ये भी है कि-
माँ की परेशानी का भान है मुझे
बढ़ रही है जैसे-जैसे उम्र
माँ अकेले में डरने लगी है ।
जब तक बाप था
माँ दिन-भर खेत क्यार में खटती
रात में बेबात पिटती
मार-पीट करते बाप की भयानक छवियाँ
माँ को दिन-रात कँपाती
बाप के मरने के बाद भी उसकी स्मृतियां
माँ को सपनों में डराती
फिर देवर जेठों से भय खाती रही
और अब अपनी ही औलाद जैसों का डर ।
माँ की अस्पष्ट, घबरायी हुई
कँपकपाती , डर खाई आवाज़
जो मुझे सोते हुए बुदबुदाहट लग रही
जगने पर बड़बड़ाहट में बदल जाती है
मैं उठकर माँ के कंधे पर हाथ रखता हूँ
माँ बताती है कि –
“वह फावड़ा लेकर मुझे फिर मारने आ रहा है !
मैं उसे कह रही हूँ –
आ गैबी !
आज मेरे दोनों बेटे यहीं है
इनके सामने मार मुझे !”
मैं चुपचाप सुनता हूँ
सारी बात बुत की तरह
कुछ नही कह पाता ।
माँ भी चुप हो जाती है
उसे थोड़ी देर बाद उठना है
मैं झूटमूट सोने का बहाना करता हूँ
मुझे भी सुबह उठते ही ड्यूटी जाना है ।
स्त्रियाँ
तुम्हारे कदमों की ताल से हिलती है धरती
तुम्हारे पुरूषार्थ से थर्राता है आकाश
गर तुम नही हिले तो नही हिले पत्ता भी
तुम नही चलो तो नही चले हवा भी ।
कहते हैं तीन बार कहने से
कोई भी बचन
आत्मा से बोला हुआ सत्य बचन
माना जाता है ।
मगर उनका सौ बार गिड़गिड़ाना
फरियाद करना भी सामान्य है
उनकी फरियाद भिखारी की फरियाद से भी
निम्न कोटि की है तुम्हारी नज़र में
जिसकी कभी कोई सुनवाई नही होगी ।
वे तुम्हारे सामने हजार बार गिड़गिड़ाई
कभी प्रेम के लिए , जीवन के लिए
कभी पढ़ने के लिए, आगे बढ़ने के लिए
कभी पीहर के लिए, प्रियजनों से मिलने के लिए
कभी हँसने के लिए, कभी रोने के लिए ।
तुमने हमेशा अनसुना किया
उनकी कातर पुकार को
फिर भी वे चुपचाप सहती रही
कि कभी तुम नरम होंगे उसके लिए
कभी पत्थर पिघलेगा तुम्हारे भीतर का
कभी तुम्हे महसूस होगा
उनके आंसुओं के नमक ।
वे करती रही तुम्हारे लिए व्रत उपवास
खड़ी रही दिनभर भूखी-प्यासी
तुमने नहीं बख़्शा उन्हे
बीमार और गर्भवती होने पर भी
जब मन किया रौंदा अपनी इच्छाओं तले
नही पूछा कभी उनका मन
नही रोका उठाने से अपना हाथ
फिर भी वे रही हमेशा तुम्हारे साथ ।
कोई भी दुख आया तुम्हारे जीवन में
सबसे पहले वे आगे आई
हर संकट में भरी तुम्हारी बाथ ।
तुम्हे प्यास लगी तो बन गई शीतल जल
बिछी तुम्हारे लिए हमेशा सुख की सेज बनकर
फिर भी तुम निकल गये सौंसाट
कभी रात में सोता छोड़कर
कभी दिन-दहाड़े आँखों के सामने से
बिना एक बचन भी बोले
कि कहाँ जा रहे हो ? कब आओगे ?
वे तरसती रही हमेशा
यह बात सुनने के लिए भी कि –
“अपना ख़्याल रखना !”
