अदृश्य थे, मगर थे बहुत से सहारे साथ
अदृश्य थे, मगर थे बहुत से सहारे साथ.
निश्चिन्त हो गया हूँ कि तुम हो हमारे साथ.
मीठा भी और खारा भी पानी का है स्वभाव,
सुनता हूँ मैं समुद्र में हैं दोनों धारे साथ.
याद आता है भंवर में कई लोग थे घिरे,
लेकिन पहुँच न पाया कोई भी किनारे साथ.
संसद में हो न पायी अविश्वास मत की जीत,
विद्रोहियों को दुःख है नहीं थे सितारे साथ.
मित्रों के शत्रु-भाव से महसूस ये हुआ,
कितने थे अर्थ-हीन वो दिन जो गुज़ारे साथ.
चिल्लाई घर की भूख तो हड़ताल रुक गई,
सच्चाइयों का देते भी कबतक बिचारे साथ.
ये गली सीधी चली जाती है उसके द्वार तक
ये गली सीधी चली जाती है उसके द्वार तक
जाँ गँवा बैठे हैं इसमें सूरमा किरदार तक.
जिसके हाथों में संभल पाती न हो पतवार तक
उससे क्यों आशा करूँ ले जायेगा उस पार तक.
भाव कविता का समझकर तृप्त हो जाते हैं लोग
कोई अब जाता कहाँ है अर्थ के विस्तार तक.
कुछ तो निश्चय ही हुआ ऐसा कि जिसके बाद से,
मेरी दुनिया हो गई सीमित मेरे संसार तक.
धडकनों के शब्दकोशों को उलट कर देखिये
इसके सारे शब्द ले जाते हैं मन को प्यार तक.
मैंने साहस करके उसको पास जा कर छू लिया,
हो गए थे सुर्ख उसके रेशमी रुखसार तक.
क्रान्ति के दावों में क्यों होती है कमज़ोरी की गंध,
क्रान्ति की हर चेतना सीमित है क्यों ललकार तक.
हमने समन्दरों को नहीं देखा गौर से
हमने समन्दरों को नहीं देखा गौर से.
वो भी गुज़र रहे हैं मुसीबत के दौर से.
ले जा रहे हैं लोग दरख्तों को काटकर
जंगल तबाह हो गए सब जुल्मो-जौर से.
लाज़िम है अब, कि गैरों से रक्खें तअल्लुकात,
अपनों ने रिश्ते जोड़ लिए और और से.
करते हैं लोग आज कनायों में बात-चीत,
आजिज़ मैं आ चुका हूँ ज़माने के तौर से.
वो बूँद-बूँद टपकती गुलों की बेचैनी
वो बूँद-बूँद टपकती गुलों की बेचैनी.
मुकम्मल एक ग़ज़ल थी गुलों की बेचैनी.
तमाम लोग थे दीवाने सिर्फ़ खुशबू के
किसी ने भी नहीं देखी गुलों की बेचैनी.
हमें तो अपने ही होने का कोई होश न था
हमारे सामने रखदी गुलों की बेचैनी.
बहोत उदास हूँ, कुछ ऐसा जाम दे साकी,
भरी हो जिसमें शराबी गुलों की बेचैनी.
गरेबाँ चाक किये बुलबुलों को देखा है ?
मचा रही है तबाही गुलों की बेचैनी.
मैं इंक़लाब की आवाज़ सुन रहा हूँ कहीं,
मेरी नज़र में है फिरती गुलों की बेचैनी.
परीशाँ करती है क्यों आके रोज़ ख़्वाबों में
हुई है प्यार में अंधी गुलों की बेचैनी.