एक स्त्री घर से निकलते हुए भी नहीं निकलती
एक स्त्री घर से निकलते हुए भी नहीं निकलती
वह जब भी घर से निकलती है
अपने साथ घर की पूरी खतौनी लेकर निकलती है
अचानक उसे याद आता है
गैस का जलना
दरवाज़े का खुला रहना
नल का टपकना और दूध का दहकना
एक-एक कर वह पूछती है
प्रेस तो बंद कर दिया था न !
आँगन का दरवाज़ा तो लगा दिया था न !
किचेन का सीधा वाला नल बंद करना तो नहीं भूली !
अरे ! हाँ ! वो सब्ज़ी
वह मँहगी हरी पत्तियों वाली सब्ज़ी
जो अभी कल ही तो लाई थी सटटी से
प्लास्टिक से निकाल दिया था न !
हाँ, हाँ अरे सब तो ठीक है
आपको ध्यान है आलमारी लाक करना तो नहीं भूली
अभी कल की ही तो बात है महीनों को बचाए पैसे से नाक की कील ख़रीदी थी ।
इस तरह वह बार-बार याद करती और परेशान होती है
कि दूध वाले को मना करना भूल गई
कि बरतन वाली से कहना भूल गई कि उसे कल नहीं आना था
कि पड़ोसिन को बता ही देना था कि कभी कभी मेरे घर को भी झाँक लिया करतीं ।
इस तरह एक स्त्री निकलती है घर से
जैसे निकलना ही उसका होना है घर में ।
(25.09.2011)
उसने फिर नम्बर बदल दिया
उसने फिर नम्बर बदल दिया
और दोस्तों को एस० एम० एस० कर दिया कि अब पुराने नम्बर को समाप्त हुआ
समझा जाय
अब यही चलेगा मेरा नम्बर
यह हरकतें अब वह अक्सर ही किया करता है
अक्सर ही लोंगों को संदेश देकर बंद कर देता है पुराना नम्बर
जैसे सुबह की हवा उसके घर में ऐसे ही आती है
पिछले को खाती हुई ।
उसे किसी भी स्थायित्व से नफ़रत है
वह नहीं चाहता कि एक ही नम्बर से वह चिपका रहे
सुनता रहे एक ही टोन बार-बार
और लोग उसे दीर्घकालिक अपेक्षाओं के दायरें में परेशान करते रहें
उसे हमेशा ही चिंता रहती है नई योजनाओं की, नई तारीखों की, नई छवियों की
नई से नई वस्तुओं की अब उसे आदत पड़ चुकी है
वह हर नए को देखता है पहली बार
एक नए जन्म की तरह !
हर नए को वह अपनी गठरी में लादे ले आता है घर में
और रात के अँधेरे में फैला देता है पृथ्वी पर
कल की रोशनी के लिए ।
अब वह इसी तरह पहचानता है अपने मनुष्य को
और थोड़ा और मनुष्य होने की ज़िद में बदलता रहता है अपना नम्बर
गोया बदलते रहना ही नए ज़माने की एक बड़ी कृतज्ञता हो !
नए से नए से नएपन की चाहत में
बहुत कुछ छूटता जा रहा है पुराना
पुरानी बातें, पुरानी यादें, पुरानी धुनें, पुराने लोग
पुरखे भी पुराने से पुराने होते जा रहे हैं ।
हर क्षण बदल रही है दुनिया
हर क्षण बदल रहा है मौसम
हर क्षण बदल रहे हैं लोग
और हर क्षण बदल रहा वह नम्बर
जिसने नम्बर लेने से इंकार कर दिया था
एक दिन !
उसने फिर नम्बर बदल दिया
(15.09.2011)
दीपावली में सत्याग्रह
अबकी दीपावली में मन काफ़ी हरा और भरा था
अबकी बरसात भी ठीक-ठाक हुई थी
और अबकी मौसम भी काफी अच्छा था
धान भी खूब गदराया हुआ था
यह खेतों से उठकर आई मिट्टी के लहराने का समय था
तालाब थका और शांत था
सूरज शिथिल और संकोच से भरा हुआ था
और आदमी अपने हाथों की छुवन के बीच
हरी-हरी दूबों जैसा
मुलायम और गर्म था
यहाँ बरसात का थिहाया हुआ संकोच था
जिसमें सूरज की किरनें
आहिस्ता आहिस्ता सँवला रही थी
और धरती अपनी दरारों को पाट रही थी
यहाँ पिछले के छूट गए का उत्साह था
तो उमगते यौवन के बीच मुस्कुराते जाने का उन्माद था
यहाँ सावन से ही कार्तिक में फलाँगने की कोशिश थी
जहाँ बेसुध नायिका की तरह उमड़ता हुआ बाज़ार था
जिसमें सूखी बत्तियों से नौ मन तेल टपक रहा था
और सैकड़ों दीपक बगैर बत्ती के चमक रहे थे
यहां पूर्णिमा की गमक थी
तो आषाढ़ की धमक
जहाँ चारों ओर यमक ही यमक था ।
यहाँ बाज़ार में रोशनी के साथ ढेर सारी ध्वनियाँ थीं
लावा, लाई और गट्टे के बीच
तरह-तरह के मोम की बहार थी
यहां घूरे से लेकर पूरे तक
सरसों के तेल की महक थी
फिर भी बाती के नोक भर की जगह
दीये में शेष थी ।
कहीं-कहीं भड़ेसर भी दिख ही रहा था
जो कुम्हार के चाक से निकलने के बाद
पहली बार स्वाधीनता का गट्टा चख रहा था ।
यहाँ सब कुछ ठीक-ठाक था
और ढलती शाम से ही चढ़ती रात का इंतज़ार था
यहाँ प्रेम चारों ओर था और मिलन की एक सामूहिक बेचैनी सतह पर तैर रही थी ।
कहीं राज्याभिषेक था तो कहीं नरकासुर का बध
कहीं इंद्र का दर्प था तो कहीं कृष्ण का संहार
कहीं लक्ष्मी की आवाजाही थी तो कहीं दरिद्र के ख़िलाफ़ अभियान
कहीं सुंदर-सुंदर पाँव थे तो कहीं आवक पर फिसलते हुये दाँव ।
यहाँ सब कुछ था
शाम थी, रात थी, उत्सव था, उत्साह था, लोग थे, बाज़ार था, पूजा थी, पुण्य था,
लेकिन नहीं थे
तो किसिम-किसिम के कीड़े
जो राज्योत्सव के इस मौसम में
श्रद्धालुओं की शक़्ल में प्रतिवर्ष यहाँ पर आ जाया करते थे
कभी न लौटने की अनकही कहानियों के साथ ।
अब यह बदलते मौसम का तकाजा था
या कीड़ों के नागरिक समाज का विस्तार
कहना कठिन है
लेकिन इतना तय है कि कीड़ो की दुनिया में
यह पहला सत्याग्रह था
जहाँ कीड़ों ने जलने से मना कर दिया था !
