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सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना की रचनाएँ

चीटियाँ

वे जब तक संतुष्ट रहीं
मरे पड़े कीड़े-मकोड़े खाकर
हम इठलाते रहे अपनी बुद्धि पर
धीरे – धीरे उनकी नज़रें ललचाईं
वे बढ़ने लगीं चीनी के दानों
और स्वादिष्ट मिष्ठान्नों की ओर
यह गुस्ताखी हम सहन न कर पाए
क्योंकि हमारी धमनियों में
बड़ी तेज रफ़्तार से दौड़ रहा था
चटकदार सामंती लहू
हमने काट डाली कुछ की ज़बानें
कुछ के सूक्ष्म पाँव
और कई को ज़िंदा जला डाला
बाक़ी इस तरह डरीं–सहमीं
कि सदियों तक बेज़बान रहीं

पर आजकल तो ग़जब हो रहा है
उन्हें भी मिलने लगी हैं
हम जैसे स्थापित मानवों जैसी बुद्धि
उन पर साक्षरता कार्यक्रम
शायद असर कर गए हैं
इसलिए हो रही हैं राजनीति में भी माहिर
उनकी कतारबद्ध सेना बना रही है
चक्रव्यूह हर ओर
रसोई के डिब्बों में
खाने की मेज पर
हमारी आलीशान दीवारों पर
बिस्तर के सिरहाने
यहाँ तक कि हमारे कपड़ों पर भी

सुना है हिसाब लेने आ रही हैं
अब तक हमारे पैरों तले रौंदे गए
अपने अनगिनत साथियों का
वे भूल रही हैं हमारा गुलीवरपन
और यह भी कि –
हमारे हाथ आजीवन लंबे रहे हैं
कानून के लंबे हाथों से भी
हम अट्टहास कर रहे हैं
अगले ही पल हमारी गुलीवरी उंगलियाँ
मसल दे रही हैं उन्हें पहले की तरह
उनकी सेना हताश हो
तितर-बितर कर भाग रही है
हम बहुत प्रसन्न हो रहे हैं
यह देखकर कि
हमारी नाक उतनी ही ऊँची है अब भी
जितनी दीवार पर लगी
तैलचित्रों में हमारे पूर्वजों की

परंतु सावधान!
गुलीवर हमेशा विशालतम नहीं होता
और चीटियाँ हमेशा पिद्दियाँ नहीं
उनकी धमनियों का लहू भी
अब रफ़्तार पकड़ने लगा है
इसलिए चलने लगी हैं सिर उठाकर
नहीं जाने देंगी अब और
अपने हिस्से की मिठाइयाँ
करेंगी हमला मदमस्त हाथियों पर
हम कर भी नहीं पाएँगे
अपने किए पर
थोड़ा-सा पश्चाताप!

दृष्टिभ्रम

उसे दिखता है सूरज
सिर्फ़ आग का एक गोला
जो उसके अधनंगे तन को
झुलसा देने के बाद
बढ़ता चला आ रहा है
आधी उघडी झोपड़ी झुलसाने

उसे चाँद में नज़र नहीं आती
शायरों, कवियों और प्रेमियों की तरह
किसी नायिका की भोली-भाली सूरत
उसे तो दिखता है चाँद
एक अधजली रोटी
जो अगर हाथ आ जाए
थोड़ी शांत हो जाएगी जठराग्नि
और कट जाएगी कम से कम एक रात
चैन की नींद के साथ

वह पागल कत्तई नहीं
जो सोचने लगा है आज
सूरज और चाँद के
अहसानों से बेफ़िक्र ऐसी ऊल-जलूल बातें
वह तो दृष्टिभ्रम का
ख़तरनाक मरीज बन गया है
कल ही वह भला-चंगागया था
इलाक़े के बड़े साहब को
अपनी फरियाद सुनाने
पर उसे नज़र आया था नग्न यमराज
वह सिर पर पाँव रखे
भाग खड़ा हुआ था
टूटी खाट पर पड़ा
ज़ोर-ज़ोर से बड़बड़ाने लगा था
और इकट्ठे हुए पड़ोसी
उसे पागल समझने लगे थे
उसके दृष्टिभ्रम से बिल्कुल अनजान!

रफ़्तार 

वे बहुत तेज दौड़ते हैं
शायद ओलंपिक में भाग लेनेवाले
चुनिंदा धावकों से भी तेज
उन्हें पसंद नहीं
दौड़ने के बजाय
कछुए की चाल वाले
वे अपने ही लोग
जिनके अनुभवी हाथों में
अपनी नन्हीं उंगलियाँ डाले
सीखा था कभी चलना
और हाथों का सहारा छूटते ही
सब कुछ छूटने लगा था पीछे
बस एक नाम के सिवा

उनका मासूम बचपन
उस हवा की तेज रफ़्तार में
बह चला था
जो उनके श्वसन के लिए आयातित हुई थी
बड़े महंगे दामों में
आज वही स्वयं को विजेता बताकर
कछुओं की चाल पर मुस्कुराते हैं
निःश्वसन से मुक्त वायु से
तेज दौड़ का प्रदूषण फैलाते हैं

कछुए की मंथर चाल वाले भी
प्रसन्नता दिखला रहे हैं
उन्हें अब आयातित नहीं करनी पड़ेंगी
भावी पीढ़ियों के लिए
महंगे दामों वाली हवा
क्योंकि अब यह अपने देश में ही
काफी फल -फूल रही है
तेज धावकों के साथ-साथ
उपग्रहों का प्रोत्साहन पा रही है!.

