मैं हर बार मुसलमान बना दिया जाता हूँ
ये मेरा शहर
जिंदगी और उसकी जुस्तजू से
लबरेज़ शहर
जाने क्यों अ़ज़ीज बन गया है
इंसानियत के गुनहगारों का?
जो- एक के बाद एक
करते हैं हमले
कभी कत्ल करते राहगीरों का
कभी होटल,कभी रेलवे स्टेशनों
तो सफ़र करते ट्रेनों के डिब्बों में
भर देते बारुद
और जमीन से अखबार तक
भर देते मासूमों के खून से
फ़िर देखते तमाशे
पर्दों के पीछे परदों मे बैठ कर
करते हिसाब लाशों का
जुट जाती देश भक्त पुलिस
उठा लाती रातों रात
भर देती जेलों की कोठरियां
पकड-पकड कर लाती दाढ़ियां
देती प्रताडना
असंख्य मजबूरों बे सहारों को
लगाती उन पर भारी भारी इल्ज़ाम
कभी पोटा तो कभी रासुका
माहौल ही ऐसा बनता
हर बार हर धमाके के बाद
कि पुलिस की हर कार्यवाही
पहन लेती देश सेवा का एक मज़बूत कवच
और ढूंढ़ती तहमदों, कुर्तों, दाढ़ियों और इबादत गाहों में
खास देश द्रोहियों को
नहीं लिखता कोई अखबार
जिनकी खबरें
कि कैसे दे गयी प्रताड़नायें
बेटी को करते बाप के सामने ज़लील
देते भर भर पेशाब के प्याले
देते ताने..कि क्यूं नही जाते
पडौस वाले मुल्क में
और फ़िर..
कोई सिरफ़िरा
कर देता असीमनंद जैसा खुलासा
धरी रह जाती वो लगायी तमाम तौहमतें
सही गयी ज़लालतें
दी गयी यातनायें
कोई नहीं मांगता हिसाब
साल दर साल जेलों कें ढूंसे रखने का
पड़ जाते मानवाधिकार वालों के मुंह में ताले
कोई नही बनता उनकी जुंबान
जो इस देश में पैदा होता
सिर्फ़ यहीं मरने के लिये
करता जीने की जुस्तजू
बनाते अपने नशेमन, जी तोड मेहनत के बाद
जिसे कर देते बर्बाद
कुछ धमाके
तोड़ देती सभी कसरतें
सारी मशक्कतें
आपसी मौहब्बतें
कोई रोक नहीं पाता
जब ले जाती पुलिस, सलीम को
मौहम्मद को
कोई..कुमार..कोई सिंह नहीं बोल सकता
जब सवाल देश का बना दिया जाये
रात-दिन बरसते है चैनल
खोज में लग जाते चूहों की
तय कर देते..सारे जुर्म
बिना किसी अदालत के
सुनवायी के
कोई नहीं बताता
कितने पकडे गये कल रात से अब तक.
धमाके होने के बाद
मेरे शहर में
पूरी एक कौम को
देखते शक से
शक का माहौल गरमा जाता
अखबार-टी.वी. सब मिल कर कर देते साबित
कि मैं ही हूं अपराधी
मैं खुद को भी अब शक से देखता
मुझे कब पकड ले जाये
खाकी पुलिस वाला
देश सेवा के नाम पर
कभी भी कर दे मेरा एन्काऊंटर
लगा लेगा एक दो तमगे अपनी छाती पर
पर, मेरी खबर
मेरे जहन की खबर
नहीं बनती सुर्खी
किसी अखबार की
किसी टी.वी की
हां,
कसाब को बिरयानी पंसद नही आयी
वह बोर हो गया उसे खाते खाते
यह एक खास खबर है
और हमें पढ़वायी जाती है
हमें सुनायी जाती है.
कल रात से
जब से धमाके हुए हैं
मेरे हंसते खेलते
जिंदगी से भरपूर शहर में
मैं खौफ़ज़दा हूँ
अपने कमरे में सुन्न पडा
हर कदमों की आवाज़ सुनता हूं
कहीं यह भारी बूट तो नहीं?
ये कमबख़्त बमों के धमाके
ये दहशगर्द की जल्लादी हरकतें
मुझे यकायक अहसास दिला देती हैं
कि
मैं मुसलमान हूँ.
जब भी सड़कों पर
मासूमों का खून बिखरता है
मैं हर बार मुसलमान बना दिया जाता हूँ
मैं हर बार गुनहगार बना दिया जाता हूँ.
मैं
जब जब करता हूँ
इंसान बनने की कोशिश
मैं हर बार मुसलमान बना दिया जाता हूँ
मैं हर बार गुनहगार बना दिया जाता हूँ.
जाने क्यूँ लोग ख़त लिख़ना भूल जाते हैं
जाने क्यूँ लोग ख़त लिख़ना भूल जाते हैं,
लिख्नना तो दूर जवाब देना भूल जाते हैं|
फ़ेर लेते हैं काग़ज़-कलम से मुँह अपना,
हर्फ़ों का कर्ज़ हर्फ़ से देना भूल जाते हैं|
माहिर-ए-गुफ़्तगू था गर्म बातें करता था बड़ी,
तर्ज़े अमल में अक्सर वो नारे भी भूल जाते हैं|
मैं तो लिखता ही रहा उसे कि जवाब देगा एक दिन,
ये अब दस्तूर है इनका कि वायदा भी भूल जाते हैं|
गर्क होता “शम्स” इंतज़ार में कि मिलने पहुँच गया,
मालूम हुआ कि लोग चेहरा देखकर भी भूल जाते हैं|
वो मुझसे अपनी हस्ती छुपाता क्यों है
वो मुझसे अपनी हस्ती छुपाता क्यों है,
रोज़ हाथ दिखा कर नज़रें चुराता क्यों है।
गोया मैं किसी काम का नहीं रहा तेरे,
मेरे पहलू में ये काँटे तू बिछाता क्यों है।
दस्तक भी दी, उसे ख़त भी लिखा, आवाज़ भी दी,
है मिलनसार तो मुझसे खु़द को बचाता क्यों है।
भरता है नए-नए रंग रोज़ अपने लिबास में,
अपनी जिल्द का वो असल रंग मिटाता क्यों है।
सूखे पत्तों की तरह बैठा रहा चौखट पर उसकी,
वो रास्ता बदल-बदल कर इतना सताता क्यों है।
वो मेरे पास था, यहीं था, बैठा था अभी,
लौट आएगा सुबह की तरह घबराता क्यों है।
वो माँझी होगा अब मेरा, ये कश्ती-पतवार भी तेरी,
नाखुदा मेरे यकींन को तू हर बार दफ़नाता क्यों है।
“शम्स” गुज़रता है हर रोज़ छू-छू कर तेरे दरों दीवार,
सहर-ए-आफ़ताब अब तेरा नहीं, ये झूठ फ़ैलाता क्यों है।
चाँद
यह ख़ूबसूरत
चमकता हुआ चाँद
इससे पहले
कि शहर की
लगातार उगती हुई इमारतें
बदरंग रोशनियाँ और धुआँ
निगल जाए इसे,
आओ –
इस चाँद को जी भर देख लें.
हम जिएँगे साथी
हम जिएंगे साथी
एक साथ इस आसमान के नीचे
अनन्त काल तक जिएंगे हम
इसलिए नहीं कि हम प्रेम करते हैं
बल्कि इस लिये भी
क्योंकि विचारों के लिये जीना
प्रेम से बडी़ बात है
अज़्म के लिये मर जाना
शहादत होती है।
हम जिएंगे साथी एक साथ
क्योंकि हम में साहस है
पुराने तौर-तरीकों को
चुनौती देने का
उन्हें कुरेद-कुरेद कर
उखाड़ देने का संकल्प है
हम जिएंगे साथी एक साथ
क्योंकि हमारे भीतर
नये का भ्रूण है
जिसके एतिहासिक संचालक नियम
है हमारे साथ
यही हमारी प्रेरणा पूँजी है
हम जिएंगे साथी एक साथ
क्योंकि नये का जन्म
प्रसव पीडा़ है
पुराने तन्तुओं के टूटने की
नया नहीं आता
चुपचाप, सहमें हुए
यह नियम है-
नये के बिना क्रान्ति नहीं होती।
हम जिएंगे साथी एक साथ
नये की क्षमताओं के साथ
उसकी ताकत के साथ
उसकी अपराजय ऊर्जा के साथ
हम जिएंगे साथी एक साथ
पुराने को एक-एक पल
अपनी हथेलियों से सरकता हुआ
देखने के लिये।
एक के बाद एक नये की
श्रॄंखला को जन्म देने के लिये।
हम जिएंगे साथी एक साथ
इस आसमान के नीचे
अनन्त काल तक
इसलिए
क्योंकि नये को
झुठलाया नहीं जा सकता।
प्रेस में बैठ कर
हर रोज़ मैं स्वयं को
आठ घन्टे के लिये
कर देता हूँ क़ैद
बन्द कर देता हूँ
प्रश्नों के ज्वार की
प्रक्रिया को।
रोक देता हूँ
उनके वेग को
सीमाओं के भीतर
क्योंकि मैं बाध्य हूँ
शब्दों के चकलाघर की
मर्यादा की रक्षा करने को।
जहाँ ज़ुल्म के खिलाफ़ लड़ने वालों को
उग्रवादी लिखा जाता है और
मुक्ति यौद्धाओं को आतंकवादी।
हर उस शब्द को
जो इस व्यवस्था पर प्रहार करे
फ़ेक दिया जाता है
मासिक धर्म के कपडे़ की तरह।
यहाँ हर रोज़ हर क्षण
घटनाओं का शीलभंग
करने की स्पर्धा में
आगे बढ़ जाने के लिये
शब्दों के बाज़ार के बाज़ीगरों की
होती रहती है उठा-पटक।
चौबीसों घन्टे टप-टप करते हैं
बड़े-बड़े इज़ारेदारों के
श्रापग्रस्त टेलीप्रिन्टर्स
इन्हें ये सब पता है
कितने मरे है आज
पंजाब में, कश्मीर में,असम में
आन्ध्र में कितनों का अपहरण किया
नक्सलवादियों ने।
आदिवासियों से लेकर बुश तक
ये सब जानते हैं
पर कभी नहीं बताते
आज राजकीय आतंकवाद से
कितने देशवासी मारे गये,
इनके सुरक्षाबलों द्वारा
कितने जनान्दोलनों पर बरसी हैं गोलियाँ,
कितने मासूमों को मार डाला गया
थानों में, फ़र्जी मुठभेडों में,
कितने घरों में घुसकर
की गयी है लूटपाट,
रौंद दी गयी हैं कितनी
कोमल-लाचार जवानियाँ
कितने लोग भूख़ से मरे
कितने लोगों के पास हैं
घर, कपडे, शिक्षा
और स्वास्थ्य की सुविधायें।
ये सब जानते हैं पर….
ये सब जानते हुये भी
मैं लिप्त हूँ
इनके दुष्चक्र में।
सौंप देता हूँ इन्हें स्वयं को
क्योंकि यह आवश्यक है
अपने तथाकथित घर में
कुत्ते जैसी स्थिति से
उबर जाने के लिये।
शायद जीवन,
सत्य के कत्ल की राह का ही नाम है।
मैं भी हर रोज़ अभिशिप्त हूँ
शब्दों के इस विवेकहीन, घृणित व्यापार में
संलिप्त होने को।
हवाई जहाज़
हवाई जहाज़ जब
हमारे गाँव के ऊपर से
तेज़ी से निकल जाता है
तब कुछ यूँ घटता है
जैसे तालाब में कंकर फ़ेकने पर
भंग होती है पानी की शांत मुद्रा।
जैसे लहरें दौड़ पड़ती हैं
इस छोर से उस छोर तक
ठीक वैसे ही
दौड़ पड़ते हैं बालक
अपनी-अपनी झोपडियों से
उल्लासित, अठखेलियाँ करते
अकस्मात ऊंगलियाँ गाड़ देते हैं
आकाश के एक कोने में
चीख़ते, तुतलाते, अट्टहास करते
दूर गये जहाज़ की पूँछ देख कर
…? हो जाते हैं।
साथ ही उड़ जाते हैं पेडों से पंछी
बिदक जाते हैं मवेशी
भौंकने लगते हैं कुत्ते
हथेलियाँ छाता बन जाती हैं
बूढ़ी आँखों की
मुँह उठ जाते हैं ऊपर
हवाई जहाज़ जब
हमारे गाँव के ऊपर से
तेज़ी से निकल जाता है.
