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अचल वाजपेयी की रचनाएँ

दुख 

उसे जब पहली बार देखा
लगा जैसे
भोर की धूप का गुनगुना टुकड़ा
कमरे में प्रवेश कर गया है
अंधेरे बंद कमरे का कोना-कोना
उजास से भर गया है

एक बच्चा है
जो किलकारियाँ मारता
मेरी गोद में आ गया है
एकांत में सैकड़ों गुलाब चिटख गए हैं
काँटों से गुँथे हुए गुलाब
एक धुन है जो अंतहीन निविड़ में
दूर तक गहरे उतरती है

मेरे चारों ओर उसने
एक रक्षा-कवच बुन दिया है
अब मैं तमाम हादसों के बीच
सुरक्षित गुज़र सकता हूँ

उस रोज़ भी 

उस रोज़ भी रोज़ की तरह
लोग वह मिट्टी खोदते रहे
जो प्रकृति से वंध्या थी
उस आकाश की गरिमा पर
प्रार्थनाएँ गाते रहे
जो जन्मजात बहरा था
उन लोगों को सौंप दी यात्राएँ
जो स्वयं बैसाखियों के आदी थे
उन स्वरों को छेड़ा
जो सदियों से मात्र संवादी थे
पथरीले द्वारों पर
दस्तकों का होना भर था
वह न होने का प्रारंभ था

शब्द

हर शब्द
कहीं न कहीं
कुछ बोलता है
वह कभी आग
कभी काला धुआँ
कभी धुएँ का
अहसास होता है

आओ, इस शब्द को
जलती आग-सा जिएँ

हाशिया 

लिखते हुए पृष्ठ पर
हाशिया छूट गया है

इन दिनों ढिठाई पर उतारू है
मैंने पहली बार देखा
हाशिया कोरा है, सपाट है
किन्तु बेहद झगड़ालू है

वह सार्थक रचनाएँ
कूड़े के भाव बेच देता है
कुशल गोताखोर सा
समुद्र में गहरे पैठता है
रस्सियाँ हिलाता है

मैं उसे खींचना चाहता हूँ
वह अतल से मोती ला रहा है
सबसे चमकदार मोती
मैं उसे तुम्हीं को सौंपना चाहता हूँ

शत्रु-शिविर

शत्रुओं के बीच
सर्वथा सुरक्षित हूँ
वहाँ आदमी आदमी है
चाकू सिर्फ़ चाकू है
हत्या का अर्थ सिर्फ़ हत्या है
वहाँ सूर्योदय का प्रतीक नहीं
कोहरे का चालाक हस्तक्षेप
प्रत्येक संकेत तेज़ करता है
सुषुप्त जिजीविषा

किन्तु प्राय: मित्रों के बीच
उचित तालमेल की खोज में
अपाहिज समझौते स्वीकारता
वक़्त के काग़ज़ पर
खींच भर पाता हूँ हस्ताक्षर

जहाँ तक इबारत का प्रश्न है
वह शत्रु-शिविर ही देता है

पतझर-1 

पतझर की तरह टूटना
अंधेरे का घिरना
सन्नाटे के चाबुक
पीठ पर पड़ना
बेहद ज़रूरी है
इससे पीठ होने का अहसास
गहरा होता है
देह में अचानक
आग के सोते फूटते हैं
खुलासा होता है
कंधों से जुड़े दो हाथ
आख़िर क्यों हैं

पतझर-2

हर दिन
सुबह होते ही
गुड़ की गंधाती चाय
बीमार मेमनों से
रिरियाते बच्चे
खुरदुरे पत्थर पर
घिसती वह औरत
स्वयं को
अस्वीकृत करता वह आदमी

एक पतझर
देर रात तक
लोगों के कान उमेठता है

पर्वत

वे कभी
पर्वत देखते हैं
कभी अपने बीमार कंधे

मैं उन दोनों को
देर तक देखता रहता हूँ

एक खेल
जो पर्वत को
हम पर थूकने का
अवसर देता है

धूप के धान

तुम जो धूप में
धान बोते हुए
गर्व से निकल गए
पीछे मुड़ो और देखो
तुम कीच भरे पानी में
गहरे धँस चुके हो
और धान
उन्हें धूप ने
एक काले रजिस्टर पर
टाँक दिया है

अहेरी 

मैंने भोर की धूप को
कुछ पल देखा
फिर उसके गुलाब झर गए
आसावरी थम गई

मेरे अन्तर्मन
न जाने क्यों तुम में
एक अहेरी प्रभाव रहता है

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