बीमारी 

वे जो मरे
चींटे न थे
कीड़े न थे
मकोड़े न थे
मनुष्य थे पर
निर्धनता रेखा से नीचे के
इसलिए उन्हें भी
मान लीजिए
चींटा, कीड़ा या मकोड़ा

वे जो मरे
कभी बजाई थीं तालियाँ उन्होंने
हरित क्रांति के परिणाम पर
अनाजों की भरमार पर
जो बताई जाती थीं अक्सर
चुनावी प्रचार में

वे जो मरे
मरे भूख से
यह स्वीकार्य नहीं मालिक को
बताते हैं कि वे बीमार थे
भूखा कोई हो नहीं सकता
यहाँ बहुरंगे राशन कार्ड हैं

वे जो मरे
उनके पीछे रोने वाले जानते हैं
कि ग़रीबी तो सबसे बुरी बीमारी है
साथ ही वंशानुगत भी
साहब नहीं जानते तो क्या करें
लोगों को दाल-रोटी के बिना ही
प्रभु के गुण गाने की हिदायत है!

कल्पना चावला के प्रति 

तुम्हारी तरह ओ कल्पना
सपनीली आँखोंवाली
कई लड़कियाँ होती हैं
पर उनके हाथ
नही चूम पाते चाँद-सितारे
और कभी – कभी एक टुकड़ा ज़मीन भी

तुम्हारी तरह
कई लड़कियों का बचपन
चिड़ियों संग भरता है लंबी उड़ान
चारदीवारियों में पंख फड़फड़ाते
देखा करता है अक्सर
मेहंदी –चूड़ियों से इतर भी
ढेरों सतरंगे ख़्वाब

तुम्हारी तरह
कई लड़कियाँ चाहती हैं
स्टोव या गैस की आग में झुलसाने के बजाय
एक रोमांचकारी मौत
और उतारना
अपनी जननी और जन्मभूमि का
थोड़ा-सा कर्ज

तुम्हारी तरह कई लड़कियों को
याद दिलाए जाते हैं
उनके कर्त्तव्य और संस्कार
अट्ठारह -बीस की उम्र में करने को ब्याह
पर यहीं तुममें और उनमें आ जाता है फर्क
वे चाहकर भी नहीं तोड़ पातीं
जाति-धर्म और देश के बंधन

तुम्हारी तरह
अब सीख रही हैं लड़कियाँ
बेड़ियों को खोलना
अपने सपनों के अंतरिक्ष में रखना कदम
और विनम्र चेहरे पर
बरकरार रखना हमेशा
एक सहज मुस्कराहट

औरत की हँसी

वह औरत हँस रही थी
और मैं हैरान थी
क्योंकि पहली बार देखा था
किसी औरत का उस तरह खुलकर हँसना
जैसे हँसती हैं कलियाँ, चिड़िया और तितलियाँ
उसकी खुली हुई हँसी में शामिल थे
उसके इर्द-गिर्द के पेड़-पौधे, कुत्ता और गिलहरियाँ
साथ में एक बूढ़ी औरत,छोटे बच्चे और कुछ मर्द भी

शायद उस औरत को पता नहीं था
औरत के हँसने का मतलब
जो उसे जहन्नुम का रास्ता दिखाता है
उसने सुनी नहीं होगी
पांचाली की अनोखी कहानी
जिसकी उन्मुक्त हँसी
कठघरे में होती है खड़ी बार-बार
आज भी महाभारत रचने के जुर्म में

उसे यह भी मालूम नहीं रहा होगा
कि शहरों में जिन मर्दों को स्त्रियों की हँसी में
सतरंगे फूल खिलते नज़र आते हैं
उनके घर की औरतों की फूलों वाली कोख
रहती है सदा बाँझ
क्योंकि डर सताता है बार-बार
फूल छिटक कर जा न पाएं लक्ष्मण-रेखा के पार

मैंने सुन रखा था
दो तरह की औरतों को
खुलकर हँसने की औकात है
पर वह एलीट कत्तई न थी
उसके दाँतों की रजत-पंक्ति
उसके श्यामल-से मुख पर जगमगा रही थी
उसका हुलिया यही बता रहा था
वह किसी कबीले की नारी थी
जहाँ पहुँच नहीं पाई थी
कई दावों-प्रतिदावों के बावजूद
तथाकथित विकास की कोई प्रचार-गाड़ी
और इसलिए शहरी हवा,खाद-पानी

मेरे मस्तिष्क के कैमरे में
क़ैद हो गई है उस औरत की हँसी
कभी-कभी तन्हाई में छुपकर
मैं भी कर लेती हूँ खुलकर हँसने की कोशिश
और मेरी हँसी
बातें कर हवा से मीठी-मीठी
बन जाती है कबीलाई
आदिम प्रकृति की क़रीबी
महुआ-सी महकी-बहकी
चतुर्दिक फैली-पसरी
ढोल-नगाड़ों की गूँज पर
झुंड में इठलाती, नाचती-गाती
फिर थक कर है सो जाती
ऐसी सुकून भरी नींद
जो नहीं मिली थी कभी!