नववर्ष पर्व पर
शुभ, सौम्य, शीतल
भविष्य की परतें
खुलें एक-एक कर|
कूट कूट कर भर लावें
सौहाद्र का मेघ
बरसावें तुम पर|
आशाओं, सफ़लताओं का
जीवट, जीवन दीपक
जलता रहे सदा
साहस भर दे तुममें इतना
क्षीण हों सभी दुर्बलतायें
अनन्त, उत्साहपूर्ण, उत्सवमय हो
सदैव प्रत्येक जीवन-पल तुम्हारा|
बरसातें
सफ़ेद, भूरे, हल्के नीले बादल
गहरे होकर
पैठ गये आकाश में
टूट पडी बूंदें
छ्त पर, सडक पर,
भरे बाज़ार में,
संकरी गलियों में।
मोटी-मोटी बूंदें
पीटती हैं वृक्षों को
पर वे हैं बेअसर
झूमते उपहास करते।
परन्तु जब मोटी बूंदें
छोटे-छोटे पौधों को पीटती
देर तक वो काँपते, सिहरते
कोमल फ़ूल बिखर जाते।
दुपक जाते है आदमी
मकानों में, दुकानों में
छजलों के नीचे
पर गली-कूचों में
भर जाती हैं किलकारियाँ
उमड़ कूद पड़ते हैं बच्चे
नगें-अधनंगे
स्कूल से लौटते बालक
टहलते-भीगते बेअसर
या फ़िर भीगता रहता है
अपने ख़ेत में खड़ा
किसान और मज़दूर,
मैला ढो़ता दलित
दूसरी ओर खुल जाती हैं
काली, रंग-बिरंगी छतरियाँ
चढ़ जाते हैं कारों के शीशे
खुल जाती है रिक्शा की छत
ये है बरसात
गरीबों की अलग
अमीरों की अलग।
मेरठ मेडिकल कालिज
ठिठुरती सर्दी की उस रात में
ठक… ठक… ठक…
सीढ़ियों से आती
क़दमों की आहट।
थके कदम
मैले कमीज़-पाजामा, फ़टे जूते
मुर्झाये गुलाब-सा चेहरा
कान के पास से बहता पसीने
मन मस्तिष्क में दुविधा संजोए
हाथ में कागज़ का पुर्जा लिये चुपचाप
अस्पताल से बाहर जाता हुआ वह शख़्स ।
सहसा..दर्द भरी एक चीख़ “हाय मरा”
सन्नाटे को चीरता वह क्रदन
मैं विचलित हुआ, देखा… एक रोगी था।
नौजवान छात्र-छात्राओं की एक टोली
अंग्रेज़ी बोलते, आनन्दमग्न,
बराबर से गु़जर गई।
मैं आगे बढा़, ठिठका, फ़िर रुका
जूनियर डाक्टर्स का यूनिट रूम था यह
ठहाकों और कपों के खनकनें की आवाज़ सुनकर
मैं अपने रोगी के वार्ड में पहुँचा ।
कुछ समय बाद
कोई आधा दर्जन जूनियर डाक्टर्स की टोली
जो बारी-बारी, रोगियों की हिस्ट्री लेते
उनसे, पशुओं से भी निम्न व्यवहार करते।
मेरे बराबर में एक “स्टाफ़” रोगी
सिस्टर, डाक्टर उसे अच्छी तरह देखते।
इस बीच, वह व्यक्ति भी लौट आया,
हाथ में लिये काग़ज़ को दिखाते बोला…
ये इन्जेक्शन्स नहीं मिले साहब.
“हम क्या करें” डाक्टर झल्लाया
स्टाफ़ रोगी की सभी दवायें
सिस्टर की कृपा से स्वत: आ जाती।
है जिनका “सेवा ही धर्म” का नारा
असंख्य रोगियों के घरों को है उन्होंने उजाडा़
लाखों केसों को है जिन्होंने बिगाडा़
है वह खुशकिस्मत
जो जीवित बचकर आया बेचारा।
तारा
दूर, शांत, शीतल
निश्चल, अकेला तारा
आकाश के
अभूतपूर्व शिखर पर
किन्तु अकेला गुमसुम क्यों?
मैं भी उसी तरह
उससे उतनी ही विपरीत दिशा में
तन्हा, खामोश उसे तकता
जब स्वप्नों में खो जाता संसार
वह मुझे, मैं उसे देख कर मानो
कुछ कहने का प्रयास करते
वह टिमटिमा कर कुछ व्यक्त करता
परंतु मेरी तरह
असहाय, लाचार पाता।
मुझे ज्ञात है वह वेदना
जब मैं खडा़ रह गया
दौड़ती भीड़ में
खोजता रहा उसका साया
जो बिछुड़ गया रोशनी पाकर
अपनी तन्हाई,
खामोशी का रह्स्य
उसे मैंने था बताया
लेकिन वह चुप रहा
जैसे बेजान, जड़ यह तारा
सूर्य प्रकाश के लिये आतुर
विलुप्त होने की प्रतीक्षा में
वेदना
विचित्र वेदना
विवश्तापूर्ण क्षण
व्याकुल हॄदय में-
तीव्र होता रक्त संचार
मानो मापदण्ड हो-
किसी के प्रति “मोह” का
शुष्क होता कंठ,
बिखरे हुये भावों से-
ज्ञात हो जाता है
किसी के बिछड़ने का दर्द|
दूर ब्याबाँ जंगल में
दूर ब्याबाँ जंगल में
कुँए का पानी
गतिहीन, एकाग्र, शांत
अपने अंतिम छोर तक पहुँचने के लिये
साधना करता|
किसी अल्ल्हड़ के पत्थर फ़ेकने पर
जैसे टूटती है साधना उसकी
एक विस्फ़ोट के साथ
गतिशील, विभाजित, अशांत
छिन्न-भिन्न हो जाता सब कुछ
मैं हो रहा था स्थिर
दूर ब्यांबा जंगल में
एक कुँए के पानी की तरह|
तुम्हारा उदय
पत्थर गिरने की भाँति
भंग कर गया उपासना मेरी।
मैं एक बार फ़िर प्रयत्नशील
अपनी एकाग्रता को समेटने में
अपने सीमित
छोर की ओर अग्रसर
अपने अंत की प्रतीक्षा हेतु
दूर ब्यांबा जंगल में
एक कुँए के पानी की तरह।
भुनगा
एक भुनगा
मकडी़ के जाल में फ़ंसा
उससे मुक्त होने की
तीव्र प्रक्रिया में
निरंतर प्रयत्न करता
थक कर चूर हो जाता
कुछ क्षणों के लिये शांत
फ़िर कोई नयी
आशा की किरण जगमगाती
पुन: शक्ति संजोता
स्वतन्त्र होने का प्रयास करता
संघर्ष करता
जाल से मुक्त होने को|
लेकिन मकड़ी, जिसका अस्तित्व
उससे बहुत विशाल
सहसा प्रकट होती
अपने शक्तिशाली
पंजों में पकड़ कर
उसे विवश कर
उसका खून रूपी अर्क पीकर
विलुप्त हो जाती
किसी दूसरे भुनगे की
प्रतीक्षा में।
फिर कब मिलोगे?
कितना कठिन
भावनाओं को
शब्दों में बाँध पाना
नियन्त्रित करना हृदय को
किसी प्रिय के विदाई बेला पर।
विवश होकर उसे अपने नेत्रों से
ओझल होते हुए देखना
फ़िर स्मृति पटल पर
उससे ख़ामोश मुलाकात
मात्र एक प्रश्न लिए
फ़िर कब मिलोगे?
आत्माव्लोकन
शुभकामनाएँ भेजते हो
उपदेश देते हो
प्रसन्न रहने का ।
सदैव कामना करते हो
दूसरों की ख़ुशियों के लिए
किन्तु, कभी आत्माव्लोकन किया है ?
स्वयं अपने को अपने से मिलवाया है ?
तुम कहते हो, तुम दुख़ के सागर हो
सुख मिलन तुम्हारे समक्ष
मात्र स्वप्न में ही सम्भव है
तुम अपने को अधूरा कहते हो
क्यों समझते हो अक्षम स्वयं को ?
तुम स्वयं खुश क्यों नहीं रह सकते ?
क्यों देते हो प्राथमिकता
शारीरिक अपंगता को ?
मैं पूछता हूँ तुमसे
क्या तुम्हारा अन्तर-मानव भी अपूर्ण है ?
मैं कहता हूँ तुमसे,
देखो अपने भीतर
वहाँ एक सम्पूर्ण आत्मा है
कई मार्ग हैं इससे मिलने के
पहचानों इसे
इसे जीवित रखो ।
जो तुम होना चाहते हो
कोई असंभव कार्य नहीं ।
यह लक्ष प्राप्य है
इसके लिये मात्र
दृढ निश्चय ही आवश्यक है
सोचो भला, स्वयं निराश व्यक्ति
बुझे दीपक भाँति
कैसे प्रकाश दे सकता है ?
कैसे दे सकता है वरदान
आश्वासन, शुभ-कामनाएँ
दूसरों को सलाह
सुखी रहने की?
इतिहास के ठग
क्रान्ति-चक्र, परिवर्तन-चक्र
इन आवाज़ों ने तोडा़ पसरी निस्तब्धता को
उत्पीड़न के ज़ख्मों को नंगा कर
भाषणों में शोषण की तस्वीर दिखाकर
ठग लिए गए वोट
हो गये पदों के वितरण,
बन गई नये चेहरों की,
पुराने ढाँचें पर “सरकार”
…इस पुराने ढाँचें में दफ़न हैं
रिसते हुये ताज़े-पुराने ज़ख्मों का लहू
शोषण की सड़न
ज़िन्दा जले कंजरों के विकृत शव
जातीय हिंसा से खिसकती ईंटें
भूखे पेटों में धंसता कालाजार
गोलियों से छिदे कशमीरियों के शव
पंजाब के खलिहानों से आती वह हवा
जो संग लाती है
इन्सानों के खून में डूबी
बारूद की गन्ध,
जो दिल्ली आते आते
शब्दों के बडे बडे होटलों की
बन जाती है मुख्य तरकारी।
…पर बात क्रान्ति की थी
परिवर्तन की थी- किसे मिला यह सब?
आज भी “रैंबो” है खाकी वर्दी का आदमी
सरकारी दफ़्तरों में आज भी पकती है
रिश्वतों की चाश्नी
गरीबों-अमीरों के स्कूलों में आज भी है
गहरी भयानक खाई
किसकी मिटी बेरोज़गारी?
किसे मिली उप्युक्त स्वास्थ्य सेवायें?
अब यह बात जान लो…
क्षयशील,बेजान बुनियाद पर खडी़
इस पीसा की मीनार को बचाने
गाँधी से सिंह तक की कलाबाज़िया दिखा़कर
डस लिया जाता है जनता को..
हर पाँच साला मेलों में
लेकिन साथ-साथ,
उस महामेले की भी
हो चुकी है शुरुआत,
जिसमें भाग लेगा
भारत का हर वो हाथ
जो पकड़ता है
हल, हथौडा़, कुदाल और क़लम
खो़द डालने के लिये एक-एक अवशेष
इस सड़े गले पुराने ढाँचें की बुनियाद का
जिस पर खडा़ है
इतिहास के ठगों का महल
करने शुरुआत उस सुहरी स्वतन्त्रा की
जो हर ज़िंदगी को मूल्य देगी।
जवाब दो कामरेड
कामरेड ! याद है तुम्हे
तुम हमें गिनाते थे
समाजवादी देशों की बढ़ती हुई गिनती
जिसे बताते हुए
चमक उठती थी तुम्हारी आँखें
तप जाता था
तुम्हारा लहजा
जोश भरे लफ़्ज़ों की आँच में
मुझे याद है तुम्हारी उद्घोषणा
“पूँजीवाद मर रहा है”।
कामरेड ! याद है तुम्हे
तुम मुझे दिया करते थे
रूस में छपी, मोटी-मोटी किताबें
जिनके पहले सफ़े पर लिखा रहता था
“दुनिया के मज़दूरों एक हो”
रूस घूम कर आए
पार्टी के सब बडे़ नेतागण
अपनी प्रेस-कान्फ़्रेस में
करते थे शब्द- व्यायाम
लिखते थे यात्रा-संस्मरण।
कहते थे कि रूस में
एक नये मानव का जन्म हो गया है।
तुम यह कैसे नहीं समझ पाए
कि तुम्हारे द्वंदवाद को ठेंगा दिखाते हुये
वे अजर-आर्मिनियाई ही क्यों रहे?
तुम्हे यह कैसे दिखायी नहीं पडा़ कामरेड!
कि यह कथित नव-मानव ही
सत्तर साल के बाद भी,
लेनिन की मूर्ती उखाड़ फ़ेंकेगा
वह लिख देगा
मास्को में लगी मार्क्स की मू्र्तियों पर
“दुनिया के मज़दूरों, मुझे माफ़ कर दो”
तुम्ही तो
हंगरी, चेकोस्लोवाकिया
और अफ़ग़ानिस्तान में
लहु-लुहान रूसी फ़ौजी दख़ल-अंदाज़ी को
जाएज़ बताते थे।
लेकिन, इस जन- उबाल ने
मेरी आँखों से अब
तुम्हारी कहानियों की
पट्टियाँ उखा़ड़ दी हैं।
तुम भी तो यहाँ बंगाल में
पिछ्ले चौदह सालों में
क्या दे पाये हो आवाम को?
अब मैं तुम्हारी हर हरकत और लफ़्फ़ाज़ी पर
कडी़ निगाह रखूंगा।
अपनी पैनी दृष्टि से
देखूंगा तुम्हारे आर-पार।
अब तुम पहले की भाँति
प्रश्न करने वालों को
सी०आई०ए० का एजेंट नहीं कह सकते।
इस नव-मानव से जन्मे
प्रश्नों का उत्तर
तुम्हे खोजना होगा कामरेड !
मौत
आओ-
इसकी मौत के बाद खोजें,
कि यह कैसे मर गया?
इसे क्यों नहीं मिली रोटी?
इसे पैदा करने वाला
कितना था सक्षम?
इसके समक्ष जीवन
और परिस्थितियाँ
क्यों बन गई थीं चीन की अभेद्य दीवार?