(दीपावली, 2010)
देश के प्रधानमंत्री के नाम देश के एक नागरिक का ख़त
प्रधानमंत्री जी,आपके काशी आगमन का हम तहेदिल से शुक्रिया अदा करते हैं
हम इस बात की भी शुक्रिया अदा करते हैं कि यहां के घाटों की सफ़ाई हो गई है
और गंगा के दूधिया जल में कुछ चेहरे अब उभरने लगे हैं
हम इस बात के भी शुक्रगुजार हैं कि यहाँ की ऊबड-खाबड़ सड़कें थोड़ी स्वस्थ व सुंदर हो गई हैं
और कुछ समय के लिए ही सही
यहाँ के रिक्शे व तांगे वाले अब यहाँ की गलियों में घुसते समय हिनहिनायेंगे नहीं
हम आपके इस आगमन को शहर की चिकनाई से जोड़कर देखते हैं
और इस रुप में भी जोड़कर देखते हैं कि अपने पुरातन व्यवस्था में रगड़ खाता यह शहर
यदि कभी आधुनिक दिखेगा तो वह आपकी यात्रा से ही संभव है
जिसमें थोड़े समय के लिए यह भी अपने पंजों पर खड़ा हो आपको निहारता है
थोड़ी देर के लिए यह आपकी अगवानी में ठहर-सा जाता है
और थेाड़ी देर ही सही
इसकी धमनियों में आधुनिकता से लबरेज एक ठकठक की आवाज लगातार बजती है
जो कान में प्रवेश करने के पहले ही दिमाग में उतर-सी जाती है
लेकिन प्रधानमंत्री जी,आपके आने व जाने के बीच कुछ ऐसे सवाल हैं
जेा आपके गुजरने के बाद की छोड़ी हुई हवाओं में बरवक्त तैरते रहते हैं
कि आखिरकार यह सब देश के प्रधानमंत्री के खाते में दर्ज़ होता है
या फिर देश के नागरिकों के खाते का भी इससे कुछ संबंध होता है
क्या देश के प्रधानमंत्री के खाते में ऐसी ही चिकनी-चिकनी बातें दर्ज़ होती हैं
जहाँ खुरदुरेपन के लिए कोई्र जगह नहीं होती
या फिर देश के नागरिक के भाग में उतना ही बदा होता है
जितना की देश के प्रधानमंत्री को सरकने के लिए जरुरी होता है !
आपकी आगवानी में जो कुछ होता है उससे हमें ऐतराज नहीं
हमें इससे भी ऐतराज नहीं कि आपका शहर आगमन शहर की नींद में एक सपने की तरह होता है
लेकिन प्रधानमंत्री जी, उस युवती ने आपका क्या बिगा़ड़ा था जो लंका के भीड़ भरे चौराहे पर अस्पताल जाने के लिए अंतिम साँसे ले रही थी
और आपके सुरक्षा दस्ते में इतनी सुरक्षित थी की करवट भी नहीं बदल पा रही थी
कराहना तो दंडनीय अपराध था ही
क्योंकि इससे आपकी नींद को ख़तरा था
और आपकी नींद की हिफ़ाजत करना उसके लिए एक बड़े राष्ट्रीय दायित्व को निभाने जैसा था
इधर हम थे कि जो कभी शब्दों से लोहा गलाने की क्षमता रखते थे
जो कभी शब्दों से पर्वत ढहा सकते थे
जो कभी शब्दों से आपकी नींद हवा कर सकते थे
उस आदमी को तनिक भी नहीं पिघला पा रहे थे
जो आपकी ओर से हमारी सुरक्षा में खड़ा था
कभी आपने सोचा की आपकी इस यात्रा में उसकी जो साँसे अटक गई थीं
उन साँसों के चलते रहने में आपके देश की क्या भूमिका है
या कि जिन शब्दों से हमारा भरोसा छिन गया है
उनसे खुद आप कितने सुरक्षित रह गए हैं ?
प्रधानमंत्री जी,आखिरकार उस गौरैया ने आपका क्या बिगाड़ा था जो सड़क पर फुदक रही थी
उस कुते ने आपका क्या बिगाड़ा था जो केवल बाँस की बल्लियों को लांघने के अपराध में इस दुनिया से विदा हो गया
और तो और उस सांड़ ने आपका क्या बिगाड़ा था जो अलमस्त ढंग से सड़क के एक किनारे बैठा देश का जायजा ले रहा था
क्या आपने कभी सोचा कि जिस सांड़ को आपकी सरकार ने देश निकाला दे दिया
उसके घर को बनाने में आपकी सरकार ने अभी तक क्या किया है
वह आज भी सड़क के बीचो-बीच वैसे ही टहलता है
जैसे कि अपने जन्म के समय सड़क के ठीक बीच में पैदा हुआ था
प्रधानमंत्री जी, जब आप लाल किले से देश के नौनिहालों के नाम संबोधन करते हैं
तब मेरे मन में कोई सवाल नहीं उठता
क्योंकि देश के झंडे के नीचे हमें कुछ न बोलने का एक ऐसा संस्कार जनमघुटटी की तरह दे दिया जाता है
कि आप जो कुछ भी बोलेंगे
देस की पवित्र जनता के लिए पवित्र झंडे के माध्यम से पवित्र मन से ही बोलेंगे
आप वहां बैठे रहते हैं तब भी मेरे मन में कोई सवाल नहीं उठता
क्योंकि जिस शहर में आप रहते हैं और जिसे हमारी धड़कनों के रुप में बताया जाता है
वह शुरु से ही सवालों के बाहर है-
लगभग अपने देवता की तरह
जिन पर सवाल करना अपनी ही वेवफाई्र का इज़हार करना है
किंतु जब आप बाहर रहते हैं
मसलन की यही कि जब आप हमारे इस पवित्र शहर में रहते हैं
और शहर की प्राचीनता व पवित्रता व जातीयता व मानवता व
जाने किस किस प्रत्ययी ‘ता’ पर बोल रहे होते हैं
तब मेंरे मन में आपको लेकर बार-बार सवाल उठता है कि आप कैसे बोल रहे होंगे उस जगह पर
जहाँ पर आपको हिलने भर की आज़ादी नहीं मिलती
जहाँ आप आराम से नाक भी नहीं खुजला सकते
और जहाँ पांव भर फैलाने की आज़ादी भी नहीं होती
मुसकुराना तो यूं भी राष्ट्रीय अपराध होता है !
क्या हमारे देवता ऐसे ही होते हैं प्रधानमंत्री जी
या फिर जिसे देवता बनाना होता है
उन्हें ऐसा ही कर दिया जाता है
कि वे ठीक से हिल-डुल भी न सकें
ठीक से हँस भी न सकें
ठीक से बोलने को कौन कहे
ठीक से सुन भी न सकें !
