अब्र ने चाँद की हिफ़ाजत की
अब्र ने चाँद की हिफ़ाजत की
चाँद ने खुद भी खूब हिम्मत की
आज दरिया बहुत उदास लगा
एक कतरे ने फिर बग़ावत की
वो परिंदा हवा को छेड़ गया
उसने क्या खूब ये हिमाक़त की
वक़्त मुंसिफ़ है फ़ैसला देगा
अब जरूरत भी क्या अदालत की
धूप का दम निकल गया आख़िर
छांव होने लगी है शिद्दत की
दिन,कई दिन छिपा रहा जैसे
दिन,कई दिन छिपा रहा जैसे
कोई उसको सता रहा जैसे
ेसुब्ह, सूरज को नींद आने लगी
अब्र चादर उढ़ा रहा जैसे
एक आहट सी लग रही मुझको
कोई पीछे से आ रहा जैसे
हम मुसाफ़िर हैं एक जंगल में
खौफ़ रस्ता दिखा रहा जैसे
उलझा-उलझा सा एक चेहरा ही
सौ फ़साने सुना रहा जैसे
बढ़ गया आगे काफ़िला मेरा
मुझको माज़ी बुला रहा जैसे
ख्वाहिशें बेहिसाब होने दो
ख्वाहिशें बेहिसाब होने दो
ज़िन्दगी को सराब होने दो
उलझे रहने दो कुछ सवाल,उन्हें
ख़ुद ब ख़ुद ही जवाब होने दो
तुम रहो दरिया की रवानी तक
मेरी हस्ती हुबाब होने दो
जागना खुद ही सीख जाओगे
अपनी आँखों में ख़्वाब होने दो
हार का लुत्फ़ भी उठा लेंगे
इक दफ़ा कामयाब होने दो
मुद्दतों रूबरू हुए ही नहीं
मुद्दतों रूबरू हुए ही नहीं
हम इत्तेफाक़ से मिले ही नहीं
चाहने वाले हैं सभी उनके
वो सभी के हैं बस मेरे ही नहीं
दरमियाँ होता है जहाँ सारा
हम अकेले कभी मिले ही नहीं
वो बहाने से जा भी सकता है
हम इसी डर से रूठते ही नहीं
सादगी से कहा जो सच मैंने
वो मेरे सच को मानते ही नहीं
मज़ा भी ज़िन्दगी का ख़ूब आया
मज़ा भी ज़िन्दगी का ख़ूब आया
हमें हंसना – हंसाना ख़ूब आया
हमारी दस्तरस में था कहाँ वो
मगर जब हाथ आया ख़ूब आया
हक़ीक़त तो मेरी सहरा है लेकिन
मेरे हिस्से में दरिया ख़ूब आया
बचा रक्खे थे हमने गम के आँसू
हमें खुशियों में रोना ख़ूब आया
गुमाँ में चूर है दरिया का पानी
किनारे पर जो प्यासा ख़ूब आया
पहले तो ख़ुद की जान, को सोचा
पहले तो ख़ुद की जान, को सोचा
बाद उसके जहान को सोचा
ज़िन्दगी भर ज़मीन का खाये
मरने तक आसमान को सोचा
तीर सारे निकल गए आख़िर
कब किसी ने कमान को सोचा
तंग बेरोज़गारी से आकर
आख़िरश अब दुकान को सोचा
आज शालीन पेश आया वो
हमने उसके गुमान को सोचा
वो ज़मींदोज़ हो गया तब से
जब से हमने उड़ान को सोचा
हमारी बात उन्हें इतनी नागवार लगी
हमारी बात उन्हें इतनी नागवार लगी
गुलों की बात छिड़ी और उनको ख़ार लगी
बहुत संभाल के हमने रखे थे पाँव मगर
जहां थे ज़ख्म वहीं चोट बार-बार लगी
कदम कदम पे हिदायत मिली सफ़र में हमें
कदम कदम पे हमें ज़िंदगी उधार लगी
नहीं थी क़द्र कभी मेरी हसरतों की उसे
ये और बात कि अब वो भी बेक़रार लगी