रोटियाँ

रोटियाँ बेलती औरत के
हाथ की लकीरें
उभर आती हैं लोइयों पर
और उसकी किस्मत
कैद हो जाती है रोटियों में

रोटी जैसी नर्म औरत
तप्त काली धरती पर सिंकती
करती अपना आकार ग्रहण
मीठी-स्वादिष्ट या करारी
जहाँ से चाहे तोड़ लो
मर्जी बस तुम्हारी

काले तवे पर घूमती
शून्य से चलकर शून्य तक
पहुँच जाती हैं अक्सर
रोटियाँ या औरतें खुलकर खुश नहीं हो सकतीं
उनका अधिक फूलना
देता उनको मौत का पैगाम

बनाते-बनाते रोटियाँ
जुड़ गया है रोटियों से
औरत का जनम-जनम का साथ
उसी में निहित है उनका कीमती इतिहास
भूगोल बेरंग
पढ़ने दो दिन-रात
उन्हें रोटियों की भाषा
खेलने दो रोटियों के झुनझुने से
औरतों को रचने दो
घर की कलात्मक दीवारें

उन्हें जो नहीं बनाते
कभी रोटियाँ
अच्छी लगती हैं सिर्फ़ गर्म रोटियाँ
ठंडी रोटियों पर चढ़ जाए न उनकी त्योरियाँ
इसलिए चूल्हे की आग में तपती हैं औरतें
फरमाइश पर निखरती हैं
उपजाती हैं मिट्टी की तरह
उन्नत फसलें
इंकार करेंगी तो
पकाई भी जा सकती हैं
तंदूरी रोटी की तरह
फिर भी
इंकार है जिन्हें
उनपर तालिबानी हुक्मरानों की नज़र है
किताबें बाँट रही हैं मलालाएँ
विद्रोहिणी सीताएँ कर रही हैं
पुरुषोत्तम से सवाल
रज़ियाएँ जानती हैं अपनी गद्दी हासिल करना
अहिल्याएँ पत्थर बनने को अब नहीं तैयार
माँग रही हैं सब के सब
पिछले चार हज़ार वर्षों का हिसाब
चीख रही हैं कई मौन होकर भी
रोटियों के अलावा भी
रचना है हमें
रोटियों से कहीं अधिक सुंदर संसार।

सौंदर्य परख

जब नहीं लिया जाता था
उनके संगमरमरी जिस्म का नाप
नहीं दी जाती थी
मधुर हँसी की क्लास
रटाए नहीं जाते थे तोतों को
बुद्धिमता के चुनिंदा सवाल-जवाब

जब नहीं देखते थे
बूढ़े-अधेड़ सौंदर्य पारखी
अपनी गिद्ध दृष्टियों से
चकाचौंध मंचों पर
उनकी बिल्लौरी चाल
और नहीं आते थे प्रायः अप्रत्याशित फ़ैसले
बाज़ार की श्रेष्ठता के
और सुंदरता की तौहीन के

तब मौसमोनुकूल वस्त्रों में लिपटी लड़कियाँ –
कुछ लंबी, कुछ छोटी
कुछ मोटी, कुछ पतली
कुछ गोरी, कुछ साँवली
अपनी नैसर्गिक हँसी हँसती हुई
कुछ खेतों –खलिहानों में
कुछ कस्बों-महानगरों में
रोज़मर्रा के कार्यों में
शरीर से पसीने की बूँदें टपकाती हुई
बिखरती हुई लटों को पीछे समेटती हुई
दिखती थीं अधिक सुंदर
इतनी सुंदर
कि उन्हें निहारने के लिए
चाँद भी बादलों की ओट में
झट छुप जाया करता था
चंचल मदमस्त झरनों की गति
धीमी हो जाती थी एकदम से
और प्रचंड सूरज भी कुछ पलों के लिए
निस्तेज हो जाता था खुद को भूलकर

हाँ, तब नहीं होती थी
गली–मुहल्लों, स्कूल–काॅलेज से लेकर
ब्रह्माण्ड के विशालतम मंच तक
उस सर्वश्रेष्ठ लड़की की तलाश
जो बढ़ा सकती है
किसी भी हद तक
उनका साम्राज्य
ज़मीन के हरेक टुकड़े
और दिलोदिमाग पर
बड़ी आसानी से!

तारीखें

कई बार
मैं भूल जाती हूँ तारीखें
पर याद रहते हैं दिन
तब तारीख का हिसाब
कैलेंडर देखकर लगाया जाता है
अचानक इतने दिन कैसे गुज़र गए
सोचकर मन झल्लाता है

तारीखों से वास्ता
पहली बार पड़ा था
नर्सरी क्लास में
जब सिखाया था टीचर ने
सी.डब्ल्यू .और एच.डब्ल्यू . के ठीक नीचे
तारीख डालना
तब से घूमता रहा जीवन
तारीखों के इर्द-गिर्द
जैसे पृथ्वी है घूमती
सूर्य के चारों ओर अनिवार्यतः

यूँ भी औरतों की ज़िंदगी में
तारीखों के मायने बहुत होते हैं
रखना होता है तारीख का हिसाब –
हर माह के उन तकलीफ़देह दिनों की तारीख
जब बढा दी जाती है उनकी और तकलीफ़ें
धर्म-कर्म के नाम पर
या संतान-प्राप्ति के सुख की ‘ एक्सपेक्टेड ’तारीख
जब होती है सन्तावन डेल * के असहनीय दर्द के ऊपर
ममत्व और प्यार की अनोखी जीत
इसके इतर बच्चे के टीकाकरण से लेकर
स्कूल के नामांकन और फीस भरने की तारीखें भी