प्रधानमंत्री जी , जितना आप कैमरे के इस देखने में रम रहते हैं
कितना अच्छा होता कि आप हमारे देखने को लेकर भी थेाड़ा नम रहते
थोड़ा यह भी समझते कि आपके इस शहर में कोई है जो जनता के नाम पर समझ रहा है
तब कितना अच्छा होता कि इस देश में सिरफिरों की संख्या थोड़ी कम होती
देस की जनता थोड़ी गम खाती
और जिसे कहने के लिए हमें तरह तरह के शिल्प को ईजाद करना पड़ता है
उसे आपसे सीधे कह सकते
न सही आपके शहर का होकर
अपने शहर का होकर तो बोल ही सकते।
प्रधानमंत्री जी ,क्या कभी आपने सोचा है कि आपके शहर में हमारा तनिक भी प्रवेश
आपके शहर में एक ऐसे खैाफ़ को जन्म देता है
जिसमें बहुतों की जान केवल इसलिए चली जाती है
कि कभी वे ऐसा न सोचें
जबकि हमारे शहर में आपका प्रवेश इस तरह होता है जैसे यह शहर आपका बनिहार हो
जहां जब तब आप दावा ठोंकने के लिए चला आया करते हैं
या कि यह भी कि जब भी आपको खखारने की इच्छा होती है
जब भी आपको निबटने की इच्छा होती हे
जब भी आपको कुछ टपकाने की इच्छा होती है
इस शहर में आ धमकते हैं
जहां शहर की हवाओं तक को आपको गुदगुदाने की मनाही है
जहां शहर में चमकता सूरज आपको छू भी नहीं सकता
जहां की धरती आपके पांवों को सहला भी नहीं सकती !
गंगा की तो बात ही अलग है
वह तो बेचारी यूं भी आपके आगमन से लुड़िया़ जाती है ।
प्रधानमंत्री जी ,इतनी धरती ,इतना आकाश,इतना सूरज और इतनी हवाओं को लेकर आप स्वयं चलते हैं
कि हमारे लिए कठिन हो जाता है अपनी हवाओं को समझना
कठिन हो जाता है अपने देस की गंध को महसूसना
और जब तक हमें कुछ सूझता है
आप गुजर चुके होते हैं
हमारी हवाओं से
प्रधानमंत्री जी , कहने को तो बहुत कुछ है
और यह बहुत कुछ आपके लिए कुछ भी नहीं है
फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि आपका सब कुछ
जिस काफिला के नाम पर घटित होता है
उसमें हमारे लिए सिवाय इसके कोई जगह नहीं बचती कि हम अपना अपना क़ाफ़िया मिलाकार अपने को ठीक करें
और एक काफ़िर की तरह उपद्रवी घोषित किये जाने के पहले ही
अपने को देश की सुरक्षा के नाम पर समर्पित कर दें
और बावजूद इसके आपका जयघोष करें
फिर भी जयहिंद की तरह
जय जय हिंद की तरह!
प्रधानमंत्री जी, मैं जानता हूं कि मेरा यह सवाल भी
जैसा की अब तक होता आया है
एक सिरफिरे के भड़ांस निकालने वाले खाते में दर्ज़ होगा
जिस खाते में पहले से ही भारी आंकड़े दर्ज़ हैं
लेकिन सवाल फिर भी सवाल है कि इतनी सडांध को पचाते हए इतनी चिकनाई का हम क्या करें
जिसमें मक्खियों तक की सुरक्षा में सरकार का सुरक्षा दस्ता मुस्तैद रहता है ।
रचनाकाल : 14.03.2008
रामफेर
इस अकेले घर में
जहाँ चारों तरफ ऐश्वर्य का दबदबा था
सब तरह की सुरक्षा थी
रामफेर को नींद नहीं आ रही थी
रामफेर!
हाँ रामफेर ही एक दिन गाँव से चल कर अपने बच्चों से मिलने
काशी आये थे
सोचा था काशी करवट के पहले
काशी का ढाँचा तो देख लिया जाय
देख लिया जाय घाटों पर उठती मंगला आरती के बीच
महाश्मश।न की लपटों में कितनी आर्द्रता है
कितनी गहराई हैं बालू पर लेटी हुई गंगा की
और तो और
रामफेर का यह भी मन हुआ
कि कितने लोगों में कितनी बार फिसलता है चंद्रमा
भोले के जटाजूट से खुलकर !
लेकिन इन सब स्थितियों के बीच
यह एक अजीब मुश्किल थी
कि रामफेर के चारों तरफ एक शांति के बावजूद
रामफेर को नींद नहीं आ रही थी
बच्चे उनसे बार बार पूछ रहे थे
कहीं कोई मच्छर तो नहीं है
कहीं कोई भूख तो नही लगी है
कहीं किसी सुर्ती की तलब तो नहीं है
और हर बार रामफेर का जवाब नकारात्मक ही रहता
एक दिन जब बच्चों ने थोड़ा जोर से कहा
या कि कहना चाहा
कि कहीं कोई शोर भी तो नहीं है
तब रामफेर से रहा नहीं गया
अरे बेटा वही तो नहीं हो रहा है
यह कहते हुये रामफेर झटके से उठे
और गाँव की तरफ चल दिये
आज रामफेर बहुत प्रसन्न थे
प्रसन्न रामफेर अपने जीवन में लौट रहे थे
एक सन्नाटे को चीरते हुए ।
कचकचिया
घोंसला बन रहा है
सृष्टि के विधान में एक नई सांस का उदय हो रहा है
स्पर्श सुख का कहना ही क्या
नेह गान थिरक रहा है
यह कचकचिया के आगमन का समय है
जिनके सामूहिक कचराग के बीच
एक नई संस्कृति आकार ले रही है
सभ्यता में तमाम सामाजिक दूरियों के बीच
नज़दीकियों का आसमान उतर रहा है
फूलों में रस भरा है
उदास सड़कों पर गुलमोहर खिलखिला रहे हैं
चारों तरफ सन्नाटा है
मगर आस पास के पेड़ों से
मुँहमुहीं आवाज़ें उठ रही हैं
मैं इन आवाज़ों को सुन रहा हूँ
जिसमें एक सन्नाटा टूट रहा है !
डर
बहुत ताक़त बहुत डर पैदा करती है
जो बहुत ताक़तवर होता है
डरा होता है!
बहुत ताक़त का होना असल में
बहुत के शोषण से सम्भव होता है
और यह शोषण ही बहुत ताक़त के तकिए के नीचे दबा होता है
जो डराता रहता हैं
डरने का मुँह हमेशा एक सुरंग की ओर खुलता है
जिसमें बचे रहने की आशा से अधिक
बचाए रखने की निराशा होती है
यह नहीं है कोई साधारण क्रिया
इसकी नाभि में ही अतिरिक्त का आकर्षण है
जो रह-रह कर परेशान करता है !
