क्या नामवरों के शहर की यही गति होती है नवीन कुमार !
यहां अरूण कमल रहते हैं मेरे प्रिय कवि।
खगेन्द्र ठाकुर हैं यहां ख्यात नाम सरल। नंद किशोर नवल हैं
नामवर आलोचक। इस शहर में इतिहासकार रामशरण शर्मा
रहते हैं। स्त्रियों के संघर्ष की झंडाबरदार शांति ओझा रहती हैं।
अवधेश प्रीत हैं यहां कथाकार यारबाश आदमी। एक लगभग
अपनी उम्र के तेज आलोचक कवि कुमार मुकुल हैं। मिथिला
के कवि पत्रकार अविनाश इन दिनों पाटलिपुत्र में हैं। जसम
के उर्जावान साथी रामजी राय और गोपेश्वर सिंहादि भी
इसी धरती पर।
मैं संथाल परगना के छोटे कस्बे का आदमी हूं इन नामों के
सम्मोहन से भरा हुआ। अपने शौक अपनी इच्छाओं अपने लेखन
के बीच अकेला।
तीस सौ पचास किलोमीटर की यात्रा की मेरी थकान और कितनी
गहरी हो जाती है जब – मैं यहां आकर अवधेश प्रीत से
पूछता हूं अरूण कमल के बारे में …। ढाई महीने पहले एक गोष्ठी
में हुई थी मुलाकात। अभी शायद यहीं होंगे। कुछ दिनों पहले
सुना था गये थे भोपाल।
इनकम टैक्स चौराहे पर अविनाश को दिखे थे कुमार मुकुल
अपनी फटफटिया पर पंद्रह रोज से उपर हुए…।
अप्रत्याशित नरमी और संतभाव से मिलेंगे आलोक धन्वा
कंधे पर देवताओं की तरह हल्का स्पर्श देते हुए कहेंगे : मेरा
नंबर तो होगा ना आपके पास…कभी याद कर लिया कीजिए भाई।
यह हमारी ही बनाई हुई आदत है। यह दौर हमारा ही पैदा
किया हुआ। हम दिल्ली में भोपाल में इलाहाबाद में जाकर
और भी कुछ सीखते हैं : कहते हैं विलक्षण शायरी
करने वाले अल्पज्ञात शायद संजय कुमार कुंदन।
साख और व्यक्तित्व बचाने की गलत कोशिश में लगातार
नपुंसक हो रही है हमारी अभिव्यक्ति। यहां दर्ज क्रोध
हमारा निरर्थक हो रहा है। हम सब यह जान ही रहे हैं
एक झूठे आदर्श और गर्व का वितंडा खडा करते हैं अपनी सर्जना
में और दूसरे ही रोज व्यर्थ हो जाता है सब कुछ सबसे
पहले हमारे ही भीतर।
कितना प्रायोजित और जीवन से हीन वह सब कुछ !!
एक ही शहर और मुहल्ले में रहे और बरसों से मिले नहीं कभी
मिलने की तरह।
क्या नामवरों के शहर की यही गति होती है नवीन कुमार !!
घर -1
एक घर था
जिसे एक रोज छूट जाना था
पता भी न हुआ हमें
और देखते ही देखते बदल गयी
उसके भीतर की हवा
हाथ जो खोलते थे प्रतीक्षा में
सामने का दरवाजा
कहाँ गये……?
एक चौकी थी
एक कुर्सी
एक रसोईघर
एक बरामदा
एक छज्जा बचपन की किताबों
और पुरानी गठरियों से भरा
मेरे बैठने की जगह पर अब धूल थी
और सामने एक परदा था
और उसके पीछे स्मृतियाँ थी…..
घर -2
मैं चलता हूँ या अब मुझे चलना चाहिए
कहता हुआ आता हूँ घर के दरवाज़े पर
फिर कब आ पाऊँगा
या फिर मुझे जल्दी आ जाना चाहिए
मेरा झोला ठीक करते हुए
माँ कहती थी, जब वह थी
और दरवाजे से आँख भर मेरा जाना देखती थी
इस तरह से अपनी नौकरी पर जाने को निकलता हूँ घर से और थोड़ा घर पर ही छूट जाता हूँ
रूलाई बाहर आने से रोकता हूँ
बड़े भाई को कहता हूँ फलाँ काम देख लीजिएगा मौसी के यहाँ चले जाइएगा, सुना है बीमार है अब वही तो एक बहन बची है माँ की !
याद है गुड़ के अनरसे कितना भेजा करती थी हमारे लिए !
चाहता हूँ बस छूट ही जाए !
कोई छूटी चीज़ याद आ जाए
और भागूँ घर के अंदर
अभिनय करूँ भीतर आते हुए
कि कमरे की खिड़की शायद खुली तो नहीं रह गयी ! शहर के किराये के घर की चाबी तो नहीं भूल आया ताखे पर !
जब तक शहर के लिए बस आ नहीं जाती
नज़र बचाकर देखता रहता हूँ घर को
अंतिम विदा की तरह
कभी एक शाम हुआ करती थी।
कभी एक इंतज़ार हुआ करता था
एक रस्ता मेरे पैरों से बँधा था
और एक कुर्सी मेरी राह देखती थी
उस घर के सारे बरतन मुझसे बातें करते थे
एक पेड़ छाँह लिए डोलता रहता था
एक जोड़ी आँखें मेरा लौटना
देखती थीं दूर तक
अब सब अंतिम विदा की तरह
शामिल हैं इस जीवन में
गंध
पुरानी किताबों की गंध की तरह
बसी है तुम्हारी याद
किताबें जो हमने पैदल चलकर
पैसे बचाते हुए खरीदीं
किताबें जो हमें प्रिय थीं
और जो हमें उपहार में मिलीं
और कुछ फुटपाथ पर
विस्मित कर देने वाली तारीख़ों
और हस्ताक्षरों से भरी हुईं
धूसर हो गयी शीशम की आलमारी में
बरसों से जतन से रखी गयीं
जिन्हें झाड़-पोंछ कर आता रहा हूँ
जीवन के लंबे और अपरिचित रास्तों पर
स्मृतियों को बचाता हुआ
समय की धूल से !