मदद का हाथ नहीं एक भी बढ़ा था मगर
अजीब दौर कि बस भीड़ बेशुमार लगी
ऐब औरों में गिन रहा है वो
ऐब औरों में गिन रहा है वो
उसको लगता है की ख़ुदा है वो
मेरी तदवीर को किनारे रख
मेरी तक़दीर लिख रहा है वो
मैंने माँगा था उससे हक़ अपना
बस इसी बात पर खफ़ा है वो
पत्थरों के शहर में ज़िन्दा है
लोग कहते हैं आइना है वो
उसकी वो ख़ामोशी बताती है
मेरे दुश्मन से जा मिला है वो
खुले आसमां का पता चाहते हैं
खुले आसमां का पता चाहते हैं
परिन्दे हैं हम और क्या चाहते हैं
उड़ेंगे हवा में ख़ुदी के परों से
उड़ानों में सारी फ़ज़ा चाहते हैं
बहुत रह चुके क़ैद में हम परिन्दे
असीरी* से अब हम रिहा चाहते हैं
कहो कितना कुचलोगे गैरत हमारी
जुनूँ की हदों तक अना चाहते हैं
गुनहगार ही मुंसिफ़ी कर रहा हो
वहां क्या बताएं कि क्या चाहते हैं
मन मेरा उलझनों में रहता है
मन मेरा उलझनों में रहता है
और वो महफ़िलों में रहता है
आग मज़हब की जिसने फैलाई
खुद तो वो काफ़िरों में रहता है
इश्क़ में था किसी ज़माने में
आज वो पागलों में रहता है
बीच लहरों में जो मज़ा साहिब
वो कहाँ साहिलों में रहता है
खौफ़ शायद किसी का है उसको
आजकल काफिलों में रहता है
बदगुमाँ आज सारी महफ़िल है
बदगुमाँ आज सारी महफ़िल है
जाने किस राह किसकी मंज़िल है
हाले -दिल हम बयां करें कैसे
शहर का मसअला मुक़ाबिल है
उम्र बीती है मेरी सहरा में
दूर तक दरिया है न साहिल है
वो मेरी ग़ज़लों का ही है हिस्सा
वो कहाँ जिन्दगी में शामिल है
दिल मेरी एक भी नहीं सुनता
कैसा गुस्ताख़ ये मेरा दिल है
इंसानियत का पता मांगता है
इंसानियत का पता मांगता है
नादान है वो ये क्या मांगता है
वो बेअदब है या मैं बेअसर हूँ
मुझसे वो मेरी अना मांगता है
हद हो गई है हिक़ारत कि अब वो
रब से दुआ में फ़ना मांगता है
बरक़त खुदाया मेरे घर भी कर दे
बच्चा खिलौना नया मांगता है
किस्मत में मेरे नहीं था वो लेकिन
दिल है कि फिर भी दुआ मांगता
वो मेरी रूह मसल देता है
वो मेरी रूह मसल देता है
साँस भी लूँ तो दख़ल देता है
इससे पहले कि मैं कुछ कह पाऊँ
ख़ुद के अल्फाज़ बदल देता है
मैं तो देती हूँ दुआएं उसको
एक वो है कि अज़ल देता है
उसको मालूम नहीं ग़म में भी
वो मुझे रोज़ ग़ज़ल देता है
जो चाहें हम वही पाया नहीं करते
जो चाहें हम वही पाया नहीं करते
खुदाया फिर भी हम शिकवा नहीं करते
विदा के वक़्त वो मिलने का इक वादा
उसी वादे पे हम क्या -क्या नहीं करते
ज़माने की नज़र में आ गए हैं वो
अकेले हम उन्हें देखा नहीं करते
सितमगर पूछता है, मुझसे हालेदिल
