अनोखा दान
अपने बिखरे भावों का मैं
गूँथ अटपटा सा यह हार।
चली चढ़ाने उन चरणों पर,
अपने हिय का संचित प्यार॥
डर था कहीं उपस्थिति मेरी,
उनकी कुछ घड़ियाँ बहुमूल्य
नष्ट न कर दे, फिर क्या होगा
मेरे इन भावों का मूल्य?
संकोचों में डूबी मैं जब
पहुँची उनके आँगन में
कहीं उपेक्षा करें न मेरी,
अकुलाई सी थी मन में।
किंतु अरे यह क्या,
इतना आदर, इतनी करुणा, सम्मान?
प्रथम दृष्टि में ही दे डाला
तुमने मुझे अहो मतिमान!
मैं अपने झीने आँचल में
इस अपार करुणा का भार
कैसे भला सँभाल सकूँगी
उनका वह स्नेह अपार।
लख महानता उनकी पल-पल
देख रही हूँ अपनी ओर
मेरे लिए बहुत थी केवल
उनकी तो करुणा की कोर।
आराधना
जब मैं आँगन में पहुँची,
पूजा का थाल सजाए।
शिवजी की तरह दिखे वे,
बैठे थे ध्यान लगाए॥
जिन चरणों के पूजन को
यह हृदय विकल हो जाता।
मैं समझ न पाई, वह भी
है किसका ध्यान लगाता?
मैं सन्मुख ही जा बैठी,
कुछ चिंतित सी घबराई।
यह किसके आराधक हैं,
मन में व्याकुलता छाई॥
मैं इन्हें पूजती निशि-दिन,
ये किसका ध्यान लगाते?
हे विधि! कैसी छलना है,
हैं कैसे दृश्य दिखाते??
टूटी समाधि इतने ही में,
नेत्र उन्होंने खोले।
लख मुझे सामने हँस कर
मीठे स्वर में वे बोले॥
फल गई साधना मेरी,
तुम आईं आज यहाँ पर।
उनकी मंजुल-छाया में
भ्रम रहता भला कहाँ पर॥
अपनी भूलों पर मन यह
जाने कितना पछताया।
संकोच सहित चरणों पर,
जो कुछ था वही चढ़ाया॥
इसका रोना
तुम कहते हो – मुझको इसका रोना नहीं सुहाता है |
मैं कहती हूँ – इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है ||
सच कहती हूँ, इस रोने की छवि को जरा निहारोगे |
बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदों पर मुक्तावली वारोगे || 1 ||
ये नन्हे से होंठ और यह लम्बी-सी सिसकी देखो |
यह छोटा सा गला और यह गहरी-सी हिचकी देखो ||
कैसी करुणा-जनक दृष्टि है, हृदय उमड़ कर आया है |
छिपे हुए आत्मीय भाव को यह उभार कर लाया है || 2 ||
हँसी बाहरी, चहल-पहल को ही बहुधा दरसाती है |
पर रोने में अंतर तम तक की हलचल मच जाती है ||
जिससे सोई हुई आत्मा जागती है, अकुलाती है |
छुटे हुए किसी साथी को अपने पास बुलाती है || 3 ||
मैं सुनती हूँ कोई मेरा मुझको अहा ! बुलाता है |
जिसकी करुणापूर्ण चीख से मेरा केवल नाता है ||
मेरे ऊपर वह निर्भर है खाने, पीने, सोने में |
जीवन की प्रत्येक क्रिया में, हँसने में ज्यों रोने में || 4 ||
मैं हूँ उसकी प्रकृति संगिनी उसकी जन्म-प्रदाता हूँ |
वह मेरी प्यारी बिटिया है मैं ही उसकी प्यारी माता हूँ ||
तुमको सुन कर चिढ़ आती है मुझ को होता है अभिमान |
जैसे भक्तों की पुकार सुन गर्वित होते हैं भगवान || 5 ||
उपेक्षा
इस तरह उपेक्षा मेरी,
क्यों करते हो मतवाले!
आशा के कितने अंकुर,
मैंने हैं उर में पाले॥
विश्वास-वारि से उनको,
मैंने है सींच बढ़ाए।
निर्मल निकुंज में मन के,
रहती हूँ सदा छिपाए॥
मेरी साँसों की लू से
कुछ आँच न उनमें आए।
मेरे अंतर की ज्वाला
उनको न कभी झुलसाए॥
कितने प्रयत्न से उनको,
मैं हृदय-नीड़ में अपने
बढ़ते लख खुश होती थी,
देखा करती थी सपने॥
इस भांति उपेक्षा मेरी
करके मेरी अवहेला
तुमने आशा की कलियाँ
मसलीं खिलने की बेला॥
उल्लास
शैशव के सुन्दर प्रभात का
मैंने नव विकास देखा।
यौवन की मादक लाली में
जीवन का हुलास देखा।।
जग-झंझा-झकोर में
आशा-लतिका का विलास देखा।
आकांक्षा, उत्साह, प्रेम का
क्रम-क्रम से प्रकाश देखा।।
जीवन में न निराशा मुझको
कभी रुलाने को आयी।
जग झूठा है यह विरक्ति भी
नहीं सिखाने को आयी।।
अरिदल की पहिचान कराने
नहीं घृणा आने पायी।
नहीं अशान्ति हृदय तक अपनी
भीषणता लाने पायी।।
कलह-कारण
कड़ी आराधना करके बुलाया था उन्हें मैंने।
पदों को पूजने के ही लिए थी साधना मेरी॥
तपस्या नेम व्रत करके रिझाया था उन्हें मैंने।
पधारे देव, पूरी हो गई आराधना मेरी॥
उन्हें सहसा निहारा सामने, संकोच हो आया।
मुँदीं आँखें सहज ही लाज से नीचे झुकी थी मैं॥
कहूँ क्या प्राणधन से यह हृदय में सोच हो आया।
वही कुछ बोल दें पहले, प्रतीक्षा में रुकी थी मैं॥
अचानक ध्यान पूजा का हुआ, झट आँख जो खोली।
नहीं देखा उन्हें, बस सामने सूनी कुटी दीखी॥
हृदयधन चल दिए, मैं लाज से उनसे नहीं बोली।
गया सर्वस्व, अपने आपको दूनी लुटी दीखी॥
कोयल
देखो कोयल काली है पर
मीठी है इसकी बोली
इसने ही तो कूक कूक कर
आमों में मिश्री घोली
कोयल कोयल सच बतलाना
क्या संदेसा लायी हो
बहुत दिनों के बाद आज फिर
इस डाली पर आई हो
क्या गाती हो किसे बुलाती
बतला दो कोयल रानी
प्यासी धरती देख मांगती
हो क्या मेघों से पानी?
कोयल यह मिठास क्या तुमने
अपनी माँ से पायी है?
माँ ने ही क्या तुमको मीठी
बोली यह सिखलायी है?
डाल डाल पर उड़ना गाना
जिसने तुम्हें सिखाया है
सबसे मीठे मीठे बोलो
यह भी तुम्हें बताया है
बहुत भली हो तुमने माँ की
बात सदा ही है मानी
इसीलिये तो तुम कहलाती
हो सब चिड़ियों की रानी
कठिन प्रयत्नों से सामग्री
कठिन प्रयत्नों से सामग्री मैं बटोरकर लाई थी।
बड़ी उमंगों से मन्दिर में, पूजा करने आई थी॥
पास पहुँचकर जो देखा तो आहा! द्वार खुला पाया।
जिसकी लगन लगी थी उसके दर्शन का अवसर आया॥
हर्ष और उत्साह बढ़ा, कुछ लज्जा, कुछ संकोच हुआ।
उत्सुकता, व्याकुलता कुछ कुछ, कुछ संभ्रम, कुछ सोच हुआ॥
मन में था विश्वास कि उनके अब तो दर्शन पाऊँगी।
प्रियतम के चरणों पर अपना मैं सर्वस्व चढ़ाऊँगी॥
कह दूँगी अन्तरतम की, में उनसे नहीं छिपाऊँगी।
मानिनि हूँ, पर मान तजूँगी, चरणों पर बलि जाऊँगी॥
पूरी हुई साधना मेरी, मुझको परमानन्द मिला।
किन्तु बढ़ी तो हुआ अरे क्या? मन्दिर का पट बन्द मिला।
निठुर पुजारी! यह क्या? मुझ पर तुझे तनक न दया आई?
किया द्वार को बन्द हाय! में प्रियतम को न देख पाई?