किताबों पर अपने नाम
शहर और तारीख़ लिखने की याद बाक़ी है
गोकि हमें अभी और शहर बदलने थे !
अभी भी शामिल हो तुम
एक ऐसी ही याद में !
एक रोज
जिस जगह को
हम हृदय की अतल
गहराइयों से प्यार करते रहे
एक गहरी कचोट
और डूबते हुए दिल
के साथ छोड़ देनी
होती है एक रोज.!!
याद
उन बारिशों को याद करो
जो तुम्हारी उदास रातों में
लगातार झरती रहीं
और वायलिन बजाते उस दोस्त को
कैसे भूल सकते हो
जो उन रातों में
तुम्हारे सिरहाने बैठा होता था !
जिल्दसाज़
वह जो एक दिन दरवाजे पर आ खड़ा हुआ
बांग्ला में बोला :
किताबों पर जिल्द चढ़ाता हूं
किसी ने बताया कि आपके यहां किताबें बहुत हैं
कुछ किताबें देंगे हमें दादा!
बंगाल से आये हैं
वह सुबंधु था
समय की मार खाया हुआ चेहरा लिये अपना घर बार छोड़ आया था
उसने हमारे यहां पचासों जर्जर किताबों को जीवन दिया!
पत्नी और एक छोटे बच्चे को साथ लिये बंगाल के किसी गांव से निकल आया था सुबंधु!
कौन पूछता है अब जिल्दसाज़ को? किसके लिए ज़रूरी रह गयी हैं पुरानी किताबें?
सुबंधु तुम जिल्दसाज़ कैसे बने?
क्या तुम्हारे पिता जिल्दसाज़ थे?
तुम इतने अच्छे जिल्दसाज़ कैसे बने सुबंधु?
मैं बार-बार पूछता था
कितनी खुशी होती थी उसका काम देखकर
कितनी सफाई थी उसके काम में कि पुरानी किताबों से प्यार बढ़ता ही जाता था
दिन बीतते जाते थे और जिल्दसाज़ के चेहरे पर निराशा बढ़ती जाती थी जिल्दसाज़ी के लिए और किताबें नहीं मिल रही थीं गांव में
वह पूरे इलाके में पुरानी किताबों की तलाश में भटक रहा था
एक सर्द शाम को जब सबके घरों के दरवाजे बंद हो रहे थे और कोहरा घना हो रहा था, सुबंधु आया
बोला: दादा काम नहीं मिल रहा
कोई दूसरा काम भी तो नहीं आता
अपने देश लौट जाना होगा दादा!
यह सब कहते हुए दुख का कोहरा, मैंने देखा जिल्दसाज़ के चेहरे पर और घना हो रहा था
वह किताबों की आलमारी की तरफ देख रहा था और असहज कर देने वाली चुप्पी के साथ
मेरा और मेरे बड़े भाई का चेहरा फक्क था!
इन दिनों हम रोज़ ही सुबंधु की और उसके हाथ की कारीगरी की चर्चा करते हुए अघाते न थे
लेकिन एक जिल्दसाज़ के जीवन में क्या चल रहा था, पता न था!
बंगाल से किताबों को बचाने आया था वह पुरानी किताबों को जीवन देने आया था पुरानी किताबों की महक में जीता था वह जिल्दसाज़!
सुबंधु चला जाएगा!! यह बात फांस की तरह थी हमारी संवेदना में
जैसे मन के दीपक में तेल कम हो रहा था और एक रात में हरा जंगल जैसे खाली ठूंठ रह गया था उसके जाने की बात सुनकर
इलाके में पुरानी किताबें न थीं इसलिए सुबंधु वापस जा रहा था
गांव में जिल्दसाज़ का क्या काम!
आज हाट में मिला सुखदेव मरांडी
बोला: आपकी किताब बांधने वाला चला गया अपना सामान लेकर
बीवी बच्चा और टीन के बक्से-झोले के साथ बस पर चढ़ते देखा था उसने
जाने से पहले सुबंधु हमसे मिलने नहीं आया था
वह क्या करता हमारे यहां आकर!
हमारे यहां और पुरानी किताबें कहां थी?
तीन महीने वह रहा इस इलाके में
और कोई उसे जान नहीं सका!!
एक मजदूर को तो सब पहचानते हैं
मगर एक जिल्दसाज़ में किसी की दिलचस्पी नहीं थी!
आज तुम कहां होगे सुबंधु?
क्या पुरानी किताबों से भरी कोई दुनिया हासिल हुई तुम्हें ?
तुम्हारी याद अब एक यंत्रणा है जिल्दसाज़!
तुम अब जान ही गये होगे
किताबों की जगह बहुत कम हो गयी है हमारी दुनिया में
और पुरानी किताबों की तो और भी कम!
पुरानी किताबों की गंध के बीच जीना भूल चुकी है यह दुनिया!
“अपने बच्चे को जिल्दसाज़ी नहीं सिखाऊंगा दादा! वह कोई भी काम कर लेगा, जिल्दसाज़ी नहीं करेगा!!”
