आग देखूँ कभी जलता हुआ बिस्तर देखूँ
आग देखूँ कभी जलता हुआ बिस्तर देखूँ
रात आए तो यहीं ख़्वाब-ए-मुकर्रर देखूँ
एक बैचेन समुंदर है मिरे जिस्म में क़ैद
टूट जाए जो ये दीवार तो मंज़र देखूँ
रात गहरी है बहुत राज़ न देगी अपना
मैं तो सूरज भी नहीं हूँ कि उतर कर देखूँ
ख़ुद पे क्या बीत गई इतने दिनों में तुझ बिन
ये भी हिम्मत नहीं अब झाँक के अंदर देखूँ
कोई उस दौर में एलान-ए-नबूवत करता
आरज़ू थी कि ख़ुदा-साज़ पयम्बर देखूँ
एक सन्नाटा हूँ पत्थर के जिगर में पैवस्त
मैं कोई बुत तो नहीं हूँ कि निकल कर देखूँ
यूँ नशे से कभी दो चार तिरा ग़म हो कि मैं
बंद आँखों से खुली आँख का मंज़र देखूँ
ओढ़ कर ख़ाक ‘मुजीबी’ सुनों दुश्नाम-ए-जहाँ
ये तमाशा ही किसी रोज़ मियाँ कर देखूँ
अजब पागल है दिल कार-ए-जहाँ बानी में रहता है
अजब पागल है दिल कार-ए-जहाँ बानी में रहता है
ख़ुदा जब देखता है ख़ुद भी हैरानी में रहता है
मैं वो टूटा हुआ तारा जिसे महफ़िल न रास आई
मैं वो शोला जो शब भर आँख के पानी में रहता है
कोई ऐसा नहीं मिलता जो मुझ में डूब कर देखे
मिरे ग़म को जो मेरे दिल की वीरानी में रहता है
हज़ारों बिजलियाँ टूटीं नशेमन भी जला लेकिन
कोई तो है जो इस घर की निगहबानी में रहता है
ख़ुदा और नाख़ुदा दोनों ख़जिल हैं हाल पर मेरे
मैं वो तिनका हूँ जो आग़ोश-ए-तुग़्यानी में रहता है
रूमूज़-ए-मुम्लिकत या रब ख़िरद समझे या तू जाने
जुनूँ मेरा तो शौक़-ए-चाक-दामानी में रहता है
ग़ज़ल लिखने से क्या होगा ‘मुजीबी’ कुछ क़सीदे लिख
शरफ़ सुनते हैं अब तर्ज़-ए-सना-ख़्वानी में रहता है
बस एक बूँद थी औराक़-ए-जँ में फैल गई
बस एक बूँद थी औराक़-ए-जाँ में फैल गई
ज़रा सी बात मिरी दास्ताँ में फैल गई
हवा ने हाथ बढ़ाया ही था कि लौ मेरी
तमाम शश-जिहत-ए-जिस्म ओ जाँ में फैल गई
वो ख़्वाब था कि खुला था दरीचा-ए-शब-ए-हिज्र
तिरे विसाल की ख़ुशबू मकाँ में फैल गई
जो उस के बाद हवा उस से बे-ख़बर थे सब
हवा ने कुछ न कहा बादबाँ में फैल गई
खुला कि वहम था आब ओ सराब की तमीज़
प्यासी धूप थी आब-ए-रवाँ में फैल गई
मैं उस के तर्ज़-ए-तख़ातुब का ज़हर पी तो गया
मगर अजीब सी तल्ख़ी ज़बाँ में फैल गई
ज़ियाँ-नसीब शआर-ए-वफ़ा सरिश्त में है
ये बात कैसे सफ़-ए-दुश्मनाँ में फैल गई
बिखरती टूटती शब का सितारा रख लिया मैं ने
बिखरती टूटती शब का सितारा रख लिया मैं ने
मिरे हिस्से में जो आया ख़सारा रख लिया मैं ने
हिसाब-ए-दोस्ताँ करते तो हर्फ़ आता तअल्लुक़ पर
उठा रक्खा उसे और गोशवारा रख लिया मैं ने
जुदाई तो मुक़द्दर थी मुझे एहसास था लेकिन
कफ़-ए-उम्मीद पर फिर भी शरारा रख लिया मैं ने
ज़रा सी बूँद जो रौशन है अब तक ख़ल्वत-ए-दिल में
चराग़-ए-शाम तेरा इस्तिआरा रख लिया मैं ने