इन्तज़ार
एक दृश्य देखता हूँ
दूसरा उछलने लगता है
एक आंसू पोछता हूँ
अनेक टपकने लगते हैं
एक क्रिया से जुड़ता हूँ
अनेक प्रतिक्रिया कुलबुलाने लगती है
दूर बहुत दूर कोई माँ रो रही है
अर्थ तो बचा नहीं
भाषा भी खो रही है
जीवन महज़ एक घटना बन गया है
अनेक के इस्तक़बाल में !
हाय ! कैसे कहूँ कि हर क्षण एक बीतता हुआ क्षण है
और जो बीत रहा है
वह किसी अनबीते का महज़ इन्तज़ार लगता है
जिसमें सीझती हुई करुणा
गुज़रते समय की उदासी बन
कण्ठ में अटक सी गई है!
लौटना
भूख तो बड़ी थी लेकिन उन्हें सिर्फ़ पहुँचना था
उन तक पहुँचाए गए सारे आश्वासन अब तक बेकार हो चुके थे
अनुशासन के नाम पर
उनके पास अब सिर्फ़ एक ज़िद बची थी
कि उन्हें घर पहुँचना है
उनकी ज़िद व घर के बीच एक गहरा तनाव था
जिसमें घर लगातार निथर रहा था !
मुश्किलें विकराल हो रही थीं
जिनके समाधान के लिए वे घर पहुँचना चाह रहे थे
मानों ख़ैरख़्वाह यह घर
उनके ख़ैर-मकदम के लिए वर्षों से खड़ा हो !
उनकी ज़िद लगातार बड़ी हो रही थी
और इस ज़िद में बड़ी हो रही थीं उनकी उम्मीदें
जिसे अब एक घर से ही सम्भव होना था
कितना ताक़तवर था यह ‘पहुँचना’ कि
एक पथियाई पथरीली ज़मीन पर कभी सायकिल से तो कभी पैदल चलते
ठण्डे पानी की तरह बह रहा था उनके भीतर
जिससे लौटने से अधिक पहुँच पाना सम्भव हो रहा था
घर लौटने से अधिक पहुँचने के लिए होता है
यह तब पता चला जब वे तप्त सड़कों पर
सन्तप्त भाव से लौट रहे थे
और अपनी पुरानी स्मृतियों को सहलाते
नंगे पाँव उस सड़क पर दौड़ रहे थे
जिससे कभी वे गए थे ।
जाना नहीं रही अब एक ख़तरनाक क्रिया
नई सदी में लौटने की यह क्रिया
जाने से कहीं अधिक ख़ौफ़नाक है !
बच्चा
सड़क पर अटैची है
और अटैची पर अटा पड़ा एक बच्चा
जो पहियों के बल सरक रहा है
बच्चा डोरी से बन्धा है
जिसे माँ एक टाँग से खींच रही है
अपनी दूसरी टाँग से सड़क को नापती
बच्चा माँ की मदद कर रहा है
वह चुप्प है
कि ओह !
सब कुछ घुप्प है !
बच्चे की यह चुप्पी उसके खिलखिलाने की आवाज़ से ज़्यादा बड़ी है !
माँ को नहीं पता कि सामान ने बच्चे को पकड़ा है
या फिर बच्चे ने सामान को
वह बच्चे की नींद से भी अनजान है
जिसे जागते हुए कई दिन से खींच रही है
यह लगातार बड़ी होती जाती एक ख़बर है
कि जेठ की इस तपती दोपहरी में
सड़क के ठीक बीचो बीच एक बच्चा शान्त है
और माँ की गर्दन की तरह सड़क को
दोनों हाथ से जकड़ रखा है
सड़क लगातार चौड़ी होती जा रही है
और बच्चा है कि दूरियों से बेख़बर
अपनी पकड़ को मज़बूत बनाए हुए है !
आज का यह शान्त बच्चा
किसी भी अशान्त नागरिक से ज़्यादा मुखर है
जिसमें एक माँ लगातार बढ़ी जा रही है
बच्चा चला जा रहा है
और चली जा रही है यह माँ भी
जिसके साथ लटक गई है यह कविता
न तो माँ को पता है
न ही इस कविता को
कि इनको किस पते पर जाना है !
गुलमोहर
धूप खड़ी है
हवा स्तब्ध है
जेठ की धरती पपड़िया गई है
पगडण्डियाँ चिलचिला रही हैं
सड़क सुनसान है
और आदमी अपनी ही छाया में क़ैद है
एक ज़हर है
जिसमें पूरी बस्ती नीली हो गई है
बस, बचा है केवल गुलमोहर
जो अपने चटक लाल रंगों में
अभी भी खिलखिला रहा है !
केवल हरे बबूल !
इस निर्जन में सब कुछ ठहरा
बासी हैं सब फूल
सूख गई है मन की काया
केवल हरे बबूल !
कोइलिया जल्दी कूको ना !!
देखो कैसा चान्द उगा है
तन का शीतल तप्त हुआ है
गंगा निरमल कल-कल छवि में
घाट विहंसता जप्त हुआ है
इस उदास सी काया में अब
जीवन जग संशप्त हुआ है
कोइलिया जल्दी कूको ना !
श्रमिक चल पड़े आहें भरते
सूनीं सड़कें गुलज़ार हुईं
गिरते पड़ते पहुँचे घर फिर
हलचल गाँव में चार हुईं
थके पाँव हुलसित दौड़े जब
आँखें सब बेज़ार हुईं
कोइलिया जल्दी कूको ना !
घर की मलकिन देख रही है
‘वे’ आएँगे सोच रही है
चूल्हे पर अदहन डाल हठीली
बातें कुछ कुछ बोल रही है
हुलस उठी तब दौड़ पड़ी पर
भर उदास अब लौट रही है
कोइलिया जल्दी कूको ना !
गौरैया भी जगी हुई है
तिनका तिनका बीन रही है
सृजन राग से इस दुनिया में
जाग, भाग को साध रही है
हुआ सवेरा दौड़ी आई
मिला नहीं जो ढूँढ़ रही है !
कोइलिया जल्दी कूको ना !
उठी लहर आया एक झोंका
ज़हर हवा ले
कहर रही है
नहीं चहकते कुत्ते बिल्ली
‘जन’ ग़ायब क्यों
पूछ रही है
कोइलिया जल्दी कूको ना !