सुबंधु ने यही तो कहा था हमारी आखिरी मुलाकात में!
बरामदे से नीचे उतरते हुए और कोहरे में गुम होते हुए उस सर्द रात में!!
बख़्तियारपुर
एक दिन हम पिता की लंबी बीमारी से हार गए, हम सलाहों के आधार पर उन्हें दिल्ली ले जाने की सोचने लगे
दिल्ली में हर मर्ज़ का इलाज़ है
मरणासन्न गए हीरा बाबू दिल्ली से लौट आए गाँव !
दिल्ली में कवि कैसे होते हैं !
कौन से एकांत में लिखते हैं कविताएँ !
कैसे हो जाते हैं दिल्ली के कवि जल्दी चर्चित !
मैं दिल्ली में शाम कॉफी हाउस जाना चाहूँगा मिल बैठकर बातें करते हुए, सुना है, दिख जाते हैं रंगकर्मी कवि और साहित्यकार
देश समस्याओं से भरा पड़ा है !
कहाँ कवियों कलाकारों को मिल पाती होगी इतनी फुर्सत ! -पिता मेरी मंशा जानकर बोले
पिता शिक्षक थे
वे पूरी दुनिया के बारे में औसत जानते थे
कवियों के बारे में तो बहुत थोड़ा जानते थे
एक बार भागलपुर में दिनकर से एक कवि सम्मेलन में कविता सुनी थी
इस बात का कोई खास महत्व नहीं था उनके जीवन में
लेकिन बेग़म अख़्तर की ग़ज़लों के बारे में वह बहुत कुछ बता सकते थे
पिता के जीवन में एक साध रही कि वे बेग़म अख़्तर से मिलते !
पिता दिल्ली की यात्रा में अड़ गए अचानक ! बच्चों की सी ज़िद में बोले- बख़्तियारपुर आए तो बता देना
माँ की स्मृति बहुत साफ नहीं थी
उसने शून्य में आँखें टिकाए हुए कहा कि पिता की पहली पोस्टिंग संभवत बख़्तियारपुर थी
हमें इस बात का पता नहीं था
सच तो यह भी है मित्रों की पिता की ज़िंदगी के बहुत से ज़रूरी हिस्सों के बारे में हम अनजान थे
अभी महानगर की ओर भागती इस ज़िंदगी की जरूरत में पिता की स्मृतियाँ चालीस वर्ष पुराने चौखटे लाँघ रही थी !
पिता दिल्ली की इस यात्रा में कहीं नहीं थे !
थोड़ी देर के बाद अकबकाये हुए से बोले- मुझे खिसकाकर खिड़की के पास कर दो
रामाधार महतो की चाय पिऊँगा
फिर उन्होंने अपने स्कूल के बारे में बताया जो कभी प्लेटफार्म के किनारे से दिखता होगा
पिता की आँखें उस समय बच्चों की शरारती आँखों की भांति नाच रही थी
ऐसे में माँ किसी अनिष्ट की आशंका में रोने लगी
एकाएक उन्होंने संकेत के समय पूछा और पूरे विश्वास से कहा कि बच्चे अभी स्कूल से छूट रहे होंगे
पिता नींद में जा रहे थे और बख्तियारपुर आने वाला था
एक चाय बेचते लड़के से मैंने रामाधार महतों के बारे में पूछा
लड़का चुप था
वह स्कूल के बारे में भी कुछ नहीं बता सका उसने स्कूल के बारे में कोई रुचि नहीं दिखाई
हम आश्चर्य में भरे पड़े थे
पिता की नींद महीनों के बाद लौटी थी
यह उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छा था
हम नहीं चाहते थे कि उनकी नींद पर पानी पड़े !
बख़्तियारपुर गुजर गया था और इसे लेकर हम एक अनजाने अपराधबोध और संकोच से घिर गए थे
लेकिन इस समय हम पिता की नींद की सुरक्षा के बारे में सोच रहे थे और इसके खराब हो जाने के प्रति चिंतित थे
एक बार उनकी आँखें आधी रात को झपकीं उन्होंने अस्फुट स्वर में कहा कि बख़्तियारपुर आए तो बता देना
उन्होंने नींद में ही स्कूल बच्चे रामाधार महतों की चाय जैसा कुछ कहा
हम सब सहम गए
हमारी विवशता का यह दुर्लभ रूप था
उनकी नींद की बात की जिज्ञासाओं को लेकर हम किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति में थे
इस यात्रा में पिता कविता के बहुत ज़रूरी हिस्से को जी रहे थे
यह सिर्फ मैं समझ रहा था
यह तय था-
बख़्तियारपुर पिता की नींद में अभी सुंदर सपने की तरह गड्डमड्ड हो रहा होगा
लेकिन दोस्तों !
हम बख़्तियारपुर के किसी भी ज़िक्र से बचना चाहते थे
हम इस शब्द के एहसास से बचना चाहते थे
यह वही दुनिया थी
खूँटी पर टँगा कुर्ता
फकीर को दे दिया गया !
तो तय था-
पिता चले गए थे
माटी हो चुके थे
लेकिन दुनिया वैसी की वैसी रही !
विस्मय से भर गए हम !
जो रोज शाम चाय पर हमारी बैठक में आते थे, हमारे घर में कहकहों का संसार रचने वाले पिता के मित्र न जाने कहाँ बिला गए !
पिता के कुछ सरकारी पैसे थे, उनकी निकासी के वास्ते उनके दफ्तर में जाना पड़ा हमें और बार-बार जाना पड़ा !
आखिरकार रो दिए हम !
वहाँ हवा भी रुपए माँगती थी काम के एवज में !
