शहर में एक बस्ती थी
शहर में एक बस्ती थी
जहाँ लोगों ने
ठंडी आग जलाई थी
मशाल को शाल की तरह
ओढ़ रखा था
टिमटिमाती हुई आँखों की चमक
मालिक के सिरहाने दबी थी ।
सपने फटी हुई रजाई के
भूगोल से शुरू होकर
घिसी हुई चप्पलों तक
आते-आते ख़त्म हो जाते
दौड़ते-भागते ख़ून का रंग
ख़ून से बहुत दूर चला
आया था
और ऐसे में
साँस का अनवरत चलना
विज्ञान के लिए बड़ी चुनौती थी
‘‘ये जीवन विज्ञान के नियमों के बाहर
विज्ञान को मुँह चिढ़ाता ।’’
यह शहर था
धूप-धुध, ओस, हवा और बारिश
से महरूम
आदमी की निगाह में चीज़ें
छोटी-बड़ी थीं
रात को काम से लौटते हुए
जीवन पहाड़ों की ऊँचाइयों में
तब्दील हो जाता
फिसलते हुए क़दम
ख़ून का रंग बता देते
रोशनी हवा की दोस्त थी
हवा का रूख़ बदलते
रोशनी का रंग बदल जाता ।
दिन एक धुएँ से शुरू होकर
उबले हुए आलू तक आते-आते
सीझने लगता
और उससे पहले
पिघलती हुई आत्माओं
का विलाप
रात की घोषणा कर देता
‘‘रात एक विलाप थी
रात एक पतझड़ था ।’’
मौसम के बदलने की उम्मीद
हर रात शुरू होकर
रात को ही ख़त्म हो जाती
शहर की यह बंजर बस्ती थी
जहाँ बाँझ सपने उगते
नंग-धड़ंग बच्चे थे
टीन की कटोरी थी
जिसमें दूध और पानी का हिसाब
एक सवाल था ।
सवाल यह भी था
कि वह बच्चा
किस देश, किस मिट्टी
किस हवा, किस शहर का है
सवाल था कि उसकी माँ
किस युग से चली आई थी
उसका पिता पीठ के बल रेंगकर
शहर की आलीशान कोठियों में
क्यों चिराग जला रहा था
सवाल था कि
शहर में बस्ती क्यों थीं
ये सवाल उदास आँखों की उदासी
हँसते चेहरों के उजास का
पता देते थे ।
शहर जिनके पाँव तले थी
ये बस्तियाँ,
जिनकी छाती पर पैर रख
शहर जवान हुए
देश, बच्चा और मैं
बेतरतीब रखी हुई
चीज़ों के बीच
कौन सा सलीका
ढूँढ़ता हूँ मैं
अब तक ?
छोड़ आया था नींद
रात के तीसरे पहर मैं
जिस पत्थर के पास,
क्या वहाँ अब तक
बचा होगा कुछ ?
कुछ न कुछ तो
बचा ही रहता है !!
ताकि हर बचे से
रिसता रहे कुछ लगातार ।
नींद और उदासी के
समन्दर से बाहर
स्याह सड़कों पर दौड़ता,
घुटने तुड़वाता,
उस बच्चे के दुःख में
कहीं खो जाता हूँ मैं,
जो अँधेरे मुँह निकला था
रात को जब लौटा तो
झोपड़ी कहीं नहीं थी –
बस सुलगती हुई इच्छाएँ,
दम तोड़ती आशाएँ,
मुँह फाड़े ठंडा चूल्हा था
जो अब तक टूटा नहीं था
पर आग नहीं थी उसमें ।
आग सिर्फ़ भीतर थी
बाहर के ठंडेपन पर
चीख़ती हुई-सी!
मैं उस बच्चे की ठिठुरन,
उसकी कपँकपी, उसकी भूख,
उसकी उदासी, उसकी नींद,
हर तरफ़ होना चाहता हूँ ।
लेकिन थककर उसी पत्थर पर
सिर रखकर सोने लगता हूँ,
अपनी कल की छूटी हुई नींद से
आज की नींद को
धागों से गाँठने लगता हूँ ।
मैनें चीज़ें साबुत देखी ही नहीं
‘‘मैं गाँठ लगाने को ही
साबुत समझता हूँ’’
जब रात अपने स्वर में
कराहती है,
जब सड़कों पर अँधेरा
अपनी दोनों आँखे खोलता है,
जब चाँद किसी भूतही
बिल्डिंग के पीछे छिप जाता है-
आत्मा पूरे दर्द के साथ
जग जाती है ।
मुझे माँ की याद सताती है ।
मैं रोना चाहता हूँ ।
पर अकेले का रोना
क्या कोई रोना होता है ?
बस यह सोचकर
और यही सोचकर
मैं हँसता हूँ !