पता नहीं कैसे याद रखती है मेरी बूढ़ी माँ
परिवार और देश-दुनिया की हर घटना की तारीख
बचपन में हम सब भाई-बहन
कहा करते थे हँस कर-
‘आपने काॅलेज में हिस्ट्री क्यों नहीं रखा माँ’
माँ हौले से मुस्कुरा देती थी
जैसे यह सब उनके बाएं हाथ का खेल था
पर मुझे यह सब जादू लगता था कोई

ओह, दरवाज़े की घंटी किसी ने है बजाई
लगता है दूधवाला आया है भाई
उसका भी करना है हिसाब
फिर करनी हैं कई तारीखें याद
आज बिजली का बिल जमा करने की भी है आखिरी तारीख

प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए
देश और दुनिया की कई तारीखें
रचनी होती थीं कभी तोता बनकर
पर आज नहीं रख पाती
जीवन की आपाधापी में
ज़रूरी घरेलू तारीखों को याद!

  • डेल-दर्द मापने की इकाई
  • कथनी-करनी

  • कविताओं में
    लिखती हूँ ख़ूब
    हक़ की बात
    औरत होने की पीड़ा से
    मुक्ति की ख़ातिर
    चिड़ियों की उड़ान देखते हुए
    सोचती हूँ उड़ जाऊँ
    पिंजड़े से फुर्र
    अपने अस्तित्व की ख़ातिर

    कविताओं से बाहर
    मेरी ज़िंदगी के फ़ैसले हैं
    दूसरों के हाथ
    और मेरी रगों में
    संस्कार ऑक्सीजन बन दौड़ रहा है
    कर नही पाती
    अपनी ही सांसें अपने नाम
    अपनों की खुशियों की ख़ातिर

    जानती हूँ
    आनेवाले समय में
    कोई लड़की बिल्कुल मुझ-सी
    लिख रही होगी कविता
    या जी रही होगी कविता
    उसे उसके फ़ैसले सौंप कर
    कर सकूंगी थोड़ा-सा पश्चाताप
    कविताओं में।

  • मौन क्यों हो पापा

  • (एक कन्या-भ्रूण का अपने पिता से संवाद )कल ही की तो बात है पापा
    जब आप रेडियो पर सुन रहे थे
    ‘सेल्फी विद डाॅटर्स’की बात
    मेरी प्यारी-सी मम्मा के साथ
    मैं भी सुन रही थी
    और सुनकर मीठे सपने देखने लगी थी
    कि जब मैं बाहर की दुनिया में आ जाऊँगी
    आप पहनाएंगे मुझे
    तितलियों वाला बूटेदार फ्राॅक
    और मुझे कहते हुए
    ‘स्माइल प्लीज माई डाॅटर’
    एक शानदार सेल्फी खीचेंगे
    इन्हीं ख़यालों में डूबी
    मैं इतराने लगी थी
    अंधेरे से उजाले की ओर
    टुकुर टुकुर ताकने की
    ख़ूब कोशिश करने लगी थी

    पता नहीं फिर क्या हुआ
    कल रात अचानक
    आप ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे
    और मम्मा रोने लगी थी
    सुबह होने तक
    होती रही बरसात
    उनके ज़ल्दी ज़ल्दी करवटें बदलने से
    मैं भी जागती रही पूरी रात

    कल ही की तो बात है पापा
    मैं सपने बुन रही थी
    और आज डरने लगी हूँ
    यह जगह
    अपना छोटा-सा घर तो नहीं लग रहा है
    कैंची और चाकू क्यों
    मम्मा की चूड़ियों के साथ
    रह रहकर खनखना रहे हैं
    आ रही है कैसी
    दवाओं की ये गंध
    और देखिए न पापा
    दस्ताने पहने हाथ
    मेरे सुंदर आश्रय की तरफ़
    तेजी से बढ़ रहे हैं
    जहाँ और कई महीने
    सांस लेनाथा
    मम्मा की
    धड़कनों के साथ
    अभी कुछ हफ़्ते पहले ही तो
    डाॅक्टर अंटी ने मम्मा को
    सावधानी बरतने
    और ख़ूब खाने-पीने की
    दी थी सलाह
    उस दिन बड़े प्यार से
    आपने भी तो सहलाया था मुझे
    उसी दिन तो जाना था
    पिता का दुलार
    मैंने पहली बार

    जैसे सबकुछ कल ही की तो बात है
    फिर क्यों आज मौन हैं पापा
    क्या अल्ट्रासाउंड वाली फोटो में
    मैं अच्छी नहीं दिखती
    या है कोई लाईलाज़ बीमारी मुझे
    रोक लीजिए न इन औज़ारों को
    वायदा करती हूँ
    कभी आप सबको तंग नहीं करूँगी
    पढ़ लिखकर आपका नाम
    मैं रौशन करूँगी

    पापा प्लीज़…
    मैं ज़िंदा रहना चाहती हूँ
    प्लीज़ …प्लीज़ ..प्लीज़….

    कचाक् !

    ओह पापा
    गुडबाय पापा!

  • .