फुलसुंघी
फुलसुँघी घोंसला बना रही है
लटकी हुई लता पर
अपना पता लिख रही है
सदी के तमाम महावृतान्तों को सुनते-गुनते
कई तरह की हवाई घोषणाओं के बीच
वह निकल पड़ी है
फूलों से
रस चिचोड़ने
बाहर सब कुछ बिखर गया है
फिर भी वह तिनका-तिनका बीन रही है
जिससे उसे छाजन बनाना है
गुज़रते हुए वैशाख के बादल बहुत जल्दी में हैं
आन्धियों के बीच छुपे हुए वे
आकाश को अपनी लपलपाती हुई तलवार से चीरते हुए
धरती को बार बार कँपा रहे हैं
एक निर्वात सा फैला है जीवन चहुँओर
ज़िन्दगी अवसाद की मानिन्द खिलखिला रही है
जिसमें सूखी हुई पत्तियों के बीच
उसने डेरा डाल दिया है
अब वह घेर कर बैठ गई है अपने हिस्से का आकाश
जिसमें दौड़ेगा एक नया जीवन
सभी विभाजित सीमाओं को ध्वस्त करता हुआ !
रेत में आकृतियाँ
गंगापार
छाटपार
आकाश में सरकता सूरज
जिस समय गंगा के ठीक वक्ष पर चमक रहा था
बालू को बांधने की हरकत में
कलाकारों का अनंत आकाश
धरती पर उतरने की कोशिश कर रहा था
धरती
जिस पर आकाश से गिराये गये बमेां की गंूज थी
जहां अभी अभी सद्दाम को फांसी दी गयी थी
जहां निठारी कांड से निकलने वाले मासूम खून के धब्बे
अभी सूखे भी नहीं थे
काशी के कलाकारों ने अपनी आकृतियों में
एक रंग भरने की कोशिश की थी
लगभग नीला रंग
इस रंग में छाहीं से लेकर निठारी तक का ढंग था
अस्सी से लेकर मणिकर्णिका तक की चाल थी
सीवर से लेकर सीवन तक का प्रवाह था
मेढक से लेकर मगरमच्छ तक की आवाजाही थी
यहां रेत में उभरी आकृतियों के बीच
हर कोई ढूंढ रहा था अपनी आकृति
और हर कोई भागता था अपनी ही आकृति से
यहां सब था
और सबके वावजूद बहुत कुछ ऐसा था
जो वहां नहीं था
जिसे कलाकारों की आंखों में देखा जा सकता था
आंखें जो नदी के तल जैसी गहरी और उदास थी
जिसमें गंगोत्री से लेकर गंगासागर तक का विस्तार था
जहां स्वर्ग की इच्छा से अधिक नरक की मर्यादा थी
यह मकर संक्राति के विल्कुल पास का समय था
जहां यह पार उदास था
तो वह पार गुलजार
इस पार सन्नाटा था
उस पार शोर
आज इस सन्नाटे में एक संवाद था
लगभग मद्धिम कूचियों में सरकता हुआ संवाद
जिसमें बार बार विश्वास हो रहा था
कि जब कभी उदासी के गहन अंधकार के बाहर निकलने की बात उठेगी
जो कि उठेगी ही
बहुत याद आयेंगे ये कलाकार
काशी कैनवस के ये कलाकार
गंगापार
छाटपार ।
बनारस में प्रत्येक वर्ष 19 जनवरी को गंगापार के इलाके में मूर्तिकार मदनलाल के संयोजन में अपने गुरू मूर्तिकार राम छाटपार की स्मृति में युवा कलाकारों द्वारा रेत में आकृतियों का निर्माण किया जाता है ।
रचनाकार : अक्टूबर 2007
रेत में सुबह
सुबह बेला
एक मुटठी रेत में उठता हुआ वह
एक तिनका
चमक उठता है चांदनी सदृश
एक बूंद ओस के साथ
सुदूर घिसटती हुई टेन की आवाज़
कुहरे को ठेलती हुई
छिक-छिक करती
स्वप्न कुछ साकी जैसे इधर-उधर विखरे
अलसाती नदी उठ रही है
तट सुहाने छोड़कर
एक मुटठी रेत
चहुँ ओर वात प्रसरित
खेत हैं बस खेत
कूचियाँ ये भर रही कुछ रंग
सूर्य है कि सिर नवाता
पाँव छूता
दे रहा है रेत को कुछ अंग
लोग हैं कि आ रहे
रुक रहे
झुक रहे
देख इनके ढंग !
रचनाकाल : 29.01.2008
रेत में दोपहर
रेत धीरे-धीरे गरम हो रही है
कूचियाँ धीरे-धीरे नरम हो रही है
तन चारों ओर से तप रहा है
मन है कि बार बार तपती रेत में भुंज रहा है
रेत व मन के बीच
उम्मीद का तनाव है
बार-बार भूजे जाने के बावजूद
मन भीतर रहने को बेताब है
मन के भीतर आकृतियाँ उभर रही हैं
सतह धीरे-धीरे हल्की हो रही है
और अनंत प्रकार की आकृतियाँ उठती चली आ रही हैं
यह रेत का रेत में विस्तार है
नदी भाप बनकर उठ रही है
औेर रेत को अनंत आकृतियों में छोप लेती हे
यह दोपहर की रेत है
जहां रेत अपनी पूरी मादकता के साथ
शिशिर से खेल रही है
और जो पसीने की बंदें गिरती हैं रेत में
ख़ुद ब ख़ुद एक आकृति उभर आती हैं
यह कलाकार के पसीने की आकृतियाँ हैं
जिसमें रेत ने अपने को खुला छोड़ रखा है
लगभग निर्वस्त्र होने की हद तक
यह रेत का आमंत्रण नहीं है
यह कूचियों का खेलना है
और रेत है कि अपनी असीम आनंद के साथ लेटी है
उत्साही कलाकारों की थाप तले !
दोपहर की चढ़ती धूप तले
जहाँ देह थोड़ी हाँफने लगी है
और नेह के नाते डगमगाने लगे हैं
ये कलाकार हैं जो पिता की भूमिका में
नन्हें-नन्हें हाथों को
थोड़ी-थेाड़ी काया दे रहे हैं
और थेाड़ी-थोड़ी छाया भी !
रचनाकाल : 19.01.2008
रेत में शाम
चल पड़ी नाव
धीरे-धीरे फिर संध्या आई
नदी नाव संयोग हुआ अब
मन में बालू की आकृतियाँ छाई
टूटा तारा
टूटी लहरें
टूटा बाट बटोही
टूट-टूट कर आगे बढ़ता
पीछे छूटा गति का टोही
चांद निराला
मुँह चमकाता
चमका-चमका कर मुँह बिचकाता
बचा हुआ जो कुछ कण था
आगे पीछे बहुत छकाता
आया तट
अब लगी नाव
लहरें हो गयी थेाड़ी शीतल
मन का मानिक एक हिराना
लहरों पर होती पल
हलचल!
रचनाकाल : 29.02.2008
ऐ बादल!
उतरो, उतरो, ऐ बादल!
जैसे उतरता है माँ के सीने में दूध
बच्चे के ठुनकने के साथ
हवाओं में सुगंध बिखेरो
पत्तों को हरियाली दो
धरती को भारीपन
कविता को गीत दो
ऐ आषाढ़ के बादल!