यह असली दुनिया थी
भयावह विवरणों से भरी !
भयाक्रांत कर देने वाले अनुभवों वाली यह वही दुनिया थी, जिसके बारे में पिता अक्सर कहते थे :
असली दुनिया में पैर रखोगे तब जानोगे !
तुम्हारे बारे में सोचते हुए
तुम्हारे बारे में सोचते हुए
एक दिन पाया कि
ऐसा करते हुए कई साल बीत गए हैं
याद करना कुछ खास करने
जैसा नहीं रह गया था
यह कोई सहायक क्रिया भी नहीं थी
तुम्हें बताना चाहता हूँ
कि वह शहर पूरी तरह बदल गया था जो हमारी साँसों में बसता था
सारी चीजें हमेशा की
तरह बदल रही थीं
हमारे साथ बैठने की वह जगह भी
जो हम स्मृतियों में छोड़ आए !
मैंने दरबान से पूछा कि यहाँ एक गुलमोहर भी हुआ करता था
जवाब में उसने कहा कि
आपको मिलना किससे है ?
साइकिलें नहीं थीं !
वे मुझे बेहद शिद्दत से याद आईं
जो हॉस्टल की बाहरी दीवारों पर टिकी रहती थीं
बहुत तेज भागता प्रेम था यहाँ
और थोड़ा आक्रामक दिखता सा, असहजता बीते दिनों का किस्सा थी
क्या इत्मीनान से भरे थे हमारे दिन ?
क्या हमारी यादों में उन दिनों की आशंकाएं दर्ज हैं !
और क्या दुख की इबारतों के किस्से भी मिलेंगे वहां ?
कहाँ जाएँ कि शक्लें
अब बदल चुकी हैं
और अच्छा हुआ कि
हम अपनी पुरानी डायरियाँ
भी कहीं रखकर भूल गए हैं !!
हम तो सच कहने और सुनने के लिए कविता की तरफ़ आए थे
हमारे बारे में कहा गया…..
हमने एक ही तरह से कविताएं लिखीं
और जाने गए एक ही तरह से ….
जिसने कविता में गहरी उड़ान भर ली थी और जिसके झोले में कई बड़े पुरस्कार थे जिसे राजधानी एक बड़े अफसर नुमा कवि को सम्मानित और उसकी पहली किताब को विमोचित करने के वास्ते वातानुकूलित रेलगाड़ी से बुलाया गया था
अप्रत्याशित तामझाम के बीच कहा जिन्होंने :
दुख होता है
अभी हमारे साहित्य संसार में
एक ही तरह की कविताएं और एक ही तरह के दृश्य वहां
पीड़ा के गलियारे में बड़े कवि की आत्मा भटक रही थी
बुझते हुए स्वर में कहा उन्होंने आगे
गौरतलब है
एक ही तरह की चिड़ियाएं
एक ही तरह के फूल पहाड़
मां और बहनें भी एक ही तरह की
पिता भी आ रहे हैं कवियों के
एक ही तरह से
मतलब की कविताओं में यह एक-सा-पन !!
कुछ ऐसा असर था उस प्रसिद्ध कवि के कथन में कि हम समझ नहीं पाए यह संकट है संवेदना का
साहित्य का
या हमारे समाज का !
जैसा कि होना था
एक बेचैनी घेर कर खड़ी हो गई हमें
थोड़ी देर के मौन के बाद उन्होंने बताया रूमानी और भावुक होने की हद तक कि
बची है इस संकट से अभी विमोचित संग्रह की कविताएं !
बाहर हो रही तेज बारिश पर ध्यान केंद्रित कराते हुए सभागार का
संग्रह के बारे में कुछ और खुशगवार बातें की उस नामवर कवि ने
तो भीग गयीं आह्लाद से उस अफसर की कविताएँ और उनकी धर्मपत्नी
“जैसे आषाढ़ की पहली बारिश बांध लेती है हमारा मन
श्री …… की कविताएं उसी बारिश में हरिप्रसाद चौरसिया की जैसे बांसुरी हैं !”
इस तरह से चीजों को रिलेट करके देखने की उनकी प्रतिभा और बुद्धि पर सनाका खा गई हमारी नई पीढ़ी
हम जानते थे
सम्मानित कवि की कविताओं में पहली बारिश का रूमान नहीं था
और उसमें हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी की मौजूदगी का आभास एक बड़ा बेशर्म झूठ था
वे हमारे शहर के एक बड़े अफसर की कविताएं थीं
वे कविताएं हमारे परिचय क्षेत्र में थीं
उनका सत्य जानते थे हम
इसलिए हम भाषा और अभिव्यक्ति के विस्मित कर देने वाले उस प्रायोजित चमत्कार के फेर में नहीं पड़े
लेकिन थोड़ी देर के लिए यह ख्याल तो आया ही कि
हम तो सच कहने और सुनने के लिए कविता की तरफ आए थे
और यही बेहतर होता
हरिओम राजोरिया,
प्रेमरंजन अनिमेष, रमेश ऋतंभर, कल्लोल चक्रवर्ती,भैया संजय कुमार कुंदन
कि हम कोयले की मंडी में चले जाते
दिल्ली के चांदनी चौक पर बेचते कंघी और लड़कियों के माथे का रिबन
इसकी मिसाल दुनिया में नहीं है और कहीं बताते….
कहीं फुटपाथ पर छान लेते कोई फोटूग्राफी की दुकान
गले में रंगीन रूमाल लटकाए देह की दलाली में लग जाते
……………मगर इस तरफ
नहीं आते !