यदि हम इसकी लाश को
मिट्टी में घुलते हुए
गौ़र से देखें
तो निश्चित ही
मिलेंगे इसमें कुछ अंगारे
कुछ प्रश्नों के मिलेंगे ठोस उत्तर।
कुछ जली हुई राख
आओ, इन प्रश्नों से दहकती
एक आग जलाएं
और इन प्रश्नों के उत्तरों को,
इन हत्याओं के प्रत्येक हत्यारे को
इसमें
झोंक दें।
काम बहुत हैं करने को बस यही काम न करो
काम बहुत हैं करने को बस यही काम न करो,
कौम के नाम पर दुनिया में कत्लेआम न करो।
बस एक ही जुम्ले ने हैवान बनाया इन्सान को,
अब और आने वाली नस्लों को बर्बाद न करो।
चन्द सियासी जहनों का है ये परचम तर्ज़ो अमल,
इसकी परस्तिश में अमन को नाशाद न करो।
फ़ासले सरहद के हों, परचम के या कौम के,
रहजन की चाल को अब और का़मयाब न करो।
बस मौहब्बत के सिवा नहीं कोई दूसरा रास्ता,
“शम्स” कब से कह रहा हूँ वक्त यूँ बर्बाद न करो।
कुछ हर-भरे नज़ारे आँखों मे भर कर लाना
कुछ हरे-भरे नज़ारे आँखों मे भर कर लाना,
धूप में जल चुका हूँ मैं, कोई साया लेकर आना।
इस अजनबी शहर में किसको कहूँ मैं अपना,
मेरे दोस्तों की तस्वीरें तुम साथ लेकर आना।
ये दुनिया जो चल रही है कहीं आगे कहीं पीछे,
नफ़रत हो ख़त्म इससे वो फ़लसफ़ा लेकर आना।
जीने की आरज़ू में, मै हर रोज़ मर रहा हूँ,
मैं मर सकूँ सुकूँ से वो दवा लेकर आना।
सब ने सुना वही जो “शम्स” ने कहा ही नहीं,
जो समझा सके उन्हें तुम वो समझ लेकर आना।
तू एक बार मेरे इश्क से रु-ब-रु हो जा
तू एक बार मेरे इश्क से रु-ब-रु हो जा,
फ़िर ये साँस चले चले, ना चले ना सही|
तू है अगर मुझमें और मुझसे बाहर सब जगह,
फ़िर ये मेरा सर झुके झुके, ना झुके ना सही|
पीता रहूँ शराब तेरे नाम की मैं उम्र भर,
ये सिलसिला अब रुके रुके, ना रुके ना सही|
तेरी हर साँस मेरी रुह पर कर्ज़ है हमदम,
कोई इस बोझ में दबे दबे, ना दबे ना सही|
मेरी दीवानगी मेरे इश्क का सबब है “शम्स”
ये दुनिया मुझ पर हँसे हँसे, ना हँसे ना सही|
जाने क्यूँ मुझे अपना चेहरा धुंधला लगता है
जाने क्यूँ मुझे अपना चेहरा धुंधला लगता है,
ना उम्मीद बादलों से आस्माँ घिरा लगता है।
बहुत लग-लग के बैठे हैं लोग इस महफ़िल में,
फ़ासले बड़े़ हैं दरम्याँ ये साफ़ मुझको लगता है।
जाम-ए-दिलबर जिसने पिया आज उसकी आँखों से,
उम्र भर वो अब न पिएगा ऐसा मुझको लगता है।
कल तक जो गाता था यहाँ मौहब्बत के तराने,
जुर्मे क़त्ल में हुआ आज गिरफ़्तार वो लगता है।
न उमंग है न तरंग है अब के सावन में “शम्स”
पहली बारिश की सौंघी ख़ुशबू का ज़ायका जुदा लगता है।
मुन्नु रानी
चाहों में सब चाहों से पार हो तुम मुन्नु रानी !
अपनी माँ के जीवन का सार हो तुम मुन्नु रानी !
तेरी आहटें, तेरी बातें, तेरा हँसना मुस्कुराना
तेरे खाने- पिलाने पर रूठना मनाना।
वो कमरे के किसी कोने में तेरी निगाह का अटक जाना
वो बिल-वजह किसी बात पर यूँ ही तेरा खिलखिलाना।
मेरी दुनिया भी तुम, मेरी जन्नत भी तुम मुन्नु रानी
अपनी माँ के जीवन का सार हो तुम मुन्नु रानी !
वो कभी बिस्तर से उठना, कभी लुढ़क जाना
बैठ कर संभलना और फ़िर लेट जाना।
वो चार क़दम चलकर तेरा फ़िर से बैठ जाना
कोहनी के बल सरकना कभी घुटनों से चल कर आना।
वो किसी हरकत पर लपकना उसे देख कर कहकहाना
वो दादा की गोद में ही तेरे शू-शू का आना।
तेरा चेहरा सामने आते ही तमाम दर्दों को भूल जाना
सभी ग़मों की बस दवा हो तुम मुन्नु रानी !
अपनी माँ के जीवन का सार हो तुम मुन्नु रानी !
वो दादी के सफ़ेद बालों को तेरा बारहां नोचना
मौसी की बालियों को यकायक तेरा खींचना।
मेरे गले की चेन में तेरा यूँ ही लटक जाना
पापा के पेन को तेरा मुँह में चबाना।
चाचा के बटुए से तुझे सिक्के गिराना
कभी मामा की अंगूठी को थूक से नहलाना।
तेरी हर अदा पर हम सब का मचल जाना
जीवन की ये अनमोल घडि़याँ हो तुम मुन्नु रानी!
अपनी माँ के जीवन का सार हो तुम मुन्नु रानी !
कभी दूध पीते हुये तुझको फ़ंदा लग जाना
तेरे धम्म से गिरते ही हम सब की साँसो का रुक जाना।
तुझे आता कभी बुखा़र तो घर में मातम सा छा जाना
तेरा रोना, कभी बीमारी, तो कभी तुझे चोट का लगना।
ऐसी किसी ख़बर से ही हमारे खू़न का पानी बन जाना
तमाम रिश्तों में अव्वल हो तुम मुन्नु रानी !
घर के जीवन का आधार हो तुम मुन्नु रानी !
अपनी माँ के जीवन का सार हो तुम मुन्नु रानी !
चाहों में चाहों के पार हो तुम मुन्नु रानी !
ज़िन्दगी में जब भी रात भर भर आई है
ज़िन्दगी में जब भी रात भर भर आई है
बस तेरी यादों ने कोई रोशनी दिखाई है|
जाने कब आँख लगी, यादों के दीये जलते रहे,
रोशनी घुलती रही, ख्वाबों में तेरी महक आई है।
कभी थम गई, कभी झुक गई, कभी दर्द से कराह गई
तेरी चाह ने मेरी जीस्त की ये क्या हालत बनाई है।
कई दर दिखे, कई रास्ते, कई मंज़िलों ने पुकारा मुझे
तेरी एक झलक के बाद, मुझे न कोई सूरत सुझाई है।
“शम्स” के अहसास में कोई आस है छुपी हुई
तेरी राह की तलब ने कहीं कोई कली चटकाई है।
देखो प्रिय जब मैं घर आँऊ तुम मुझे वो पान खिलाना
देखो प्रिय, जब मैं घर आँऊ, तुम मुझे वो पान खिलाना
प्रेम की गुलकंद हो जिसमें, छिपा हो सुगंध का ख़ज़ाना।
निकल आएँ पर मेरे उड़ता फ़िरुँ मैं दसों दिशाओं में
सातों लोकों में गाता रहूँ मैं तेरे प्रेम का नया तराना।
सारे रसों का स्वाद हो, तेरा स्वाद हो उसमें सर्वोपरि
जो मै कहूँ तू वो ही करे, चले न तेरा कोई बहाना।
सखी तेरे वक्ष पर प्रेम की हो घन-घन वर्षा
फिसले तू मेरे संग, हो न कोई बैर का फ़साना।
रोप दूँ बीज तुझमें तू है धरती मेरे प्रेम की
जब खिले कोई कमल तब तू मेरा गीत सुनाना।
हर्ष के उमड़ते सागर तुझे चूमा करें रात-दिन
“शम्स”की दुआ है ये तू न उसे अब रुलाना।
पूछ्ता हूँ खु़द से मैं, मेरा दिलबर कैसा होगा
पूछ्ता हूँ खु़द से मैं, मेरा दिलबर कैसा होगा
शायद वो आस्मां के एक सितारे जैसा होगा
माथे पर न सही होठों के नीचे होगा ज़रुर
चाँद से चेहरे पर कहीं तो एक तिल होगा|
वो साँवली सी होगी सावन की घटा जैसी
लगता है उसका चेहरा एक बसंत जैसा होगा।
फूलों-सी चादरों में उसका हुस्न और महका होगा
कतरा मेरे ख़्याल का कोई जब उसको छुआ होगा।
“शम्स” की ग़फ़लत का यारो बिल्कुल बुरा न मानिये
कोई तस्स्व्वुर ख़्वाब में, आज उसे बदल गया होगा।
तुम कब जानोगे?
तुम कब जानोगे?
तुम पीछे छोड गए थे
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
घुटनों-घुटनों ख़ून में लथपथ
अधजली लाशों और धधकते घरों के बीच
दमघोटूँ धुएँ से भरी उन गलियों में
जिन्हें दौड कर पार करने में वह समर्थ न था।
नफ़रत और हैवानियत के घने कुहासे में
मेरे पिता ने अपने भाईयों,परिजनों के
डरे सहमे चेहरे विलुप्त होते देखे थे।
दूषित नारों के व्यापारियों ने
विखण्डन के ज्वार पर बैठा कर
जो ख्वाब तुम्हारी आँखों में भर दिए थे
तुम्हें उन्हें जीना था, लेकिन
तुम पीछे छोड गए थे
मेरे बिलखते,मासूम पिता को
उसके आधे परिवार के साथ…
मैं पूछ्ता हूँ तुमसे
आख़िर क्या हासिल हुआ तुम्हें
उन कथित नए नारों से
नया देश, नए रास्ते और नए इतिहास से
जो आरम्भ होता कासिम, गज़नी,लंग से
और मुशर्रफ़ तक जाता।
पिछ्ली आधी सदी में क्या हुआ हासिल
युद्ध,चन्द धमाके और बामियान में बुद्ध की हत्या।
तुम कब जानोगे
कि विघटन सिर्फ़ धरती का ही सम्भव है
विरासत, संस्कृति, इतिहास का नहीं।
तोप के गोलों से मूर्ती भंजन है सम्भव
विचार और अस्तित्व भंजन नहीं।
तुम कब जानोगे
कि तुम्हारे गहरे हरे रंग छाप नारों की
प्रतिध्वनि मेरे घर में भगवा गर्म करती है।
जो घर परिवार तुम बेसहारा, लाचार, जर्जर
पीछे छोड कर गए थे
वहाँ भी कभी-कभी त्रिशूल का भय सताता है।
तुम्हारे गहरे हरे रंग ने
भगवे का रंग भी गहरा कर दिया है।
तुम कब जानोगे
कि वह ऐतिहासिक ऊर्जा
जो विघटन का कारण बनी
वह नए भारत की संजीवनी बन सकती थी
जो लोग परस्पर हत्याएँ कर रहे थे
वे बंजर ज़मीन को सब्ज़ बना सकते थे
कल-कारखाने चला सकते थे
निर्माण के विशाल पर्वत पर चढ़ कर
संसार को बता सकते थे कि यह है
एक विकसित, जनतांत्रिक,सभ्य, विशाल हिंदुस्तान
तुक कब जानोगे
कि तुम्हारे बिना यह कार्य अब तक अधूरा है
अधर में लटका है क्योंकि
तुम पीछे छोड़ गए थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को
तुम कब जानोगे
कि मेरे निरीह पिता को सहारा देने वाले हाथ
हर शाम कृष्ण की आराधना में जुड़ते थे
गंगा का जमुना से जुड़ने का रहस्य
बुद्ध का मौन और महावीर की करुणा
कबीर के दोहे, खुसरो की रुबाइयाँ
मंदिर में वंदना और मस्जिदों में इबादत
तुम कैसे समझोगे ?
क्योंकि तुमने इस धरती की तमाम मनीषा के विपरीत
सरहदें चिंतन में भी बनाई थी
तुम कब जानोगे
कि धर्म के नाम पर निर्मित यह पिशाच
अब ख़ुद तुमसे मुक्त हो चुका है
वह हर पल तुम्हारे अस्तित्व को लील रहा है क्योंकि
तुम पीछे छोड़ गए थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को
तुम कब जानोगे
कि अतीत असीम, अमर और अविभाज्य है
वह सत्य की भांति पवित्र है
कब तक झुठलाओगे उसे
कितनी नस्लें और भोगेंगी
तुम्हारे इतिहास के कदाचार को
क्यों नहीं बताते उन्हें
कि हम सब एक ही थे
हमारे ही हाथों ने बोई थी पहली फसल
मोहन जोदडो में
सिन्धु सभ्यता के आदिम मकान
हमने ही बनाये थे
हमने ही रची थी वेदों की ऋचाएँ
हम सब थे महाभारत
हमारा ही था राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर
हमने ही स्वीकार किया था मोहम्मद का पैगाम
हमने ही बनाई थी पीरों की दरगाहें
तुम कब जानोगे
कि झूठ के पैर नहीं होते
झूठ को नहीं मिलती अमरता
तुम्हारे हर घर में रफ़ी की आवाज़
मीना, मधुबाला, ऐश्वर्या की सुन्दरता
कृष्ण की बाँसुरी पर लहराती दिलों की धड़कनें
हर नौजवान में छिपा दिलीप, अमित , शाहरुख़ का चेहरा
तुम्हारे झूठ से बड़ा सच
और क्या हो सकता है
तुम कब मानोगे
कि तुम सब कुछ जानते हो
सियासी फ़रेब की रेत में
दबी आँखें, दिमाग, दिल और वजूद
सच की आंधी में
बर्लिन की दीवार की भाँति
कभी भी ढह सकता है।
झूठ की चादर में लिपटे बम, बन्दूकें और बारूद
घोर असत्य की दीवारें, सरहदें, फ़ौजें
नपुंसक बन सकती हैं
लाखों बेगुनाह लोगों का बहा खून
कभी भी मांग सकता है हिसाब
उजडे़ घरों की बद-दुआयें
अपना असर दिखा सकती हैं, क्योंकि
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
तुम कब जानोगे
कि हम भी खतावार हैं
हमने भी चली हैं सियासी चालें
हमने भी तोडी हैं कसमें
हमें भी बतानी हैं गांधी की जवानी की भूलें
समझनी है जिन्नाह की नादानी
नौसिखिया कांग्रेस की झूठी मर्दानगी
अंग्रेज़ों की घोडे़ की चाल, शह-मात का खेल
फ़ैज़, फ़राज़,जोश,जालिब का दर्द
और ज़फ़र के बिखरे ख्वाब, क्योंकि
तुम पीछे छोड गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
तुम कब जानोगे
कि मेरे पिता कई बरस हुए गुज़र गए हैं
खुली आँखों में ख्वाब और आस लिए
कि तुम लौट आओगे
उनका वो जुमला मुझे भी कचोटता है
“जो छोड़ कर गया है, उसे ही लौटना होगा”
मैनें जब से होश सम्भाला है
मैं भी यही दोहराता हूँ
मेरे बच्चे भी अब हो गये हैं जवान
वो भी सवाल करते हैं
नई रोशनी, नई तर्ज़, नई समझ के साथ
तुम्हारे यहाँ भी यही है हाल
आज नहीं तो कल ये शोर और तेज़ होगा
जवान नस्लें जायज़ सवाल पूछेंगी
हज़ारों बरस के साझें चूल्हे?