मिरी आँखों में जो सय्याल आईनों के टुकड़े हैं
उन्हीं टुकड़ों पे मक़्तल का नज़ारा रख लिया मैं ने
ख़ुशी ख़ैरात कर दी और ज़माने भर के रंज ओ ग़म
मिरे दिल को हुआ जितना गवारा रख लिया मैं ने
मिरी दरिया-दिली ने भर दिया कासा समुंदर का
बदन पर रेत हाथों में किनारा रख लिया मैं ने
मौज-ए-ख़याल-ए-यार-ए-ग़म-ए-आसार आई है
मौज-ए-ख़याल-ए-यार-ए-ग़म-ए-आसार आई है
क्यूँ चाहतों के बीच ये दीवार आई है
इक बूँद हाथ आई है पत्थर निचोड़ कर
आँखों से लब पे क़ुव्वत-ए-इज़हार आई है
हम दुश्मनों में अपनी ज़बाँ हार आए हैं
जब हाथ कट चुके हैं तो तल्वार आई है
क्यूँ आसमाँ ने दस्त-ए-तही फिर किया दराज़
क्यूँ धूप ज़ेर-ए-साया-ए-दीवार आई है
सूरज झूलस गया है हर इक शाख़-ए-जिस्म-ए-ओ-जाँ
दिन ढल गया तो घर में शब-ए-तार आई है
बे-सौत था ‘मुजीबी’ हर इक नग़्मा-ए-ख़याल
टूटा जो दिल तो साज़ की झंकार आई है
प्यासा जो मरे ख़ूँ का हवा था सो ख़्वाब था
प्यासा जो मरे ख़ूँ का हवा था सो ख़्वाब था
नींदों में ज़हर घोल रहा था सो ख़्वाब था
काँटा जो दिल कि पार है ताबीर है सो ये
सहरा में इक गुलाब खिला था सो ख़्वाब था
इक इल्तिजा थी आँखों में पथरा के रह गई
इक अक्स संग-ए-दर पे खड़ा थ सो ख़्वाब था
पहले ज़मीन ख़ाक हुई थी ब-सद नियाज़
शब भर फिर आसमान जला था सो ख़्वाब था
इक नहर थी जो चीख रही थी बहाओ से
लश्कर कनार आब खड़ा था सो ख़्वाब था
बस्ती का चश्म-दीद के हमराह हर उम्मीद
पल्कों से टूट कर जो गिरा था सो ख़्वाब था
दिल को यक़ीं न ज़हन के हद्द-ए-क़यास में
जो वाक़िआ ‘मुजीबी’ हुआ था सो ख़्वाब
वही रंग-ए-रूख़ पे मलाल था ये पता न था
वही रंग-ए-रूख़ पे मलाल था ये पता न था
मिरा ग़म भी शामिल-ए-हाल था ये पता न था
वही शाम आख़िरी शाम थी ये ख़बर न थी
वही वक़्त वक़्त-ए-ज़वाल था ये पता न था
मुझे कर गया जो तही तही भरे शहर में
वो मिरा ही दस्त-ए-सवाल था ये पता न था
मुझे बुत बना के चले गए कि न रो सकूँ
उन्हें मेरा इतना ख़याल था ये पता न था
वो हवा-ए-मर्ग थी जिस से दिल का दिया बुझा
मिरे दिल का बुझना कमाल था ये पता न था
मैं ‘मुजीबी’ ढूँढू कहाँ उसे वो कहाँ मिले
वो तो अपनी मिसाल था ये पता न था
ज़बान-ए-ख़ल्क़ को चुप आस्तीं को तर पा कर
ज़बान-ए-ख़ल्क़ को चुप आस्तीं को तर पा कर
मैं आब-दीदा हवा ख़ूँ को दर-ब-दर पा कर
ये किस के क़ुर्ब की ख़ुशबू बसी है साँसों में
ये मुझ से कौन मिला मुझे को बे-ख़बर पा कर
सफ़र की शर्त कभी इस क़दर कड़ी कब थी
थकन कुछ और बढ़ी साया-ए-शजर पा कर
वो सब्ज़-तन था शफ़क़ पैरहन खुला उस पर
बना गुलाब सा वो लम्स यक नज़र पा कर
वो ना-शनास-ए-तबीअत है जानता था मैं
वो हैरतों में रहा तेग़ को सिपर पा कर
अभी अभी मैं जिस दफ़्न कर के लौटा हूँ
बहुत अजीब लगा उस को अपने घर पा कर