करके कृपा, पुजारी! मुझको ज़रा वहाँ तक जाने दे।
मुझको भी थोड़ी सी पूजा प्रियतम तक पहुँचाने दे॥
छूने दे उनके चरणों को, जीवन सफल बनाने दे।
खोल-खोल दे द्वार पुजारी! मन की व्यथा मिटाने दे॥
बहुत बड़ी आशा से आई हूँ, मत तू कर मुझे निराश।
एक बार, बस एक बार तू जाने दे प्रियतम के पास॥
खिलौनेवाला
वह देखो माँ आज
खिलौनेवाला फिर से आया है।
कई तरह के सुंदर-सुंदर
नए खिलौने लाया है।
हरा-हरा तोता पिंजड़े में
गेंद एक पैसे वाली
छोटी सी मोटर गाड़ी है
सर-सर-सर चलने वाली।
सीटी भी है कई तरह की
कई तरह के सुंदर खेल
चाभी भर देने से भक-भक
करती चलने वाली रेल।
गुड़िया भी है बहुत भली-सी
पहने कानों में बाली
छोटा-सा ‘टी सेट’ है
छोटे-छोटे हैं लोटा थाली।
छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं
हैं छोटी-छोटी तलवार
नए खिलौने ले लो भैया
ज़ोर-ज़ोर वह रहा पुकार।
मुन्नू ने गुड़िया ले ली है
मोहन ने मोटर गाड़ी
मचल-मचल सरला करती है
माँ ने लेने को साड़ी
कभी खिलौनेवाला भी माँ
क्या साड़ी ले आता है।
साड़ी तो वह कपड़े वाला
कभी-कभी दे जाता है
अम्मा तुमने तो लाकर के
मुझे दे दिए पैसे चार
कौन खिलौने लेता हूँ मैं
तुम भी मन में करो विचार।
तुम सोचोगी मैं ले लूँगा।
तोता, बिल्ली, मोटर, रेल
पर माँ, यह मैं कभी न लूँगा
ये तो हैं बच्चों के खेल।
मैं तो तलवार खरीदूँगा माँ
या मैं लूँगा तीर-कमान
जंगल में जा, किसी ताड़का
को मारुँगा राम समान।
तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों-
को मैं मार भगाऊँगा
यों ही कुछ दिन करते-करते
रामचंद्र मैं बन जाऊँगा।
यही रहूँगा कौशल्या मैं
तुमको यही बनाऊँगा।
तुम कह दोगी वन जाने को
हँसते-हँसते जाऊँगा।
पर माँ, बिना तुम्हारे वन में
मैं कैसे रह पाऊँगा।
दिन भर घूमूँगा जंगल में
लौट कहाँ पर आऊँगा।
किससे लूँगा पैसे, रूठूँगा
तो कौन मना लेगा
कौन प्यार से बिठा गोद में
मनचाही चींजे़ देगा।
गिरफ़्तार होने वाले हैं
‘‘गिरफ़्तार होने वाले हैं, आता है वारंट अभी॥’’
धक-सा हुआ हृदय, मैं सहमी, हुए विकल साशंक सभी॥
किन्तु सामने दीख पड़े मुस्कुरा रहे थे खड़े-खड़े।
रुके नहीं, आँखों से आँसू सहसा टपके बड़े-बड़े॥
‘‘पगली, यों ही दूर करेगी माता का यह रौरव कष्ट?’’
‘रुका वेग भावों का, दीखा अहा मुझे यह गौरव स्पष्ट॥
तिलक, लाजपत, श्री गांधीजी, गिरफ़्तारी बहुबार हुए।
जेल गये, जनता ने पूजा, संकट में अवतार हुए॥
जेल! हमारे मनमोहन के प्यारे पावन जन्म-स्थान।
तुझको सदा तीर्थ मानेगा कृष्ण-भक्त यह हिन्दुस्तान॥
मैं प्रफुल्ल हो उठी कि आहा! आज गिरफ़्तारी होगी।
फिर जी धड़का, क्या भैया की सचमुच तैयारी होगी!!
आँसू छलके, याद आगयी, राजपूत की वह बाला।
जिसने विदा किया भाई को देकर तिलक और भाला॥
सदियों सोयी हुई वीरता जागी, मैं भी वीर बनी।
जाओ भैया, विदा तुम्हें करती हूँ मैं गम्भीर बनी॥
याद भूल जाना मेरी उस आँसू वाली मुद्रा की।
कीजे यह स्वीकार बधाई छोटी बहिन ‘सुभद्रा’ की॥
चलते समय
तुम मुझे पूछते हो ’जाऊँ’?
मैं क्या जवाब दूँ, तुम्हीं कहो!
’जा…’ कहते रुकती है जबान
किस मुँह से तुमसे कहूँ ’रहो’!!
सेवा करना था जहाँ मुझे
कुछ भक्ति-भाव दरसाना था।
उन कृपा-कटाक्षों का बदला
बलि होकर जहाँ चुकाना था॥
मैं सदा रूठती ही आई,
प्रिय! तुम्हें न मैंने पहचाना।
वह मान बाण-सा चुभता है,
अब देख तुम्हारा यह जाना॥
चिंता
लगे आने, हृदय धन से
कहा मैंने कि मत आओ।
कहीं हो प्रेम में पागल
न पथ में ही मचल जाओ॥
कठिन है मार्ग, मुझको
मंजिलें वे पार करनीं हैं।
उमंगों की तरंगें बढ़ पड़ें
शायद फिसल जाओ॥
तुम्हें कुछ चोट आ जाए
कहीं लाचार लौटूँ मैं।
हठीले प्यार से व्रत-भंग
की घड़ियाँ निकट लाओ॥
जलियाँवाला बाग में बसंत
यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते।
कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना।
कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें।
लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले।
किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर,
कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना।
तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर।
यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान बहुत धीरे से आना।
जीवन-फूल
मेरे भोले मूर्ख हृदय ने
कभी न इस पर किया विचार।
विधि ने लिखी भाल पर मेरे
सुख की घड़ियाँ दो ही चार॥
छलती रही सदा ही
मृगतृष्णा सी आशा मतवाली।
सदा लुभाया जीवन साकी ने
दिखला रीती प्याली॥
मेरी कलित कामनाओं की
ललित लालसाओं की धूल।
आँखों के आगे उड़-उड़ करती है
व्यथित हृदय में शूल॥
उन चरणों की भक्ति-भावना
मेरे लिए हुई अपराध।
कभी न पूरी हुई अभागे
जीवन की भोली सी साध॥
मेरी एक-एक अभिलाषा
का कैसा ह्रास हुआ।
मेरे प्रखर पवित्र प्रेम का
किस प्रकार उपहास हुआ॥
मुझे न दुख है
जो कुछ होता हो उसको हो जाने दो।
निठुर निराशा के झोंकों को
मनमानी कर जाने दो॥
हे विधि इतनी दया दिखाना
मेरी इच्छा के अनुकूल।
उनके ही चरणों पर
बिखरा देना मेरा जीवन-फूल॥
झांसी की रानी
सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?
जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
‘नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार’।
यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुया द्वंद असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
झाँसी की रानी की समाधि पर
इस समाधि में छिपी हुई है, एक राख की ढेरी |
जल कर जिसने स्वतंत्रता की, दिव्य आरती फेरी ||
यह समाधि यह लघु समाधि है, झाँसी की रानी की |
अंतिम लीलास्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||
यहीं कहीं पर बिखर गई वह, भग्न-विजय-माला-सी |
उसके फूल यहाँ संचित हैं, है यह स्मृति शाला-सी |
सहे वार पर वार अंत तक, लड़ी वीर बाला-सी |
आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर, चमक उठी ज्वाला-सी |
बढ़ जाता है मान वीर का, रण में बलि होने से |
मूल्यवती होती सोने की भस्म, यथा सोने से ||
रानी से भी अधिक हमे अब, यह समाधि है प्यारी |
यहाँ निहित है स्वतंत्रता की, आशा की चिनगारी ||
इससे भी सुन्दर समाधियाँ, हम जग में हैं पाते |
उनकी गाथा पर निशीथ में, क्षुद्र जंतु ही गाते ||
पर कवियों की अमर गिरा में, इसकी अमिट कहानी |
स्नेह और श्रद्धा से गाती, है वीरों की बानी ||
बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी |
खूब लड़ी मरदानी वह थी, झाँसी वाली रानी ||
यह समाधि यह चिर समाधि है , झाँसी की रानी की |
अंतिम लीला स्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||
झिलमिल तारे
कर रहे प्रतीक्षा किसकी हैं
झिलमिल-झिलमिल तारे?