पचास साठ बरस की अलहदगी?
तुम्हें देने होंगे जवाब क्योंकि
तुम पीछे छोड गए थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
तुम कब जानोगे
कि पीछे छुटे,जले,बिखरे,टूटे घर
फ़िर आबाद हो गए हैं
वहाँ फ़िर से बस गए हैं
बचपन की किलकारियाँ,
जवानी की रौनक
और बुढा़पे का वैभव
तुम्हारा पलंग, तुम्हारी कुर्सी
तुम्हारी किताबें, तुम्हारे ख़त
तुम्हारी गलियाँ, वो छत
और आम जामुन के पेड़
सभी कुछ का़यम हैं प्रतीक्षारत है
तुम्हें वापस आना होगा
तुम्हें ही लौटना होगा क्योंकि
तुम्ही तो छोडकर गये थे
मेरे बिलखते मासूम पिता को..
बासठ बरस पूर्व
सुना है ख़ूब बँटती है दौलत, रमज़ान के महीने में
सुना है खू़ब बँटती है दौलत, रमज़ान के महीने में,
मयक़दे से बहती है नियामत, रमज़ान के महीने में।
जाम भर-भर के पिलाओ यारों कि तिश्नगी अब न रहे,
सुना है बरसती है रहमत हर सू, रमज़ान के महीने में।
मयकशों जम के पियो,खूब पियो इस पूरे महीने में,
यकीं रखो, होती है हर मुराद पूरी, रमज़ान के महीने में।
होश में आया गर “शम्स” तो साक़ी तेरी रुसवाई है,
बस पी लेने दे, जी लेने दे मुझे, रमज़ान के महीने में।
चलो सनम इस दुनिया को अब और ख़ूबसूरत बना दें
चलो सनम इस दुनिया को अब और ख़ूबसूरत बना दें,
जब तक ये बने, मैं तुझे कहीं छुपा दूँ तू मुझे कहीं छुपा दे।
न दरवाज़े हों जिसमें, न दर, न हो कोई भी दीवार,
जहाँ तेरे ग़ुनाह मैं गिरा दूँ, मेरे ग़ुनाह तू गिरा दे।
सदियों से नौचा है शेखों-ज़ाहिद ने इस अदना से इंसान को,
इसके जिस्म पे थोड़ा़-सा गोश्त मैं लगा दूँ, थोडा़-सा तू लगा दे।
“शम्स” अब सब की ज़रुरत बन गया है आब-ए-हयात
इस दुनिया को थोडा़ सा मैं हिला दूँ, थोडा़ सा तू हिला दे।
तन्हाईयों का और एक दिन, तेरे बिन बीत गया
तन्हाईयों का और एक दिन, तेरे बिन बीत गया,
मेरी हसरतों का चांद लो आज फ़िर डूब गया।
वो थोड़ी़ दूर बादलों के पार जाना था हमें,
वो चार आँखों का ख़्वाब आज फ़िर टूट गया।
इस अनोखे शहर में कोई बसेरा मेरा भी तो हो,
ऐसी मासूम ख़वाहिश का दामन आज फ़िर छूट गया।
इसने कहा, उसने कहा, सबने कहा, कुछ तो लिखो,
लिखने बैठा तो ये क़लम आज फ़िर क्यों रूठ गया।
“शम्स” तेरी मेज़ पर बिखरे ये काँच के टुकड़े़ हैं गवाह,
तंग नज़र के किसी संग से, मेरा जाम आज फ़िर टूट गया।
मैं सोचता रहा रात भर, वो क्या सोचता होगा
मैं सोचता रहा रात भर, वो क्या सोचता होगा,
वो अपने दिल की धड़कनों में कहीं खो रहा होगा|
कभी बात करते-करते कोई लफ़्ज़ छिटका होगा,
होंठों पे आते-आते मेरा नाम लौटा होगा|
मुड़-मुड़ के आईने में देखा होगा बार-बार
मुग़ालतन मेरी सूरत खुद में देखता होगा|
क्यों लड़ती है वो मुझसे इतना बरस-बरस कर,
तन्हाईयों में उसका दिल पसीजा तो ज़रुर होगा।
मैं जानता हूँ तुम में, है जुनुन बे-शुमार
तेरी चमक के आगे वो “शम्स” बुझ गया होगा।
मेरे क़रीब से जो एक शख़्स अभी ग़ुजरा है
मेरे क़रीब से जो एक शख़्स अभी गुज़रा है,
देखा हुआ लगता है पर देखा-सा नहीं है।
ख़ुशबुओं में लिपटा दूधिया बुलबुला-सा,
धुला हुआ-सा लगता है पर धुला नहीं है।
गुलों के तब्बस्सुम चमन के तमाम रंग है उसमें,
सजा-सजा हुआ लगता है पर सजा-सा नहीं है।
अपनी झील-सी आँखों में डूबने की इजाज़त देना,
मौत एक मुसलसल सिला हो पर सिला-सा नहीं है।
बेरहम मौसमों की तमाम बंदिशें तोड़कर,
वो एक फ़ूल खिला है पर खिला-सा नहीं है।
“शम्स” तेरी रग-रग फ़डकती है जिसकी आमद पर,
वो कभी मिला हुआ लगता है पर मिला-सा नहीं है।
पत्थर
वो देर तक
रेत में अपने पाँव
दबा कर खड़ा़ था।
ये सोच के
कि उसके क़दमों के निशान
थम जाएंगे
ज़मीन के उस कोने पर
जहाँ वो
साँस रोके खडा़ था।
वो कोई बुत नहीं था
जिस पर असर न होता
बदलती फ़िज़ाओं का
बदलते मौसम का
रिश्तों का
तसव्वुर का
फ़िक्रो-फ़न का
आब का
हवा का।
वो ज़िन्दा था
सो हिल गया
अपनी जगह से
और फ़िर हवाओं ने
पानी की तरह बहते रेत ने
मिटा दिए
उसके क़दमों के निशान।
काश कि वो
वहीं खड़े़ खड़े़
एक बुत बन जाता
जम जाता उसी रेत में
और झिड़क देता
हर आंधी का बहाव
रोक देता
पानी की बौछार
और थाम देता
वक़्त की तंग-दिल घडी को।
बना डालता
अपने पाँव के नीचे की ज़मीन को पत्थर
क्योंकि
पत्थरों पर ही
निशान रक़म होते हैं
रेत पर नहीं।
पीड़ा
तुम सोचते हो
मैं अकेला हो गया हूँ, तन्हा हूँ
शायद ऐसा नहीं है
मामला इसके उलट है…
मै विकट, विकराल भीड़ में हूँ
आदमियों की
और उनसे जुडी़
तमाम श्रेष्ठतम आकृतियों
और उपलब्धियों की…
चमकदार, लुभावन हुजूम
और इस भीड़ के मध्य
मेरा वुजूद खो गया है
मै उसे ही खोजता हूँ
वो जो मैं खुद था
“मैं”, मेरी निजता- मेरा अकेलापन
मेरी तन्हाईयाँ…सरगोशियाँ…
वो मेरी स्वयं की इकाई।
क्या तुम मेरे इस काम में
मेरी मदद करोगे?
मैं सबसे पूछ्ता हूँ यह यक्ष-प्रश्न
मरे- अधमरे तमाम जीवों से
लेकिन कोई मदद नहीं कर पाता मेरी।
क्योंकि मदद करने के लिये
मेरे प्रश्न का समझना जरुरी है
“स्वयं” का खोया हुआ इंसान
और उसका अपार समूह
मेरे अकेलेपन को कैसे ढूँढ सकता है?
मैं इस भीड़ में
आदमियों की, माल की, बाज़ार की बेइंताह भीड़ में
अकेला नहीं हो पाता
यही पीड़ा़ है।
प्रवासी विवशताएँ
जैसे जैसे मेरा उससे बिछुड़ने का वक़्त
नज़दीक आ रहा था
मेरी खामोशियाँ सघन हो रही थी
शब्द, निशब्द हो रहे थे
प्रश्न निसतेज हो रहे थे
सड़क पर सूखी पत्तियों की भाँति
मेरा विश्वास बिखर रहा था
आशाएँ विरल हो चुकी थी
मै बस उसे देख रहा था, अपलक
…लगातार देखता ही जा रहा था।
मुझे याद आने वाली मेरी पहली चीख़ से,
आज इस समय तक-
मेरी हर तस्वीर
मेरे मस्तिष्क के अति-संवेदनशील
पृष्ठ-पटल पर
बार-बार दोहरा रही थी
क्योंकि मैं जानता था
मैं अपनी कोख से, मेरी पालनहार
मेरी परम जननी
अपनी माँ से अब फ़िर न मिल पाऊँगा।
मैं बचपन से अब तक
न जाने कितनी बार गिरा – चोटें लगी
मौहल्ले के लड़कों से झगड़े हुए
और न जाने कितनी बार बीमार पड़ा
लेकिन उसकी ममता का आँचल
हमेशा मेरे वुजूद से कई गुना निकला।
मैं कभी बीमार हुआ तो बस
मेरी बीमारी सारी अपने तन पर ले लेती
वैद जी की दवाएँ देती
थोड़ी़ बहुत अपनी भी देती
कथाओं के कंगन मुझे पहनाती
लोरियों का चंदन लगाती
गीतों की मालाओं से मुझे सजाती तब तक,
जब तक मैं सो न जाता।
और फ़िर भी वह ख़ु़द न सोती
मुझे सोते हुए देखती रहती, निहारती रहती
रात भर… बुनती रहती मेरे बडे़ होने के सपने…
मैं एसी अनगिनत रातों का ऋणी हूँ
और जीवन पर्यन्त ऋणी ही रहूंगा
और शायद कृत्तघ्न भी
क्योंकि मेरी माँ ने मुझे
बीच राह में, कभी नहीं छोड़ा था
हमेशा पार लगाया था मुझे।
अंतिम विदा के क्षण
पाँव छूते समय
मेरा कलेजा मेरे मुँह में आ गया था।
माँ मुझे क्षमा करना… बस यह ही कह पाया।
और मुझे विश्वास है, वह मेरा कहा
यह भी मान लेगी।
घर वापस लौटते हए
गुज़रा समय कैसे बीत गया
ये सोचता रहा
देखता रहा अतीत की अपनी रोशन दुनिया
बुन लेता एक तिलिस्म,
जो इस मातमी वर्तमान के
ठोस धरातल से
टकरा कर हो जाता चूर चूर
और फ़िर हो जाता मैं व्यस्त
उन कण-कण को उठाने-जोड़ने की
प्रक्रिया में।
मेरे प्रश्नों
मेरी विवश्ताओं के घाव
मुझे जीवन भर सालते रहेंगे
चाहे तुम्हे यह सब
दिखे न दिखे।
फ़िर से बना लिया खु़द को कोरा काग़ज़ मैंने
फ़िर से बना लिया खु़द को कोरा काग़ज़ मैंने
ले अब अपने जज़्बात के नए रंग भर दे मुझमें|
जो गुज़र गया है, कुहासा था घना कोहरा था
छू के मेरी जात को कोई बिजली-सी भर दे मुझमें।
जाने क्यूँ प्यासी है सदियों से इस जिस्म की धरती
कोई काली घटा बनके समंदर-सा भर दे मुझमें।
“शम्स” जब से इज़हारे मुहब्बत किया है उसने
जमा हुआ लहू सरगोशियाँ-सी करे है मुझमें।
नई कोई सरगम, कोई फ़साना, कभी मल्हार लगे
नई कोई सरगम, कोई फ़साना, कभी मल्हार लगे,
तेरी आँखों में मुझे बस प्यार ही प्यार दिखे।
कोई डूबा होगा रात भर तेरी पलकों के तले,
तेरे आँसू किसी की मौत के तलबग़ार दिखे।
कई कोशिशों के बाद कोई तह मुझे न मिल सकी,
थक कर बैठा साहिल पर तो वहाँ कई मददगार दिखे।
“शम्स” उसकी एक नज़र ने बख़्श दी ज़िन्दगी तुम्हें,
बस वो ही मंज़र अपना लगे, बाकी सब बेकार दिखे।
चुपक-चुपके आकर ऐसे ख़्वाब सजाया है उसने
चुपके चुपके आकर ऐसे ख़्वाब सजाया है उसने,
बस आँखों ही आँखों में ये राज़ बताया है उसने।
ख़ुशबुओं से भर गया उसका बदन मेरे छू लेने से,
सहम गया है बसंत, बहारों को भी शर्माया उसने।
वो यकायक उसका पलटकर देखना कि जैसे देखा ही न हो,
इश्क की इन मासूम अदाओं को कैसे सीख लिया है उसने।
“शम्स” तेरी छत पर अब बेशुमार बादलों का डेरा है,
इतना बरसा है पानी सावन को भी तरसाया है उसने।
कुत्ते
कुत्ते
शमशान घाट वाले कुत्ते
शव यात्रा का स्वागत करते हैं
दूर से छुपकर देखते हैं
शव लाते हुए हुजूम को
फ़िर देखते हैं एकटक
दाह-संस्कार के सारे उपक्रम,
और जलती हुई चिता।
उनकी शिराओं में बैठ जाती है देर तक
देसी घी वाली सामग्री की सुगंध
मनोयोग से प्रतीक्षा करते
चिता के बुझने तक…
फ़िर उनकी टोली टूट पड़ती है
खोजने के लिए
अधजले शवों के अवशेष
जिन्हे वो खा सकें
अपनी भूख मिटा सकें…
जले-अधजले इन इंसानी माँस के टुकड़ों को
ये दूर-दूर लेकर भागते
दूसरे कुत्तों से बचाकर
ज़्यादा से ज़्यादा खाने की फ़िराक में
लड़ते-फ़ुँफ़्कारते- भौंकते
और कभी एक दूसरे को काटते
लेकिन मुँह में आया दाँव
कभी न छोड़ते।
बड़े निर्भीक हैं ये कुत्ते
अदम्य दुस्साहस से भरे
दूर से ही देख लेते
दरिया में चाण्डाल द्वारा बहाए
मानव शरीर के अधजले टुकडों कों
फ़िर कूद पड़ते पानी में
अपने-अपने हिस्से को दबोचने की जुस्तजू में।
ये कुत्ते बड़े समझदार भी हैं
अब ये पेशेवर हो गए हैं
अपना काम बख़ूबी जानते हैं
इनकी चमड़ी भी बहुत सख़्त है
ये सबल हैं
ये सुदृढ़ हैं
ये अब मरियल कुत्ते नहीं हैं
एकदम बेखौफ़ हैं
ये शक्तिशाली हैं
ये समूहबद्ध हैं,गोलबंद हैं
शवों के लिये इनकी भूख़
अपार है
इनकी पाचन शक्ति बेमिसाल है
इनका पेट कभी नहीं भरता।
अब इनका फ़ैलाव
जंगल के उन दूसरे जानवरों तक पहुँच गया है
जो कर सकते हैं
ताज़ी कब्रों में सुराख़।
ये कुत्ते बडे़ स्याने हैं
जन्मजात सूँघने की शक्ति के माहिर
इन्हें पता चल जाता है
कौन सा सुराख़ ताज़ा है?
