मुझे कविता कहने की आदत अब तक तो न थी
किन्हीं गड्ढों में बहुत गहरे पाँव फिसल गया है
पढ़ते हुए कोई उपन्यास नही सूझ रहे अर्थ ठीक ठीक
मैं औरत हूँ असम्पृक्त , बिना जड़ की पेड़
जो लटक गई है लताओं के गले में बेशर्म सी
इस रात में मुझे वफादार होना था और मैं मंसूबे बना रही थी
कि कैसे सेंध लगानी है मुझे अपने भीतर और सायरन बजने से पहले
भाग जाना है वापस गड्ढों की फिसलन में
ये दोनों जीवन निभाने को चाहिए चूहे सी दिलेरी
इसलिए कुतर लिए है उपन्यास के पन्ने मैंने जल्दी जल्दी
अब कम से कम तुम्हारे हाथ नही लगेगा कोई सुराग
कविताओं का
मैं औरत हूँ छपी हुई एक शादी के इश्तेहार सी अखबार मेँ
एकदम चकाचक , जिसमें एक अनजाना कुँआ है
जहाँ आत्महत्याएं करना आसान है सुनते हैं
मुझे नींद में बकने की बीमारी अब तक तो नही थी
इतनी शर्तें लगाओगे मन्नत के धागों की तरह
पेड़ की सूखी टहनियों- से मेरे उलझे बालों में
तो इन सारी धूप बत्तियों की खुशबू ले उड़ूँगी एक दिन
जब फिसलूँगी धम्म से ,तुम्हारी बिछाई काई पर जिसे हरियाली कहते हो
कुँए की मुंडेर पर कितने बन्दर हैं बैठे और देखो
वे बैठे बैठे सुजान हो गए हैं , और रस्सियाँ पागल सी
घिस गई हैं
उन्हें लगा होगा घिस घिस कर तेज़ होंगी
तब किसी उन्मादी रात वे हड़का देंगी बन्दरों को लेकिन
घिस कर टूटने की पूरी संभावना ने बंदरो को बेचैन कर दिया है
मैं औरत हूँ घिसी हुई रस्सी जैसी
और तमाशा बनने से पहले निशाँ छोड़ जाना चाहती हूँ
मुझे नींद में चलने की अब तक आदत तो नही है
और जागते में अक्सर ठप्प रही हूँ किसी खराब घड़ी की तरह
बजेगी जो किसी सही वक़्त पर अलार्म की तरह
कनफोड़ आवाज़ में रह-रह कर निश्चित अंतराल पर बार-बार !
तुम्हे चाहिए एक औसत औरत
तुम्हे चाहिए एक औसत औरत
न कम न ज़्यादा
बिल्कुल नमक की तरह
उसके ज़बान हो
उसके दिल भी हो
उसके सपने भी हो
उसके मत भी हों, मतभेद भी
उसके दिमाग हो
ताकि वह पढे तुम्हे और सराहे
वह बहस कर सके तुमसे और
तुम शह-मात कर दो
ताकि समझा सको उसे
कि उसके विचार कच्चे हैं अभी
अभी और ज़रूरत है उसे
तुम- से विद्वान की ।
औसत औरत को तुम
सिखा सकोगे बोलना और
सिखा सकोगे कि कैसे पाले जाते हैं
आज़ादी के सपने
पगली होती हैं औरतें
बस खिंचीं चली जाती हैं दुलार से
इसलिए उसके भावनाएँ भी होंगी
और आँसू भी
और वह रो सकेगी
तुम्हारी उपेक्षा पर
और तुम हँस सकोगे उसकी नादानी पर
कि कितना भी कोशिश करे औरत
औसत से ऊपर उठने की
औरतपन नहीं छूटेगा उससे
तुम्हारा सुख एक मुकम्मल सुख होगा
ठीक उस समय तुम्हारी जीत सच्ची जीत होगी
जब एक औसत औरत में
तुम गढ लोगे अपनी औरत।
नहीं मरूंगी मैं
जाऊंगी सीधी, दाएँ और फिर बाएँ
आगे गोल चक्कर पर घूम जाऊंगी और
लौट आऊँगी इसी जगह फिर से
जब सो जाओगे तुम सब लोग
उखाड़ दूंगी यह सड़क और उगा आऊँगी इसे
समन्दर पर
गोल चक्कर को चिपका दूंगी
सड़क के फ़टे हुए हिस्सों पर
कुछ भी करूंगी
सोऊँगी नही आज
मैं मरूंगी नही बिना देखे काली रात सुनसान
लैम्प पोस्ट की रोशनी में चिकनी सड़कें
मरूंगी नही मैं
शांतिनिकेतन के पेड़ों की छाँव मेँ निश्चेष्ट कुछ पल पड़े रहे बिना
नहीं मरूंगी उस विद्रोहिणी रानी का खंडहर महल
अकेले घूमे बिना
मर भी कैसे सकती हूँ मैं
बनारस के घाट पर देर रात
बैठ तसल्ली से कविताएँ पढे बिना
नहीँ मरूंगी
किसी शाम अचानक पहाड़ को जाती बस में सवार हुए बिना
बगैर किए इंतज़ाम और सूचना दिए बिना
और फिर…
मैं लौटूंगी एक दिन
बिल्कुल ज़िंदा।
कुछ आत्महत्या जैसा…सुना है?