    ओह, ये कामवालियाँ

  • दाई, बाई या कहो
    कामवालियाँ
    वो देखो आ रही हैं
    सुबह –सुबह
    अपने हाथों को भांजकर
    ज़ोर –ज़ोर से बतियाते
    अपनी अलग सी पहचान लिए
    अपनी कछुएवाली पीठ पर
    कई आकाश ढ़ोते हुए

    उन्हें देखते ही
    मेमसाहबों के चेहरे खिल जाते हैं
    इत्मीनान है
    चलो आ तो गईं हैं
    निपट जाएंगे
    झाड़ू-पोंछा-बर्तन
    और अलग से भी कुछ काम
    मक्खियों की भिनभिनाहट तो होगी पर
    रोज़ की तरह

    आते ही कामवालियाँ
    फटाक से
    घुस जाती हैं
    ‘पवित्र’ रसोईघर में
    बर्तनों पर छूट गए साबुन के दाग़ से
    डाँट भी खाती हैं
    कभी चुप रहती हैं
    कभी उबल पड़ती हैं
    चूल्हे पर चढ़ी चाय के साथ

    बरामदे से शुरू कर
    घर के आख़िरी कमरे तक
    पोंछा लगाती जाती हैं
    पर उन बड़े घरों के बाथरूम
    नहीं होते उनके लिए बने
    अघोषित पाबंदी-सी है
    इसलिए दबाए रखती हैं अपना पेट
    काम ख़त्म होने पर
    तलाशती हैं सुनसान जगह
    बाहर सड़क पर
    या घरों के पिछवाड़े
    सोचती हैं, “पता नहीं
    कितनी गंदगी चढ़ जाती है
    बदन पर अपने
    अभी-अभी तो महकाया था
    पूरे घर को हमने ही
    जैस्मीन वाले लाइज़ोल से ”

    कामवालियों के आदमी
    प्रायः होते हैं दारूबाज
    पी जाते हैं बोतलों में
    घरवाली के पसीने की पगार
    अक्सर दिखाती हैं वे
    ऊपर से ख़ूब सुखी दिखती

    अपने पिया की प्यारी मेमसाहबों से
    अपने शरीर उघाड़कर
    अपने ही ‘परमेश्वर’ से खाए गए
    चोट और घावों के निशान

    बेटी बीमार है
    बेटा लाचार है
    कहती हैं तो लगता है यही हमेशा
    कर रही हैं फिर से बहाना
    पर नहीं दिखाई पड़ता
    उनकी आँखों के नीचे
    उनके हिस्से का काला पहाड़
    जिसके नीचे रोज़ दबती जाती हैं वे
    चट्टानों के छोटे-बड़े टुकड़ों के संग
    टूटकर इधर-उधर बिखरती जाती हैं

    एक कामवाली आती थी दिल्ली में
    बेगुसराय की रहनेवाली
    सुबह साढ़े सात बजे
    दरवाज़ा खोलते ही
    उसके साथ
    उसकी चौड़ी हँसी भी
    दरवाज़े के अंदर दाखिल हो जाती थी
    उसके फटे होठों से चलकर
    मेरे उनींदे चेहरे पर
    खरगोशी छलांग लगा कूद जाती थी
    और फिर मेरे अभी-अभी खिले चेहरे से
    शिशु चिड़िया की ताज़ी उड़ान भर
    मेरे बच्चों के मुखमंडल पर
    धड़ाम से बैठ चिपक जाती थी
    दिनभर के लिए

    हालांकि उसके फटे होंठ
    सालों भर फटे दिखते थे
    फुर्सत में सुनाते थे अक्सर
    मेरे बहरे कानों को
    शायद अपनी अंतहीन पीड़ा
    कि बेटी भाग गई थी
    घर से दो साल पहले
    आज तक नहीं है
    उसकी कुछ ख़बर!

  • वो सोलह साल

  • (इरोम शर्मिला की रिहाई पर )तुम परिंदा थी, क़ैद में रही
    तुमने उजाले की तलाश की
    पर अंधेरे में अपने स्वर्णिम दिन काटे
    दमन था उन फिज़ाओं की निशानी
    जिसने लिख दी तुम्हारी यह कहानी
    चूड़ियों के ख़्वाबों को दरकिनार कर
    रचा किसी तपस्विनी-सा तुमने
    अपनी ज़िंदगी का महाकाव्य
    और कैसे चलती रही
    निरंतर शांत बग़ावत
    इक सफ़ेद कबूतर की
    निर्मम बहेलियों के घर में ही

    सोलह साल
    पूरे सोलह साल
    कम नहीं होते
    वो क्या जानें फैशन ढोने वाले
    जिन्हें आदत है शहादतों के बहाने
    चौराहों पर बनी आलीशान मूर्तियों को
    झूठे आँसुओं संग नकली माला पहनाने की

    हाँ,तुम सही हो
    क्योंकि अब भी तुम्हारे साथ हैं वे लोग
    जिन्हें बुत नहीं चाहिए
    ज़िंदा लड़ाके की दरकार है

    तुम मेहंदी रचा सफेद हाथों में
    लिखो चटक लाल रंग का नाम अपने प्रियतम का
    अपनी मांग सजाओ बचे हुए सितारों से
    तुम्हें भी हक़ है वैसे ही जीने का
    जैसे जीती आई हैं सबकी बेटियाँ
    गाँधी के साथ लक्ष्मीबाई भी बनो
    जो रोकेंगे
    समय उनके गालों पर जड़ेगा ज़ोरदार तमाचा

    तुम्हारे बाहर निकल आने के बाद भी
    बंद है क़ैद में अनगिनत यक्ष-प्रश्न
    तुम सुलझा सकती हो उन्हें अब बेहतर
    अपने कटे परों को फिर से लगाकर
    लाल हो आए आसमानों में सुराख़ कर

    बहुत लंबी है यात्रा
    ऐसे में निहायत ज़रूरी है थोड़ा विश्राम
    कुछ पागलों के फेंके गए पत्थरों की चोट से
    रिसने दो गरम लहू
    देखो,आगे तुम्हारी लंबी पहाड़ी नदी है
    उसके साथ कलकल बहना है
    पर समुद् से मिलने से पहले
    रास्ते के चट्टानों को सबक सिखाना है
    उनके पत्थरों को तराशकर बनाना है
    भीतर से अपनी तरह मुलायम
    हाँ,तुम औरत हो
    इसलिए कर सकती हो सब कुछ

    ढेरों मंगलकामनाएँ
    उन औरतों की तरफ़ से
    जो जानती हैं सचमुच
    जर्जर देह में भी होता है
    एक मजबूत मन
    जिसके दीये की लौ
    कभी कम नहीं होती!