कौन सी कब्र नई है?
फ़िर अपने शक्तिशाली पंजों से
खोद डालते हैं
मुर्दे तक पहुँचने का रास्ता, और..
शमशान घाट से
कब्रिस्तान तक
कुत्तों और आदमखोर जानवरों का
अघोषित गठबंधन है
अब इनका सर्वत्र वर्चस्व है
…लेकिन ये कुत्ते
अपना शिकार सिर्फ़
अधजले शवों
और मुर्दों को ही बनाते हैं।
इन कुत्तों की इस दिनचर्या पर
कोई इंसान इसलिये न ही लिखेगा
और न ही पढ़ेगा
कि वह इसे
खुद से बदतर माने.
ब्यान-ए-जुदाई मेरा मश्ग़ला नहीं है दिलबर
ब्यान-ए-जुदाई मेरा मश्ग़ला नहीं है दिलबर
फ़िर भी हर घड़ी ये दिल परिशां-सा क्यूँ है।
सोते हुए मैं जागूँ, जागूँ तो खोया-सा रहूँ
हर पल ये बेक़रारी मेरी धड़कनों में क्यूँ है।
रिसते हुए ज़ख़्मों को सोखा है उम्र भर
अब मेरे तस्सव्वुर पे ये साया-सा क्यूँ है।
कभी तो होगी कोई आहट का़सिद के कदमों की
ये मेरा दरवाज़ा मुद्दतों से सूना-सा क्यूँ है।
चलो बहुत हुआ “शम्स” अब कुछ और साँस हैं बाकी
कशमकश में कोई है किसी का उसे इंतज़ार क्यूँ है।
सारी दुनिया के आगे इकरार करते हो
सारी दुनिया के आगे इकरार करते हो,
तुम आसमाँ के तारे से प्यार करते हो|
न छू सकते हो, न पकड़ सकते हो उसे
फ़िर भी क्यों नाखु़दा की तलाश करते हो।
जिस्म ही नहीं रुह भी जलाता है इश्क-ए-सफ़र
क्यों इन सुर्ख़रुह शोलों की प्यास रखते हो।
वो तो नहीं मिलता अक्सर जिसकी आरज़ू है”शम्स”
तपते हुये बंजरों में फ़सलों की आस रखते हो।
मुखा़तिब हो मुकाबिल नहीं होती
मुखा़तिब हो मुकाबिल नहीं होती,
दिल की मुश्किल आम नहीं होती।
किससे क्या कहें कि दिल कुछ हल्का हो
उफ़ ये उम्र अब क्यों तमाम नहीं होती।
बडे़ खु़लूस से चला था कारवाँ उसकी तरफ़
ये और बात है कि सभी मंज़िले मुकाम नहीं होती।
इसी जुस्तजू में ज़िन्दगी मुक्कमिल हुई “शम्स”
कि एक उम्मीद के बाद उम्मीद हराम नहीं होती।
तपते हए सहरा में शज़र का साया-सा लगा
तपते हुये सहरा में शज़र का साया-सा लगा
अजनबी शहर में एक शख़्स अपना-सा लगा।
सुखे फ़ूल सूखे पत्ते सूख गया हर एक रिश्ता
जज़्बातों के इस बंजर में एक पौधा-सा उगने लगा।
बदलते मौसमों जैसे चेहरों की इस दलदल में
किसी ने देखा हो मेरा चेहरा ऐसा गवाह-सा लगा।
“शम्स” तुमने जो भी माँगा ज़िन्दगी ने वो सब-कुछ दिया
इस अनोखे दोस्त का उजला दामन जाने क्यों अच्छा-सा लगा।
गुज़री शब बारहा उसने खु़द को सजाया होगा
गुज़री शब बारहा उसने ख़ुद को सजाया होगा
आइने के रु-ब-रु अक़्स मेरा ही पाया होगा।
फ़ूलों से बादलों की किश्ती में बैठ कर
गीत कोई उसने मन में गुनगुनाया होगा।
मेरी छुअन मेरे बोसे के तस्सव्वुर में
चूम कर तकिया सीने पे दबाया होगा।
तहरीर कर चंद बातें पलकों की क़लम से
झौंके को मेरी जानिब उसने उडा़या होगा।
मेरे ख़यालों की हरारत से आया पसीना
“शम्स” देर तक उसने आँचल से सुखाया होगा।
बहारों ने बनाई हैं शराबें शबनम की
बहारों ने बनाई हैं शराबें शबनम की
तू गर साथ होता तो कुछ और बात होती|
मेरे आंगन से जुदा हुई ज़ुर्राबें ज़र्द पत्तों की
तेरा हाथ हो अब हाथ में तो कुछ और बात होती।
चांद झूमा है साथ मेरे, थिरके हैं तारे रात भर
चांदनी के इस गुस्ल में तू साथ होता तो कुछ और बात होती।
“शम्स” तेरे जिस्म का ज़र्रा-ज़र्रा अब बन गया है मोती
तेरे धागे में मैं पिर जाँऊ तो कुछ और बात होती।
तू कभी आ मुझे मिल ज़रा देख जी भर कर
तू कभी आ मुझे मिल ज़रा देख जी भर कर
मेरे मन में समा जा मेरे तन में उतर कर।
तेरी मंज़िल भी यहीं तेरा आग़ाज़ भी यहीं
बस कोई परदा-सा उठा है कोई परदा गिरा कर।
तेरे लबों के रंग से ये आसमाँ भी अब सुर्ख है
तू इस शाम को और दहका दे मेरे सीने में उतर कर।
“शम्स” तेरे वुजूद का उससे कोई नाता है पुराना
मुझमें ही है वो पेवस्त मेरा हिस्सा सा बनकर।\
तेरी कैसे गुज़र होगी तेरी कैसे बसर होगी
तेरी कैसे गुज़र होगी तेरी कैसे बसर होगी
दिल के यही फ़साने सुनाने कभी तो आ।
तेरे छोटे-छोटे किस्से तेरी मिसरी जैसी बातें
अपनी इन्ही अदाओं से रिझाने मुझे कभी तो आ।
बस मुझे तुझ से प्यार है, तुझे मुझ से प्यार है
इसी प्यार के बहाने मिलने मिलाने कभी तो आ।
तेरी ख़ुशियाँ भी देखूँ तेरी मस्तियाँ भी देखूँ
ले मै रूठा हूँ तुझसे अब मनाने मुझे कभी तो आ।
तेरे आँसुओं से पहले अपनी जाँ निसार कर दूँ
मेरी रुह को बदन से मिलाने कभी तो आ।
तेरी राह तकते-तकते वो दीवाना सर हुआ है
इसकी आँखें बन्द कर दे इसे दफ़नाने कभी तो आ।
मौहब्बत करने वालों का “शम्स” अंजाम है ये पुराना
सदियों पुरानी इस गुत्थी को सुलझाने कभी तो
तू मेरा कौन सा ख़ु़दा है ज़रा नाम तो बता दे
तू मेरा कौन सा ख़ुदा है ज़रा नाम तो बता दे,
तू मुझे कुछ बता दे मैं तुझे कुछ बता दूँ।
बादलों के पीछे उस जहाँ में ले जा कर,
तू मुझे कुछ सुना दे, मै तुझे कुछ सुना दूँ।
मेरी आँखों से पूछ लेना मेरी जीस्त के फ़साने,
तू अब मुझे कहीं सुला दे, मैं तुझे कहीं सुला दूँ।
कभी रंजिशे समझकर, कभी मौहब्बतों की कलियाँ
तू मुझे कोई सिला दे, मै तुझे कोई सिला दूँ।
“शम्स” रफ़्ता रफ़्ता भर गया चराग-ए-आरज़ू
कभी तू इसे बुझा दे, कभी मैं इसे बुझा दूँ।
न जाने उसे अब क्या-क्या होता है
न जाने उसे अब क्या क्या होता है
बस, मुहब्बत में इंसान हवा होता है।
वो जो पहले तुनकता था बात-बात पर
कुछ भी कहो उसे वो अब न ख़फ़ा होता है।
मुस्कुराता,गुनगुनाता घूमा फ़िरे शहर-शहर
कहते हैं ये मलंग भी कोई ख़ुदा होता है।
“शम्स” जिसकी नज़र उसकी नज़र से मिल गई
सुना है वो शख़्स इस दुनिया से जुदा होता है।
बात करनी उससे आसान न थी
बात करनी उससे आसान न थी,
ज़िन्दगी इतनी कभी वीरान न थी।
चमन का हर फ़ूल उसके दामन में सजाया मैंने,
फ़िर भी उसके चेहरे पर वो मुस्कान न थी।
ज़िन्दगी में, ज़िन्दगी से मैंने कर ली तौबा,
उसकी संगदिली अब बर्दाश्त के काबिल न थी।
“शम्स” डूबने से पहले मौजों को देख ले जी भर
हालाँकि मंज़िल-ए-साहिल कोई बडी़ दुशवार न थी।
जाने कब-कब किस-किस ने कैसे-कैसे तरसाया मुझे
जाने कब-कब किस-किस ने कैसे-कैसे तरसाया मुझे,
तन्हाईयों की बात न पूछो महफ़िलों ने बहुत रुलाया मुझे|
क़दम क़दम पर सिसकी और क़दम क़दम पर आहें,
खिजाँ की बात न पूछो सावन ने भी तड़पाया मुझे।
किस-किस को यूँ देखूँ किस-किस की नज़रों के तीर सहूँ,
ग़ैरों की तो बात न पूछो अपनो ही ने है सताया मुझे।
“शम्स” तपिश और बढ़ गई इन चंद बूंदों के बाद,
काले सियाह बादल ने भी बस यूँ ही बहलाया मुझे ।
रचनाकाल: १४.०८.२००३
रेत के बाँध से तू न कोई उम्मीद रख
रेत के बाँध से तू न कोई उम्मीद रख
हवा से न सही ये पानी से एक दिन बह जाएगा।
चेहरे, सपने, रिश्ते, आरज़ू और तम्मनाएँ
नब्ज़ के रुकते ही तेरे पीछे क्या रह जाएगा।
एक एक पत्थर-ओ-शीशे पर लिपटा रहा उम्र भर
वक़्त के बेरहम भँवर में सब यहाँ ढह जाएगा।
“शम्स” तेरी नज़र से जो गिरा अच्छा गिरा
बहुत सह चुका, अब ये जर्ब भी सह जाएगा।
इस घुप्प अन्धेरी-सी रात में सुरमई-सा उजाला कर गयी वो
इस घुप्प अन्धेरी-सी रात में सुरमई-सा उजाला कर गई वो,
मुद्दतों से बंद पडे़ कमरे में कोई चराग़ सा रोशन कर गई वो।
तपती दोपहर से सुलगते रिश्तों के ज़ख़्म
किसी राहग़ीर के क़दमों पर मरहम कर गई वो।
वो गुमसुम,अधमरा चुप-चुप बेजान सा जिस्म
कुछ था जादू उसमें उसे बोलता कर गई वो।
“शम्स” सुन रहा था लफ़्ज़-लफ़्ज़ सदा-ए-वक़्त की आवाज़
कोई थी कमी तुममें ही, कि ख़ुद को रुसवा कर गई वो।
क्षणिकाएँ-1
तुझे कभी चैन न आए इतना बेचैन कर दूंगा
तेरे बदन में अपने जिस्म का रेज़ा रेज़ा भर दूंगा,
मेरी नींदों को हवाओं में घोलने वाले
तेरी रग़-रग़ में अपनी तड़प मैं छोड़ दूंगा।
(रचनाकाल: 16.09.2002)
2.
मय्यतों के हुजूम में एक सवाल रखता हूँ
कभी ख़ुद से मुलाक़ात होगी ये ख़्याल रखता हूँ,
सदियों से पड़ा हूँ यहाँ बिना जुम्बिश के
कोई फूँकेगा मुझमें साँसे ये आस रखता हूँ।
(रचनाकाल: 18.07.2002)
3.
आज खा लेने दे जी भर कर
हो जाने दे बदहज़मी,
मेरे पडौ़स में एक
खूबसूरत चारागर है।
(रचनाकाल: 18.07.2002)
4.
कभी उलझ गए कभी सुलझ गए
कभी जाम से टकरा गए,
औरों जैसे जीने के तरीके
सीखने से भी हमें न आए।
(रचनाकाल: 21.07.2002)
5.