वे दिन और रात की तरह सच हैं
वे हर एक शहर में हैं
काम पर जाती हुईं
काम से लौटती हुईं
शोहदों और लफ्फ़ाज़ों के अनंत शोर से अपने को बचाने की कोशिश में भरी हुईं
वे दिन और रात की तरह सच हैं
हमारी दुनिया में
साधूजनों की वाणियों उनके लिए परोसी शालीनता और अखबारों में दर्ज़ क्रूरताएँ भी हैं अपनी जगह
उनके सपनों अकेलेपन और संघर्षों के अनंत किस्से लिखते रहे हैं
शहरों के कवि !
कहा गया है ओस की तरह हैं उनकी इच्छाएँ जो कठिन मेहनत और दुख की आँच में सूख जाती हैं
लंबी उम्र जीती हैं उनमें से बहुत कम
प्रसवास्था में मर जाती हैं
या छोटी- मोटी बीमारियों में
और हरेक शहर की छोटी – संकरी गलियों में उनके किराए के घर
अनगिनत स्मृतियों की गंध से
देवताओं के फोटुओं से
सस्ती अगरबत्ती की बची हुई खूशबुओं में तिरते हुए
यह भी गुज़र जाएगा यह भी और यह भी
अब वह एक मीठी टीस है !
वह किसी गुज़रे ज़माने की तरह याद आ रहा है
याद आ रहा है बचपन के खिलौनों की तरह
पहली पाठशाला में चित्रों वाली किताब की तरह याद आ रहा है
ओवर ब्रिज पर चढ़ती हुई बस में जीवन में पहली बार देखी हुई रेल की तरह याद आ रहा है
हम दोनों को कॉलेज में एक ही लड़की पसंद थी
हम झगड़ते थे उसके लिए
एक अज़ब रूमानियत से भरा ज़ज़्बा था कि घर से आए पैसों के बल पर उस लड़की की पसंद पर हम बहस करते थे
कुछ और लड़ाइयों और मनमुटावों के बाद हम रोते थे एक दूसरे के लिए
एक ही कमरे में अलग-अलग बिस्तर पर सोते हुए एक दूसरे को ख़त लिखा हमने देर रात गए
मेरी अनंत बदमाशियों को उसने क्षमा किया, यह मैं अब समझ रहा हूँ
उसका अक्खड़पन याद आ रहा है
उसका दुख से बुझा चेहरा
प्यार देने वाली आँखें
भागलपुर के उर्दू बाज़ार से मसाकचक तक की सिनेमा की आखिरी शो तक खुलीं चाय की गुमटियों के भीतर लकड़ी के ठंढे बेंचो पर उसके साथ की गई अनंत गर्म बहसें ……
सब याद आ रहे हैं !
जब हम युवा होती ज़िंदगी और अपने रूमानी जीवन के अंतहीन लगने वाले दुखों से भरे थे
जीवन के बारे में उसका फक़ीराना मंतव्य भी अज़ीब था यह भी गुज़र जाएगा यह भी और यह भी !
ऐसे आदमी को अब आप क्या कहेंगे
जो इसी प्रदेश के दूसरे शहर में है और ख़तों के बारे में भूल चुका है
बचपन और जवानी के दिनों के कई महत्वपूर्ण दृश्य अब उसे याद नहीं !
छाता
मुझे एक छाता खरीदना था
एक लंबी दरकार को मैं रोज टाल रहा था
कोई कहता कि आप कैसे चले आ रहे हैं इस कड़ी धूप में
कल की ख़बर सुनी, लू से तीन लोग मर गये !
कहां, इसी शहर में ?
मैं चौंका
वे हंसते रहे, बोले-
आपको दुनिया की कुछ ख़बर भी रहती है !
तब जाकर मुझे महसूस हुआ कि
अब छाता ले ही लेना चाहिए
पुराने छाते की कमानियां बार-बार बिगड़ जाती थीं
चार-पांच पैबंद के बाद कपड़ा अब जवाब दे रहा था
उसे बाहर ले जाने में शर्म आती थी
दिन गुज़र ही जाते हैं
गुज़र रहे थे
लेकिन एक दोपहर में, जब घर लौटा
तो आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था
पत्नी ने कहा कि डॉक्टर को सौ-पचास दे दोगे
मगर एक छाता नहीं खरीदोगे
दरअसल, मैं डरता था छाते की क़ीमत से
मैंने जीवन में कोई छाता नहीं खरीदा था
पिछला पुराना छाता पिता ने खरीदा था
पुराने छाते के साथ पिता की एक तस्वीर थी
जिसमें छाता चमकता हुआ काला दिखाई देता था
अब उसका रंग पूरी तरह से धूसर हो चुका था
एक सुबह पत्नी ने भुनभुनाकर कहा
तुम एकदम गांव के आदमी ही रह गये
गमछा सिर पर लिये फिरते हो, देहाती की तरह
अंतत: मुझे दुकान पर जाना ही पड़ा
मैं भौंचक रह गया
वहां न जाने कितने ही रंग-बिरंग के छाते थे
जिन्हें दुकानदार छतरियां कह रहा था
मेरी जानकारी में छाते सिर्फ काले होते थे
मैं उजबक की तरह वे छतरियां देखता रहा
और भूल गया कि किसी दुकान पर हूं
उन छतरियों में कोई एक ही आ सकता था
मुझे अपने यहां के पुराने छाते का ध्यान आया, जिसे
पिता ने खरीदा था
उस छाते में पिता को मैंने कई बार अपने एक
मित्र दुखी साह के साथ दूसरे गांव जाते देखा था
दुकानदार ने टोका कि कोई पसंद आया या
डिजाइनर छाते दिखाऊँ ?