धीमे प्रकाश में कैसे तुम
चमक रहे मन मारे।।
अपलक आँखों से कह दो
किस ओर निहारा करते?
किस प्रेयसि पर तुम अपनी
मुक्तावलि वारा करते?
करते हो अमिट प्रतीक्षा,
तुम कभी न विचलित होते।
नीरव रजनी अंचल में
तुम कभी न छिप कर सोते।।
जब निशा प्रिया से मिलने,
दिनकर निवेश में जाते।
नभ के सूने आँगन में
तुम धीरे-धीरे आते।।
विधुरा से कह दो मन की,
लज्जा की जाली खोलो।
क्या तुम भी विरह विकल हो,
हे तारे कुछ तो बोलो।
मैं भी वियोगिनी मुझसे
फिर कैसी लज्जा प्यारे?
कह दो अपनी बीती को
हे झिलमिल-झिलमिल तारे!
ठुकरा दो या प्यार करो
देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं
धूमधाम से साज-बाज से वे मंदिर में आते हैं
मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं
मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आयी
धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं
कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं
नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आयी
पूजा और पुजापा प्रभुवर इसी पुजारिन को समझो
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो
मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ
चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो
तुम
जब तक मैं मैं हूँ, तुम तुम हो,
है जीवन में जीवन।
कोई नहीं छीन सकता
तुमको मुझसे मेरे धन॥
आओ मेरे हृदय-कुंज में
निर्भय करो विहार।
सदा बंद रखूँगी
मैं अपने अंतर का द्वार॥
नहीं लांछना की लपटें
प्रिय तुम तक जाने पाएँगीं।
पीड़ित करने तुम्हें
वेदनाएं न वहाँ आएँगीं॥
अपने उच्छ्वासों से मिश्रित
कर आँसू की बूँद।
शीतल कर दूँगी तुम प्रियतम
सोना आँखें मूँद॥
जगने पर पीना छक-छककर
मेरी मदिरा की प्याली।
एक बूँद भी शेष
न रहने देना करना खाली॥
नशा उतर जाए फिर भी
बाकी रह जाए खुमारी।
रह जाए लाली आँखों में
स्मृतियाँ प्यारी-प्यारी॥
तुम मुझे पूछते हो
यह मुरझाया हुआ फूल है, इसका हृदय दुखाना मत।
स्वयं बिखरनेवाली इसकी, पँखड़ियाँ बिखराना मत॥
गुज़रो अगर पास से इसके इसे चोट पहुँचाना मत।
जीवन की अंतिम घड़ियों में, देखो, इसे रुलाना मत॥
अगर हो सके तो ठंढी-बूँदे टपका देना प्यारे।
जल न जाय संतप्त हृदय, शीतलता ला देना प्यारे॥
डाल पर वे मुरझाये फूल! हृदय में मत कर वृथा गुमान।
नहीं हैं सुमनकुंज में अभी इसीसे है तेरा सम्मान॥
मधुप जो करते अनुनय विनय ने तेरे चरणों के दास।
नई कलियों को खिलती देख नहीं आवेंगे तेरे पास॥
सहेगा वह केसे अपमान? उठेगी वृथा हृदय मंे शूल।
भुलावा है, मत करना गर्व, डाल पर के मुरझाये फूल!!
नीम
सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे।
तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे॥
ये लहलही पत्तियाँ हरी, शीतल पवन बरसा रहीं।
निज मंद मीठी वायु से सब जीव को हरषा रहीं॥
हे नीम! यद्यपि तू कड़ू, नहिं रंच-मात्र मिठास है।
उपकार करना दूसरों का, गुण तिहारे पास है॥
नहिं रंच-मात्र सुवास है, नहिं फूलती सुंदर कली।
कड़ुवे फलों अरु फूल में तू सर्वदा फूली-फली॥
तू सर्वगुणसंपन्न है, तू जीव-हितकारी बड़ी।
तू दु:खहारी है प्रिये! तू लाभकारी है बड़ी॥
है कौन ऐसा घर यहाँ जहाँ काम तेरा नहिं पड़ा।
ये जन तिहारे ही शरण हे नीम! आते हैं सदा॥
तेरी कृपा से सुख सहित आनंद पाते सर्वदा॥
तू रोगमुक्त अनेक जन को सर्वदा करती रहै।
इस भांति से उपकार तू हर एक का करती रहै॥
प्रार्थना हरि से करूँ, हिय में सदा यह आस हो।
जब तक रहें नभ, चंद्र-तारे सूर्य का परकास हो॥
तब तक हमारे देश में तुम सर्वदा फूला करो।
निज वायु शीतल से पथिक-जन का हृदय शीतल करो॥
(यह सुभद्रा जी की पहली कविता है जो 1913 में “मर्यादा” नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। तब वे मात्र 9 साल की थीं। )
परिचय
क्या कहते हो कुछ लिख दूँ मैं
ललित-कलित कविताएं।
चाहो तो चित्रित कर दूँ
जीवन की करुण कथाएं॥
सूना कवि-हृदय पड़ा है,
इसमें साहित्य नहीं है।
इस लुटे हुए जीवन में,
अब तो लालित्य नहीं है॥
मेरे प्राणों का सौदा,
करती अंतर की ज्वाला।
बेसुध-सी करती जाती,
क्षण-क्षण वियोग की हाला॥
नीरस-सा होता जाता,
जाने क्यों मेरा जीवन।
भूली-भूली सी फिरती,
लेकर यह खोया-सा मन॥
कैसे जीवन की प्याली टूटी,
मधु रहा न बाकी?
कैसे छुट गया अचानक
मेरा मतवाला साकी??
सुध में मेरे आते ही
मेरा छिप गया सुनहला सपना।
खो गया कहाँ पर जाने?
जीवन का वैभव अपना॥
क्यों कहते हो लिखने को,
पढ़ लो आँखों में सहृदय।
मेरी सब मौन व्यथाएं,
मेरी पीड़ा का परिचय॥
पानी और धूप
अभी अभी थी धूप, बरसने
लगा कहाँ से यह पानी
किसने फोड़ घड़े बादल के
की है इतनी शैतानी।
सूरज ने क्यों बंद कर लिया
अपने घर का दरवाजा़
उसकी माँ ने भी क्या उसको
बुला लिया कहकर आजा।
ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं
बादल हैं किसके काका
किसको डाँट रहे हैं, किसने
कहना नहीं सुना माँ का।
बिजली के आँगन में अम्माँ
चलती है कितनी तलवार
कैसी चमक रही है फिर भी
क्यों खाली जाते हैं वार।
क्या अब तक तलवार चलाना
माँ वे सीख नहीं पाए
इसीलिए क्या आज सीखने
आसमान पर हैं आए।
एक बार भी माँ यदि मुझको
बिजली के घर जाने दो
उसके बच्चों को तलवार
चलाना सिखला आने दो।
खुश होकर तब बिजली देगी
मुझे चमकती सी तलवार
तब माँ कर न कोई सकेगा
अपने ऊपर अत्याचार।
पुलिसमैन अपने काका को
फिर न पकड़ने आएँगे
देखेंगे तलवार दूर से ही
वे सब डर जाएँगे।
अगर चाहती हो माँ काका
जाएँ अब न जेलखाना
तो फिर बिजली के घर मुझको
तुम जल्दी से पहुँचाना।
काका जेल न जाएँगे अब
तूझे मँगा दूँगी तलवार
पर बिजली के घर जाने का
अब मत करना कभी विचार।
पूछो
विफल प्रयत्न हुए सारे,
मैं हारी, निष्ठुरता जीती।
अरे न पूछो, कह न सकूँगी,
तुमसे मैं अपनी बीती॥
नहीं मानते हो तो जा
उन मुकुलित कलियों से पूछो।
अथवा विरह विकल घायल सी
भ्रमरावलियों से पूछो॥
जो माली के निठुर करों से
असमय में दी गईं मरोड़।
जिनका जर्जर हृदय विकल है,
प्रेमी मधुप-वृंद को छोड़॥
सिंधु-प्रेयसी सरिता से तुम
जाके पूछो मेरा हाल।
जिसे मिलन-पथ पर रोका हो,
कहीं किसी ने बाधा डाल॥
प्रथम दर्शन
प्रथम जब उनके दर्शन हुए,
हठीली आँखें अड़ ही गईं।
बिना परिचय के एकाएक
हृदय में उलझन पड़ ही गई॥
मूँदने पर भी दोनों नेत्र,
खड़े दिखते सम्मुख साकार।
पुतलियों में उनकी छवि श्याम
मोहिनी, जीवित जड़ ही गई॥
भूल जाने को उनकी याद,
किए कितने ही तो उपचार।
किंतु उनकी वह मंजुल-मूर्ति
छाप-सी दिल पर पड़ ही गई॥
प्रतीक्षा
बिछा प्रतीक्षा-पथ पर चिंतित
नयनों के मदु मुक्ता-जाल।
उनमें जाने कितनी ही
अभिलाषाओं के पल्लव पाल॥
बिता दिए मैंने कितने ही
व्याकुल दिन, अकुलाई रात।
नीरस नैन हुए कब करके
उमड़े आँसू की बरसात॥
मैं सुदूर पथ के कलरव में,
सुन लेने को प्रिय की बात।
फिरती विकल बावली-सी
सहती अपवादों के आघात॥
किंतु न देखा उन्हें अभी तक
इन ललचाई आँखों ने।
संकोचों में लुटा दिया
सब कुछ, सकुचाई आँखों ने॥
अब मोती के जाल बिछाकर,
गिनतीं हैं नभ के तारे।
इनकी प्यास बुझाने को सखि!