बहुत बार सुना है शब्द आत्महत्या
और कई बार किया है उच्चारण भी अपने मुंह से
नतीजा इसका यह कि
पुल पार करते हुए जब दिखी मुझे नदी
तो लगा दी मैंने छलांग और बंद कर ली आँखे
पहाड़ से उतरती आवेगमयी नदी को देखकर
आत्महत्या का ख़याल आना सामान्य है
जायज़ है एकदम !
लेकिन ठहरी हुई नदी में जहां एम सी डी की लगाई जाली
में से सूराख ढूंढकर लोग पूजा का सूखा-बासी सामान
फेंक आते हैं प्लास्टिक-पन्नियां श्रद्धाभाव से
वहाँ रोज़ डूब मरने की कवायद में मुंह लटकाए
रेलिंग पर झूल कर वापस आ जाना
बेईमानी है सरासर ! आत्महत्या के ख्याल के साथ
ऐसा नहीं है कि मौत की कविताओं का मेरा कोई कारोबार है
और इतनी ऊबी हुई हूँ भी नहीं कि आत्महत्याओँ के स्वप्न रोमांच देते हैं मुझे
बल्कि यह कि ज़िंदगी को खोने के रोज़ के डरों से
वितृष्णा हो चुकी है
मालूम होता है हमें कि हर सुबह की सामान्य चहलकदमी
और मुस्कुराहटें दम फुला देंगी शाम तक
आत्महत्याएं हर झगडे के बाद सामान्य खिलखिलाहटों में
बड़ी चतुराई से घुल जाएँगी टेढी आँख दिखाती
मैं फिर से ले जाऊंगी एक अजनबी औरत को बांधकर अपने साथ
लेकिन आज पक्का उसे धकिया दूंगी
दिल्ली के इस पार
खड़े होकर जमुना में !
मेरी पसंदीदा किताब थी वह
वह मेरी सबसे पसंदीदा किताब थी जिसके पन्ने फाड़कर
तुमने लिफाफे बना लिए हैं इतने सारे
किसी में राशन के हिसाब और किसी मे बिल रखें हैं कर्तव्यों के जिन्हे
मुझे चुकाना है अंतिम तारीख से पहले पहले
कुछ रखे हैं लिफाफे सम्भाल कर अलबम बनाकर
जिनमे से खा डकार लिए गए हैं चटखारे और सतरंगी स्वाद
यह माँ ने दी थी कॉपी
कहा था मुझे, सहेजना इन पन्नों मे गार्हस्थ्य
मैने लिख मारी सब पर कविताएँ और काव्य सा गद्य
ऐसे थोडी होता है ! – तुमने कहा माथा ठोंक कर उस दिन –
बच्ची नही हो अब ! लिखना है तो दिल पर लिखो मेरे अपना प्यार !
लेकिन सुनो , इतना ज़रूर करते
कि फाडना ही था तो बीच से फाड़ते जोड़े में पन्ने
पिन से लगे हुए रहते हैं जो करीने से
तुमने आखिरी पन्ने नोच लिए हैं अनगढ जल्दी में
और देखो उनके फटने का इतिहास
मेरे यहाँ दर्ज हो गया है सदा के लिए
कोई कैसे पहुंच पाएगा अंतिम कविता तक कभी जिसे लिखना बाकी है अभी
इन पन्नों पर तो नही लिखी थी क्रम संख्या भी मैंने यह सोचकर
कि भला मेरी किताब से किसी को क्या लेना देना !
अब उखडे हुए कागज़ तरतीब से लगाकर
बनाती हूँ किताब तो कोलाज हो जाता है
इसलिए मैंने सहेज कर इन्हें जैसे तैसे अब लिख दिया है मुख पृष्ठ पर-
बच्चियो ! बन सकें तो इन फटे पन्नों से पतंगें बनाकर उड़ा लेना
जहाँ दीखती हो बुरी लगती टेप इन चिंदियों में वहाँ
ख्वाहिशों के चमकते जुगनू चिपका लेना
अपनी अपनी किताबों मे जो भी लिखना
पन्नों को फाडकर चाहे पोंछ लेना बैठने से पहले धूल बेंच की
लिफाफे बनने न देना कि जिनमें
कोई जमा करता रहे अपने हिसाब किताब के चिल्लर !