मैं जानता हूँ
उस वक़्त मेरा चेहरा
बहुत-बहुत कुरूप हो जाता है ।
मैं ख़ुद को यक़ीन दिलाता हूँ ।
अपने सीने को कस के पकड़ कर
यक़ीन करने लगता हूँ –
‘‘जो कुछ था, वह बस एक नींद थी ।
सवेरा तो अब तक हुआ ही नहीं’’
अपने इस खेल पर मैं
एक बार फिर हँसता हूँ ।
इतने में बिल्डिंग की बत्ती बुझती है
चाँद पीछे से निकलता है,
मैं डर जाता हूँ ।
मैं चाँद से बहुत डरता हूँ ।
मुझे सबसे ख़तरनाक लगती है
चाँद की रोशनी
जो उजाले और अँधेरे को झुठलाती है
वह बच्चा भी तो अब तक
किसी पत्थर पर सिर रखे
सोया होगा
पर क्या, उसने कुछ खाया होगा ?
क्या उसके कपड़ो से बाहर उघड़ी देह,
जिससे रिस रहा था ख़ून,
सूख गया होगा,
क्या किसी ने उसे चादर ओढ़ाया होगा ?
क्या कल फिर सुबह
सड़कों पर वह यूँ ही निकल पड़ेगा,
पर रात को कहाँ लौटेगा वह ?
क्या उसने भी मेरी तरह
चाँद को गुस्से से देखा होगा ?
क्या वह बच्चा मैं था ?
क्यों नहीं था
मैं वह बच्चा ?
वह बच्चा कोई और क्यों है ?
अगर पत्थर देश का है
तो बच्चा देश का क्यों नहीं ?
देश गहरी नींद में सोया था
बच्चा पूरी रात ठिठुरता रहा
और मैं ?
विचारों की चादर ओढ़े
रात भर भटकता रहा !
लेखक का कमरा
कभी देखा है तुमने लेखक का कमरा ?
दिन भर धूप में घूम
शाम को जब लौटता है लेखक
तो अँधेरी सड़कों को
बहुत टटोल कर चलता है
दिन भर की भटकन
एक दुःख बनकर बैठ जाती है
उसके कंधे पर
लेखक का कमरा
अभी खुला है
धूप नहीं
चाँद की हल्की रोशनी
अभी प्रवेश कर रही है
कुछ रोशनी उसके भीतर भी है
वैसे अँधेरा बहुत है
एक छोटे से घड़े में
रखा हुआ है पानी
घड़े को देखकर
याद आती है माँ
घड़े के शीतल जल की तरह
माँ का हाथ माथे पर
और लेखक तपने लगता है बुखार से
चारपाई से कुर्सी के बीच का
फ़ासला कुछ क़दमों का
टहल रहा है लेखक
याद आती है छुटकी
नहीं, कल जो बस की खिड़की से बाहर
दिखी थी लड़की
छुटकी धीरे-धीरे लड़की में तब्दील हो जाती है
लेखक बैठता है घड़े के पास
मन ही मन पूछता है
माँ कहाँ है, छुटकी ?
उसे तो चावल फटकना था
क्यों चली गई पड़ोस में
लेखक के कमरे में
एक हवा का झोंका आता है
पिता की तरह
बैठ जाता है चारपाई पर
कहने लगता है
कुछ कमाया करो
पर लिखकर कमाया तो नहीं जा सकता
जानते हैं पिता
और पिता हवा बनकर ही लौट जाते हैं
लेखक के कमरे के बाहर
नाले में पानी के बहने की हल्की आवाज़
जैसे रो रही हो पत्नी
दरवाज़ा खोलकर झाँकता है लेखक
बाहर का अँधेरा जैसे खड़ा हो दरवाज़े पर
और आना चाहता हो भीतर
लेखक बंद कर लेता है दरवाज़ा
पत्नी को कहता है
तुम मत रोओ
कल से नहीं लिखूँगा
जाऊँगा काम पर
नहीं लिखूँगा कि दुःख है बहुत
नहीं लिखूँगा कि फूट-फूट कर रोती है
एक बुढ़िया
आज लिखने दो कि
अभी थोड़ी आग,
थोड़ी स्याही
थोड़ी चलने की ताक़त बची हुई है
अपने झोले से निकालकर काग़ज़
लेखक बैठ जाता है कुर्सी पर
कमरे में घड़ा रखा हुआ है
हवा का एक झोंका, फिर आकर बैठ गया है
चारपाई पर
अबकी नाले से पानी के बहने की
तेज़ आवाज़ आती है
जैसे खिलखिला रहा हो कोई !
किसी और ही साँचे में
लिखना इतना आसान
नहीं रह गया था हमारे समय में
शब्द रेत पर खिंची गई
लकीरों की तरह
हवा की प्रतीक्षा में ही
ख़त्म हो जाते ।
घर से चलने के बाद
थोड़ी देर हम
जिस नीम के पेड़ के नीचे
सुस्ताने बैठते
वह भी अब उतना
विश्वसनीय नहीं रह गया था
मौतें होती
उत्तेजनाओं से नहीं
ऊब से
घृणा फैल रही थी
धूप के चादर में लिपटी हुई ।
बारिश के रोयेंदार फरों के भीतर
छिपी आस्थाएँ
जब कसमसाती
सितारों की नीली रोशनी
उन्हें धुँधला कर देती
गीत के उजले आलोक में
भूख रात भर
एक सियार की तरह कहरती रहती ।
नसों में ढ़ीला पड़ गया जीवन
रूके हुए नाले की तरह
सड़ता रहता
ख़ुशियाँ थी
लेकिन ऊँघती हुई
शाम की कत्थई उदासी
अब भी उन चेहरों को
आलोकित करती
और चाँद की मटमैली फ़ीकी रोशनी
अब उन चेहरों तक आते-आते
ख़त्म हो जाती
रात का झींगुर
नदी के कल-कल में नहीं
गाड़ियों के कोलाहल में
राह भटक जाता
पिता पूछते अक्सर
कौन सा समय है यह ?