आएंगे क्या फिर प्यारे?
प्रभु तुम मेरे मन की जानो
मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥
प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी।
यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥
इसीलिए इस अंधकार में, मैं छिपती-छिपती आई हूँ।
तेरे चरणों में खो जाऊँ, इतना व्याकुल मन लाई हूँ॥
तुम देखो पहिचान सको तो तुम मेरे मन को पहिचानो।
जग न भले ही समझे, मेरे प्रभु! मेरे मन की जानो॥
मेरा भी मन होता है, मैं पूजूँ तुमको, फूल चढ़ाऊँ।
और चरण-रज लेने को मैं चरणों के नीचे बिछ जाऊँ॥
मुझको भी अधिकार मिले वह, जो सबको अधिकार मिला है।
मुझको प्यार मिले, जो सबको देव! तुम्हारा प्यार मिला है॥
तुम सबके भगवान, कहो मंदिर में भेद-भाव कैसा?
हे मेरे पाषाण! पसीजो, बोलो क्यों होता ऐसा?
मैं गरीबिनी, किसी तरह से पूजा का सामान जुटाती।
बड़ी साध से तुझे पूजने, मंदिर के द्वारे तक आती॥
कह देता है किंतु पुजारी, यह तेरा भगवान नहीं है।
दूर कहीं मंदिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है॥
मैं सुनती हूँ, जल उठती हूँ, मन में यह विद्रोही ज्वाला।
यह कठोरता, ईश्वर को भी जिसने टूक-टूक कर डाला॥
यह निर्मम समाज का बंधन, और अधिक अब सह न सकूँगी।
यह झूठा विश्वास, प्रतिष्ठा झूठी, इसमें रह न सकूँगी॥
ईश्वर भी दो हैं, यह मानूँ, मन मेरा तैयार नहीं है।
किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥
मेरा भी मन है जिसमें अनुराग भरा है, प्यार भरा है।
जग में कहीं बरस जाने को स्नेह और सत्कार भरा है॥
वही स्नेह, सत्कार, प्यार मैं आज तुम्हें देने आई हूँ।
और इतना तुमसे आश्वासन, मेरे प्रभु! लेने आई हूँ॥
तुम कह दो, तुमको उनकी इन बातों पर विश्वास नहीं है।
छुत-अछूत, धनी-निर्धन का भेद तुम्हारे पास नहीं है॥
नोट: यह कवयित्री की अंतिम रचना है।
प्रियतम से
बहुत दिनों तक हुई परीक्षा
अब रूखा व्यवहार न हो।
अजी, बोल तो लिया करो तुम
चाहे मुझ पर प्यार न हो॥
जरा जरा सी बातों पर
मत रूठो मेरे अभिमानी।
लो प्रसन्न हो जाओ
गलती मैंने अपनी सब मानी॥
मैं भूलों की भरी पिटारी
और दया के तुम आगार।
सदा दिखाई दो तुम हँसते
चाहे मुझ से करो न प्यार॥
फूल के प्रति
डाल पर के मुरझाए फूल!
हृदय में मत कर वृथा गुमान।
नहीं है सुमन कुंज में अभी
इसी से है तेरा सम्मान॥
मधुप जो करते अनुनय विनय
बने तेरे चरणों के दास।
नई कलियों को खिलती देख
नहीं आवेंगे तेरे पास॥
सहेगा कैसे वह अपमान?
उठेगी वृथा हृदय में शूल।
भुलावा है, मत करना गर्व
डाल पर के मुरझाए फूल॥
बादल हैं किसके काका ?
अभी अभी थी धूप, बरसने
लगा कहाँ से यह पानी
किसने फोड़ घड़े बादल के
की है इतनी शैतानी।
सूरज ने क्यों बन्द कर लिया
अपने घर का दरवाज़ा
उसकी माँ ने भी क्या उसको
बुला लिया कहकर आजा।
ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं
बादल हैं किसके काका
किसको डाँट रहे हैं, किसने
कहना नहीं सुना माँ का।
बालिका का परिचय
यह मेरी गोदी की शोभा, सुख सोहाग की है लाली.
शाही शान भिखारन की है, मनोकामना मतवाली .
दीप-शिखा है अँधेरे की, घनी घटा की उजियाली .
उषा है यह काल-भृंग की, है पतझर की हरियाली .
सुधाधार यह नीरस दिल की, मस्ती मगन तपस्वी की.
जीवित ज्योति नष्ट नयनों की, सच्ची लगन मनस्वी की.
बीते हुए बालपन की यह, क्रीड़ापूर्ण वाटिका है .
वही मचलना, वही किलकना,हँसती हुई नाटिका है .
मेरा मंदिर,मेरी मसजिद, काबा काशी यह मेरी .
पूजा पाठ,ध्यान,जप,तप,है घट-घट वासी यह मेरी.
कृष्णचन्द्र की क्रीड़ाओं को अपने आंगन में देखो .
कौशल्या के मातृ-मोद को, अपने ही मन में देखो.
प्रभु ईसा की क्षमाशीलता, नबी मुहम्मद का विश्वास.
जीव-दया जिनवर गौतम की,आओ देखो इसके पास .
परिचय पूछ रहे हो मुझसे, कैसे परिचय दूँ इसका .
वही जान सकता है इसको, माता का दिल है जिसका .
बिदाई
कृष्ण-मंदिर में प्यारे बंधु
पधारो निर्भयता के साथ।
तुम्हारे मस्तक पर हो सदा
कृष्ण का वह शुभचिंतक हाथ॥
तुम्हारी दृढ़ता से जग पड़े
देश का सोया हुआ समाज।
तुम्हारी भव्य मूर्ति से मिले
शक्ति वह विकट त्याग की आज॥
तुम्हारे दुख की घड़ियाँ बनें
दिलाने वाली हमें स्वराज्य।
हमारे हृदय बनें बलवान
तुम्हारी त्याग मूर्ति में आज॥
तुम्हारे देश-बंधु यदि कभी
डरें, कायर हो पीछे हटें,
बंधु! दो बहनों को वरदान
युद्ध में वे निर्भय मर मिटें॥
हजारों हृदय बिदा दे रहे,
उन्हें संदेशा दो बस एक।
कटें तीसों करोड़ ये शीश,
न तजना तुम स्वराज्य की टेक॥
भैया कृष्ण!
भैया कृष्ण! भेजती हूँ मैं राखी अपनी, यह लो आज।
कई बार जिसको भेजा है सजा-सजाकर नूतन साज॥
लो आओ, भुनदण्ड उठाओ, इस राखी में बँधवाओ।
भरत-भूमि की रनभूमी को एकबार फिर दिखलाओ॥
वीर चरित्र राजपूतों का पढ़ती हूँ मैं राजस्थान।
पढ़ते-पढ़ते आँखों में छा जाता राखी का आख्यान॥
मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी जब-जब राखी भिजवाई।
रक्षा करने दौड़ पड़ा वह राखीबंद शत्रु-भाई॥
किन्तु देखना है, यह मेरी राखी क्या दिखलाती है।
क्या निस्तेज कलाई ही पर बँधकर यह रह जाती है॥
देखो भैया, भेज रही हूँ तुमको-तुमको राखी आज।
साखी राजस्थान बनाकर रख लेना राखी की लाज॥
हाथ काँपता हृदय धड़कता है मेरी भारी आवाज़।
अब भी चौंक-चौंक उठता है जलियाँ का वह गोलन्दाज़॥
यम की सूरत उन पतितों के पाप भूल जाऊँ कैसे?