वो जो दिखने में बहुत परिशाँ से हैं
अपनी उल्फ़त से वो हैराँ से हैं,
मौहलत नहीं ज़रा उन्हें ख़ुद से मिलने की भी
ऐसे उलझे-उलझे से मेरे सरकार वो हैं।
(रचनाकाल: 31.08.2002}
6.
तेरी तस्वीर की ज़रुरत नहीं मुझको
तेरी सूरत मुझे हर सू नज़र आती है
फ़िज़ायें लाती हैं हर दम पैगाम तेरा
तेरी खुशबू भी मुझे अब नज़र आती है।
(रचनाकाल: 24.08.2002)
7.
सुलगते ख़्वाबों को दहकाए हुए रखना
जज़्बों की दिलकश इमारत बनाए रखना,
मुसाफ़िर हूँ अकेला इस लम्बे सफ़र में
गर्म साँसों से रहगुज़र सजाए रखना।
क्षणिकाएँ-2
बस आज के दिन का इंतज़ार करो
और बस और हमसे प्यार करो|
तुम्हारा सीना चूमेंगे जी भर कर
बस थोडा़ और मुझे बेकरार करो|
(रचनाकाल: 20.09.2009)
2.
तेरे जलवों की सुबह हो तेरे गेसुओं की शाम
मेरे हाथों पे सूरज हो तेरे होंठों पे चाँद,
महकता रहे मेरे जिस्म पे तेरे बदन का चंदन
आँखे बन्द रहें यूँ ही बस ये ख़्वाब चढे़ परवान।
(रचनाकाल: 02.11.2002}
3.
ज़माने को इस ज़माने से बचा लो
बडी़ उलटी हवा चली है,
ग़ैरत को इस बेग़ैरत से बचा लो
बडी़ उलटी हवा चली है।
(रचनाकाल: 30.08.2002)
4.
वो जो उजले हैं तन के
भीतर से काले बहुत हैं,
फ़ूल से बरसते हैं मुँह से
लेकिन मन में नाले बहुत हैं,
नज़र से नज़र नहीं मिलेगी, चाहे कर लो कितनी भी कोशिश
यही वक़्त है समझ लो उनको, ऐसे दिलों में छाले बहुत हैं।
(रचनाकाल: 21.07.2002)
5.
गुज़री बातें भूल कर चलो नई शुरुआत करें,
साल के इस नये सिरे पर प्यार की बरसात करें।
मेरे घर से कोई न जाये आज बिन पिये,
सुरूरे इश्क अब न उतरे आओ ये इक़बाल करें।
(रचनाकाल: 01.01.2003)
6.
ये किसका लहू मेरे जिगर से निकला
मेरा कातिल मेरा चाराग़र निकला,
रोशनी की तलाश में पहुँचा था जिसके दर
शेख़ ने दरवाज़ा खोला तो अंधेरा निकला ।
(रचनाकाल: 20.08.2003)
फुटकर शेर-1
बेज़ुबानों को तू अपनी बात मत सुना “शम्स”
कि अपनी लोरी-गाते गाते नींद तुझको आ जायेगी।
(रचनाकाल: 25.07.2002)
2.
ये रंगीनियाँ ये नज़ारे कहानियाँ-सी नज़र आती हैं
अब तक जो गुज़री उम्र वो बेमानी-सी नज़र आती है।
(रचनाकाल: 25.07.2002}
3.
तमन्नाओं के भँवर उमंगों के सागर हैं
मेरे मन के भीतर ये कैसे उजाले हैं।
(रचनाकाल: 27.08.2002)
4.
हज़ारों मील हैं दरम्याँ पर तू दूर नहीं है मुझसे
शीशे में अक़्स जैसा नाता है मेरा तुझसे।
(रचनाकाल: 16.09.2002)
5.
मैं भरा प्याला हूँ, नाम है मेरा मौहब्बत
जिसको तलब है आए, प्यास बुझा ले अपनी|
(रचनाकाल: 01.11.2002)
6.
तेरे बिना ये रातें इतनी क्यों बेचैन लगती हैं,
धड़कने हैं मेरी लेकिन साँसे तेरी लगती हैं।
(रचनाकाल: 01.11.2002)
7.
दीवाना करे देती हैं ये तेरी हसरतों की कोमल बाँहें,
जकडे रख्नना मुझे जब तलक मैं तुझमें घुल न जाऊँ|
(रचनाकाल: 19.04.2003)
फुटकर शेर-2
1.
उसकी आँख का काजल पिघला होगा रात भर,
बेज़ुबाँ तकिये ने सुना दी दास्ताँ दर्द की।
(रचनाकाल: 24.01.2003)
2.
तेरे आस्ताँ से उठ गए अब सफ़र की हमको फ़िक्र कहाँ,
जहाँ रुक गए वहाँ सो लिए अब मौसमों की ख़बर कहाँ।
(रचनाकाल: 24.01.2003}
3.
दोस्ती करने का चलन एक दम बदली हो गया,
एज, सैक्स, लोकेशन पहले बताना ज़रूरी हो गया।
रचनाकाल: 24.01.2003
4.
धीरे-धीरे इस बर्फ़ का घुल जाना अच्छा लगा,
कतरा-कतरा मुझको तेरा भूल जाना अच्छा लगा|
(रचनाकाल: 08.03.2004)
5.
बाद गुफ़्तगू के हुआ ये एहसास,
कि वो शख़्स मुझसे मुखा़तिब ही न था।
(रचनाकाल: 01.05.2005)
6.
बाद मेरे रह जाएंगी चंद निशानियाँ
दोस्तों के कुछ ख़ुतूत दुश्मनों की गालियाँ|
(रचनाकाल: 23.03.2006)
मैं दुआएँ किससे माँगू सुनने वाला यहाँ कोई तो हो
मैं दुआएँ किससे मांगू सुनने वाला यहाँ कोई तो हो,
भाग-भाग कर थक गया हूँ धूप में साया ऐसा कोई तो हो।
रुई सा पिनता गया ग़ुज़रता हुआ हर लम्हा मेरी,
सितमगर तेरी दुनिया में जो मरहम लगा दे ऐसा कोई तो हो।
कहीं कहत, कभी तशद्दुद, कहीं ज़लज़ला मौत का सामाँ बना,
मुसलसल इस कहर से जो मुझे बचा ले दोस्त ऐसा कोई तो हो।
जब भी पिसा वक़्त की चाकी में, कयूँ वो मुफ़लिस ही था,
खु़रदरे हाथों की फ़रियाद जो सुने हुक्मराँ ऐसा कोई तो हो।
हुक्में दौराँ कहते हैं कि नहीं उन सा पारसाँ अब दूसरा कोई,
इन घरों के नाले जो उन तक पहुँचा दे ज़रिया ऐसा कोई तो हो।
वो अब सुनेगा, अब सुनेगा, कब से पड़ा हूँ सजदे में,
रसूलों के हुजूम में जो सुन ले मेरी यलगार ऐसा कोई तो हो।
इस शहर के मरमरी उजाले, इस शहर की शादाब रवानियाँ
जिसमें न हो बू तेरे लहू की एक महल ऐसा कोई तो हो।
“शम्स” अपने दिल के छाले किस-किस को तू गिनवायेगा,
इस रंजीदा रात में जो भर दे उजाला ऐसा कोई तो हो।
बिजली की तरह तेरी रुह से गु़ज़र जाऊँगा
बिजली की तरह तेरी रुह से गु़ज़र जाऊंगा,
हवा बन के मैं तेरी साँसों में ठहर जाऊंगा|
महफ़िलों में लोग पूछेंगे तुमसे जब मेरा अहवाल,
तेरी आँखों के कोयो से मैं पानी सा दरक जाऊंगा।
तेरी बेरुखी़,तेरी बेवफ़ाई, तेरी गै़रत तू जाने तेरा ईमान,
मैं शफ़्फ़ाक़ दरिया की तरह अजल से भी गु़ज़र जाऊँगा।
मेरे वुजूद पर न रख उँगली कि तू जल जाएगा,
मैं पिघला लोहा हूँ फ़िर किसी साँचे में ढ़ल जाऊंगा।
झूठे तेरे सब नाते रिश्ते झूठा तेरा है हर व्यौपार,
तेरे रंग में नहीं रंगा मैं, ख़ुद अपने ही रंग में जाऊंगा।
अब जितने भी हों सारे दे दे काँटे जो हैं तेरी झोली में,
और कोई चेहरा न झुलसे ये दाग़ भी तेरा मैं सह जाऊंगा।
चांदी के क़ाग़ज में लिपटा साथ था मेरा-तेरा, एक फ़रेब,
जागे इक दिन नींद से तू भी, ये एक दुआ मै कर जाऊंगा।
हक़-तल्फ़ी की ईटें चिन कर बना लिया महल जो तुमने,
अपने हिस्से का एक धक्का बिना दिए मैं कैसे जाऊँगा।
मुबारक हों तुझे तेरे मेवे और शहद के भरे प्याले,
रुखी-सूखी़ खाकर मैं भी तो ज़िन्दा रह जाऊंगा।
बहुत का़बिल दरबारी तेरे और दानिश्वर है तेरा वज़ीर,
देखकर मरघट में गिद्धों का डेरा मैं ख़ामोश कैसे जाऊंगा।
मबरुक तुझे हो ताज तेरा, फ़िक्र न करना “शम्स” की,
जर गया ना साथ किसी के मैं तो तन्हा ही जाऊंगा।
शव धर्म
मैं,
अब शव बन चुका हूँ
सामाजिक सरोकारों- सक्रियता का अभाव
शव धर्म है
मैं, मेरा घर मेरे बच्चे
मेरा संचित-अर्जित अर्थ
यही सत्य है
यही शव धर्म है|
मेरे पडौ़स में
कोई भी, कभी भी आकर
हत्या कर सकता है
लूट सकता है
गृहणी को कर सकता है बेआबरु
मुझे कोई चीत्कार, कोई आवाज़
सुनाई नहीं देगी।
मैं निश्च्ल हूँ
निश्प्रह हूँ
क्योंकि, मैं शव हूँ।
मैं चलता फ़िरता हूँ
आजीविका अर्जन हेतु
वे सभी क्रियाएँ अंजाम देता हूँ
जो अन्य सभी करते हैं।
मैं हूँ लोकल ट्रेन में भी
बसों, हवाई जहाज़ और होटलों मे भी
मेरे बराबर में खडी़
इस सुंदर नवयुवती पर
आप आसक्त हो सकते हैं
कोई अश्लील हरकत कर सकते हैं
उदण्डता युक्त साहस है तो
चलती ट्रेन में उसका
जबरन कर सकते हैं शीलभंग
मैं और मेरे जैसे और सभी
शवों से भरी इस ट्रेन में
कोई चूँ भी नहीं करेगा।
हम सब अपने शव धर्म का
अनुशासन जानते हैं
अनुपालन जानते हैं
उसकी गरिमा पहचानते हैं
हम सभी बहुत शिक्षित हैं
निरीह,अनपढ़,जाहिल,गँवार,मज़दूर नहीं
लड़ना शव धर्म नहीं
हम सच्चे शव धर्मी हैं
क्योंकि,
मैं, मेरा घर मेरे बच्चे
मेरा संचित-अर्जित अर्थ
यही सत्य है
यही शव धर्म है।
तुम कभी भी-कहीं भी
अकेले अथवा समुह के साथ
मेरी गली में, चौक में
बैंक में, भरे बाज़ार में
धूप में या अंधेरे में
मैं जहाँ कहीं भी हूँ
मेरी उपस्थिती सर्वव्यापी है
अपराध-हत्या कर सकते हैं
क्योंकि मैं ज्ञानी हूँ
ध्यानी हूँ,मैं अति-अस्तित्वादी हूँ
मैं शव धर्मी हूँ।
मुझे ज्ञात है यह विधि-सूत्र
मरना-मारना, चीर हरण कोई बुरी बात नहीं
मात्र वस्त्रों का विनिमय है
जुए की हार जीत है।
सृष्टि का यही कथानक है
क्योंकि,
मैं, मेरा घर मेरे बच्चे
मेरा संचित-अर्जित अर्थ
यही सत्य है
यही शव धर्म है।
तुम स्वतन्त्र हो
यह लोकतंत्र है
तुम्हे आज़ादी है
दल की, बल की
तुम चाहो तो मेरे समक्ष
जला सकते हो पूरी की पूरी
हरी भरी, बस्तियाँ
पूर्व-चिन्हित महिलाओं का कर सकते हो
सामुहिक बलात्कार
घौंप सकते हो उनके गुप्तांग में
अपने दल का झण्डा
कर सकते हो ढेरों हत्यायें
जला सकते हो दिनदहाडे़ मानव शरीरों की होली
चला सकते हो किसी भी संम्प्रदाय के विरुद्ध
एक सामूहिक हिंसक अभियान।
तुम भेज सकते हो अपनी फ़ौजें-पुलिस बल
कश्मीर में, सुदूर उत्तर पूर्व में,
बस्तर और आंध्र के जंगलों में
कर सकते हो अनगिनत हत्यायें
राज्य सुरक्षा के परचम तले
भर सकते हो जेलें, बिना मुकदमा चलाये
भून सकते हो सरे बाज़ार
मानवाधिकारों के होले-चौराहों पर।
मैं तुम्हे धन दूंगा, यदि कम पडा़ तो
अपने विदेशी परिजनों से भी
लेकर तुम्हें दूंगा
बस, एक छोटी सी विनती के साथ
हमारे धर्म-गुरु बाबा-बापू-आलिम का
एक धारावाहिक और लगा देना
दूरदर्शन पर उसका समय और बढा़ देना
मेरे घर में शांति रहेगी।
तुम कुछ भी करो
मैं चुप हूँ, चुप रहूँगा
न कुछ देखा है, न देखूंगा
न कुछ सुना है, न सुनूंगा
क्योंकि मैं जन्मजात शांतिप्रिय हूँ।
मैं शव धर्मी हूँ
मैं, मेरा घर मेरे बच्चे
मेरा संचित-अर्जित अर्थ
यही सत्य है
यही शव धर्म है।
यह जनतंत्र है
तुम लड़ो़ चुनाव
बनाओ अपनी सरकारें
केन्द्र में, राज्यों में
चलाओ अपना शासन
मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता
क्योंकि, मैं मतदान ही नहीं करता।
मेरे बही-खा़तों में
एक महत्वपूर्ण पृष्ठ है
नाम है जिसका
“दान-खाता”
वहाँ कई रंग-बिरंगे दलों के
नाम लिखे हैं
मैं योग्यतानुसार दान करता हूँ
मेरा कोई कार्य नहीं रुकता
किसी भी सरकारी कार्यालय में
सभी को मालूम है मेरा नाम
यह गुण मैंने सीखा है
अपने पूर्वजों से
वे अंग्रेज़ों के बडे़ भक्त थे
अनके बहुत प्रशंसक थे
क्योंकि मेरे घर, पडौ़स, मोहल्ले में
कभी कोई जलसा-जुलूस-प्रदर्शन नहीं होता
कोई संघर्ष कोई विद्रोह नहीं होता
कभी कोई पुलिस-लाठी गोली नहीं
वही परंपरा आज भी है
मैं पूर्णत: अहिंसक हूँ
मैं विद्रोह नहीं करता
मैं विरोध नहीं करता
मैं संघर्ष नहीं करता
यही शाश्वत नियम है मेरा।
मुझे सब स्वीकार है
मैं प्रश्न नहीं करता