देखती रही तुम्हे
मुस्कराते हुए
बातें करते हुए
मां-बाप, संगी-साथियों से ।
वे कभी तुम्हारा विश्वास नहीं जीत पाई
तन-मन-जीवन अर्पण करने के बाद भी
तुमने हर बार उन्हे निष्ठुर होकर छोड़ दिया ।
वे फिर भी अग्नि-परीक्षाएँ देती रही
रोती रही और ख़ुद को दुख देती रही
अब कौन उन्हें समझाएंं
वे तो ब्रज की बावरी गोपियों सी हैं
जो गाती रही, गुनगुनाती रही
“माई री वा मुख की मुसकान,
सम्हारि न जैहैं, न जैहैं, न जैहैं॥”
एकमात्र रोटी
पाँचवी में पढ़ता था
उमर होगी कोई
दस एक साल मेरी ।
एक दिन स्कूल से आया
बस्ता पटका , रोटी ढूँढी
घर में बची एकमात्र रोटी को
मेरे हाथ से कुत्ता ले गया ।
जब मैं रोया तो
माँ ने मुझको पीटा ।
मेरे समझ नही आया कि
माँ को कुत्ते की पिटाई करनी थी
पीट दिया मुझे
और फिर ख़ुद भी रोने लग गई
मुझे पुचकारते हुए ।
लेकिन अब मेरे समझ आया
कि माँ उस दिन क्यों रोई थी ?
दरअसल वह मुझे नही
अपनी किस्मत को पीट रही थी
कि लाल भूखा रह गया है
एक रोटी थी जो घर में
वो भी कुत्ता ले गया है !
वहम
मैंने जब-जब मृत्यु के बारे में सोचा
कुछ चेहरे मेरे सामने आ गये
जिन्हे मुझसे बेहद मुहब्बत है।
हालांकि ये मेरा एक ख़ूबसूरत वहम भी हो सकता है
पर ये वहम मेरे लिए बहुत ज़रूरी है।
मैं तो ये भी चाहता हूँ-
इसी तरह के बहुत सारे वहम
हर आदमी अपने मन में पाले रहे।
गर कोई एक वहम टूट भी जाये
तो आदमी दूसरे के साथ ज़िंदा रह सके।
बच्चों को वहम रहे कि-
इसी दुनिया में है कहीं एक बहुत बड़ी खिलौनों की दुनिया
वो कभी वहाँ जायेगें और सारे खिलौने बटोर लायेंगे।
बूढों को वहम रहे कि
बेटे उनकी इज्जत नही करते
पर पोते ज़रूर उनकी इज्जत करेंगे।
औरतों को वहम रहे कि
जल्द ही सारा अन्याय ख़त्म हो जायेगा।
किसानों को वहम रहे कि
आनेवाली सरकार उनको फसल का मनमाफ़िक मूल्य देगी।
मजदूरों को वहम रहे कि
कभी उनको उचित मजदूरी मिलेगी।
सैनिकों को वहम रहे कि
जल्द ही जंग ख़त्म होगी
और वो अपने गाँव जाकर काम में पिता का हाथ बँटायेंगे।
बेरोजगारों को वहम रहे कि
कभी उनकी भी नौकरी होगी,
जिससे वो दे सकेंगे अपने परिवार को दुनियाभर की ख़ुशियाँ।
आशिकों को वहम रहे कि
कभी उनकी प्रेमिका उनको आकर चूमेगी और कहेगी…
“मैं आपके बिना ज़िंदा नही रह सकती !”
रोना
बड़े-बुजुर्ग कहते हैं
मर्द का रोना अच्छा नही
अस्ल वज़ह क्या है
मैं कभी नही जान पाया
मगर मैं ख़ूब रोने वाला आदमी हूँ।
माँ कहती है
मैं बचपन में भी ख़ूब रोता था
कई बार मुझे रोता देख
माँ को पीट दिया करते थे पिता
इसका मुझे आज तक गहरा दु:ख है।
मुझे याद है धुँधला-सा
एक बार मट्ठे के लिए मुझे रोता देख
पिता ने छाछ बिलोती माँ के दे मारी थी
पत्थर के चकले से पीठ पर
चकले के टूटकर हो गये दो-टूक
आज भी बादल छाने पर दर्द करती है माँ की पीठ।
पाँचवी क्लास में कबीर को पढकर
रोता था मैं ड़ागले पर बैठकर
‘रहना नही देस बिराना है’
काकी-ताई ने समझाया…
‘अभी से मन को कच्चा मत कर,
अभी तो धरती की गोद में से उगा है बेटा !’