अंकित आज हृदय में है फिर मन को समझाऊँ कैसे?
बहिनें कई सिसकती हैं हा! उनकी सिसक न मिट पाई।
लाज गँवाई, गाली पाई तिस पर गोली भी खाई॥
डर है कहीं न मार्शलला का फिर से पढ़ जाये घेरा॥
ऐसे समय द्रोपदी-जैसा कृष्ण! सहारा है तेरा॥
बोलो, सोच-समझकर बोलो, क्या राखी बँधवाओगे?
भीर पड़ेगी, क्या तुम रक्षा-करने दौड़े आओगे?
यदि हाँ, तो यह लो इस मेरी राखी को स्वीकार करो।
आकर भैया, बहिन ‘‘सुभद्रा’’ के कष्टों का भार हरो॥
भ्रम
देवता थे वे, हुए दर्शन, अलौकिक रूप था।
देवता थे, मधुर सम्मोहन स्वरूप अनूप था॥
देवता थे, देखते ही बन गई थी भक्त मैं।
हो गई उस रूपलीला पर अटल आसक्त मैं॥
देर क्या थी? यह मनोमंदिर यहाँ तैयार था।
वे पधारे, यह अखिल जीवन बना त्यौहार था॥
झाँकियों की धूम थी, जगमग हुआ संसार था।
सो गई सुख नींद में, आनंद अपरंपार था॥
किंतु उठ कर देखती हूँ, अंत है जो पूर्ति थी।
मैं जिसे समझे हुए थी देवता, वह मूर्ति थी॥
मधुमय प्याली
रीती होती जाती थी
जीवन की मधुमय प्याली।
फीकी पड़ती जाती थी
मेरे यौवन की लाली।।
हँस-हँस कर यहाँ निराशा
थी अपने खेल दिखाती।
धुंधली रेखा आशा की
पैरों से मसल मिटाती।।
युग-युग-सी बीत रही थीं
मेरे जीवन की घड़ियाँ।
सुलझाये नहीं सुलझती
उलझे भावों की लड़ियाँ।
जाने इस समय कहाँ से
ये चुपके-चुपके आए।
सब रोम-रोम में मेरे
ये बन कर प्राण समाए।
मैं उन्हें भूलने जाती
ये पलकों में छिपे रहते।
मैं दूर भागती उनसे
ये छाया बन कर रहते।
विधु के प्रकाश में जैसे
तारावलियाँ घुल जातीं।
वालारुण की आभा से
अगणित कलियाँ खुल जातीं।।
आओ हम उसी तरह से
सब भेद भूल कर अपना।
मिल जाएँ मधु बरसायें
जीवन दो दिन का सपना।।
फिर छलक उठी है मेरे
जीवन की मधुमय प्याली।
आलोक प्राप्त कर उनका
चमकी यौवन की लाली।।
मुरझाया फूल
यह मुरझाया हुआ फूल है,
इसका हृदय दुखाना मत।
स्वयं बिखरने वाली इसकी
पंखड़ियाँ बिखराना मत॥
गुजरो अगर पास से इसके
इसे चोट पहुँचाना मत।
जीवन की अंतिम घड़ियों में
देखो, इसे रुलाना मत॥
अगर हो सके तो ठंडी
बूँदें टपका देना प्यारे!
जल न जाए संतप्त-हृदय
शीतलता ला देना प्यारे!!
मातृ-मन्दिर में
वीणा बज-सी उठी, खुल गए नेत्र
और कुछ आया ध्यान।
मुड़ने की थी देर, दिख पड़ा
उत्सव का प्यारा सामान ।।
जिनको तुतला-तुतला करके
शुरू किया था पहली बार।
जिस प्यारी भाषा में हमको
प्राप्त हुआ है माँ का प्यार ।।
उस हिन्दू जन की गरीबिनी
हिन्दी प्यारी हिन्दी का।
प्यारे भारतवर्ष -कृष्ण की
उस प्यारी कालिन्दी का ।।
है उसका ही समारोह यह
उसका ही उत्सव प्यारा।
मैं आश्चर्य-भरी आँखों से
देख रही हूँ यह सारा ।।
जिस प्रकार कंगाल-बालिका
अपनी माँ धनहीना को।
टुकड़ों की मोहताज़ आजतक
दुखिनी को उस दीना को ।।
सुन्दर वस्त्राभूषण-सज्जित,
देख चकित हो जाती है।
सच है या केवल सपना है,
कहती है, रुक जाती है ।।
पर सुन्दर लगती है, इच्छा
यह होती है कर ले प्यार ।
प्यारे चरणों पर बलि जाए
कर ले मन भर के मनुहार ।।
इच्छा प्रबल हुई, माता के
पास दौड़ कर जाती है ।
वस्त्रों को सँवारती उसको
आभूषण पहनाती है ।
उसी भाँति आश्चर्य मोदमय,
आज मुझे झिझकाता है ।
मन में उमड़ा हुआ भाव बस,
मुँह तक आ रुक जाता है ।।
प्रेमोन्मत्ता होकर तेरे पास
दौड़ आती हूँ मैं ।
तुझे सजाने या सँवारने
में ही सुख पाती हूँ मैं ।।
तेरी इस महानता में,
क्या होगा मूल्य सजाने का ?
तेरी भव्य मूर्ति को नकली
आभूषण पहनाने का ?
किन्तु हुआ क्या माता ! मैं भी
तो हूँ तेरी ही सन्तान ।
इसमें ही सन्तोष मुझे है
इसमें ही आनन्द महान ।।
मुझ-सी एक-एक की बन तू
तीस कोटि की आज हुई ।
हुई महान, सभी भाषाओं —
की तू ही सरताज हुई ।।
मेरे लिए बड़े गौरव की
और गर्व की है यह बात ।
तेरे ही द्वारा होवेगा,
भारत में स्वातन्त्रय-प्रभात ।।
असहयोग पर मर-मिट जाना
यह जीवन तेरा होगा ।
हम होंगे स्वाधीन, विश्व का
वैभव धन तेरा होगा ।।
जगती के वीरों-द्वारा
शुभ पदवन्दन तेरा होगा !
देवी के पुष्पों द्वारा
अब अभिनन्दन तेरा होगा ।।
तू होगी आधार, देश की
पार्लमेण्ट बन जाने में ।
तू होगी सुख-सार, देश के
उजड़े क्षेत्र बसाने में ।।
तू होगी व्यवहार, देश के
बिछड़े हृदय मिलाने में ।
तू होगी अधिकार, देशभर —
को स्वातन्त्रय दिलाने में ।।
मेरा जीवन
मैंने हँसना सीखा है
मैं नहीं जानती रोना;
बरसा करता पल-पल पर
मेरे जीवन में सोना।
मैं अब तक जान न पाई
कैसी होती है पीडा;
हँस-हँस जीवन में
कैसे करती है चिंता क्रिडा।
जग है असार सुनती हूँ,
मुझको सुख-सार दिखाता;
मेरी आँखों के आगे
सुख का सागर लहराता।
उत्साह, उमंग निरंतर
रहते मेरे जीवन में,
उल्लास विजय का हँसता
मेरे मतवाले मन में।
आशा आलोकित करती
मेरे जीवन को प्रतिक्षण
हैं स्वर्ण-सूत्र से वलयित
मेरी असफलता के घन।
सुख-भरे सुनले बादल
रहते हैं मुझको घेरे;
विश्वास, प्रेम, साहस हैं
जीवन के साथी मेरे।
मेरा नया बचपन
बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।
गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥
चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।
कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?
बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।
किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥
रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।
बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥
मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।
झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥
दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।
धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥
दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥
मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥
सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।
प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं॥
माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है॥
किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।
चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥
आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।
व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति॥
वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।
क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?
मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।
नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी॥
‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आयी थी।
कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लायी थी॥
पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।
मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा॥
मैंने पूछा ‘यह क्या लायी?’ बोल उठी वह ‘माँ, काओ’।
हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा – ‘तुम्हीं खाओ’॥
पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया॥
मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।
मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ॥
जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।
भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया॥
मेरी टेक
निर्धन हों धनवान, परिश्रम उनका धन हो।
निर्बल हों बलवान, सत्यमय उनका मन हो॥
हों स्वाधीन गुलाम, हृदय में अपनापन हो।
इसी आन पर कर्मवीर तेरा जीवन हो॥
तो, स्वागत सौ बार
करूँ आदर से तेरा।
आ, कर दे उद्धार,
मिटे अंधेर-अंधेरा॥
मेरी कविता
मुझे कहा कविता लिखने को, लिखने मैं बैठी तत्काल।
पहिले लिखा- ‘‘जालियाँवाला’’, कहा कि ‘‘बस, हो गये निहाल॥’’
तुम्हें और कुछ नहीं सूझता, ले-देकर वह खूनी बाग़।
रोने से अब क्या होता है, धुल न सकेगा उसका दाग़॥
भूल उसे, चल हँसो, मस्त हो- मैंने कहा- ‘‘धरो कुछ धीर।’’
तुमको हँसते देख कहीं, फिर फ़ायर करे न डायर वीर॥’’
कहा- ‘‘न मैं कुछ लिखने दूँगा, मुझे चाहिये प्रेम-कथा।’’
मैंने कहा- ‘‘नवेली है वह रम्य वदन है चन्द्र यथा॥’’
अहा! मग्न हो उछल पड़े वे। मैंने कहा-
बड़ी-बड़ी-सी भोली आँखंे केश-पाश ज्यों काले साँप॥
भोली-भाली आँखें देखो, उसे नहीं तुम रुलवाना।
उसके मुँह से प्रेमभरी कुछ मीठी बतियाँ कहलाना॥
हाँ, वह रोती नहीं कभी भी, और नहीं कुछ कहती है।
शून्य दृष्टि से देखा करती, खिन्नमन्ना-सी रहती है॥
करके याद पुराने सुख को, कभी क्रोध में भरती है॥
भय से कभी काँप जाती है, कभी क्रोध में भरती है॥
कभी किसी की ओर देखती नहीं दिखाई देती है।
हँसती नहीं किन्तु चुपके से, कभी-कभी रो लेती है॥
ताज़े हलदी के रँग से, कुछ पीली उसकी सारी है।
लाल-लाल से धब्बे हैं कुछ, अथवा लाल किनारी है॥
उसका छोर लाल, सम्भव है, हो वह ख़ूनी रँग से लाल।
है सिंदूर-बिन्दु से सजति, जब भी कुछ-कुछ उसका भाल॥
अबला है, उसके पैरों में बनी महावर की लाली।
हाथों में मेंहदी की लाली, वह दुखिया भोली-भाली॥
उसी बाग़ की ओर शाम को, जाती हुई दिखाती है।
प्रातःकाल सूर्योदय से, पहले ही फिर आती है॥
लोग उसे पागल कहते हैं, देखो तुम न भूल जाना।
तुम भी उसे न पागल कहना, मुझे क्लेश मत पहुँचाना॥
उसे लौटती समय देखना, रम्य वदन पीला-पीला।
साड़ी का वह लाल छोर भी, रहता है बिल्कुल गीला॥
डायन भी कहते हैं उसका कोई कोई हत्यारे।
उसे देखना, किन्तु न ऐसी ग़लती तुम करना प्यारे॥
बाँई ओर हृदय में उसके कुछ-कुछ धड़कन दिखलाती।
वह भी प्रतिदिन क्रम-क्रम से कुछ धीमी होती जाती॥
किसी रोज़, सम्भव है, उसकी धड़कन बिल्कुल मिट जावे॥
उसकी भोली-भाली आँखें हाय! सदा को मुँद जावे॥
उसकी ऐसी दशा देखना आँसू चार बहा देना।
उसके दुख में दुखिया बनकर तुम भी दुःख मना लेना॥
मेरे पथिक
हठीले मेरे भोले पथिक!
किधर जाते हो आकस्मात।
अरे क्षण भर रुक जाओ यहाँ,
सोच तो लो आगे की बात॥
यहाँ के घात और प्रतिघात,
तुम्हारा सरस हृदय सुकुमार।
सहेगा कैसे? बोलो पथिक!
सदा जिसने पाया है प्यार॥
जहाँ पद-पद पर बाधा खड़ी,
निराशा का पहिरे परिधान।
लांछना डरवाएगी वहाँ,
हाथ में लेकर कठिन कृपाण॥
चलेगी अपवादों की लूह,
झुलस जावेगा कोमल गात।
विकलता के पलने में झूल,
बिताओगे आँखों में रात॥
विदा होगी जीवन की शांति,
मिलेगी चिर-सहचरी अशांति।
भूल मत जाओ मेरे पथिक,
भुलावा देती तुमको भ्रांति॥
मेरे भोले सरल हृदय ने
मेरे भोले सरल हृदय ने कभी न इस पर किया विचार-
विधि ने लिखी भाल पर मेरे सुख की घड़ियाँ दो ही चार!
छलती रही सदा ही आशा मृगतृष्णा-सी मतवाली,
मिली सुधा या सुरा न कुछ भी, दही सदा रीती प्याली।
मेरी कलित कामनाओं की, ललित लालसाओं की धूल,
इन प्यासी आँखों के आगे उड़कर उपजाती है शूल।
उन चरणों की भक्ति-भावना मेरे लिये हुई अपराध,
कभी न पूरी हुई अभागे जीवन की भोली-सी साध।
आशाओं-अभिलाषाओं का एक-एक कर हृास हुआ,
मेरे प्रबल पवित्र प्रेम का इस प्रकार उपहास हुआ!
दुःख नहीं सरबस हरने का, हरते हैं, हर लेने दो,
निठुर निराशा के झोंकों को मनमानी कर लेने दो।
हे विधि, इतनी दया दिखाना मेरी इच्छा के अनुकूल-
उनके ही चरणों पर बिखरा देना मेरा जीवन-फूल।
प्रियतम मिले भी तो हृदय में अनुराग की आग
लगाकर छिप गये, रूखा व्यवहार करने लगे
मेरी जीर्ण-शीर्ण कुटिया में चुपके चुपके आकर।
निर्मोही! छिप गये कहाँ तुम? नाइक आग लगाकर॥
ज्यों-ज्यों इसे बुझाती हूँ- बढ़ती जाती है आग।
निठुर! बुझा दे, मत बढ़ने दे, लगने दे मत दाग़॥
बहुत दिनों तक हुई प्ररीक्षा अब रूखा व्यवहार न हो।
अजी बोल तो लिया करो तुम चाहे मुझ पर प्यार न हो॥
जिसकी होकर रही सदा मैं जिसकी अब भी कहलाती।
क्यों न देख इन व्यवहारों को टूक-टूक फिर हो छाती?
देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं।
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग के लाते हैं॥
धूम-धाम से साज-बाज से वे मन्दिर में आते हैं।
मुक्ता-मणि बहुमूल्य वस्तुएँ लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं॥
मैं ही हूँ ग़रीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लाई।
फिर भी साहसकर मन्दिर में पूजा करने आई॥
धूप-दीप नैवेद्य नहीं है, झाँकी का शृंगार नहीं।
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं॥
मैं कैसे स्तुति करूँ तुम्हारी? है स्वर में माधुर्य नहीं।
मन का भाव प्रगट करने को, बाणी में चातुर्य नहीं॥
नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आई।
पूजा की विधि नहीं जानती फिर भी नाथ! चली आई॥
पूजा और पुजापा प्रभुवर! इसी पुजारिन को समझो।
दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो॥
मैं उन्मत, प्रेम की लोभी हृदय दिखाने आई हूँ।
जो कुछ है, बस यही पास है, इसे चढ़ाने आई हूँ॥
चरणों पर अर्पित है इसको चाहो तो स्वीकार करो।
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो॥
यह कदम्ब का पेड़
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली॥
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता॥
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता॥
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता॥
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे॥
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता॥
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं॥
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे॥
यह मुरझाया हुआ फूल है
यह मुरझाया हुआ फूल है, इसका हृदय दुखाना मत।
स्वयं बिखरनेवाली इसकी, पँखड़ियाँ बिखराना मत॥
गुज़रो अगर पास से इसके इसे चोट पहुँचाना मत।
जीवन की अंतिम घड़ियों में, देखो, इसे रुलाना मत॥
अगर हो सके तो ठंढी-बूँदे टपका देना प्यारे।
जल न जाय संतप्त हृदय, शीतलता ला देना प्यारे॥
डाल पर वे मुरझाये फूल! हृदय में मत कर वृथा गुमान।
नहीं हैं सुमनकुंज में अभी इसीसे है तेरा सम्मान॥
मधुप जो करते अनुनय विनय ने तेरे चरणों के दास।
नई कलियों को खिलती देख नहीं आवेंगे तेरे पास॥
सहेगा वह केसे अपमान? उठेगी वृथा हृदय मंे शूल।
भुलावा है, मत करना गर्व, डाल पर के मुरझाये फूल!!