दुकानदार स्मार्ट दिखता था
वह बड़ी तेजी से और कुशलता से बोल रहा था
जरूर यह कॉन्वेंट में पढ़ा होगा, मैंने सोचा
मैं पसोपेश में उन रंग-बिरंगी छतरियों को देख रहा था
उनकी क़ीमतों के अनुमान से
मेरे अंदर एक भय का भरना शुरू हो गया था
पर मेरे दिमाग में बड़ा छाता था
पिता के पुराने छाते जैसा
लेकिन दुकानदार ने वैसा छाता नहीं दिखाया था
वहाँ सिर्फ छतरियां थीं
मैंने थोड़ी दुविधा और संकोच के साथ कहा कि
मुझे बड़ा छाता चाहिए, काला छाता…
ओह! कहते हुए दुकानदार झल्लाया
उसने लगभग फेंकते हुए एक छाता दिखाया और कहा कि
ये ओल्ड स्टॉक है
हम ओल्ड मॉडल की चीजें नहीं रखते
मैं दुकान की लकदक से दबा जा रहा था
थोड़ी-सी हीनताबोध के साथ एकदम दबे हुए स्वर में
मैंने छाते की क़ीमत जाननी चाही
क़ीमत उस जूते के बराबर थी
जिसे अपने लिए मैंने, लंबी दरकार के बाद ही
एक फुटपाथ से खरीदा था
पहली बार लगा कि दवाइयों के साथ
जूते, छाते सभी महंगे हो गये हैं
मैंने दुकान के बाहर देखा
जेठ की धूप उन्मत्त सांड की तरह हहरा रही थी
उसी समय मुझे पिछली रात का पौने नौ बजे वाला
ऑल इंडिया रेडियो के समाचार का ध्यान आया
उसमें मॉनसून के बारे में अनुमान था कि वह
बारह जून के बाद हमारे इलाक़े में आ जाएगा
उसी समय धड़धड़ाती हुई दो लड़कियां दुकान के भीतर आयीं
उनके हाथों में छींटदार छतरियां थीं
उनके कहने पर दुकानदार ने उन्हें टोपियां दिखानी शुरू कीं
टोपियां अस्सी रुपये से शुरू होती थीं और पाँच सौ तक जाती थीं
अब उन युवा और दमकती लड़कियों ने कहा कि
इससे बेहतर दिखाओ, तो यक़ीन मानिए, मैं एक
नये भय से भर आया
दुकानदार उत्साहित हो उठा
अब वह मुझसे निरपेक्ष था
उसके नौकर ने मेरे सामने से छतरियों को समेटना शुरू किया
एकाएक दुकानदार ने नमस्ते की
और कहा कि माफ कीजिए
मैं, आपको, आपकी पसंद का छाता नहीं दे सका
जाहिर है
वह मुझ पर व्यंग्य कर रहा था
दुकान की सीढियां उतरते हुए सुना
वह लड़कियों से कह रहा था: कुछ लोग अपना और
दूसरे का वक्त खराब करने चले आते हैं
लड़कियों के खिलखिलाने की आवाजें आयीं
एक लड़का कोल्ड ड्रिंक की दो बोतलें लिये
दुकान के भीतर जा रहा था।
महानगर में एक मृत्यु
जब सारे बच्चे स्कूल जा रहे थे
जब सारे कामगार अपने अड्डे पर जा रहे थे अधिकारी सुरक्षा व्यवस्था के बीच निकल रहे थे दफ्तरों को
जब पड़ोसी देश के रक्षा मंत्री को दिया जा रहा था गार्ड ऑफ ऑनर
जब संसद में प्रतिनिधियों के बीच प्रतिरक्षा मामले में जारी थी बहस
गांव से आए युवक के पेट में घोंप दिया छूरा किसी ने ठीक उसी वक्त !
हत्यारा ले पाया सिर्फ उसकी घड़ी
हत्यारे को नहीं मिली उसके झोले में मतलब की कोई भी चीज
हत्यारे ने इतने इतने के बाद भी मरे हुए युवक को दी गाली और तेज घृणा के साथ फेंक दिया झोला नाली में
हत्यारा तानाशाह की भांति लोगों के सामने से चलता हुआ बगल की गली में गुम हो गया
पुलिस उस गली में आई दो-चार दिन
नहीं मिला हत्यारे का कोई भी सुराग
हत्यारा बैठता रहा चौराहे की दुकानों पर रोज की तरह,जिस तरह रोज छपते हैं अखबार
पुलिस को झोले में मिले
एक पुराना तोलिया
एक नया स्वेटर
एक तस्वीर
ऐसे झोले संथाल परगना के गांवों के मेले में मिलते हैं हम में से हर कोई ऐसा झोला एक बार जरूर खरीदा है जीवन में
गांव से युवक के विदा होने का संगीत छुपा होगा उस झोले में
उसी झोले में तय होगा दिल्ली से ढेर सारी चीजों का गांव आना
कितने -कितने सपनों का गवाह होगा वह झोला !!
बूढ़े मां बाप और पत्नी के संग किसी मेले में ही खिंचवाई होगी वह तस्वीर
कितने जतन से बीना गया होगा यह स्वेटर !