  • ज़द्दोज़हद

  • आह बरसाती रात
    किसी के लिए मधुमास
    भींगने और पुलकित होने का
    अद्भुत वरदान
    चाँद की लुकाछिपी में
    असीमित भावनाओं का सुंदर ज्वार

    उफ्फ बरसाती रात
    कहीं जीवन हेतु संघर्ष अविराम
    नदियों का राक्षसी उफान
    और डूबा हुआ सारा घर-बार
    सड़क पर सिमटाए अपना जहान
    खाट-मचान पर शरण लिए इंसान
    नीचे साँप की फुफकार
    नीम हकीम डाक्टरों के लिए आई बहार

    उफ्फ बरसाती रात
    फिर वही पापी पेट का सवाल
    आई तो थी दिन में
    उड़नखटोले से राहत-सामग्री आज
    कल फिर आए भी तो क्या
    टूट पड़ेंगे और लूटेंगे बलशाली हाथ
    जो जीतेंगे हमेशा की तरह सिकंदर कहलाएँगे
    बहाएगी फिर से सपने चंगेज़ी धार

    उफ्फ बरसाती रात
    झींगुरों का अलबेला सिंहनाद
    बड़े बन गए हैं बेजुबां
    पर जनमतुए कहाँ मानते हैं
    रह रहकर दूध के लिए अकुलाते हैं
    माँ की सूखी छातियों की टोह लेकर झल्लाते
    मचा रहे व्यर्थ ही शायद हाहाकार

    ओह बरसाती रात
    रोते-रोते लिपट जाएँगे
    रात के चिथड़े-चिथड़े आँचल में
    नहीं बची माँ के बेबस होठों पर
    सुंदर लोरियों की सौगात

    माँएँ आँसू पीकर जी ही लेंगी
    व्रतों की आदत काम आएगी
    पर सोच रही निष्ठुर बनकर
    बेचेंगे गोदी के लाल अगर
    तो देखेंगे हर साल
    ऐसी कई-कई भयानक बरसाती रात
    आएगा लीलने अजगरी सैलाब

    झाँकेंगे हर बार
    ऊँचे आसमानी खिड़कियों से
    सफेद शहंशाह!

  • सुनो बालिके! सुनो

  • सुनो बालिके,सुनो
    अभी तो यह पहला व्यूह था
    बधाई तुम्हें कि इस दुनिया में
    तुम आ ही गई
    पर इस खुशी को संभालने के लिए
    सीखने होंगे कई नए पाठ
    पार करना होगा समूचा चक्रव्यूह

    चलो अच्छा है
    अभी तुम्हारे खाने-खेलने के दिन हैं
    तुम बहुत खुश लग रही हो
    अपने रंग-बिरंगे किचेन सेट में
    दाल-भात-रोटी
    पिज़्ज़ा-बर्गर पकाकर
    मम्मी-पापा को परोसकर
    पर रूको इसके आगे भी
    कई-कई मुकाम हैं
    तुम खेलो कमरे से भी निकलकर बाहर
    रखो रनों का हिसाब
    चोट करो ‘शटल ‘ पर संतुलन के साथ
    घरेलू बिल्ली से ही प्यार मत बढ़ाओ
    सीखो शेरनी से दहाड़
    पूरी दुनिया है सियासत
    बिछी शतरंज की बिसात
    चलता रहता है
    शह और मात का खेल दिन-रात

    अरे बालिके
    मत रचाओ गुड्डे-गुड़ियों का ब्याह
    मत बुनो परीलोक का छद्म संसार
    अपनी मम्मियों और दादियों की तरह
    कि सफेद घोड़े पर होकर सवार
    आएगा कोई सुंदर राजकुमार
    ले जाएगा तुम्हें सात समंदर पार
    देगा तुम्हें बस सुख हज़ार

    हाँ, बालिके
    यह समय सपनों की असंख्य कब्रों से
    निकल आने का है
    ‘प्रज्ञा ‘ तुम्हारे हाथों में क़ैद जादू की छड़ी है
    उसे ही साधना और घुमाना सीखो
    तब कर सकोगी झूठ-फरेब और सच में फर्क
    तुम्हारी हुकूमत होगी
    ज़मीन से आसमान तक
    और हाँ,जब तक सीख न लो
    अपने पैरों पर ठीक से चलना
    अपने पैरों को
    बैसाखियों का गहना मत पहनने देना
    इंकार करने की हिम्मत रखना
    सुंदर गहनों के आएँगे प्रलोभन
    मगर तभी पहनना जब बोझ न लगे
    उतने ही पहनना
    जितना सहयोगी बने
    तुम्हारे रूप को निखारने में
    ज़िंदगी को सँवारने में
    उन्हें बेड़ियाँ कभी मत बनने देना

    सुनो बालिके
    अंतिम व्यूह पार करने तक
    साथ रखने होंगे कई ‘ हथियार
    उम्मीद है अपने अपार हौसले से तुम
    जीत लोगी यह महासमर
    सहस्रों अभिमन्यु पैदा होंगे
    जीवित लौटकर आएँगे घर घर
    गाएँगे सब मिलकर
    “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ” का
    बेहद खूबसूरत मंत्र!