राखी
भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं
राखी अपनी, यह लो आज।
कई बार जिसको भेजा है
सजा-सजाकर नूतन साज।।
लो आओ, भुजदण्ड उठाओ
इस राखी में बँध जाओ।
भरत – भूमि की रजभूमि को
एक बार फिर दिखलाओ।।
वीर चरित्र राजपूतों का
पढ़ती हूँ मैं राजस्थान।
पढ़ते – पढ़ते आँखों में
छा जाता राखी का आख्यान।।
मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी
जब-जब राखी भिजवाई।
रक्षा करने दौड़ पड़ा वह
राखी – बन्द – शत्रु – भाई।।
किन्तु देखना है, यह मेरी
राखी क्या दिखलाती है ।
क्या निस्तेज कलाई पर ही
बँधकर यह रह जाती है।।
देखो भैया, भेज रही हूँ
तुमको-तुमको राखी आज ।
साखी राजस्थान बनाकर
रख लेना राखी की लाज।।
हाथ काँपता, हृदय धड़कता
है मेरी भारी आवाज़।
अब भी चौक-चौक उठता है
जलियाँ का वह गोलन्दाज़।।
यम की सूरत उन पतितों का
पाप भूल जाऊँ कैसे?
अँकित आज हृदय में है
फिर मन को समझाऊँ कैसे?
बहिनें कई सिसकती हैं हा !
सिसक न उनकी मिट पाई ।
लाज गँवाई, ग़ाली पाई
तिस पर गोली भी खाई।।
डर है कहीं न मार्शल-ला का
फिर से पड़ जावे घेरा।
ऐसे समय द्रौपदी-जैसा
कृष्ण ! सहारा है तेरा।।
बोलो, सोच-समझकर बोलो,
क्या राखी बँधवाओगे?
भीर पडेगी, क्या तुम रक्षा
करने दौड़े आओगे?
यदि हाँ तो यह लो मेरी
इस राखी को स्वीकार करो।
आकर भैया, बहिन ‘सुभद्रा’ —
के कष्टों का भार हरो।।
राखी की चुनौती
बहिन आज फूली समाती न मन में।
तड़ित आज फूली समाती न घन में।।
घटा है न झूली समाती गगन में।
लता आज फूली समाती न बन में।।
कही राखियाँ है, चमक है कहीं पर,
कही बूँद है, पुष्प प्यारे खिले हैं।
ये आई है राखी, सुहाई है पूनो,
बधाई उन्हें जिनको भाई मिले हैं।।
मैं हूँ बहिन किन्तु भाई नहीं है।
है राखी सजी पर कलाई नहीं है।।
है भादो घटा किन्तु छाई नहीं है।
नहीं है ख़ुशी पर रुलाई नहीं है।।
मेरा बन्धु माँ की पुकारो को सुनकर-
के तैयार हो जेलखाने गया है।
छिनी है जो स्वाधीनता माँ की उसको
वह जालिम के घर में से लाने गया है।।
मुझे गर्व है किन्तु राखी है सूनी।
वह होता, ख़ुशी तो क्या होती न दूनी?
हम मंगल मनावें, वह तपता है धूनी।
है घायल हृदय, दर्द उठता है ख़ूनी।।
है आती मुझे याद चित्तौर गढ की,
धधकती है दिल में वह जौहर की ज्वाला।
है माता-बहिन रो के उसको बुझाती,
कहो भाई, तुमको भी है कुछ कसाला?।।
है, तो बढ़े हाथ, राखी पड़ी है।
रेशम-सी कोमल नहीं यह कड़ी है।।
अजी देखो लोहे की यह हथकड़ी है।
इसी प्रण को लेकर बहिन यह खड़ी है।।
आते हो भाई ? पुनः पूछती हूँ —
कि माता के बन्धन की है लाज तुमको?
– तो बन्दी बनो, देखो बन्धन है कैसा,
चुनौती यह राखी की है आज तुमको।।
विजयी मयूर
तू गरजा, गरज भयंकर थी,
कुछ नहीं सुनाई देता था।
घनघोर घटाएं काली थीं,
पथ नहीं दिखाई देता था॥
तूने पुकार की जोरों की,
वह चमका, गुस्से में आया।
तेरी आहों के बदले में,
उसने पत्थर-दल बरसाया॥
तेरा पुकारना नहीं रुका,
तू डरा न उसकी मारों से।
आखिर को पत्थर पिघल गए,
आहों से और पुकारों से॥
तू धन्य हुआ, हम सुखी हुए,
सुंदर नीला आकाश मिला।
चंद्रमा चाँदनी सहित मिला,
सूरज भी मिला, प्रकाश मिला॥
विजयी मयूर जब कूक उठे,
घन स्वयं आत्मदानी होंगे।
उपहार बनेंगे वे प्रहार,
पत्थर पानी-पानी होंगे॥
विदा
अपने काले अवगुंठन को
रजनी आज हटाना मत।
जला चुकी हो नभ में जो
ये दीपक इन्हें बुझाना मत॥
सजनि! विश्व में आज
तना रहने देना यह तिमिर वितान।
ऊषा के उज्ज्वल अंचल में
आज न छिपना अरी सुजान॥
सखि! प्रभात की लाली में
छिन जाएगी मेरी लाली।
इसीलिए कस कर लपेट लो,
तुम अपनी चादर काली॥
किसी तरह भी रोको, रोको,
सखि! मुझ निधनी के धन को।
आह! रो रहा रोम-रोम
फिर कैसे समझाऊँ मन को॥
आओ आज विकलते!
जग की पीड़ाएं न्यारी-न्यारी।
मेरे आकुल प्राण जला दो,
आओ तुम बारी-बारी॥
ज्योति नष्ट कर दो नैनों की,
लख न सकूँ उनका जाना।
फिर मेरे निष्ठुर से कहना,
कर लें वे भी मनमाना॥
वीरों का कैसा हो वसंत
आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का कैसा हो वसंत
फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का कैसा हो वसंत
भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान;
मिलने को आए आदि अंत
वीरों का कैसा हो वसंत
गलबाहें हों या कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण;
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का कैसा हो वसंत
कह दे अतीत अब मौन त्याग
लंके तुझमें क्यों लगी आग
ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग;
बतला अपने अनुभव अनंत
वीरों का कैसा हो वसंत
हल्दीघाटी के शिला खण्ड
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
राणा ताना का कर घमंड;
दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत
वीरों का कैसा हो वसंत
भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छन्द नहीं
है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;
फिर हमें बताए कौन हन्त
वीरों का कैसा हो वसंत
वेदना
दिन में प्रचंड रवि-किरणें
मुझको शीतल कर जातीं।
पर मधुर ज्योत्स्ना तेरी,
हे शशि! है मुझे जलाती॥
संध्या की सुमधुर बेला,
सब विहग नीड़ में आते।
मेरी आँखों के जीवन,
बरबस मुझसे छिन जाते॥
नीरव निशि की गोदी में,
बेसुध जगती जब होती।
तारों से तुलना करते,
मेरी आँखों के मोती॥
झंझा के उत्पातों सा,
बढ़ता उन्माद हृदय का।
सखि! कोई पता बता दे,
मेरे भावुक सहृदय का॥
जब तिमिरावरण हटाकर,
ऊषा की लाली आती।
मैं तुहिन बिंदु सी उनके,
स्वागत-पथ पर बिछ जाती॥
खिलते प्रसून दल, पक्षी
कलरव निनाद कर गाते।
उनके आगम का मुझको
मीठा संदेश सुनाते॥
व्याकुल चाह
सोया था संयोग उसे
किस लिए जगाने आए हो?
क्या मेरे अधीर यौवन की
प्यास बुझाने आए हो??