बीज को वृक्ष दो
वृक्षों को फूल दो
फूल को फल दो
बहुत उमस है
मेढ़क को स्वर दो
पखियारी को उडा़न दो
जुगनू को अंधेरा!
जल्दी करो, मेरे यार!
भूने जाते चने की तरह
फट रहे किसानों को
अपनी चमक से
थोड़ी गमक दो
और थोड़ा नमक भी ।
अर्ध्य
चांद निकल आया
यही तो कहा था
उस रात
जब माध की चौथ को तुम अर्ध्य दे रही थी
तुम्हारे लिये चांद का यह निकलना
पुतलियों में फँसी हवा का निकलना था
जहाँ रोशनी थी
हरियाली थी
और एक ऐसी आर्द्रता थी
जो तुम्हारे प्रेम से भारी थी
और भरी हुई
निकला हुआ चांद
गाजीपुर की चांदनी से
मुझे बेपर्दा कर रहा था
और मै बनारस की बरसात में भींग रहा था
चांद आज हमारे लिये
उस चकवा की तरह है
जहाँ सिर्फ़ रात है
मुझे इस चंद्रमा के गुज़र जाने का इंतज़ार होगा
तुमसे व सिर्फ़ तुमसे
मिलने के लिये ।
मैत्री में मोर
विभाग की दीवार को फलांगता
मोर जब उसके मुड़ेर पर बैठा
तब हम कुछ मित्र
जिसमे बहुतों में आशीष, विनोद व रामाज्ञा भी थे
मैत्री जलपान गृ्ह में बैठे
एक तरफ चाय की चुसकियाँ ले रहे थे
दूसरी तरफ मोर को निहार रहे थे
मोर था कि सीढ़ी दर सीढ़ी हमारे सपने की तरह उछल रहा था
एक-एक कर वह हमारी नज़र से ऊपर उठता जा रहा था
और थोड़ी ही देर में स्थिति यह थी
की वह छत पर था
और हम सभी जन
अपनी तनी गरदन के साथ
उसके पीछे हो लिए थे
जैसे हम मोर थे
मोर एक राष्ट्रीय पक्षी है
यह करीब-करीब कौतूहल से बात उठी
फिर बात इस बात पर आ गई
कि इसमें राष्ट्रीयता कहाँ पर है
और स्थिति यह थी कि इस बात को आगे बढ़ते
इतना वक़्त बीत गया
कि बात इस बात पर टिक गई
कि इस राष्ट्रीयता का रंग
आखिरकार नीला क्यों है !
कुछ मित्र इस नीले रंग की व्याख्या काशी की परम्परा से कर रहे थे
तो कुछ हिन्दी विभाग की परम्परा से
कुछ का कहना था कि नीला रंग हमारी अस्मिता का प्रतीक है
कुछ इस बात पर अड़े थे हर महान चीज़ों का रंग नीला होता है
मसलन यह कि कृष्ण नीले थे
राम नीले थे
बुद्ध ओैर गांधी तो थे ही्
कुछ के पास तो यहाँ तक तर्क था
कि स्वयं काशी का रंग नीला है
गंगा व गणेश का तो यूँ ही नीला है
धीरे-धीरे मोर हमारी बहस से गायब होता गया
और एक दिन अचानक जब हम वहीं चार जन
विभाग के अंदर घुसे
तो वही मोर विभाग की कुर्सी पर औंधा पड़ा था
अपनी सम्पूर्ण परम्परा को अपने डैनों में समेटे
यह एक जून के आखिरी दिनों का आखिरी वक़्त था
जो हमारी आखिरी नज़र से आखिरी बार गुज़रा था
जिसमें कुर्सी की आखिरी बेचैनी थी
और विभाग से सटा आखिरी पेड़
अपने सभी आखिरी संतापों के साथ आखिरी बार फड़फड़ा रहा था !
दुपट्टा
दुपट्टा लहरा रहा है शानदार
हवा चल रही है तेज़
बादल बरसने को हैं
मौसम रहा है लगातार बदल
तय करना कठिन है
दुपट्टा क्यों लहरा रहा है
अंग क्यों भीगे हैं
उभार क्यों नही है
रंग क्यों गायब है
सवाल करती है युवती!
क्यों नहीं किसी को याद आते
कालिदास
या फिर उनकी शकुंतला
रंग यहाँ भी दिखता है
क्यों
केसरिया या फिर भगवा !
अफ़ीमची
गाजीपुर की अफीम फैक्टरी के नसेड़ी बंदरों को देखकर
वे अफीमची हैं
दुनिया की सबसे बड़ी फैक्टरी के सबसे छोटे उत्पाद!
उनके पास भी सपने हैं
उनकी अपनी तराजू भी है
लेकिन उनके पास ताक़त नहीं है
वे इस शहर के बीचो-बीच
अपनी ठहरी हुई सुर्ख आँखों से
लोगों को निहारते रहते हैं
उनका अपना इतिहास इतिहास के बाहर है
उनका अपना भूगोल भूगोल से अलग है
उनका अपना जीवन जीवन से दूर है
उन्होंने जितनी बार जीवन में आने की कोशिश की है
उन्हें मौन कर दिया गया है
वे इस दुनियाँ के पूर्वज हैं
जो ऊपर से बंदर दिखते हैं नीचे से आदमी
अपनी ताकत से वे
जार्ज बुश से लेकर बाजपेयी तक को हिला सकते हैं
ऊसर में गुलाब खिला सकते हैं
और रेत में पानी
वे अपनी दुनिया के बादशाह हैं
जिनकी आँखों में एक बूंद पानी भी नहीं है
हालाँकि अपनी नज़रों से वे समुद्र थाह सकते हैं
वे अफीमची हैं
इस सचल दुनिया के एक मात्र अचल प्राणी !
घुरफेकन लोहार
अपने कंघे पर टँगारी को लादे जाता घुरफेकन लोहार
हमारे लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण नागरिक है
जब वह चलता हैं
हमारे लोकतंत्र का सबसे सजग पात्र चल रहा होता है
जिसकी टाँगो व टंगो में अदभुत लोच है
उसकी टंगारी से आती आवाज़
हमारे लोकतंत्र से आती आाखिरी आवाज़ है
जिसे सिर्फ़ वह जानता है
कितनी रातों से लादा है उसने इस टंगारी को
कितनी शामें गज़ारी हैं इसके नीचे
कितने जंगल में कितनी बार
इसने बसाई हैं बस्तियाँ
यह और सिर्फ़ यह घुरफेकन जानता है
यह खटिया के चूर का हिस्सा है
घर की थूनी व थम्भा है
लगातार खुलते व बंद होते दरवाज़े का चौखठ है
जब कभी इस चौखठ में घुन लगता है
धुरफेकन हो जाता है उदास
टँगारी से उठती है एक आवाज़
यह लोहे की नहीं
हड्डी की आवाज़ है
धूप
रूप रेत भर
धूप खेत भर
फैल गई है चादर ताने
तट पर
सूरज नभ पर
हाँफ रहा है आशा कर-कर
लौटेगी उसकी यह आभा
भर-भर रेत
नदी के तट पर
पर कैसे लौटेगी
छोड़ उम्र भर
अभी-अभी तो आई है
धूप कहाँ भेटी
रेती को
जी भर !