हम तारीख़ों में लिपटीं
एक ख़ुशबूदार रूमाल
उनके सिरहाने छोड़ जाते
वैसे इस समय में
‘‘चल रहा है सब कुछ’’
यही कहा जाता रहा लगातार
पर कहीं-कहीं
दबी हुई ज़ुबान में कहा गया
रूका हुआ सब कुछ
‘‘किसी और ही साँचे में
ढाला जा रहा है ।’’
रात
रात-रात भर कविता के शब्द
रेंगते है मस्तिष्क में
नींद और जागरण की
धुँधली दुनिया में
फँसा मैं
रच नहीं पाता कविता
पक्षियों की कतारें
आसमान को ऊँचाइयों से
चिपकी गुज़री जाती हैं
चाँद यूँ ही
ताकता रहता है धरती को
और दोस्त लिखते रहते है कविता
नीली और गुलाबी कापियाँ
भरती जाती हैं
भरती जाती है एक रात
टूटी हुई नींद और अधूरे सपनों से
सूरज की अंतड़ियों से पिघल कर
रात
बर्फ़ में तब्दील हो जाती है
मेरी तलहथियों का पसीना
सूखने लगता है
आँखों में कौंधने लगती है
सफ़ेद उदासी
और फिर
मेरे अधूरे सपनों में
रात सुलग रही होती है।
सड़े हुए पानी के
बुलबलों की तरह
स्मृतियाँ गँधाने लगती हैं ।
एक भाप-सी
उड़ती है मेरे चारों ओर
एक पत्ता खड़कता है
निस्तब्ध शांति हर ओर
जैसे पृथ्वी अचानक
भूल गई हो घूमना
जैसे दुनिया में
किसी भूकंप
किसी ज्वालामुखी के फटने
किसी समंदर के उफ़नने
किसी पहाड़ के टूटने की कोई
आंशका ही नहीं बची हो ।
डर लगता है इतनी शांति से
कोई बिल्ली ही आए
कोई चूहा ही गिरा जाए
पानी का ग्लास
कुछ, कुछ तो हिले
चीख़ते पक्षी तब्दील होने लगते हैं
इंसानों में
सूरज का रक्तिम लाल रंग
फैल जाता है आसमान में
कलियाँ गुस्से में बंद
फूलों में तब्दील नहीं होतीं ।
नदी-गाथा
नदी के अँधरे तल में
काँपती है पानी की छायाएँ
नदी का कोई चेहरा
अँधेरे में याद
नहीं कर पाता हूँ ।
रात के इस शमशानी सन्नाटे में
क्यों याद आती है नदी ?
पर मैं नदी को याद भी तो नहीं कर पा रहा हूँ
किस चेहरे से याद करूँ
नदी को ?
उस घाट से
जहाँ रग्घू धोबी और उसका परिवार
धोता था कपड़े
या उसे सिरे से जहाँ
ठकवा चाचा मारते थे मछली
या उस छोर से
जो मेरी नन्हीं आँखों से
बरबस बहती हुई चली आती थी
नदी के बारे में सोचना
ऐसा है जैसे
बुढ़ापे में बचपन के
किसी टूटे हुए खिलौने की याद
बचपन में नदी एक
खिलौने की तरह ही तो थीं
मिट्टी के घर सबसे पहले
नदी के किनारे ही बनाए
पास के जंगल से
पुटूस के फूल
बिखेर देते थे हम
पर तब तक सूरज
दूर चला जाता
और नदी का अँधेरा
घर के दरवाज़ों के भीतर
प्रवेश कर जाता
हमें लौटना होता
अँधेरा बचपन से हमारी स्मृतियों में
लौटने जैसा ही कुछ था
पर एक दिन
कुछ बड़े होने पर
पिता ने कहा –
‘अँधेरे में दिया जलाना चाहिए’
तो लगा अँधरे का मतलब
बदल रहा है
पर नदी का अँधेरा
अब तक यूँ ही
पसरा हुआ है, मेरे ज़ह्न में।
हम बड़े होते रहे
और नदी सिकुड़ती रही
अब हम मिट्टी के घर
नदी के किनारे नहीं बनाते
पुटूस के फूल कोई और
तोड़ लेता था
नदी चुपचाप सब कुछ देखती थी
नदी का चेहरा
कभी नहीं उभर पाया
मेरी स्मृत्ति में
मैंने कई बार माँ को रोते हुए
नदी की तरह देखना चाहा था
पिता जब शाम को लौटकर
दालान के अँधेरे कोने में
बैठे होते
तो मैं उन्हें नदी की तरह
ख़ामोश पाता
पर इन दोनों में कोई भी चेहरा
