सड़क बुहारती हुई औरत
सड़क बुहारती हुई औरत
जानती है कहा-कहाँ हैं गड्ढे
कहाँ-कहाँ पड़ा है कीचड़
कहाँ-कहाँ छितरे हैं सड़े पत्ते
कहाँ-कहाँ बहाया गया है कुन्ती-पुत्र
कहाँ-कहाँ है फिसलन
कहाँ-कहाँ बिखरे हैं निरोध
और कहाँ-कहाँ थूक गया है सनातन धर्म
सड़क बुहारती हुई औरत
कई हज़ार साल गन्दगी के ख़िलाफ़ / छेड़ती है आन्दोलन
और सुस्ताने के लिए बैठकर / जलाती है बीड़ी
रामचरण शास्त्री सोचते हैं
कि उसकी सुलगी हुई बीड़ी की चिंगारी से
भस्म न हो जाएँ कहीं उनकी पोथियाँ
पृथ्वी के समूचे बर्तन को / झाड़-पोंछकर
अच्छी तरह चमकाती है
सड़क बुहारती हुई औरत
और रामचरण शास्त्री को चिन्ता है
अपनी दीमक-खाई पोथियों की।
बेझिझक
झिझके हुए शब्द का मुँह धुलवाया / ठीक से अरामकुर्सी पर बैठाया / ताज़गी बरक़रार रखने के लिए काफी पिलायी / और पूछा झिझक के बारे में।
पता चला कि झिझकता रहा शम्बूक का वध करने में / मगर वर्ण-व्यवस्था का क्या होता / पुरोहित चढ़ाए बैठे थे त्योरियाँ / और उस निरपराध का सिर काटने के सिवाय कोई चारा नहीं था।
झिझकना भी कोई वधस्थल है क्या / और वहाँ ले जाया / जाता है शब्द बकरे की तरह।
झिझक गये तो पुरोहितों का ख़ंजर सौंपने वाले / जिन अख़बारों की जलाई जा रही हैं प्रतियाँ / उनके उगले गये ज़हर के सामने टिक नहीं पाओगे।
झिझका रहा था अर्जुन / प्रचारित यही किया गया था / हक़ीक़त जो कुछ भी रही हो / एकदम फ्रंट पर विषैले कर्म / के बारे में कहा जा रहा / था कृष्ण द्वारा।
झिझका हुआ शब्द इस बेबाक़ी से बोला / कि ठिठक गया था वह ऋग्वेद पर ही जाकर / ताड़ लिया गया था तभी / कि बहुत से शैतान-ग्रन्थ बेमानी हो जाएँगे आगे चलकर।
पुरोहितों ने चीख़कर कहा था / साले! शब्द के बच्चे! / उन क़लमों के अन्दर क्यों घुसता है जो नहीं चाहतीं / कि जारी रहे हमारा हज़ारों सालों से चला आया पाखंड / वे भी तो क़लमें हैं / और यक़ीनन बेहतर क़लमें हैं जो मलद्वार में ठोस / और अटके हुए मल के बारे में / कलात्मक ढंग से लिखती रहती हैं।
झिझका हुआ शब्द / अब बेझिझक कह सकता था कि / मुक्तिबोध की कविता के अन्दर फिर प्रवेश किया जा सकता है / सताए गये दलितों को नया सुनहरा सूरज सौंपते हुए।