दिल्ली की भयंकर ठंड में रक्षा करेगा किसी ने सोचा होगा अपने बेटे के लिए
किसी नवोढ़ा की उंगलियों का स्पर्श छिपा होगा इस स्वेटर में
एक तस्वीर
एक तौलिया
एक स्वेटर
किसी के पत्ते की शिनाख्त नहीं हो सकते दिल्ली में
हाय किन दुर्भाग्यपूर्ण क्षणों में आया होगा वह महानगर घोषित हुई जिसकी लावारिस
कोई पहचाने तो पहचान ले जालिम दिल्ली में
किस गांव से आया था युवक
किस जनपद का था
किन सपनों की खातिर आया था यहां
शिनाख्त के लिए पड़ा है अभी भी
वह पुराना तौलिया
पहाड़ी हाथ से बना हुआ वह झोला
स्वेटर और वह तस्वीर भी
जिसमें वह बूढ़े मां बाप और नई पत्नी के संग ताजमहल के सामने खड़ा मुस्कुरा रहा है
ताड़ के हाथ पंखे
एक भीषण गर्मी के रोज
मैं ताड़ के हाथ पंखों के लिए
हाट में निकला
उस साप्ताहिक हाट में
कस्बाई जीवन के लायक सारे सामान थे
मैं कई सालों के बाद इन पंखों के लिए हाट में निकला था
मेरा कुर्ता भीग रहा था
हद थी, जो दुमका की सड़कों पर , कांख में दबाए इन पंखों के लिए आवाज़ें भरते , गली कूचों में भी अक्सरहा नज़र आते थे , नहीं दिखे
लगातार बिजली की कटौती वाले इस कस्बाई शहर में इस मौसम को कैसे झेल रहे हैं लोग
क्या उन्हें हवा नहीं चाहिए ?
मैं बे- बात झुंझला रहा था
अगर कोई मुझसे इस समय मुँह लगता तो यकीनन मैं उस की ऐसी तैसी कर डालता
मुझे ताड़ के पंखे चाहिए ~~~
पंखे चाहिए मुझे ताड़ के~~~
सुनिए, सुनिए, भाई साहब !
ताड़ के पंखे बेचती कोई स्त्री
कोई बच्चा दिखा आपको ?
हाट से निकलकर
मैं इस छोटे से शहर की जिस भी दुकान के सामने से गुजरा, वहां सामने टंगे दिखे प्लास्टिक के छोटे-छोटे हाथ पंखे
एक मारवाड़ी दुकानदार ने इन प्लास्टिक पंखों की जिस तरह से वकालत की, वह मुझे भयानक रूप से अश्लील लगी
मैं भीतर से चिल्लाया –
सालों ~~~
प्लास्टिक खाओगे एक दिन !
और थक कर हाँफने लगा
आह ! कितने समर्थ और अराजक तरीके से प्लास्टिक हमारे जीवन में आ गया देखते-देखते !
ताड़ के असंख्य पेड़ हैं हमारे इलाके में और कम आमदनी वाले तमाम शराबी !
क्या ताड़ के पेड़ इन्हीं के बदौलत बचे हैं ?
आपने गौर किया है ,
ताड़ के पंखे कितने हल्के होते हैं और कितने सस्ते !
हवा और पत्ता !
इस तरह से देखिए तो इन चीजों के प्रति एक रागात्मक भाव मन में पैदा होगा
मैंने तो बचपन में ताड़ के पंखों पर रंगों की नक्काशी देखी है, वह स्मृति अद्भुत है !
आज ताड़ के पंखों के लिए भटकने के अपने अनुभव से मैं हैरान हूं
एक भय की अनुभूति से भरा हूं कि मेरा यह प्यारा शहर मेरे सामने ही कितना बदल गया !
मेरे पूर्वजों ने जिन्होंने ताड़ के हजारों पेड़ लगाए
क्या सोचा होगा कभी
कि एक दिन उन्हीं का खून
इधर -उधर भटकेगा
वह भी ताड़ के पंखों के लिए !!
उस लोकधुन की स्मृति में
उन्हें सूरजकुंड के मेले में सुना था कई बरस हुए
यद्यपि हिमाचल के लोक धुनों कि मुझे कोई पहचान नहीं
पर कोई लय मुझे बाँधती थी
एक आलाप किसी स्त्री का मुझे अनजाने खिंचाव से भर देता था
वह वाद्य है बैठा मेरे दिमाग में अब तक
जिस पर मैं बर्बाद हुआ
कोई ढ़प-ढ़प करता वाद्य स्वर गले के साथ संगत करता हुआ
वह तबला नहीं
ढोलक नहीं
वह क्या था, कैसे बताऊँ !
मैं तो सुंदर नींद और सपने की अवस्था में था
क्या वह स्त्रियों के दुख के गीत जैसा था ?
नहीं – नहीं ! – मुझे तो ऐसा लगा कि कोई शांत नदी मध्यम आवाज के साथ पहाड़ों से उतर रही हो
फिर लगा इसमें स्त्री जीवन की
विडंबनाओं की कथा है !
मैंने कयास लगाया और क्या पता था कि यह धुन मुझे जीवन भर के लिए ही लपेट लेगी !
कोई बताए मुझे उस गीत में क्या था
और वह धुन मुझे कहाँ मिलेगी
. …..मैं उसका हो जाउँगा !
कई बरस हुए सूरजकुंड के मेले में गए हुए
क्या हिमाचल जाऊँ तो वह धुन मुझे मिलेगी ?
मैं अगर कहूँ कि उस लोक धुन की स्मृति मुझे बेईमान होने से बचाती है
तो यह सुनकर आप हँसेंगे
उसे धुन ने उस गीत ने मुझे प्रेमी बनाया
उस स्त्री के आलाप में व्याप्त दुख की स्मृति में मैं कई कई रात रोया हूँ
क्या कोई पतियायेगा ?
कि उस गीत की तलाश में गीत बेचने वाले दुकानों पर धूप- बताश में जार बेजार फिरा हूँ
कई कई घंटे रेडियो से कान आड़े ने पड़ा हूँ
मुझे वह धुन कहाँ मिलेगी !