रचनाकाल : 10.03.2008
पाथेय
आओ
बैठो
साथ पिया
बालू के कण हैं अपने ही ।
नहीं यहाँ दुनिया का चक्कर
पलकों में पग धर आओ री
यह है रेत नदी बन भीतर
शीतलता सी उतरो री !
तट है सूना-सूना-सा
लहरों में अब उतराओ भी
जिन हलचल को अब तक बांधे
खोल उन्हें, इतराओ भी !
इतना उमड़ो इतना घुमड़ो
यह तट उभरे बन साक्षी ,जी
विरह का मारा जब भी गुज़रे
पाये पाथेय, संभाले जी !
रचनाकाल : 10.03.2008
रेत में कलाकार
बालू के कण कण साथ ले चलो उड़ जा हारिल की नाईं
सुबह हुई अब सपने छूटे उठ जा हरकारे की ठाईं।
ठोक पीटकर आकृति दे दो बांधो नदी नाव की खाईं
जग जीतो सब लहरें गिन लो कर लो तट को वश में साईं ।
तेरे हाथों में है ताकत बढ़ो सृजन पथ माथ न दो
तेरी मुटठी में दुनिया है बाधो हाथ विराम न दो ।
बालू गंगा का स्वरुप है गंगा क्या इतनी-सी, पर है
बालू बालू में प्रवाह को किसने धारा दी, जी भर है ।
लेाग रहेंगे आते-जाते तन भर तुझको देखेंगे
उठते-गिरते जो संभलेंगे मन भर तुमको भेटेंगें ।
इस या उस की बात नहीं है हर आकृति में तेरा बल है
जो दुनिया से चलकर जाता तेरी नज़रों की हलचल है ।
रचनाकाल : 12.03.2008
रेत झरझर
रेत झरझर बह रही है
नदी महमह कर रही है
धार पुलकित
धाह देती
फूटने को आकुल है
किया जो तनिक-सा स्पर्श
रोमछिद्र धधक रहे हैं
अंसख्य मूर्तियाँ उभर रही हैं
एक-एक शिलाखण्ड टूट रहे हैं
एक-एक कर प्रचलित आकृतियाँ भहरा रही हैं
और बंजर खण्डहर कुछ-कुछ बोलने लगते हैं
नई-नई आकृतियों के साथ
नदी रुक गई है
रुक नहीं बस झुक गई है
वाष्प बनकर उड़ रही है
अग्निज्वाल धधक रही है
रेत झरझर बह रही है ।
यह किसका कर स्पर्शर है कि धार उर्ध्वाधर है
क्षितिज टूट कर छिटक रही है
सब कुछ उभरने को बेताब है
यह किसकी लय है कि शमशान भी सुनसान है
कोई भी तट खाली नहीं है
किसी नाव में कोई जगह नहीं है
कुछ भी कही भी रुकने को तैयार नहीं है
यह किसका आलाप है कि मध्य को कोई महत्व नहीं देता
एक क्षण भी
एक कण भी रुकने को तैयार नहीं है
सब के सब दु्रत में चले जा रहे हैं ।
क्या कभी इतनी हलचल को पचा पाऊंगा
जेा पचा भी पाया तो क्या बचा भी पाऊंगा।
जो बचा भी पाया
तो कैसे बांध पाऊंगा।
आज के इस क्षण को
जिसमें हर कण कुछ कहने को बेताब है-
कूचियाँ ही कूचियाँ
बस आब हैं
आफ़ताब हैं !
रचनाकाल : 19.01.2008
अंधेरे में काशी
शाम के वक़्त लोग जब
अपने अपने अड्डों केा जाते हैं
काशी अपने अंधेरे में चली जाती है
काशी का अपने अंधेरे में जाना
अंधेरे में काशी का होना है
जहां जीवन की आहट मिलती है
और ज्ञानी अपना ज्ञान बघारता है
अंधेरे में काशी
उजाले के काशी से ज़्यादा खूबसूरत है
और मादक भी
यह अंधेरे में मचलती है
और मिचलती भी
जहाँ दर्द है और प्रसव भी
अंधेरे में काशी
अपलक निहारती रहती है ग्राहक
टिकठी की तरह तनी हुई
कभी यह अलसाई हुई खूबसूरत नायिका है
तो कभी हंकारती हुयी नागिन
और इन दोनों के बीच
उसका विस्तार वही महाशमशान होता है
जिसकी ज्योति कभी बुझने नही पाती
इसकी हर घाटों में थिरकन है
और थकान भी
करीब-करीब उस बूढे़ की तरह
जो हर शाम घर से नाराज़ होकर निकल जाता है
अपनी जवानी की खोज में
अंधेरे में यह शव है
उजाले में पाखंड
अंधेरे में काशी को समझना हो तो
गंगा के ठीक बीचो-बीच चले जाइये
काशी लगातार उभर रही होती है
सूरज लगातार डूब रहा होता है
काशी में चीज़ें अंधेरे में आती हैं
जैसे अंधेरे में आते हैं विचार
अंधेरे में आता है दूध
अंधेरे में आता है प्रेम
अंधेरे में काशी
एक तरफ से उठती है
तो दूसरी तरफ से सिकुड़ रही होती है
काशी का यह उठना और सिकुड़ना
काशी का अंधेरे में चलना है
एक ऐसे उजाले की तलाश में
जहाँ गैर अज़ निगाह कोई हाईल नही रहता ।
रचनाकाल : अक्टूबर 2007
हाज़ी अली
खुले आसमान में टंगे हुये लोगों के बीच
काशी की स्मृति पर ओठंघा हुआ मैं
अचानक जब जगा तब पाया कि एक मज़ार के सामने खड़ा हूँ
यह हाज़ी अली की मज़ार है
समुद्र के बीचो-बीच
समुद्र के किनारों को बचाती हुई
मुझे जानने की प्रबल इच्छा हुई
कौन थे हाज़ी अली
क्यों उन्हें कोई और जगह नसीब नहीं हई
उन्हें क्यों लगा कि उन्हें समुद्र के बीचो-बीच होना चाहिये
समुद्र के थपेड़ों को सहते हुए
कुछ ने कहा
हाज़ी अली सूफी संत थे
जो पंद्रहवीं शताब्दी में पैदा हुये थे
जिन्होंने अंग्रेज़ों के आगमन से बहुत पहले
समुद्र का चुनाव किया था
मुठ्ठी भर नमक बनकर सभ्यता में उड़ने के लिए
कुछ का कहना था हाज़ी अली ईश्वर के दूत थे
जिन्हें जब कहीं जगह नहीं मिली
तब उन्हें समुद्र ने जगह दी थी
कुछ इस बात पर अड़े थे
कि वे आधे हिन्दू थे आधे मुसलमान
आधे मनुष्य थे आधे इनसान
आधे शमशान थे आधे कब्रिस्तान
बात जो भी हो
हाज़ी अली थे
मुम्बई शहर के ठीक नीचे
काशी में अपने कबीर की तरह
जब कभी मुम्बई जाना
तो हाज़ी अली की मज़ार पर जरूर जाना
यह थके हारे मनुष्य के लिए
हमारी सभ्यता में सबसे बड़ा आश्वासन है
लगभग समुद्र की तरह ।
रचनाकाल : अक्टूबर 2007
मरे हुए लोग
मरे हए लोगों के इस शहर में
हर आदमी अपने पुर्नजन्म को लेकर परेशान है
मरे हुए लोग
मरे हुए लोगों में शामिल नहीं हैं
उन्हें अपने मरने से परहेज है
जबकि न जाने कितने पहले वे मर चुके हैं
मरे हुए लोगों के अपने झोले हैं
अपनी टंगारी और
अपनी तगाड़ी
सिर से पाँव तक उनके पास सूचनायें हैं
और वे खुद एक सूचना हैं
हमारे समय में डाकिये की तरह
कील जब कभी चुभती है
उनके चेहरों पर खिंचता है एक तनाव
उसे ढीला करने की वे करते हैं कोशिश
और थोड़ी देर बाद
खचिया भर मड़िया में उतराने लगते हैं
मरे हुए लोग
जीने की आशा लिए
लगातार मरते जा रहे हैं
अपनी सारी बरक्कत के बावजूद
इस पवित्र शहर में !