ऐसे ही रोया था एक बार
अणाचूक ही रात में सपने से जागकर
पूरे घर को उठा लिया सर पर
सपने में मर गई थी मेरी छोटी बहिन
नीम के पेड़ से गिरकर
मेरा रोना तब तक जारी रहा
जब तक छुटकी को जगाकर
मेरे सामने नही लाया गया
उसी छुटकी को विदा कर ससुराल
रोया था अकेले में पिछले साल।
घर-परिवार में जब कभी होती लड़ाई
शुरू हो जाता मेरा रोना-चीखना
मुझे साधू-संतो,फक़ीरो को दिखवाया गया
बताया गया
‘मेरे मार्फ़त रोती है मेरे पुरखो की पवित्र आत्माएँ
उन्हे बहुत कष्ट होता है
जब हम आपस में लड़ते हैं।’
नौकरी लगी, तब भी फ़फक कर रो पड़ा था
रिजल्ट देखते हुए कम्प्यूटर की दुकान पर
मैं रोता था बच्चों,नौजवानों,बूढ़ो,औरतों की दुर्दशा देखकर।
मैं रोता था अखबारों में जंगल कटने,नदिया मिटने,पहाड़ सिमटने जैसी भयानक ख़बरें पढ़कर ।
मैं रोता था टी.वी, रेड़ियो पर
युद्ध,हिंसा,लूटमार,हत्या,बलात्कार के बारे मे सुनकर,
देखने का तो कलेजा है नही मेरा।
माँ कहती है-
‘यह दुनिया सिर्फ़ रोने की जगह रह गई है।’
मैं अब भी रोता हूँ
मगर बदलाव आ गया मेरे रोने में
मैं अब खुलकर नही रोता
रात-रातभर नही सोता
थका-सा दिखता हूँ
मैं अब कविता लिखता हूँ ।
आँधी
यूँ तो बच्चों को आँधी अच्छी लगती है,
पर हमारे लिए आँधी जब भी आई
मुसीबतों का विशाल पहाड़ लेकर आई।
आँधी के अंदेशे मात्र से काँपने लग जाती थी माँ
मुँह-अँधेरे से ही टूटे छप्पर को ठीक करने लग जाती
और देती रहती साथ में आँधी को नौ-नौ गालियां
उसकी गालियों को कितना सुनती थी आँधी ,
यह तो हमको पता नही है।
पर वह आती थी अपने पूरे ज़ोर के साथ।
लिपट जाते हम सब भाई-बहिन छप्पर से
कोई पकड़ता थूणी, कोई बाता पकड़ता ।
कभी-कभी तो आँधी इतनी तेज होती
कि उठ जाते थे सब भाई-बहिन
ज़मीन से दो-दो अंगुल ऊपर।
माँ लूम जाती थी रस्सी पकडकर,
छप्पर से छितरती रहती घास-फूस।
फट जाता था पुराना तिरपाल
और साथ में माँ का ह्रदय भी।
बिखर जाती छप्पर की दीवार के चारों ओर
लगाई ख़जूर के पत्तों की बाड़।
आँधी के सामने माँ खड़ी रहती थी
सीना ताने, अपनी पूरी ताकतों के साथ।
पर हमको अब भी याद है उसकी रिरियाहट
भगवान से आँधी रोकने का उसका निवेदन
बालाजी- माताजी को बोला गया प्रसाद।
जब थम जाती आँधी देर रात
अपना पूरा ज़ोर जणाकर,
फिर चलती कई दिनों तक
बिखरे को समेटने की प्रक्रिया।
बीत गया बचपन, रीत गई यादे
गिर गया छप्पर,बन गया मक़ान
फिर गए दिन,फिर गए मौसम
कट गए साल,मिट गए ग़म
मग़र जब भी आती है आँधी
आज भी सिहर उठता है मेरा तन-मन।
बारिश
जब बारिश होती है
सब कुछ रूक जाता है
सिर्फ़ बारिश होती है ।
रूक जाता है बच्चों का रोना
चले जाते हैं वो अपनी ज़िद भूलकर गलियों में
बारिश में नहाते है देर तक ।
रूक जाता है
खेत में काम करता हुआ किसान
ठीक करता हुआ मेड़ ।
पसीने और बारिश की बूँदे मिलकर
नाचती हैं खेत में।
लौट आती है गाय-भैंसे मैदानों से
भेड़- बकरियाँ आ जाती है पेड़ो तले
भर जाते है जब तालाब-खेड़
भैंसे तैरती हुई उनमें उतर जाती है,गहराई तक।
रूक जाते हैं राहगीर
जहाँ भी मिल जाती है दुबने की ठौर ।
पृथ्वी ठहर जाती है अपने अक्ष पर
और बारिश का उत्सव देखती है ।
हवा के साथ चलना ही पड़ेगा