दुर्गा पूजा में जहाँ कबीर के पद नहीं फिल्मी गानों के रीमिक्स बजते हों
………आप की इस नगरी का
भी क्या भरोसा करूँ !
यह ख़रीद लीजिए प्लीज़
पूरी दुनिया में चक्कर काटने के बाद सुष्मिता सेन हमारे घर की स्त्रियों के लिए एक नायाब चीज़ ढूंढ लाईं
उस सेनेटरी नैपकिन के बारे में उम्दा ख़्याल रखते हुए उसने बताया –
यह ख़रीद लीजिए, यह सबसे अच्छा है !
यह सबसे अच्छा है ! वंडरफुल !
– इसे तो आप ख़रीद ही लें !
एक साबुन की झाग में अर्धनग्न एश्वर्य राय ने पुलक में भरकर कहा
एक जूते से पूरे विवस्त्र शरीर को कलात्मक ढंग से ढँकते हुए मधु सप्रे की आँखों में आवारगी और आमंत्रण था –
यही लीजिए, मेरी तरह टिकाऊ खूबसूरत और मजेदार !
गर्दन उरोजों और सुडौल टाँगों पर उंगलियाँ फिराते हुए मिस फेमिना ने मर्दो को बताया – इससे मुलायम और क्या हो सकता है भला !सेविंग के लिए प्लीज यह ब्लेड लीजिए !
इसका एहसास कितना खूबसूरत है !
काश मैं बता सकती आपको….
नशीली आंखों से एक कंडोम के अनुभव को साकार करते हुए पूजा बेदी ने कहा -आप अगली बार यही आजमाएंगे ,आई होप !
नौ गज़ की साड़ी पूरे बदन पर लपेटने के बाद भी नंगी पीठ दिखलाती हुई संगीता बिजलानी मुस्कुरा रही थीं – हाय यह मेरी तरह हल्की है इसे लीजिए ना !
मैं छह बच्चों की माँ हूँ !
पर मेरे बालों की चमक तो देखिए !
एक शैम्पु की दुनिया में अब शोभा डे भी महक रही थीं और उनके भी होंठ उसे खरीद लेने के अनुरोध और उत्तेजना में काँप रहे थे
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ये आम स्त्रियों की तरह ही हाड़ मांस की औरतें थीं पर उन्मादित ढंग से हमारी दुनिया में बेखौफ़ आ गई थीं
इनका ख़ास मक़सद हमारी बेरौनक दुनिया को सुंदर बनाना था
यह महकती हुईं औरतें थीं-
युवा और आकर्षक !
उकताहट से परे जिंदादिल और आत्मविश्वास से भरी हुईं,
जो बाज़ार को घर ले आने की सारी कलाएँ जानती थीं
इनकी उंगलियाँ गीले आटे के एहसास से नावाकिफ़ थीं
इन्हें अपने बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजने की ज़ल्दी में नहीं जीना था और ना ऑफिस जाते पतियों के लिए टिफिन तैयार करना था
ये वो पिलपिली नहीं थीं जिन्हें डॉक्टर के पास, बनिए के पास रोज के सौदा सुलफ़ के लिए जाना था
उनके भीतर निरंतर फैलता हुआ एक इत्मीनान था
रोजमर्रा की चीज़ों के लिए परिचित और लिजलिज़ा अफसोस नहीं
इन्हें सोहर नहीं गाना था, व्रत नहीं रखने थे !
ये छोटी- मोटी अधूरी आकांक्षाओं की मारी स्त्रियाँ नहीं थीं
छोटे-छोटे सुखों के लिए आह भरती कुंठा नहीं थीं
संभवतः ये चाँद से उतरी थीं और सितारों से मुखातिब थीं
हमारी दुनिया को थोड़ा और बेहतर बनाने के लिए रूमानियत से लबालब पैमाना थीं सुनहरा अवसर थीं – जिससे हम सब को चुकना नहीं था
यह हमारे घर की स्त्रियों, लड़कियों के लिए सपना थीं
जीवन का मकसद थीं, जिन्हें हर हाल में उन्हें पूरा करना था
यह संस्कृति की भाषा में बाजार थीं
बाजार की भाषा में उत्तेजना
विज्ञापन की भाषा में बाग का ताजापन थीं
ये नई बाज़ार व्यवस्था का रुमान थीं
बेहद शालीन ढंग से उच्छृंखल होती स्त्रियाँ थीं
ये औरतें एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थीं
जिन्हें काफी संभालकर सावधानी और समझदारी के साथ उतारा गया था सुंदर और खुशहाल बनाने को हमारी दुनिया में …..
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अब आपका झुंझलाना व्यर्थ है !
यह औरतें तब एक महज अनुरोध थीं
सिर्फ़ एक नादान शख्सियत !
आप ही के शब्दों में शालीनता की परिभाषा थीं
गौर कीजिए ……
वे चोर दरवाज़े से नहीं आई थीं हमारे घरों में
आपने उन्हें आते हुए देखा था सामने से
आप ने ही उन्हें गले लगाकर दरवाज़े से भीतर बुलाया था
फिर आपने ही उन युवा आकर्षक आक्रामक और स्वप्न में डूबी अवास्तविक औरतों से कल्पना में प्रेम किया था
आपने ही सबसे पहले उत्साह में पत्नी का कंधा दबाते हुए उन औरतों के बारे में कहा था कोई हौसलेमंद वाक्य
तब ये अनुरोध करती औरतें आपके दरवाज़े पर खड़ी थीं
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