ज़हर में यों दवा घोला नहीं करते
इशारों को समझना भी जरुरी है
किसी से बारहा पूछा नहीं करते
उन्हें है इश्क हमसे जाने फिर भी क्यों
ये लगता है हमें गोया नहीं करते
मुझको शाइर समझने लगते हैं
मुझको शाइर समझने लगते हैं
हाँ बज़ाहिर समझने लगते हैं
इतना ज्यादा है मेरा सादापन
लोग शातिर समझने लगते हैं
थोड़ी सी दिल में क्या जगह मांगी
वो मुहाज़िर समझने लगते हैं
हम सुनाते हैं अपनी ताबीरें
आप शाइर समझने लगते हैं
इक जरा से किसी क़सीदे पर
ख़ुद को माहिर समझने लगते हैं
जो समझने में उम्र गुज़री है
उसको फिर-फिर समझने लगते हैं
ज़िन्दगी का जमाल देखा भी
ज़िन्दगी का जमाल देखा भी
मौत का मर्म ख़ूब समझा भी
बचपना तो अभी गया भी न था
जाने कब आ गया बुढ़ापा भी
जब तलक ज़िन्दगी समझते हम
मौत का आ गया बुलावा भी
शब्द कुछ रह गए ज़हन में ही
कुछ को औराक़ पर उतारा भी
उम्र सस्ते में खर्च कर डाली
हाथ आया नहीं ख़सारा भी
जमाल – खूबसूरती
औराक़ – पृष्ठ
ख़सारा – हानि
बेकली मेरे दिल की मिटा दीजिए
बेकली मेरे दिल की मिटा दीजिए
ऐ मेरे चाराग़र कुछ दवा दीजिए
नींद आई थी जब एक अरसा हुआ
उम्र भर के लिए अब सुला दीजिए
बस तिज़ारत जहाँ पर नसीबों की हो
इक वहीं से मुक़द्दर दिला दीजिए
कुछ तो जज़्बात मेरे समझिए ज़रा
कुछ तो मेरी वफ़ा का सिला दीजिए
चाँद तारे ख़्वाब में आते नहीं
चाँद तारे ख़्वाब में आते नहीं
हम भी छत पर रात में जाते नहीं
वो जमाना था कि बातें थीं गुज़र
आज हम भी वैसे बतियाते नहीं
वो पुरानी धुन अभी तक याद है
पर हुआ है यों कि अब गाते नहीं
ढूंढ़ते हैं मिल भी जाता है मगर
चाहिए जो बस वही पाते नहीं
जाने क्या मंज़र दिखाया आपने
अब नज़ारे कोई बहलाते नहीं
मुझे बेज़ान सा पुतला बनाना चाहता है
मुझे बेज़ान सा पुतला बनाना चाहता है
किसी शोकेस में रखकर सजाना चाहता है
क़तर डाले मेरे जब हौसलों के पंख उसने
बुलंदी आसमां की अब दिखाना चाहता है
मेरे जज़्बात सब उसको खिलौने जान पड़ते
जिन्हे वो ख़ुद की चाबी से चलाना चाहता है
दीवारें चार मेरी हो गईं हैं क़ब्रगाहें
मुझे ज़िंदा ही वो मुर्दा बनाना चाहता है
इक मुलाक़ात मुख़्तसर होगी
इक मुलाक़ात मुख़्तसर होगी
हाँ मगर रूह तक खबर होगी
हम ही हम होंगे उन नज़ारों में
आपकी जिस तरफ नज़र होगी
रात को यों ही बीत जाने दो
ख़्वाब देखेंगे जब सहर होगी
कुछ दिनों से तलाश में हैं हम
ढूंढते हैं ख़ुशी किधर होगी
मिन्नतें जो अधूरी रहती हैं
उन दुआओं में कुछ कसर होगी
आज भी रखते हैं खबर उसकी
जानते हैं वो बेख़बर होगी
ज़िन्दगी आ तुझे जी भर जी लूँ
तू कहाँ साथ उम्र भर होगी