  • धरा के बारे में 

  • तपती है धरा
    दिन भर
    जाने किसके लिए
    उसने पाना नहीं जाना कभी
    बिल्कुल माँ की तरह
    बस खोया है
    अपना सुंदर रूप-रंग, आकार
    जानती है वह
    पल-पल खोते-खोते
    मिट जाएगी एक दिन
    इस ब्रह्माण्ड में
    फिर भी उसे अच्छा लगता है
    मिट जाना
    शायद उनके लिए
    जो उनके अहसानों से बेफ़िक्र
    याद नहीं रख पाते
    उसका नाम
    या यह अहसास
    कि बीमार भी हो सकती है
    दिन-रात खटनेवाली बूढ़ी माँ!
  • बायो डेटा 

  • नाम
    लड़की
    उम्र
    माफ़ करना
    षोडशी नहीं रही
    कद
    पुरुष से छोटा
    रंग
    पानी-सा
    योग्यता
    तितिक्षा
    शौक़
    पुरुषोचित छोड़कर
    ज़िंदगी
    रामभरोसे
    लक्ष्य
    वंशवर्द्धन
    शर्म आती है मगर
    यही रटाया है सबने
    पता
    पिंजड़े का कोई स्थायी पता नहीं होता
    विशेष जानकारी लेनी हो तो
    ‘त्रिशंकु’ से पूछ लें!
  • गर्व से कहते इंसान हैं… काश!

  • मैं ढूंढ रही थी
    इस आभासी दुनिया में
    इंसानियत का एक समूह
    जिसके चेहरे पर
    नहीं चमकता हो
    किसी कायस्थ, ब्राह्मण, राजपूत,बनिए या दलित का
    अति गर्वित-सा भाल
    जिसके हुंकारित हाथों में नहीं हो
    चटक भगवा ध्वज
    या जिसकी अकड़ी मीनार के शिखर पर
    नहीं लहरा रहा हो
    हरियाला मज़हबी झंडा
    मेरी उंगलियाँ थककर सो गईं
    सर्च करते-करते गूगल पर

    बीते कई दिनों से
    सोच रही हूँ
    मैं ही पागल या निरा नादान हूँ
    अब तो सांझा चूल्हों के किस्से पुराने हो गए
    लोग तब से अब कितने सयाने हो गए
    नए नोटों पर मंगलयान इतराता हो तो क्या
    हमारे गर्वित होने के सब बहाने
    वही घिसे-पिटे अफ़साने रह गए
    क्या करें
    उन्हें गर्व होता है उधर
    और इधर लज़्ज़ा शरमाकर
    अंधेरे घर की सबसे भीतरी कोठरी में
    मोटे पर्दे के पीछे
    सोने का स्वांग रचाती है
    सिसक-सिसककर हर रात रोती जाती है
    लंबी-सी घूँघट के नीचे
    सात जन्मों का आदर्श पत्नी-धर्म
    बस यूँ ही निभाए चली जाती है!

  • .

    भारतमाता के देश में 

  • वे घोड़े नहीं
    जो बार-बार चाबुक चलाया जा रहा है
    वे भूली नहीं हैं
    जो मनुस्मृति वर्षों से दोहराया जा रहा है
    वे अगरबत्ती नहीं
    कि उनसे पूजाघर महकाया जा रहा है
    वे कठपुतली नहीं
    जिन्हें मनमर्जी नचाया जा रहा है
    बेचने को है बहुत कुछ
    पर उन्हें सबसे बड़ा बाज़ार बनाया जा रहा है

    वे औरतें हैं हुज़ूर
    आज भी
    सिर्फ़ उन्हें
    अनुशासन का महान पाठ पढ़ाया जा रहा है
    जबकि सुना है आजकल
    तेजी से हमारा देश बदला जा रहा है!

  • अल्पविराम के बाद

  • सुना है
    कोई मुझे जानता नहीं
    कोई पहचानता नहीँ
    जैसे आ गई हूँ
    अपने कुनबे से बिछड़कर
    एक बिल्कुल नए इलाके में

    तो किसने कहा था मुझसे
    ले लो अल्पविराम
    जहाँ छोटे-से अंतराल में
    बदल जाती है पूरी दुनिया
    कुचल देते हैं बेरहमी से
    रेस के घोड़े

    तो क्या
    मैं नहीं तनिक शर्मिंदा हूँ
    अभी भी मैं ज़िंदा हूँ
    रेस के घोड़ों के बीच
    कछुए के पाँव पे चलते हुए
    सूरज के साथ टहलते हुए!