रहने दो, रहने दो, फिर से
जाग उठेगा वह अनुराग।
बूँद-बूँद से बुझ न सकेगी,
जगी हुई जीवन की आग॥
झपकी-सी ले रही
निराशा के पलनों में व्याकुल चाह।
पल-पल विजन डुलाती उस पर
अकुलाए प्राणों की आह॥
रहने दो अब उसे न छेड़ो,
दया करो मेरे बेपीर!
उसे जगाकर क्यों करते हो?
नाहक मेरे प्राण अधीर॥
सभा का खेल
सभा सभा का खेल आज हम
खेलेंगे जीजी आओ,
मैं गाधी जी, छोटे नेहरू
तुम सरोजिनी बन जाओ।
मेरा तो सब काम लंगोटी
गमछे से चल जाएगा,
छोटे भी खद्दर का कुर्ता
पेटी से ले आएगा।
लेकिन जीजी तुम्हें चाहिए
एक बहुत बढ़िया सारी,
वह तुम माँ से ही ले लेना
आज सभा होगी भारी।
मोहन लल्ली पुलिस बनेंगे
हम भाषण करने वाले,
वे लाठियाँ चलाने वाले
हम घायल मरने वाले।
छोटे बोला देखो भैया
मैं तो मार न खाऊँगा,
मुझको मारा अगर किसी ने
मैं भी मार लगाऊँगा!
कहा बड़े ने-छोटे जब तुम
नेहरू जी बन जाओगे,
गांधी जी की बात मानकर
क्या तुम मार न खाओगे?
खेल खेल में छोटे भैया
होगी झूठमूठ की मार,
चोट न आएगी नेहरू जी
अब तुम हो जाओ तैयार।
हुई सभा प्रारम्भ, कहा
गांधी ने चरखा चलवाओ,
नेहरू जी भी बोले भाई
खद्दर पहनो पहनाओ।
उठकर फिर देवी सरोजिनी
धीरे से बोलीं, बहनो!
हिन्दू मुस्लिम मेल बढ़ाओ
सभी शुद्ध खद्दर पहनो।
छोड़ो सभी विदेशी चीजें
लो देशी सूई तागा,
इतने में लौटे काका जी
नेहरू सीट छोड़ भागा।
काका आए, काका आए
चलो सिनेमा जाएँगे,
घोरी दीक्षित को देखेंगे
केक-मिठाई खाएँगे!
जीजी, चलो, सभा फिर होगी
अभी सिनेमा है जाना,
आओ, खेल बहुत अच्छा है
फिर सरोजिनी बन जाना।
चलो चलें, अब जरा देर को
घोरी दीक्षित बन जाएँ,
उछलें-कूदें शोर मचावें
मोटर गाड़ी दौड़ावें!
समर्पण
सूखी सी अधखिली कली है
परिमल नहीं, पराग नहीं।
किंतु कुटिल भौंरों के चुंबन
का है इन पर दाग नहीं॥
तेरी अतुल कृपा का बदला
नहीं चुकाने आई हूँ।
केवल पूजा में ये कलियाँ
भक्ति-भाव से लाई हूँ॥
प्रणय-जल्पना चिन्त्य-कल्पना
मधुर वासनाएं प्यारी।
मृदु-अभिलाषा, विजयी आशा
सजा रहीं थीं फुलवारी॥
किंतु गर्व का झोंका आया
यदपि गर्व वह था तेरा।
उजड़ गई फुलवारी सारी
बिगड़ गया सब कुछ मेरा॥
बची हुई स्मृति की ये कलियाँ
मैं समेट कर लाई हूँ।
तुझे सुझाने, तुझे रिझाने
तुझे मनाने आई हूँ॥
प्रेम-भाव से हो अथवा हो
दया-भाव से ही स्वीकार।
ठुकराना मत, इसे जानकर
मेरा छोटा सा उपहार॥
साध
मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।
भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।।
वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर।
बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर।।
कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता का जल।
पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।।
सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों।
तरु-दल की शीतल छाया में चल समीर-सा गाते हों।।
सरिता के नीरव प्रवाह-सा बढ़ता हो अपना जीवन।
हो उसकी प्रत्येक लहर में अपना एक निरालापन।।
रचे रुचिर रचनाएँ जग में अमर प्राण भरने वाली।
दिशि-दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली।।
तुम कविता के प्राण बनो मैं उन प्राणों की आकुल तान।
निर्जन वन को मुखरित कर दे प्रिय! अपना सम्मोहन गान।।
साक़ी
अरे! ढाल दे, पी लेने दे! दिल भरकर प्यारे साक़ी।
साध न रह जाये कुछ इस छोटे से जीवन की बाक़ी॥
ऐसी गहरी पिला कि जिससे रंग नया ही छा जावे।
अपना और पराया भूलँ; तू ही एक नजऱ आवे॥
ढाल-ढालकर पिला कि जिससे मतवाला होवे संसार।
साको! इसी नशे में कर लेंगे भारत-माँ का उद्धार॥
स्मृतियाँ
क्या कहते हो? किसी तरह भी
भूलूँ और भुलाने दूँ?
गत जीवन को तरल मेघ-सा
स्मृति-नभ में मिट जाने दूँ?
शान्ति और सुख से ये
जीवन के दिन शेष बिताने दूँ?
कोई निश्चित मार्ग बनाकर
चलूँ तुम्हें भी जाने दूँ?
कैसा निश्चित मार्ग? ह्रदय-धन
समझ नहीं पाती हूँ मैं
वही समझने एक बार फिर
क्षमा करो आती हूँ मैं।
जहाँ तुम्हारे चरण, वहीँ पर
पद-रज बनी पड़ी हूँ मैं
मेरा निश्चित मार्ग यही है
ध्रुव-सी अटल अड़ी हूँ मैं।
भूलो तो सर्वस्व ! भला वे
दर्शन की प्यासी घड़ियाँ
भूलो मधुर मिलन को, भूलो
बातों की उलझी लड़ियाँ।
भूलो प्रीति प्रतिज्ञाओं को
आशाओं विश्वासों को
भूलो अगर भूल सकते हो
आंसू और उसासों को।
मुझे छोड़ कर तुम्हें प्राणधन
सुख या शांति नहीं होगी
यही बात तुम भी कहते थे
सोचो, भ्रान्ति नहीं होगी।
सुख को मधुर बनाने वाले
दुःख को भूल नहीं सकते
सुख में कसक उठूँगी मैं प्रिय
मुझको भूल नहीं सकते।
मुझको कैसे भूल सकोगे
जीवन-पथ-दर्शक मैं थी
प्राणों की थी प्राण ह्रदय की
सोचो तो, हर्षक मैं थी।
मैं थी उज्ज्वल स्फूर्ति, पूर्ति
थी प्यारी अभिलाषाओं की
मैं ही तो थी मूर्ति तुम्हारी
बड़ी-बड़ी आशाओं की।
आओ चलो, कहाँ जाओगे
मुझे अकेली छोड़, सखे!
बंधे हुए हो ह्रदय-पाश में
नहीं सकोगे तोड़, सखे!
स्वदेश के प्रति
आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ,
स्वागत करती हूँ तेरा।
तुझे देखकर आज हो रहा,
दूना प्रमुदित मन मेरा॥
आ, उस बालक के समान
जो है गुरुता का अधिकारी।
आ, उस युवक-वीर सा जिसको
विपदाएं ही हैं प्यारी॥
आ, उस सेवक के समान तू
विनय-शील अनुगामी सा।
अथवा आ तू युद्ध-क्षेत्र में
कीर्ति-ध्वजा का स्वामी सा॥
आशा की सूखी लतिकाएं
तुझको पा, फिर लहराईं।
अत्याचारी की कृतियों को
निर्भयता से दरसाईं॥
हे काले-काले बादल
हे काले-काले बादल, ठहरो, तुम बरस न जाना।
मेरी दुखिया आँखों से, देखो मत होड़ लगाना॥
तुम अभी-अभी आये हो, यह पल-पल बरस रही हैं।
तुम चपला के सँग खुश हो, यह व्याकुल तरस रही हैं॥
तुम गरज-गरज कर अपनी, मादकता क्यों भरते हो?
इस विधुर हृदय को मेरे, नाहक पीड़ित करते हो॥
मैं उन्हें खोजती फिरती, पागल-सी व्याकुल होती।
गिर जाते इन आँखों से, जाने कितने ही मोती॥