हवा के साथ चलना ही पड़ेगा
मुझे घर से निकलना ही पड़ेगा ।
मेरे लहजे में है तासीर ऐसी,
कि पत्थर को पिघलना ही पड़ेगा ।
पुराने हो गये किरदार सारे,
कहानी को बदलना ही पड़ेगा ।
तुम्ही गलती से दिल में आ गये थे,
तुम्हे बाहर निकलना ही पड़ेगा ।
वो जो मंजिल को पाना चाहता है,
उसे काँटो पे चलना ही पड़ेगा ।
जहां जाना है जाओ यार लेकिन शान से जाओ
जहां जाना है जाओ यार लेकिन शान से जाओ ।
तुम्हारी बात है कि मान या अपमान से जाओ ।
हमारे मुल्क की गंदी सियासत रोज कहती है,
मेरे दामन में आकर आप भी ईमान से जाओ ।
मेरे बच्चों ! तुम्हें आगे ज़माने से निकलना है,
दुआएं है मेरी तुम ख़ूब आगे शान से जाओ ।
वहीं होगा तुम्हारा भी ठिकाना एक कोने में,
ज़रा तुम देख लेना जो कभी शमशान से जाओ ।
हमारे ख़ून में शामिल है मिट्टी की वफ़ादारी
वहीं काफ़िर ये कहते है कि हिन्दुस्तान से जाओ ।
मग़रूरी में किसको किसका ध्यान रहा
मग़रूरी में किसको किसका ध्यान रहा ।
दरिया भी अपने को सागर मान रहा ।
मेरा क़ातिल मेरे अन्दर था लेकिन,
मरते दम तक मैं उससे अंजान रहा ।
दुख ने ही जीवनभर साथ दिया मेरा ,
सुख तो केवल दो दिन का महमान रहा ।
जो भी तर थे पारावार मिला उनको,
और प्यासों के हिस्से रेगिस्तान रहा ।
वो भी मुझको दो दिन में ही भूल गया,
मेरा भी आगे रस्ता आसान रहा ।
शजर की सरपरस्ती माँगता है
शजर की सरपरस्ती माँगता है ।
परिन्दा एक टहनी माँगता है ।
उतर कर वो मेरी आँखों के रस्ते,
मक़ाने-दिल की चाबी माँगता है ।
मेरे लहजे पे दरिया बोल उठ्ठा,
कोई ऐसे भी पानी माँगता है…?
पकड़ लेता है दिल ही हाथ वरना,
गला मेरा तो रस्सी माँगता है ।
कभी जब वस्ल की होती है बातें,
वो मुझसे रात सारी माँगता है ।
मेरा दिल भी फ़कीरों की तरह है,
ये सहराओं से पानी माँगता है ।
वो जब आनी है, तब आयेगी ‘राही’,
तू क्यों पटरी पे गाडी माँगता है ।
तन्हाई से जब उकता के बैठ गया
तन्हाई से जब उकताके बैठ गया ।
मैं फिर मयखानें में आके बैठ गया ।
पत्थर को पत्थर ही अच्छे लगते हैं,
सो अपने तबके में जाके बैठ गया ।
आज गली से मैंने देखा था उसको,
चंदा छत पर ही शरमाके बैठ गया ।
दो घंटे तक बात नही की जब उसने,
क्या करता मैं ,मुँह लटकाके बैठ गया ।
शाम ढली तो हम भी अपने घर आये,
साया पास हमारे आके बैठ गया ।
लोगों ने पूछा जब उसके बारे में,
‘राही’ अपनी नज़्म सुनाके बैठ गया ।
हमसे पूछो कैसे-कैसे जाना है
हमसे पूछो कैसे-कैसे जाना है ।
ग़र तुमको दुनिया से आगे जाना है ।
थोड़ी देर का मिलना लिक्खा था अपना,
फिर दोनों को अपने रस्ते जाना है ।
कभी-कभी तो ग़ुस्सा भी आ जाता था,
जब वो आते ही कहते थे ‘जाना है !’…
मंज़िल का रस्ता दिखलाकर माँ बोली,
देखो बेटे ! ऐसे-ऐसे जाना है ।
इस दुनिया में रोते-रोते आये थे,
इस दुनिया को रोते-रोते जाना है ।
पुराने ठाँव से रहती है लिपटी
पुराने ठाँव से रहती है लिपटी ।
ग़रीबी गाँव से रहती है लिपटी ।
हमारे खेत की मिट्टी है साहब !
हमेशा पाँव से रहती है लिपटी ।
इसे पानी से नफ़रत हो गई क्या?
ये मछली नाँव से रहती है लिपटी ।
वो मेरी जान है ‘राही’ जो मेरे,
बदन की छाँव से रहती है लिपटी ।