वे कितनी घृणा करते हैं हमसे
वे आत्ममुग्ध हैं,
वे घृणा से भरे हैं।
वे पराक्रम से भरपूर हैं।
नहीं जानते अपनी गहराई।
जो उपलब्ध हैं स्त्रियाँ उन्हें
वे हिकारत से देखते हैं,
और थूक देते है उन्हें देख कर
जिन्हें पाया नही जा सका ।
वे ज्ञानोन्मत्त हैं
ब्रह्मचारी !
कोमलांगिनियों के बीच
योगी से बैठे हैं
अहं की लंगोट खुल सकती है कभी किसी भी वक़्त।
उन्हे नहीं पता कि
हमें पता है
कि वे कितनी घृणा करते हैं हमसे
जब वे प्यार से हमारे बालों को सहला रहे होते हैं।
उन्हें पहचानना आसान होता
तो मैं कह सकती थी
कि कब कब मैंने उन्हें देखा था
कब कब मिली थी
और शिकार हो गयी थी कब!
यह आम रास्ता नहीं है
जब हवा चलती है हिलोरें लेता है चाँद
मैं उनींदी-सी होकर भूल जाती हूँ
उतारकर रख देना जिरहबख्तर
सोने से पहले
यह आम रास्ता नहीं है
यह जगह-जिसे तुम नींद कहते हो
यहाँ जाना होता है निष्कवच, बल्कि निर्वस्त्र
खोल कर रखने होते हैं वस्त्रों के भीतर
मन पर बँधे पुराने जीर्ण हुए कॉर्सेट
कुछ शब्द किसी रात जो गाड़ दिए थे चाँद के गड्ढों में
वे घरौंदा बनाते उभर आए हैं मेरे होठो पर
उनींदी बडबडाहट की तरह
कभी उधर जाना तो लेते जाना इन्हें वापिस
मिलेंगे और न जाने कितने सपने, गीत, पुराने प्रेम, पतंगे और खुशबुएँ
खुद में खुद को ढूँढना खतरनाक है
मैं बेआवाज़ चलना चाहती हूँ
कहीं रास्ते में टकरा न जाए वह भी
जिसे कभी किया था वादा
कि-हाँ, मैं चलूँगी चाँद पर… लेकिन हवा में टँगी रह गई.
इन रास्तों पर गुज़र कर हवा भी न बचे शायद
क्या निर्वात की भी अपनी जगह नहीं होती होगी?
रहना होगा वहीं उसी निर्वात में निर्वासित
हाँ भय नहीं निर्वसन होने का
निष्कवच हो जाने का भी खटका नहीं होगा
कोई तो गीत पूरा होगा ही भटकाव की तरह
आम रास्तों पर चलकर नहीं मिलती
अपनी नींद
अपना निर्वात
निर्वसन स्व
निष्कवच मन!
नाटक है यह
नाटक है यह
नाटक है यह
उतर रहा है
पानी में सूरज
बुझने को
एक नकली दृश्य में
एक असली निराशा
टंगी रह गयी
बरसों से
अकेली साँझ के नभ में
दर्ज हो अभिनय
के बाद
थका चेहरा तारिका का
गायब हो जाना अचानक एक दिन
दो गुलाबी समानांतर रेखाएँ…
यह तीसरी बार था
मुझे याद है
नसों में एनेस्थीसिया
भर देने से ठीक पहले
वह कह रहा था
मेरी भी एक ही है दुलारी
कई तारों के होने से एक चाँद होना
बेहतर है
सो जाओ
सब ठीक होगा
तुम ग़लत नहीं हो
बीच का वक़्त
जब सब कुछ खींच लिया गया था बाहर
वह नहीं घटा था मुझ पर मेरी याद में
मैं जागी थी किसी और दुनिया में
जहाँ नाभि के नीचे
भीतर तक नोच लिए जाने का अहसास था
मैंने देखा था
पिछले चन्द दिनों में
चौगुनी होती
एकदम सच्ची
शुद्ध
अपने पेट की भूख को
उसी दिन अचानक गायब होते
और जाना यह भी
कि
मरने के लिए
एनेस्थीसिया
कितना सुन्दर है!
जो आएगा बीच में उसकी हत्या होगी
तुमने कहा
बहुत प्यार करता हूँ
अभिव्यक्ति हो तुम
जीवन हो मेरा
नब्ज़ हो तुम ही
आएगा जो बीच में
हत्या से भी उसकी गुरेज़ नहीं
संदेह से भर गया मन मेरा
जिसे भर जाना था प्यार से
क्योंकि सहेजा था जिसे मैंने
मेरी भाषा
उसे आना ही था और
वह आई निगोड़ी बीच में
और तुम निश्शंक उसकी
कर बैठे हत्या।