  • आज़ादी का जन्मदिवस

  • सुना है कि बिटिया सयानी हो गई है
    सोचा, इस बरस
    उस बिटिया से मिल आऊँ
    जन्मदिवस की हार्दिक बधाई दे आऊँ
    मैं ढूंढने निकल पड़ी
    उसी बिटिया को
    जिसका नाम आज़ादी है

    सबसे पहले पहुँच गई
    ईश्वर के पावन दर पर
    लेकिन वहाँ कोई माया-खेल चल रहा था
    आलीशान दरबार सजा-धजा दिख रहा था
    चौंधियाते कपड़ों और गहनों से लदे-दबे
    कलियुगी संत-उपदेशक बाँट रहे थे
    विभिन्न अदाओं के साथ नवीन अद्भुत ज्ञान
    धर्म की सुनहली जंजीरों से बंधे थे
    इस भेड़ियाधसान में दूरदराज से आए
    लग रहे अफीम खाए बेजुबान से लोग
    उतारी जाने लगी
    फिर ईश्वर की जगह
    कुछ महानुभावों की आरती

    वहाँ से मैं भाग चली
    फूलों की उन्मुक्त बगिया में
    जहाँ किसी के मिलने की
    संभावना दिख रही थी
    पर पास गई थी देखा
    फूल तो फूल
    नन्हीं नवजात कलियों को
    भौंरे ही नोंचकर खा रहे थे
    बेबस माली रो रहा था
    कोयलिया का भी गला रूंध गया था
    गा रही थी कोई रोदनगीत अनवरत

    अब मन बहुत उदास हो चला था
    सोचा बाज़ार चलकर
    थोड़ा ‘मनफेरवट’ कर लूँ
    हमेशा की तरह वहाँ चहल-पहल थी
    ‘एक के पैसे में दो ले लो’ की लुभावन रट थी
    हीरों के गहने पर पच्चीस प्रतिशत की छूट थी
    बनिए ख़ूब झूम रहे थे
    जा बैठा था सांढ सर्वोच्च शिखर पर
    गा रहे थे भांट-चारण उनकी वीरोदावली
    जिसने छोड़ा था कोई सुपरसोनिक तीर
    पर अफ़सोस की बड़ी बात थी
    प्याज, दाल और सब्जियों जैसी ज़रुरी चीजों को
    बस निहार सकते थे वे
    जिनके पास बटुए रखने की औकात नहीं थी

    पास में ही शहर का सबसे बड़ा काॅलेज था
    वहाँ अज़ीब शोर था
    किसी सनी सिंह का प्रोग्राम चल रहा था
    साड़ी वाली नारी नहीं थी वहाँ कोई
    मगर नारी और साड़ी का वीभत्स मेल
    चल रहा था
    नेक्स्ट जेन के कपड़े
    नए फाॅर्मूले गढ़ चुके थे
    मन की आँखों पर काले चश्मे चढ़े थे
    उधर घरों में बूढ़े माँ-बाप
    मुर्दों से पड़े थे

    थकी-हारी मैं अपने घर की ओर चल पड़ी
    रास्ते में एक अद्भुत नज़ारा था
    अपनी आज़ादी बिटिया
    चिथड़े में लिपटी कटोरा लिए
    इज्ज़त की भीख मांग रही थी
    दूसरे हाथ में
    मज़बूती से पकड़ी गई
    छोटी-सी जीर्ण लाठी थी
    ठक-ठक आवाज उससे आ रही थी
    हाँ,वह धीमे-धीमे लंगड़ती हुई चल रही थी
    भीड़ उसे अपनी ओर खींच रही थी
    हाथों में लिए नए स्मार्ट फोन
    उसे मुस्कुराने को कह रही थी
    कोशिश कर भी वह ज़रा मुस्कुरा नहीँ पा रही थी
    उसके फटे होठों से खून रिस रहा था
    माथे पर साफ दिख रही थी
    चिंता की अनगिनत लकीरें
    अपनी आज़ादी बिटिया
    देश की सबसे बड़ी सेलिब्रिटी होने की
    कीमत चुका रही थी
    उसे घेरे कई अधनंगे जोड़े
    नशे में धुत चिल्ला रहे थे
    ‘सेल्फी ले ‘गीत की धुन पर
    भौंडा नाच रहे थे
    बड़ी शान से चीयर्स कर
    सबसे बड़ा राष्ट्रीय उत्सव मना रहे थे!

  • घरेलू गाय

  • घरेलू गाय होती है
    बस गाय बनी रहने के लिए
    चिड़िया होती हैं
    चिड़िया होने के अलावा उड़ने के लिए

    घरेलू गाय के आगे होते हैं बड़े-बड़े नाद
    रखे होते हैं उनमें पर्याप्त दाना-पानी
    बैठे बिठाए चल रही होती है ज़िंदगानी
    खूँटे से बंधी रस्सियाँ करा देती हैं
    छोटी सी जगह में गोल पृथ्वी की सैर

    कभी-कभी यूँ ही मचल जाती हैं
    और टूट जाती हैं रस्सियाँ
    मालिक बांध देता है तब
    पहले से और मजबूत रस्सियाँ
    गाय गीली आँखों से ताकती है बाहर की दुनिया
    पल भर पहले उसकी देह पर बैठी छोटी चिड़िया
    चहारदीवारी पर फुदक रही होती है
    और वहाँ से उड़कर
    पास के अमरूद की ऊँची फुनगी पर बैठी
    इतराती गाना गाती है
    फिर जाने की तैयारी में पंख फैलाती है
    उड़ते-उड़ते हो जाती है आँखों से ओझल
    पर गूँज रहा होता है कानों में
    अब भी चिड़िया का मधुर गाना
    गाय नही जानती है चिड़िया की भाषा
    पर लगता है सालों से यही आज़ादी का तराना
    जिन्हें गाने के लिए अक्सर
    रस्सियों को तोड़ना ही होता है
    बड़े नादों की परवाह किए बिना!

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