नदी जैसा मुझे कभी नहीं लगा ।
गाँव की सबसे अधिक
हँसने वाली चाची के होंठों तले
दबा साड़ी का किनारा
कभी नदी के किनारों की तरह
नहीं कौधा मेरे जह्न में
बस कभी-कभी
एक मिट्टी का घर
जिसमें कुछ अँधेरे, कुछ उजाले कोने होते
जैसी कुछ लगती थी नदी
अगले ही क्षण
मिट्टी का घर ठहकर टूट जाता
नदी का चेहरा बिखर जाता
अचानक से घर के वे बिखरे टुकड़े
नदी के अँधेरे तल में
समा जाते
सब कुछ ख़ामोश हो जाता
नदी के सबसे अधिक ख़ामोश
पाया है मैंने
बुढ़ापे में पिता से भी ज़्यादा
पति के घर से लौट आई
बहन से भी ज़्यादा
पर नदी हमेशा
ख़ामोश ही नहीं रही
नदी का चीख़ना भी सुना है मैंने
और देखा है लोगों की आँखों में
नदी का ख़ौफ़ भी
नदी की चीख़ ने
बहुत ख़ामोश कर दिया था हमें
हम सबके चेहरों पर
मिट्टी के घरों का टूटना साफ़ नज़र आता
पर इस बार नदी बदल गई थी
उसके किनारे बच्चे खेलने नही जाते
पुटूस के जंगलो तक को नही छोड़ा था नदी ने
मिट्टी के घर अब नदी के किनारे
नहीं बनते
सिर्फ एक रेतीला विस्तार
जिसमें दूर से कभी-कभी पानी की चमक
कौंध जाती
नदी बहुत सिकुड़ चुकी थी
यह सिकुड़ना
शायद उसका पश्चाताप हो
शायद उसका दुःख
उसके बचपन की स्मृति
बुढ़ापे का कोई रोग
या शायद कुछ भी नहीं
कितने चेहरे उभरते हैं नदी के
और नदी बस नदी बनकर
बह जाती है
स्मृति में
शहर की चिल-पों में
सबसे उदास क्षणों में
सबसे अँधेरे पलों में
जागी रातों में
सिगरेट के धुएँ के बाहर
पुल पर ख़ामोश टहलते हुए
महसूसते हुए
घर के अँधेरे कोनों को
याद आती है
बचपन की नदी
मिट्टी का घर
पुटूस के फूल
आँख में तिनका या सपना
ताकती क्या है रे मनिया
मिस जोजो की आँख में
सपना है कि तिनका है
चुभता है जो आँख में ?
सपना भी कहीं चुभता है ?
माई कहती थी
“गरीबन के आँख में
सपना भी चुभता है”
कभी-कभी तो माई
अजबे बात करती
कहती “भूख में गुल्लर मीठी”
एक बार बाबा के साथ माई
घूमने गई मेला
कोई चोर भाग रहा था
उसके पीछे भाग रहे थे लोग
डरकर माई ने पकड़ लिया बाबा का हाथ
और छोड़ना भूल गई
वहीं बाबा ने खींचकर
एक थप्पड़ लगाया
और कहा
कहाँ से सीख आई ये शहरातू औरतों वाली चाल ?
बाद को ये किस्सा माई
बाबा की तारीफ़ में
सबको सुनाती
हँस-हँसकर थोड़ा लजाती हुई
एकदम वैसे जैसे मिस जोजो
सुनाती हैं अपने प्रेमियों के
चटपटे किस्से
जब भी दिन के वक़्त कभी
बाबा माई को मारते
तो माई झट से
चूल्हे के पास बैठकर
धुआँ कर लेती
उसकी आँख से झरझर
आँसू गिरतें
कहती इस बार लकड़ी बहुत गीली है
आँख मैं धुआँ लगता है
या कहती कोई तिनका
उड़कर आ गया है आँख में
मिस जोजो दिन के वक़्त
मनिया को बहुत अच्छी लगती
पर रात के वक़्त उनकी आँखें
टेसू के फूल की तरह लाल
डर के मारे छिप जाती
मनिया रसोई में
और थोड़ी देर बाद
एक बाबू आता सीधे घुस जाता
मिस जोजो के कमरे में
सुबह मिस जोजो की आँख से
वो लाली ग़ायब
शायद वो बाबू ही ले जाता होगा
कोई जादूगर ही होगा !
आज सुबह से ही मिस जोजो की आँख से
झर-झर गिर रहे हैं आँसू
मनिया कहती है
आँख में कोई तिनका आ गया होगा
मिस जोजो कहती है
धत् पगली !