रचनाकाल : 12.01.2008
बाबो रेस्टूरेंट
बाबो रेस्टूरेंट !
यह कौन सी बला है पूछता है कासागर
जिसके वृद्ध पिता का अभी-अभी इंतकाल हुआ था
जो मिट्टी के खिलौने बेचने शहर आया था
शहर जिसे बनारस कहते हैं
बनारस जिसे लंका कहते हैं
लंका जिसे महाशमशान कहते हैं
इसी लंका पर अपने पिता के शवदाह के लिए
आया था कासागर कफ़न खरीदने
साथ में कुछ फूल और टिकठी भी
जो अभी तक पार्श्व में आजानयुग बहुमंज़िली इमारत को संभाल रखी थी
वह ढूंढ़ रहा था इन दोनों के बीच पड़ी हुई उस गुमटी को
जहाँ पर पिछली बार आया था चाय पीने
जब अपनी माँ को लेकर आया था
उसके पास शहर भर को बताने को यही एक दुकान थी
जो उम्मीदों पर भारी थी
जहाँ कोई भी बैठकर अपने आँसुओं को पोछ सकता था
और दूसरे के आँसुओं को निहार सकता था
गुमटी उस कासागर के सपनों की गुमटी थी
जिसमें कसोरों की चमक थी
जो गाँव से शहर आने वाले हर आदमी के लिए
जीवन का सबसे बड़ा आश्वासन थी
बाबो रेस्टूरेंट के ठीक सामने खड़ा वह कासागर
अपने पिता की टिकठी को संभाले
दुआओं में भुनभुनाता हुआ
एक लंबे समय से खड़ा है
गुमटी को खोजता हुआ ।
रचनाकाल : अक्टूबर 2007
बच्चा और ईश्वर
बाबू, चलो ना
बको मत, चलो ना
कहता है एक बच्चा
अपने पचास वर्षीय अधेड़ पिता की अंगुलियों को थामें
बच्चा बार-बार पिता को पुकार रहा था
बार-बार उसके सिर को उपर उठाने की कोशिश कर रहा था
लेकिन सिर था कि सिरा ही गायब था
रंग में भंग ही भंग था !
यह होली के ठीक पहले की शाम थी
लंका के रविदास गेट पर चहल-पहल थी
दुकानों में बाज़ार की आवाज़ाही थी
दुनिया जब गर्मे सफ़र पर जा रही थी
लाउडस्पीकरों की भीड़ से ईश्वर थोड़ा दूर खिसक गया था
भीड़ में वही पर अकेले
बच्चा अपने ईश्वर को पुकार रहा था
यह एक अजीब हालत थी
बच्चा भीड़ को पुकार रहा था
भीड़ ईश्वर को
और पुकार की हर कोशिश में ईश्वर
अपनी नज़र की कोर से
थोड़ा मुस्कुरा देता था ।
रचनाकाल : 12.02.2008
एक जोड़ा दुख
दुख अकेले का नहीं होता
सकेले का होता है
और जहाँ ऐसा होता है
वहां दुख एक नहीं
एक जोड़ा होता है
दुख की तलाश में निकले हए, कवि जी
तुम्हारे दिल में जो फफक है
और दिमाक में भभक
जरा उसे खुरच कर तो देखो
क्या उसके नीचे कुछ ऐसा भी है
जिसे तुम ऊपर से देख सकते हो
क्या वहाँ कुछ ऐसा है
जहाँ तुम देर तक टिक सकते हो
जहाँ तुम्हारे सपनों की ऊँचाई
तुम्हारे अपनों से ज़्यादा की नहीं होगी
क्या तुमने फुनगियों में कभी बीज के दर्द को महसूस किया है
क्या कभी याद आये हैं उपवन के बीच खिले हुए फूल में
उस माली के हाथों के नाखून
जिनमें न जाने कितनी मिटटी भरकर वह अपनी ही नसों को पाट रहा होता है
क्या तुमने कभी सूखते चाम के भीतर के मनुष्य को सिसकते हुये देखा है
क्या तुमने कभी बसंत की मादक हवाओं में
लहराते सरसों के फूलों में
प्रेमगंध से अधिक
उस मानुषगंध को महसूस किया है
जिसमें श्रमजलस्नात युवतियाँ छोड़ आई हैं
अपने अपने दुख
यदि ऐसा नहीं है
तो कवि जी, दुख तलाशने का कोई कारण नहीं है
क्योंकि दुख
सतह पर तैरता हुआ दुख नहीं होता
वह नयन कोरकों में ठिठके हुए उन बुलबुलों में होता है
जिसमें तन की हरियाली से ज्यादा
मन के दरकने का दर्द होता है।
रचनाकाल : 02.03.2008
किसान
न उसका कोई रूप है
न उसकी कोई जाति
न उसका कोई घर है
न उसकी कोई पाति
आकाश उसकी छत है
मौसम उसका आभूषण
हत्या उसका बचपन है
आत्महत्या उसकी जवानी
जिसे आप बुढ़ापा कहते हैं
वह है उसकी आज़ादी
जिसे ढहने के पहले
उसने सुरक्षित कर लिया है
धरती के नीचे
अपने रकबे में।
रचनाकाल : 12.01.2008