कर्त्तव्य
अभी तू यहीं कहीं थी –
पास में
और लुटा रही थी
अपने नीले गले से रस माधुरी।
मैं सावधान सिपाही
चौकस
संगीन ताने
दुश्मन की टोह ले रहा था कि
तू नज़रों के सामने झिलमिला उठी।
तेरी आँखों के तिलों पर
नज़रें थिर कर
जैसे ही- तुझे चूमने को बढ़ा कि
एक कड़कती हुई अवाज़
सर्द वादियों में गूँज गई
और मैं चौकन्ना
अनुशासित सिपाही की तरह
सतर्क हो गया
संगीन साधे।
प्रयास
एक उदास शाम भी
हो जाती है स्वर्णिम
अनवरत संघर्ष के बाद
दिख जाती है –
दूर कहीं झीनी-सी सम्भावनाएँ
जुगनू-सा आलोक
सुप्त-सी चिंगारी,
आओ, संघर्ष की फूँक से उसे
भभका दें।
रात अभी हुई नहीं
मंज़िल नज़दीक है।
घायल
उसने ठीक हमारी नाक पर पत्थर मारा
और हम हो गए घायल
क्या सिर्फ़ घायल?
कलेजे पर लोटते हैं साँप
दिलों में घोंपे जाते हैं खंज़र
संगीनों की धड़कनें जब
हो जाती हैं प्रचण्ड।
झोंपड़े के बीच
दूध पीता बचा
वात्सल्य उड़ेलती माँ
और दफ़्तर से लौटते पिता को
निगल जाती है शाम
उदास हो जाती हैं वादियाँ
तब भी
तुम होते हो घायल
सिर्फ़ घायल
हज़ारों वर्षों से होते रहे हो घायल
बोलो-
कब तक होते रहेंगे-
हम घायल
इतिहास
प्रिये!
चाहता हूँ तुझे एक ख़त लिखना
पिछली दो सहस्त्राब्दी जितना लम्बा
पर आशंका है –
हर बिन्दु लाल हो जाएगा
और
तुम्हें ख़ून से डर लगता है
माटी की महक
वे माटी की महक हैं
धान की फ़सल की तरह हरित
गुलाब-सा ख़ुशबूमान!
अपनी माटी से दूर
पहाड़ों पर
रेगिस्तानों के पार।
सागर के नीचे,
अन्तरिक्ष के पार।
लाँघ जाते हैं- सभ्यता के घेरे
जहाँ जाते हैं
बन जाते हैं- माटी की महक
पर छूतता नहीं उनसे
रामचरितमानस
होली के गीत
हनुमान जी का ध्वज।
तुलसी मॉरीशस में उगाते हैं
त्रिनिडाड में होली गाते हैं
हनुमान जी-से ध्वजा पर चढ़कर
पपुआ न्यूगनी हो आते हैं
वे अपनी ही माँ के बेटे हैं
धरती-सा दिल है उनका।
हज़ार वर्ष बाद भी लौटते हैं
अपनी माटी पर
होरहा की गंध में बंधे
होरी गाते हैं।
बसंत के आगमन की सूचनाएँ
तुम्हारे गदराए यौवन
और ये कस उभार
बसंत के आगमन की सूचनाएँ हैं।
उड़ती तितलियाँ और गुनगुनाते भौंरे
और मेरे मन की हिलोरें
संवाद स्थापित कर कहती हैं –
तुम आ रही हो।
ये ठोस उभार
जीवन-आश्चर्य के पिरामिड हैं
जहाँ दफ़नाए गए हैं-
अजन्मे के लिए अन्न-भंडार
उष्ण सफ़ेद-सी अमृत-धारा
धरती पर उगे ये ज्वालामुखी
अपने क्रेटर पर उगाते हैं
कमल के फूल
और मन भ्रमर महसूस करता है-
लावे पर उग आईं नीली कोमल पंखुड़ियों को।
तट पर खड़ा मल्लाह
दूर अगाध समुद्रमें निहारता है
लंगर डाले खड़े दो जहाज़
और हाथ के कबूतर उड़ जाते हैं।
तुम्हारे गदराए यौवन
और ये कस उभार
बसंत के आगमन की सूचनाएँ हैं।