तिनका आँख में आ जाए
तो इतने आँसू नहीं बहते
ये तो यूँ तब बहते हैं
जब टूटता है कोई सपना
मनिया हैरान है
सोचती है
माई की आँख में तो तिनका…।
कोई बिल्ली ही आए
रात रात भर
शब्द
रेंगते रहते हैं मस्तिष्क में
नींद और जागरण की धुंधली दुनिया में
फँसा मैं
रच नहीं पाता कविता
पक्षियों की कतार
आसमान में गुज़रती जाती है
और चांद
यूँ ही ताकता रहता है धरती को
और दोस्त
लिखते रहते हैं कविता
नीली और गुलाबी कापियों पर
वे भरती जाती हैं
भर जाती हैं एक रात
टूटी हुई नींद और अधूरे सपनों से
सूरज के अग्निगर्भ में पिघलती रहती है
रात
मेरी तलहथियों का पसीना
सूख जाता है
आंखों में पसर जाती है उदासी
और रात
सुलग रही होती है
मेरे अधूरे सपनों में
सड़े पानी सी
गंधाती रहती हैं स्मृतियाँ
भाप उठती रहती है
निस्तब्ध शांति है चारों ओर
कि एक पत्ता
भी नहीं खड़कता
जैसे पृथ्वी अचानक भूल गयी हो घूमना
जैसे दुनिया में किसी भूकंप
किसी ज्वालामुखी के फटने
किसी समंदर के उफनने
किसी पहाड़ के ढहने की
कोई आशंका ही ना बची हो
भय होता है ऐसी शांति से
कोई बिल्ली ही आए
या कोई चूहा गिरा जाए
पानी का गिलास
कुछ तो हिले बदले कुछ
चिचियाते पक्षी बदलते जाते हैं
इंसानों में
सूरज का रंक्तिम लाल रंग
फैलता जाता है आसमानों में चारो ओर
पर कलियाँ
गुस्से में बंद हों जैसे और
फूलों में तब्दीली से इनकार हो उन्हें…
ज्योतिष है तो
बहुत कुछ नक्षत्रों के ज्ञान पर निर्भर करता है
नक्षत्र हैं तो उनकी स्थिति बताने वाला ज्योतिष शास्त्र है
ज्योतिष है तो उसे पढ़ने समझने वाले ज्योतिषि हैं
ज्योतिषि हैं तो उनकी दक्षिणा है और उस पर टिका
उनका खाता पीता परिवार है
मतलब कि नक्षत्रों की स्थिति पर निर्भर करता
एक भरा पूरा संसार है
नक्षत्रों को लेकर बहुत सावधान रहते थे पिता
कभी यात्रा पर निकलते
तो ज्योतिषि से साइत जरूर निकलवाते
उनकी अटूट श्रद्धा थी ज्योतिष के ज्ञान पर
मज़े की बात ये कि जब भी पिता
यात्रा पर निकलने को होते
तो उसी आस पास ज्योतिष
अच्छी तिथि निकाल देते
एक बार दूर की यात्रा पर तिथि निकलवा कर
टिकट लिया था पिता ने
पर बंगाल से आने वाली उनकी ट्रेन
बाढ के कारण नियत समय से विलंब से आई
और तब तक तिथि बदल चुकी थी
व्यापार का मामला था घाटा लग सकता था
सो पंडित जी की बातों को याद कर
लौट गये पिता
और व्यापार का ठेका किसी और को मिल गया
पर पिता खुश थे कि कौन जाने
पंडित जी की बात ना मान जाने पर कोई
बडी दुर्घटना हो जाती
एक बार वृद्ध नाना जी की बीमारी की ख़बर सुन
मायके जाने को बेचैन माँ के जाने की साइत निकालने को
ज्योतिषि जी को बुलाया गया
पर पूरब में जाने की आस पास कोई अच्छी तिथि नहीं थी
पर नाना जी की मौत शायद
साइत के लिए नहीं रूकती
सो ज़्यादा विरोध ना कर पिता ने माँ को जाने दिया
आखिर नाना जी की मृत्यु हो गई
और माँ ख़ुश थी कि अगर वह ज्योतिषि जी के कहे अनुसार
विदा न होती तो नाना जी को आख़िरी बार
नहीं देख पाती
पंडित जी का तर्क था कि अशुभ साइत में जाने से
नाना जी असमय काल कवलित हो गए
और पिता खुश थे ज्योतिषि जी के ज्ञान पर।
आंग सान सूकी के लिये
म्यांमार की सड़कों पर ख़ून नहीं था
रोशनी भी नहीं थी वहाँ
हवा बंद थी सीखचों में
और चुप थी दुनिया
चुप थे लोग
कि म्यांमार की सड़कों पर ख़ून नहीं था
म्यांमार के लोगों का ख़ून बहुत गाढ़ा नहीं था
बहुत मोटी नहीं थी उनकी ख़ाल
बहुत गहरी नहीं थी उनकी नींद
बहुत हल्के नहीं थे उनके सपने