यद्यपि मेरी धमनियों में रक्त प्रवाह है
हर जीवित प्राणी की भाँति
मैं साँस लेता हूँ
मैं चिंतन कर सकता हूँ
मैं संवेदनशील हूँ
मैं सक्रिय शुक्राणु वीर्य वाहक हूँ
मैं प्रजनन सक्षम हूँ
मुझे अग्नि की प्रज्ज्वलन शक्ति का ज्ञान है।
परंतु,
मैं मृत प्राय:हूँ
मैं एक शव हूँ
जिसे गिद्ध नहीं खा सकते
क्योंकि,
मैं शव धर्मी हूँ
मैं, मेरा घर मेरे बच्चे
मेरा संचित-अर्जित अर्थ
यही सत्य है
यही शव धर्म है।
यही मैं हूँ
और यही तुम हो।
बीज वृक्ष
उस भयावह अंधेरी रात में
काले बादलों से आकाश
अट गया था
मूसलाधार झमाझम भीषण वर्षा
प्रलय सूचक चमकती बिजली
एक के बाद एक तेज़
धारदार, प्रचण्ड हवाओं का वेग
जंगल पर टूट पडा़
बेदर्द वर्षा की बडी़-बडी़/मोटी-मोटी बूंदें
एक-एक पत्ते की कमर तोड़ती हुई
दैत्यकारी बेलगाम हवाएँ
हर वृक्ष की एक-एक भुजाओं को
मरोड़ने को आतुर
निर्जर वृक्षों के तने
एक के बाद एक
भयकंर चीखों के साथ टूटते
इस विराट क्रंदन से
पूरा जंगल अवाक था, स्तब्ध था, भयातुर था
बिजली,पानी,हवा, अंधकार
बादल और वेग
इन सब तत्वों के संश्रय
समस्त अस्त्रों से युक्त
एक अपराजित शक्ति बनकर
बिना किसी पूर्व-चेतावनी के
टूट पडे़ थे
अपने युध्दोंमादी प्रचण्ड प्रवाह के साथ
निशस्त्र,निरिह वन पर।
आकाश से बहती लगातार भीषण
जलधारा ने वृक्षों की
जडो़ं को पोला कर दिया था
फिर-फिर गोलबन्द होकर आते
हवाओं के बवण्डर
उनकी पुनरावृति
मानो, प्रतिबध्द हो
पूरे जंगल को नष्ट करने को
निरकुंशता से रौंद डा़लने को
सहमे,ड़रे वृक्ष
आकाशीय विपदा से भुजके
अघोषित युध्द की वर्जनाओं से दुबके,
प्रतिकार करते
खु़द को बचाते
फ़िर दूसरे की रक्षा करते
अपने तने से तना लगाकर
सहारा लेते-देते वृक्ष
उस तूफ़ानी रात का
रात भर प्रतिकार करते हैं
निशस्त्र प्रतिकार!
युगों समान दीर्घ रात्रि बीती
पौ फ़टी, बादल छ्टे, बंद हुई गर्जना, थमा पानी
अंधकार हटा,तूफ़ान बीता
अस्त-व्यस्त जंगल के वृक्षों ने
अपनी और आस-पास की सुध ली
रात भर बीती त्रासदी के बाद
किसको कितनी हानि हुई
इसका विश्लेषण किया
सूरज जब चढ़ा
रात भर के नुकसान की परतें खोलता गया
असंख्य वृक्ष उखड़ गये थे
असंख्य घायल हुये-अपंग हुये
भूमि पर बिछ गई थी
पत्तों की मोटी चादर।
प्रारंभिक उपचार-विचार के बाद
परस्पर सहमति बनी- कि
बीज वृक्ष के पास जाया जाये
इस विपदा से उपजे प्रश्न
उनका हल-समाधान पूछा जाये
जो जिस हाल में था
जैसा भी था
बीज वृक्ष की ओर
बढ़ने लगा-घिसटने लगा
बीज वृक्ष इस महा-वन के
ठीक केन्द्र में था
लुढकते-सरकते, घायल वृक्ष
वन मे चारों कोनों से
विशाल, विराट, भव्य बीज वृक्ष की दिशा में अग्रसर थे
वह इस वन का सबसे पुराना वृक्ष है
सबसे वृद्ध, प्रबुद्ध
सबसे कुशाग्र, बुध्दिमान और संभवतः
सबसे शक्तिशाली भी।
उसने बुद्ध को भी देखा था
महावीर को भी
तब वह छोटा था
उसने कई काल देखे
वह कालजयी है
समस्त कालों का एक मात्र दृष्टा
जंगल के कोने-कोने से
समस्त वृक्ष-गण वहाँ
एकत्रित हुए
सब वृक्ष गत् रात हुए विध्वंस का
कोई समाधान चाहते थे।
वृद्ध बीज वृक्ष
जिसने इस वन को जन्म दिया था
बड़े परिश्रम से इसे पल्लवित किया था
इस संहार को देख
वह भी बहुत व्यथित था।
बीज वृक्ष बोला:
जीने के लिये क़द में ऊँचा होना
आवश्यक नहीं
सुडौ़ल, सौष्ठव और गोल होना चाहिये।
विस्तार भूमियोत्तर नहीं
अंतर-भूमि होना चहिये।
अपनी जडों को भूमि के भीतर
विस्तार में गाड़ दो, दूर और दूर तक ले जाओ उसे
पृथ्वी के ऊपर दूर-दूर नहीं
पास-पास रहो
जितना अंतर कम होगा
उतने तुम शक्तिशाली होंगे
वृक्ष की किसी जाति विशेष से बैर न करो
सबको उगने दो, खिलने दो
इतना नज़दीक कि,
आवश्यकता पड़ने पर परस्पर
सहयोग मिल सके
संदेश सूत्र के साथ
बीज वृक्ष की सभा समाप्त हुई।
बीज वृक्ष की चारों दिशाओं में
उसकी विशाल भुजाएँ फ़ैली थी
भुजाओं से होकर उसकी जटाएँ
भूमि में धँस चुकी थी
वह जितना वृद्ध होता जाता
उसकी भुजाएँ और बढ़ती जाती
और नई जटाएँ बन जाती उसके
नये रक्त संचार का स्रोत
वह अपना समस्त भार
धरती के भीतर
भिन्न-भिन्न स्थानों से
भुजाओं से
जटाओं से बाँटता रहता
जितना वह भूमि के ऊपर था
उससे बडी़ उसकी जडे़ थी
भूमि के भीतर,
उसकी छाती में
जहाँ वह
चिरकाल से खड़ा था।
क्षणिकायें-3
1.
खा के तीर मरने से पहले जो चेहरा देखा,
वो मेरे दाहिने हाथ के मानिंद था,
जब भी हुई तफ़शीस किसी कत्ल की
क़ातिल हमेशा मक़्तूल का बग़लग़ीर था|
(रचनाकाल : 03.09.2009)
2.
ज़िन्दगी में न ज़िन्दगी से तू उदास हो कभी,
ये वो जाम है कि भर-भर के पिया जाता है|
(रचनाकाल: 15.09.2002}
3.
दुश्मनी में न कर पाँयेगे मेरा बाल भी बाँका
है रक़ीबों को मश्विरा की दोस्ती कर लें|
(रचनाकाल: 10.11.2005)
फ़ेसबुक से रुष्ट एक कवि
लेखक मित्र उमराव सिंह जाटव के नाम एक कविता
ओ मेरे प्रिय मित्र
तुम रुष्ट हुए,
भर कर क्रोध
लौट गए वापस अपनी दुनिया में
और कंपित कर गए मुझे ।
पीछे छोड़ गए अनगिनत प्रश्नों की
गर्भवती
सुलगती एक चिता ।
तुम क्यों चाहते थे
भरमार चिक्कलसें
बेदम वाह-वाही
क्यों हसरतें थी तुममें
कि कोई दे तवज़्ज़ों
और ठूँस ठूँस कर भर दे
तुम्हारे फ़ूलदानों में
वो काग़ज़ी- बेजान फ़ूल
जिन्हे तुम खुद भी तो कभी नहीं देखते ।
लेकिन क्यों थी यह तुम्हे अपेक्षा
कि लोग भाँड़ बन जायें
और लगें तुम्हे पूजने
ठीक वो ही पूजा-पाठ
जिसका विरोध करते करते
अब साँस फ़ूलने लगती है तुम्हारी ।
ओ मेरे प्रिय मित्र
भीड़ कभी प्रेम नहीं करती
भीड़ तमाशा होती है
भीड का अपना गति-विज्ञान है
उसे हर रोज़ जरुरत होती है एक तमाशे की
तुम भी
और मैं भी तो
हिस्सा थे, इस तमाशे का ।
पर तुम स्वयं इसके विरोधी थे
फ़िर क्यों पोषित की वह जिज्ञासा
कि एक तमाशा तुम्हारा अपना भी हो
ओ मेरे प्रिय मित्र
काश तुम ये जान पाते
कि बिना तमाशा बने भी
तमाशे को देखा जा सकता है
इसका लुत्फ़ लिया जा सकता है
किसी को प्रेम किया जा सकता है
सिर्फ़ प्रेम
विनिमय विहीन प्रेम ।
ओ मेरे प्रिय मित्र
काश तुम यह जान पाते
कि एक हाथ से भीड़ नहीं थामी जाती
एक मुठ्ठी में एक हाथ ही भर सकता है
तकिये के बगल में रखे
बहुत हैं एक
-दो चमेली के फ़ूल ही
जिनके सहारे काटी जा सकती है
रात, अंधेरा और उसकी त्रासदी ।
रचनाकाल : 20.05.2010
तेरा मेरा भारत- महान
तुम कहते हो बदल रहा है भारत
भेजते हो रंग बिरंगी तस्वीरों की ‘फ़ारवर्ड मेल्स’
नहीं थकती जो गिनाते उलब्धियाँ, एक के बाद एक
प्रति व्यक्ति बढ गई है आय
खुल गये हैं चमचमाते मॉल
शहरों में बन गये हैं फ़्लाई ओवर
बिछ गया है सर्वत्र सड़कों का जाल
देश हो गया है चलायमान
भारत भेज रहा है अंतरिक्ष में चन्द्रयान
बढ रही है “अग्नि-त्रिशूल” की ताकत और रफ़्तार
सस्ते हो गए हैं हवाई जहाज के किराये
उपलब्ध हैं सभी आलीशान कारें
तुम कहते हो बदल रहा है भारत…
कस्बों में हो रहे हैं अब फ़ैशन शो
टी०वी० चैनलों की पहुँच में
आ गया है अब अंतिम आदमी
उनसे नहीं छिपती अब
भैंस के मरने की भी ख़बर
बन गई है एक लाख रुपये की कार
बहुत बन गये हैं मकान
एक के बाद एक
ठूँस दी गई हैं बहुमंज़िली इमारतें
हर बडे शहर में भारत के
तुम कहते हो बदल रहा है भारत…
दौड रहा है भारत प्रगति के पथ पर
सारथि बहुत सक्षम है
बहुत बडा विद्वान है, उसे अर्थ का ज्ञान है
भीष्म की प्रतिज्ञा का पर्याय है
भारत में उसका नेतृत्व अपरिहार्य है
खींच कर ले जाने को है प्रतिबद्ध वह
इक्कीसवी सदी में- एक भव्य भारत को
अब इंटरनेट और तेज़ हो जाएगा
पिक्चर की जगह वीडियो भेजा जाएगा
नये युग में युवा का प्रवेश हो जाएगा
भारत शीघ्र ही विश्व शक्ति बन जाएगा
तुम कहते हो बदल रहा है भारत…
भर गए हैं खाद्यान्न
उपलब्ध हो गया है सबको अन्न
देश की प्रजा बहुत है प्रसन्न
विश्वस्तरीय होता है अब उपचार
हर नगर धर्म का हो रहा प्रचार
धर्म गुरुओं की अनवरत आपूर्ति
गाँव-गाँव ही नहीं वरन
विदेशों में भी उनका निर्बाध् निर्यात है जारी
चहु दिशा हो रहे भारतीय उन्नति के गुणगान
राष्ट्रभक्त कवियों का बढ रहा है अब मान…
प्रगति बहुत तेजी से
पूरे भारत से होकर, भागी जा रही है
काल सेन्टर की कमाई
देश के युवा से खाई नहीं जा रही है
बहुत जल्द मुंबई स्टाक एक्सचेंज
बन जायेगा न्यूयार्क, लंदन, शांघाई, जापान के शेयर बाजारों का
एक भरोसेमन्द विकल्प
प्रवासी चंचल पूँजी भारत के शेयर बाजारों से होकर
खेत खलिहानों और चूल्हे चौकों और चौपालों तक
भर देगी अकूत सम्पत्ति
बन जाएगा भारत एक समृद्ध राष्ट्र
इस सपने को देखने और जबरन दिखाने का आयोजन
तन-मन-धन और शक्ति-बल से
पूरे राष्ट्र में
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किया जा रहा है
इसीलिये बंधु
तुम कहते हो बदल रहा है भारत…
कि लोकतंत्र हो चुका है मज़बूत
मिल गए है सभी को जनवादी अधिकार
दिल्ली-पेंटागन के बने ये डिजिटल निवाले
ख़ुद भी खाते हो
मेरे मुँह में भी ठूँसते हो और दूसरों के भी
राष्ट्र की दे कर दुहाई
करके मेरा भावनात्मक शोषण
तुम चाहते हो कि
इस प्रचार महायज्ञ-उपक्रम का
मैं भी बन जाऊँ एक भाग
और मैं भी ठूँस दूँ
ये संक्रमित निवाले किसी और के मुँह में
और ये सिलसिला तब तक जारी रहे जब तक
कोई सिरफ़िरा
बनकर एक ठोस यथार्थ की दीवार
तुम्हारे व्यर्थ प्रचार से भरे
मस्तिष्क को पटक पटक कर
तुमसे पूछे कि :
क्या बंद हो गयी नेताओं की घूसखोरी
सरकारे नीलामियों में भ्रष्टाचार
रुक गई प्राकृतिक संपदाओं की सरकारी लूट
क्या थम गया आदिवासियों का विस्थापन
क्या मिल गये गरीब, दलितों, महिलाओं को उनके अधिकार
क्या शांत हो गया कश्मीर, सुदूर उत्तर पूर्व
क्या शांत हुआ नक्सलबाडी हथियार बन्द आंदोलन
क्या बंद हुई फ़र्ज़ी मुठभेडें
क्या मिल गए समस्त मानवाधिकार
क्या लग गई मंहगाई के घोडे पर लगाम
क्या मिल जाती है दो जून की रोटी सभी को
क्या आज भी तुम नहीं भेजते
आफ़िस में लगे व्यावसायिक फ़ोन के बदले
एक खास तिथि को एक निश्च्ति शुल्क, जिसके न भेजने पर
थम जाता है तुम्हारे टेलीफ़ोन का रक्त चाप
भेजते हो तुम शिकायती फ़ैक्स,
जो किसी अफ़सर को कभी नहीं मिलते
और तुम कुछ भी नहीं उखाड पाते, उस अदना से लाईनमैन का
क्या यह थम गया?
