कविता संग्रह
नेपथ्य में अंधेरा कविता-संग्रह
नेपथ्य में अंधेरा
मंच पर रोशनी
नेपथ्य में अंधेरा
सारतत्त्व
यही मेरा।
दर्शकों की भीड़ में
तालियों की गूँज में
खोया है कहीं
सपनों का सवेरा।
प्रशंसक आए
आयोजक आए
व्यवस्थापक आए
विदूषक आए
सभायें हुईं
प्रतिज्ञायें हुईं
झगड़ा बस इतना
क्या तेरा क्या मेरा।
किरदार ऐसे बने
मंच ऐसे सजे
व्यभिचार हुए
दुराचार हुए
अत्याचार हुए
बलात्कार हुए
अर्जुन को छोड़
युधिष्ठिर से मुँह मोड़
द्रौपदी बोली –
दुःशासन मेरा।
आज के धृतराष्ट्र भी
वैसे ही अन्धे
भीष्म के सामने
चलते हैं धन्धे
इन्द्रप्रस्थ बन गया
दुर्योधन का डेरा।
मंच के खेल में
सभी खलनायक मेल में
ऐसा कथानक
चाहते
आज के दर्शक
किस्से हों सनसनीखेज
अन्त लोमहर्षक।
बाज़़ार में बिक गया
साहित्य, संगीत, सवेरा
मंच पर रोशनी
नेपथ्य में अंधेरा
कर्णहर-तुम्हारी रेत पर
कर्णहर तुम्हारी रेत पर
सो गये
सपने वसंती
दूर जब तक
बावली की सीढ़ियों पर
गुनगुनाती
लाजवन्ती।
हरित
पुष्पित वीथिकायें
स्पर्शकातर
दिन बितायें
पुष्प-रेणु प्राप्त करने
तितलियां भी
किधर जायें।
क्यों न हम सब
आज मिलकर
पक्षियों के साथ उड़कर
तरुण रवि रश्मियों से
थोड़ा
सिन्दूरी रंग चुरायें।
कुछ प्रतिनिधि रचनाएँ
तुमसे ही
नाभिनालबद्ध
चिरकाल सम्बद्ध
अस्मिताओं का
अवसान कर दो
बहुत भटका
बहुत भूला
अब लक्ष्य का
सन्धान कर दो
कब से जुड़ा हूँ
क्यों जुड़ा हूँ
प्रश्नों की भीड़ में
मनमीत
मैं खड़ा हूँ
कुछ बोलकर
कुछ खोलकर
समाधान कर दो
क्या कहूँ
किससे कहूँ
और कितनी
पीड़ा सहूँ
दर्द के हिमखण्ड को
पिघलने का वरदान दे दो
मण्डित हुआ
खण्डित हुआ
पुरस्कृत हुआ
दण्डित हुआ
श्याम निर्झर को
मिले सागर
कुछ ऐसा विधान कर दो
सर्वत्र हो
सर्वज्ञ हो
ज्ञान हो तुम
ज्ञेय हो
गूढ़ हो तुम
मूढ़ हूं मैं
क्षुद्रता अपनी समझ लूँ
आज ऐसा ज्ञान दे दो
मंच हो
नेपथ्य हो
सारगर्भित कथ्य हो
भूमिका अपनी निभाकर
स्वर्ण-रथ पर चल सकूं
संभ्रान्ति के इस दौर में
सत्य का
संज्ञान दे दो
आज तुमसे क्या कहूँ
जो भी चाहो
दान दे दो।
दुख ही अपना है
लोग आते हैं
लोग जाते हैं
रात के अंधेरों में
दर्द के क़ाफ़िले रह जाते हैं
सुख की चाहत में
उम्र निकल जाती है
दुःख की नदी
हर कदम पर
गहराती है।
इसके दलदली किनारों पर
भूखे घड़ियाल सोते हैं
पीपल के पेड़ पर
सिद्धार्थ जहाँ रोते हैं
हाँ, दुःख है दुनिया में
पर निदान कहाँ इसका
सब आँसुओं में
डूबे हैं
कौन यहां किसका।
दुःख के दरिया में
डूबकर जाना है
आंसू तो अपने हैं
शहर बेगाना है।
पर इस नदी का
जल बड़ा निर्मल है
थोड़ा मन धुल गया
थोड़ा श्यामल है
अन्तर्दृष्टियां उभरी हैं
छोटे-छोटे द्वीपों की तरह
नदी जो बहती है
बहुत गहरी है
पर
उस पार उतरना है
जाना है
यह सफ़र ही अपना है
बाकी सब सपना है।
आज मैंने जाना है
दुःख ही अपना है
सुख मौसमी हवाओं की
तरह आते हैं
हाथों में रेत
आँखों में किरचियाँ छोड़ जाते हैं
वक़्त की नदी में
वक़्त की नदी में
जब सारे सपनों को बहा दिया
तुम कहते हो
मैंने यह क्या किया।
बबूल के
पलाश के
जंगल से गुज़रे जब
यात्रा का हर पड़ाव था
रक्त से लथपथ
पलाश के फूलों में
मैंने लहू मिला दिया
तुम कहते हो
मैंने यह क्या किया
उजाले भी तुम्हारे थे
अंधेरे भी तुम्हारे थे
दीप जब बुझ गये
अंधेरे ही सहारे थे
रातों के निमन्त्रण पर
सुबह को ठुकरा दिया
तुम कहते हो
मैंने यह क्या किया
सदियों से जीते हम
केवल विष पीते हम
अनिश्चित यात्रा में
भावशून्य
रीते हम।
रेत के घरौंदों को
रेत में मिला दिया
तुम कहते हो
मैंने यह क्या किया
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