बहुत रोशनी नहीं थी उनके घरों में
म्यांमार की एक लड़की
जो हवा थी
बंद थी सींखचों में
बहुत चीख़ नहीं रही थी वो
बस सोच रही थी
सींखचों की बाबत
सड़कों की बाबत
लोगों की बाबत
म्यांमार की बाबत
जब कि म्यांमार की सड़कों पर ख़ून नहीं था
जरूरत थी हवा की
और हवा कैद थी सींखचों में
लोग रहने लगे थे भूखे
करने लगे थे आत्महत्या
बग़ैर गिराए सड़कों पर एक बूंद ख़ून
उलझन में थी हवा
उलझन में थे लोग
और चुप थी दुनिया और चुप थे लोग
उधर सींखचों में बंद हवा
टहल रही थी
तलाश रही थी आग
जिसे भड़काकर वह जलाना चाहती थी शोला
पिघलाना चाहती थी लोहे के सींखचों को
पर हवा क़ैद थी सींखचों में
लोग बंद थे घरों में
और म्यंमार की सड़कों पर ख़ून नहीं था
यूँ कुछ भी कर सकते थे लोग
आ सकते थे घरों के बाहर
तोड़ सकते थे जेल की दीवारें
हवा को कर सकते थो आज़ाद
भड़का सकते थे आग पिघला सकते थे सींखचे
पर म्यंमार की सड़कों पर ख़ून नहीं था।
बाढ़-2008 – कुछ कविताएँ
बाढ-2008
हर तरफ अथाह जल
जैसे डूब जाएगा आसमान
यही दिखाता है टी०वी०
एक डूबे हुए गाँव का चित्र
दिखाने से पहले
बजाता है एक भड़कीली धुन
और धीरे-धीरे डूबता है गाँव
और तेज़ बजती है धुन …
एक दस बरस का अधनंगा बच्चा
कुपोषित कई दिनों से रोता हुआ
दिखता है टी०वी० पर
बच्चा डकरते हुए कहता है–
भूखा हूँ पाँच दिन से
कैमरामैन शूट करने का मौक़ा नहीं गँवाता
बच्चा, भूखा बच्चा
पाँच दिन का भूखा बच्चा
क़ैद है कैमरे में …
टी०वी० पर फैलती तेज़ रोशनी
बदल जाता है दृश्य
डूबता हुआ गाँव डूबता जाता है
बच्चा, भूखा बच्चा
रह जाता है भूखा
हर तरफ़ है अथाह जल
हर तरफ़ है अथाह रौशनी …
ख़बर
डूबता हुआ गाँव एक ख़बर है
डूबता हुआ बच्चा एक ख़बर है
ख़बर के बाहर का गाँव
कब का डूब चुका है
बच्चे की लाश फूल चुकी है
फूली हुई लाश एक ख़बर है …
प्रतिनिधि
जब डूब रहा था सब-कुछ
तुम अपने मज़बूत किले में बंद थे
जब डूब चुका है सब-कुछ
तुम्हारे चेहरे पर अफ़सोस है
तुम डूबे हुए आदमी के प्रतिनिधि हो…
भूलना
एक डूबते हुए आदमी को
एक आदमी देख रहा है
एक आदमी यह दृश्य देख कर
रो पड़ता है
एक आदमी आंखें फेर लेता है
एक आदमी हड़बड़ी में देखना
भूल जाता है
याद रखो
वे तुम्हें भूलना सिखाते हैं …
उम्मीद
एक गेंद डूब चुकी है
एक पेड़ पर बैठे हैं लोग
एक पेड़ डूब जाएगा
डूब जाएंगी अन्न की स्मृतियाँ
इस भयँकर प्रलयकारी जलविस्तार में
एक-एक कर डूब जाएगा सब-कुछ …
एक डूबता हुआ आदमी
बार-बार उपर कर रहा है अपना सिर
उसका मस्तिष्क अभी निष्क्रिय नहीं हुआ है
वह सोच रहा है लगातार
बचने की उम्मीद बाक़ी है अब भी …
क्या छोटुआ सचमुच आदमी है
रात को
पुरानी कमीज के धागों की तरह
उघडता रहता है जिस्मं
छोटुआ का
छोटुआ पहाड से नीचे गिरा हुआ
पत्थर नहीं
बरसात में मिटटी के ढेर से बना
एक भुरभुरा ढेपा है
पूरी रात अकडती रहती है उसकी देह
और बरसाती मेढक की तरह
छटपटाता रहता है वह
मुंह अंधेरे जब छोटुआ बडे-बडे तसलों पर
पत्थर घिस रहा होता है
तो वह इन अजन्में शब्दोंह से
एक नयी भाषा गढ रहा होता है
और रेत के कणों से शब्द झडते हुए
धीरे-धीरे बहने लगते हैं
नींद स्वप्न और जागरण के त्रिकोण को पार कर
एक गहरी बोझिल सुबह में
प्रवेश करता है छोटुआ
बंद दरवाजों की छिटकलियों में
दूध की बोतलें लटकाता छोटुआ
दरवाजे के भीतर की मनुष्युता से बाहर आ जाता है
पसीने में डूबती उसकी बुश्शर्ट
सूरज के इरादों को आंखें तरेरने लगती हैं
और तभी छोटुआ
अनमनस्क सा उन बच्चों को देखता है