क्या विद्युत विभाग का एस०डी० ओ० बिना पूरी बिजली आपूर्ति किए
नही लेने आता अपनी मासिक किस्त
क्या आज भी नहीं भेजते तुम एक तयशुदा राशि
आबकारी विभाग के अधिकारी को
जिसके विलंब पर चला आता है उसका चपरासी
किसी अघोषित आधिकारिक निरीक्षक की भाँति
और देता है तुम्हे पैगाम कि “सा’ब याद कर रहे हैं आपको”
क्या ज़िला उद्योग का वह बदबू भरा चपरासी
गुटका मुँह में दबाए, अब हर महीने नहीं करता उगाही?
क्या बंद हो गया है सेल्स-टैक्स वालों को लगाना मासिक भोग
इंकम-टैक्स वालों को
नगर निगम टोल टैक्स वालों को
पुलिस वालों को
और न जाने कितने सरकारी विभाग
जो कारोबार को खाते है किसी घुन की तरह
हो सकता है यह सब बदल गया हो
हो सकता है शहर में, नया मानव पैदा हो गया हो
वो अब नहीं करता हो धर्म के नाम पर सांप्रदायिक दंगे
थम गया होगा सड़कों पर बहना निरीह इंसानी ख़ून
क्या पूर्णतः सुरक्षित हो गये बच्चे, लडकियाँ, मातायें-बहनें
चलो मुझे बताओ, क्या हो रहा है हमारे गाँव में?
क्या हुआ उस दीवानी मुकद्दमें का
जिसे पिताजी ने मरने के दस साल पहले किया था दर्ज
कैसे जाते थे वो तहसील, फ़िर सेशन कोर्ट हर महीने तारीख पर
कुढ़-कुढ़ कर देते थे पेशकार को रिश्वत
जिसे जज देखकर करता था अनदेखा
क्या हो चुका उस केस का फ़ैसला ?
क्या वह अभी भी देश के लंबित ढाई करोड़ मुकद्दमों में से एक है
क्या बन्द कर दी पटवारी-कानूगो ने मांगनी अपनी नाजायज़ फ़ीस
क्या ग्राम प्रधान-सचिव-पटवारी-ठेकेदार-पुलिस का गठजोड़ टूट गया है
जिसने काग़ज़ों मे ही दिखा दिया था
हमारे घेर से खेत तक का खडंजा
और डकार गए थे सरकारी धन
हमने की थी उसकी शिकायत जिलाधिकारी तक
क्या कोई कार्यवाही हुई?
बदले में मिला था हमें प्रधान-पुलिस के गठजोड का
एक फ़र्ज़ी फ़ौज़दारी मुकद्दमा ।
क्या लिख लेता है थानेदार तुम्हारी शिकायत
क्या बंद हो गये फ़र्जी मुकद्दमें जिन्हे प्रधान दरोगा को घूस देकर
करवाता था दर्ज
और करवाता था फ़िर फ़ैसला, डरा कर-धमका कर
खा जाता था पैसा गरीब का
क्या टूट चुका यह अपराधपूर्ण बंधन
क्या गन्ना समिति ने देनी शुरु की है गन्ने की पर्चियां
सहकारी समिति से मिल जाती है खाद
बिक जाता है सरकारी गल्ले में अनाज
बिना रिश्वत दिए ?
क्या बिक जाती है सब्जियाँ बिना आढ़ती के
क्या असानी से हो जाता है आलू, लाला के कोल्ड स्टोर में जमा
क्या आ जाता है डाक्टर ढोर अब भी वक़्त पर
क्या आने लगे सभी अध्यापक गाँव के माध्यमिक स्कूल में
क्या सच में होने लगी है वहाँ पढाई
क्या आने लगी बिजली जब उसकी हो ज़रूरत
क्या मिलता है प्रर्याप्त आपाशी हेतु पानी
क्या लौट आया वह गाँव का प्रेमी जोड़ा
जिनके प्रेम को पंचायत ने किया था तिरस्कृत
क्या गाँव में दलित समस्या हल हो गई
क्या बेनामी जमीन मिल गई उन्हें
क्या थम गया बिहार के गरीब मज़दूरों का आना
क्या मिल जाते है बैंक से ऋण आसानी से
क्या सरकारी अस्पताल में होने लगा है
गरीबों का उपचार,
उनके हिस्से की दवा बाजार में बिकनी बंद हो गयी
क्या यह गलत है कि करीब पचास फ़ीसदी भारत के जनता
अभी भी कुपोषित है
क्या रोज़गार मिल गया है सबको
क्या उपयुक्त प्राथमिक शिक्षा मिल गयी सब को
क्या ठीक हो गया है सब कुछ
क्या सचमुच बदल गया है भारत
क्या बदल गया है नेता-नौकरशाह
क्या बदल गया है मानव
मैं, तेरे अभिशिप्त सिर को
झूठ की भभूत मले इस पाखण्डी सिर को
इन यथार्थ के ठोस प्रश्नों के पत्थरों पर
तब तक मारता रहूँगा
जब तक तेरी
दिल्ली-पेंटागन की जुबान से
“हाँ” नहीं निकल जाता
हाँ- बदल गया है भारत
हाँ- हो गया है नया सवेरा
पैग़ाम-ए-मौहब्बत
नफ़रत के बदले प्यार को लुटा रहा हूँ मैं
सदियों पुरानी रस्म को ठुकरा रहा हूँ मैं
मेरी ज़ात को समा ले अपनी ही ज़ात में
है बचा खुचा जो चेहरा वो मिटा रहा हूँ मैं
गीतों में मेरे ख़ुशबू अब होने लगी दोबाला
अब इनमे तेरी रंगत को मिला रहा हूँ मैं
नगमे वफ़ा के शायद निकले तुम्हारी रूह से
यही सोच शेख साहिब तुझे पिला रहा हूँ मैं
तेरे मतब पे जाकर भी इन्सां बना रहूँगा
तेरी रिवायत की जड़ें हिलाने जा रहा हूँ मैं
देता रहा वाईज मुझे जो हिदायत की घुट्टियाँ
पीकर जो आई होश उसे वही पिला रहा हूँ मैं !
जब से बनाया तुझको आशार का मज़मून
चारों तरफ ये चर्चा है कि छा रहा हूँ मैं !
तेरा तसव्वुर तेरी ख़व्वाईश रखता हूँ]
तेरा तसव्वुर तेरी ख़व्वाईश रखता हूँ
जैसे खुद को पीने की प्यास रखता हूँ ।
जो भी क़दम उठे तेरी जानिब
ख़ुद से मिलने की आस रखता हूँ ।
जबसे किया है उसने तर्के ताल्लुकात
तब से उसके अहदों का पास रखता हूँ ।
तेरे गुलशन में ऐसा कोई फ़ूल नहीं माली
जिस फ़ूल की सीने में सुबास रखता हूँ ।
गुंबदे कामयाबी का “शम्स” क्या कीजिये
लम्ह लम्हा मैं उसी का एहसास रखता हूँ ।
अजीब तरीका था उसका प्यार करने का
कभी उम्र कभी वज़न ये बताओ कि क्या हो तुम
कभी उम्र कभी वज़न ये बताओ कि क्या हो तुम
मेरे लिए तो अब भी कोई ताज़ा गुलाब हो तुम
ये और बात है कि झुक गई कमर चलते चलते
मेरे लिए तो अब भी सफ़र का आग़ाज़ हो तुम
फ़ेर कर मुँह जो रुक जाये वो है कम जर्फ़
आसमाँ भी पड़े कम मेरी वो परवाज़ हो तुम ।
“शम्स” तेरी श्रद्धा में पड़े हों कितने भी खम
देख मेरी चश्मे मौहब्बत से ऐसा आफ़ताब हो तुम ।
प्रार्थना
उसने
एक सुर चुना
और अपरिमित भावों को भर कर
मानव जीवन के सभी उद्दात प्रसंगों से सजा कर
विकृति और विद्रूपताओं से बचा कर
एक अति सुंदर गीत रचा
पुलकित मन के साथ एक दिन
उसने, वह गीत उसे सुनाया
परन्तु…. वह शिथिल, निस्पृह-सा खडा रहा|
वह
पुन: लग गया
रचनाधर्म की एक नई इकाई की खोज में
किया चयन एक राग का
और एक अद्वितीय मधुर धुन की रचना की
जिसे पक्षी भी सुने तो सुन्न रह जाए
कर्ण प्रिय, शहद सी मीठी
सुनकर जिसे, जीवन उल्लास से भर जाए
और एक दिन
पूर्ण तर्पण के साथ
उसने, वह संगीत उसे सुनाया
परन्त…. वह शिथिल, निस्पृह-सा खडा रहा ।
वह
एक बार पुन: खो गया
रचना के बहुआयामी सागर में
फिर उसने खोजी
एक अद्भुत नृत्य-कला
वर्षों के अभ्यासोपरांत
जब उसने प्राप्त की ऐसी निपुणता
कि जो उसे देखे तो समयविहीन हो जाए
अदम्य विश्वास से भर
फिर एक दिन
पूर्ण एकाग्रता के साथ
उसने, भेंट किया उसे अपना उत्कृष्ट नृत्य
परन्तु…. वह शिथिल, निस्पृह ही खडा रहा ।
पुनः उसने चुना एक अनछुआ कथ्य
स्मृति में जो रच-बस जाए
संवेगों में जो मिश्री की तरह रम जाए
डाकू भी पढे तो कालीदास बन जाए
ऐसी कहानी लिखी
और एक दिन
उसने, वह कहानी उसे सुनाई
परन्तु…. वह शिथिल, निस्पृह ही खड़ा रहा।
वह
पुनः गया, एक नई रचना की खोज में
एक के बाद एक नया रंग बनाता
फिर उसने एक अनुपम रंग चुना
और भर दिया एक चित्र में
कि कोई भी उसे देखे
तो अवाक रह जाए
विस्मित हो देखता रहे अपलक
और एक दिन
पूर्ण आप्यायन आग्रह युक्त
उसने, वह चित्र उसे दिखाया
परन्तु…. वह शिथिल, निस्पृह-सा खडा रहा ।
उसने
पराजय न स्वीकारी
रचनाधर्मी था
रचना रूपी गांडीव पुन: उठाया उसने
एकत्र किये बहुमूल्य भूमिकण, मिट्टी और अन्य तत्व
अनवरत परिश्रम के बाद
बनाई उसने एक मूर्ति
जिसे अभी तक न बना सका था कोई
सुंदरता की पराकाष्ठा
मानवीय परिकल्पनाओं से परे
चिर सजीव
और एक दिन
पूर्ण मनन के साथ
उसने, वह मूर्ति उसे दिखाई
परन्तु…. फ़िर भी वह शिथिल, निस्पृह-सा खडा रहा ।
वह
यकायक गायब हो गया
उसका कुछ न पता चला
कि वह कहाँ गया, क्या हुआ?
परन्तु अचानक एक दिन
वह उसके सामने फ़िर प्रकट हुआ
इस बार, न कोई कविता थी, न कहानी
न कोई राग, न नृत्य
न कोई कृति, न मूर्ति
वह बस झुका
झुकता, झुकता नतमस्तक हो चुका था
उसकी अनवरत अश्रुधारा
उसके पैरों पर बरस रही थी
उसने उसे ऊपर उठाया
और बाहुपाश में आबद्ध कर लिया
दोनों की अँसुवनधारा
एक हो चुकी थी ।