जो पीठ पर बस्ता लादे चले जा रहे हैं
क्या दूध की बोतलें अखबार के बंडल
सब्जी की ठेली ही
उसकी किताबें हैं…
दूध की खाली परातें
जूठे प्लेट चाय की प्यालियां ही
उसकी कापियां हैं…
साबुन और मिटटी से
कौन सी वर्णमाला उकेर रहा है वह …
तुम्हारी जाति क्या है छोटुआ
रंग काला क्यों है तुम्हारा
कमीज फटी क्यों है
तुम्हालरा बाप इतना पीता क्यों है
तुमने अपनी कल की कमाई
पतंग और कंचे खरीदने में क्यों गंवा दी
गांव में तुम्हारी मां बहन और छोटा भाई
और मां की छाती से चिपटा नन्हंका
और जीने से उब चुकी दादी
तुम्हारी बाट क्यों जोहते हैं…
क्या तुम बीमार नहीं पडते
क्या तुम स्कूल नहीं जाते
तुम एक बैल की तरह क्यों होते जा रहे हो…
बरतन धोता हुआ छोटुआ बुदबुदाता है
शायद खुद को कोई किस्सा सुनाता होगा
नदी और पहाड और जंगल के
जहां न दूध की बोतलें जाती हैं
न अखबार के बंडल
वहां हर पेड पर फल है
और हर नदी में साफ जल
और तभी मालिक का लडका
छोटुआ की पीठ पर एक धौल जमाता है –
साला ई त बिना पिए ही टुन्न है
ई एत गो छोडा अपना बापो के पिछुआ देलकै
मरेगा साला हरामखोर
खा-खा कर भैंसा होता जा रहा है
और खटने के नाम पर
मां और दादी याद आती है स्साले को
रेत की तरह ढहकर
नहीं टूटता है छोटुआ
छोटुआ आकाश में कुछ टूंगता भी नहीं
न मां को याद करता है न बहन को
बाप तो बस दारू पीकर पीटता था
छोटुआ की पैंट फट गई है
छोटुआ की नाक बहती है
छोटुआ की आंख में अजीब सी नीरसता है
क्या छोटुआ सचमुच आदमी है
आदमी का ही बच्चा है …
क्या है छोटुआ
पर
पहाड से लुढकता पत्थर नहीं है छोटुआ
बरसात के बाद
मिटटी के ढेर से बना ढेपा है वह
धीरे-धीरे सख्ते हो रहा है वह
बरसात के बाद जैसे मिटटी के ढेपे
सख्त होते जाते हैं
सख्त होता जा रहा वह
इतना सख्त
कि गलती से पांव लग जाएं
खून निकल आए अंगूठे से …
युद्ध और शांति
हर बार मंच से
घोषणा की जाती है
युद्ध शान्ति के लिए है
और शान्ति युद्ध के लिए
मंच के नीचे से
भीड़ से
चिल्लाता है
बूढ़ा तालस्तोय
युद्ध और शांति
आदमी के लिए हैं।
भूख
मेरी माँ अभी मरी नहीं
उसकी सूखी झुलसी हुई छाती
और अपनी फटी हुई जेब
अक्सर मेरे
सपनों में आती हैं
मेरी नींद उचट जाती है
मैं सोचने लगता हूँ
मुझे किसका खयाल
करना चाहिए
किसके बारे में लिखनी चाहिए कविता
इतने में
बेटी के रोने की
आवाज़ सुनाई देती है
सामने खाली दूध का
डिब्बा दिखता है
मुझे पत्नी की छाती
याद आती है
बहुत कठिन है
सोच सकना
कि सब कुछ
तय किया जा चुका
होता है
हमारे सोचने से पहले
इसलिए लिखने को
कुछ भी नहीं रह जाता है
सिवाय ’भूख’ के
आदमी और तकलीफ़ें
मैंने कहा-
भई! आदमी
दस हज़ार साल
पुराना है
और
तकलीफ़ें उसकी
उससे भी पुरानी
कि जब आदमी
आदमी नहीं था तकलीफ़ें तब भी थीं
उसने कहा-
अच्छा!
अब आदमी कहाँ है
अब तो बस तकलीफ़ें हैं
और अब तो बस
तकलीफ़ें ही रहेंगी
कई शताब्दियों तक
डर
डर दरअसल
एक अँधेरा है
जब सूरज
बुझने लगता है
अपनी माँ की गोद से
चिपटा एक बच्चा
डरने लगता है
माँ चुपके से
उठती है
जला देती है
लालटेन
और दूर
भगा देती है
अँधेरा
हौसला
रोज़ सुबह
तुम्हारे हृदय के
बाएँ हिस्से में
जहाँ होती है
धड़कन
बैठती है एक चिड़िया
और शाम ढले
उड़ जाती है
उसे उड़ने मत दो
मैं इसलिए लिख रहा हूं
मैं इसलिए लिख रहा हूं
मैं इसलिए लिख रहा हूं
कि मेरे हाथ काट दिए जाएं
मैं इसलिए लिख रहा हूं
कि मेरे हाथ
तुम्हारे हाथों से मिलकर
उन हाथों को रोकें
जो इन्हें काटना चाहते हैं.
अब और था
अब और था
वह जब ‘अ’ के साथ था
तो ‘ब’ के विरोध में था
जब वह ‘ब’ के साथ था
तो ‘अ’ के विरोध में था
फिर ऐसा हुआ कि
‘अ’ और ‘ब’ मिल गए
अब?
वह रह गया
बस था!
इस बेहद सँकरे समय में
वहाँ रास्ते ख़त्म हो रहे थे और
हमारे पास बचे हुए थे कुछ शब्द
एक फल काटने वाला चाकू
घिसी हुई चप्पलें
कुछ दोस्त
हमारे सिर पर आसमान था
और हमारे पाँवों को ज़मीन की आदत थी
और हमारी आँखें रोशनी में भी
ढूँढ़ लेती थीं धुँधलापन
हम अपने समय में ज़रूरी नहीं थे
यही कहा जाता था
गोकि हम धूल या पुराने अख़बार
या बासी फूल या संतरे के छिलके
या इस्तेमाल के बाद टूटे हुए
क़लम भी नहीं थे,
हम थे
और हम बस होने की हद तक थे
सड़क पर कंकरीट की तरह
हम ख़ुद से चिपके हुए थे
हम घरों में थे
हम सड़कों पर थे
हम स्कूलों में और दफ़्तरों में थे
हम हर जगह थे
और ज़मीन धँस रही थी
और नदियाँ सूख रही थीं
और मौसम बेतरह सर्द हो रहा था
और हम रास्तों के पास
ज़मीन के उस ओर चले जाना चाहते थे
हम मुक्त होना चाहते थे
और मुक्ति की कोई
युक्ति नहीं थी
अब तो धूप भी नहीं थी
पेड़ भी नहीं थे
पक्षी और बादल भी नहीं
आकाश और ज़मीन
और इनके बीच हम
हम अपने ही समय में थे
या किसी और समय में ?
दोस्तों के कंधे उधार लेकर
हम तनने का अभिनय क्यों करते थे ?
समय नर्म दूब की तरह
नहीं उग आया था हमारे गिर्द
हम फूल की तरह नहीं थे
इस धरती पर
हम पत्थरों की तरह
किन्ही पर्वतों से टूटकर नहीं आए थे
हमने सूरज की तरह तय की थीं
कई आकाशगंगाएँ
सितारे टूटकर गिरते
और हम अपने कंधे से धूल झाड़ते
चाँद की ओर पीठ किए बढ़ रहे थे
हमारी आँखों में
चमक रहे थे सूरज
और पैरों में दर्ज़ होने लगे थे
कुछ गुमनाम नदियों के रास्ते
ख़ुद के होने की बेचैनी
और रास्तों की तरह बिछने का हौसला भी था ।
सभ्यता की शिलाओं पर
बहती नदी की लकीरों की तरह
हम तलाश रहे थे रास्ते
एक बेहद सँकरे समय में !
निहाल सिंह
बीबी-बच्चों की याद
आती हैं निहाल सिंह ?
निहाल सिंह के गाँव की मिट्टी
अब तक चिपकी है
उसके पैरों से
पर निहाल सिंह का पैर
बँधा है फौज के जूते से
निहाल सिंह का बचपन
अब तक टँगा है
गाँव के बूढ़े पीपल के पेड़ पर
और गाँव की हरियाली
हरी दूब की तरह
मन की मिट्टी को
पकड़े हुए है
बहुत उतरा हुआ चेहरा है
निहाल सिंह का
उसकी छुट्टी की
दरख़्वास्त नामंज़ूर हो गई
गाँव की मिट्टी
और बीबी-बच्चों का साथ
कितने छोटे सपने हैं
निहाल सिंह ?
वैसे गाँव की सड़क
अब भी उतनी भी तंग है
जितनी कल थी
निहाल सिंह, तुम तो
तंग सड़कों के ख़िलाफ़
निकले थे
अच्छा ! शहर में सपने तंग हैं
बात तो ठीक कहते हो निहाल सिंह
‘बड़े सपने तंग सड़कों पर
ही देखे जाते हैं’
सच कहते हो निहाल सिंह
वो सपनों के ख़िलाफ़ ही तो
खड़ी करते हैं फौजें
कैसा अच्छा सपना है
निहाल सिंह
‘एक दिन उनके ख़िलाफ़
खड़ी होंगी फौजें’ !
देश के बारे में
मिलों में, मंडियों में
खेतों में
घिसटता हुआ
लुढ़कता हुआ
पहुँच रहा हूँ
पेट की शर्तों पर
हमारे संविधान में
पेट का ज़िक्र कहीं नहीं हैं
संविधान में बस
मुँह और टाँगें हैं
कभी मैं सोचता हूँ
1975 में जब तोड़ी गई थी
नाक संविधान की
उसी हादसे में
शायद मर गया हो संविधान
राशन-कार्ड हाथ में लिए
लाइनों में खड़े-खड़े
मैंने बहुत बार सोचना चाहा है
देश के बारे में,
देश के लोगों के बारे में
पर मेरे सामने
तपेदिक से खाँसते हुए
पिता का चित्र
घूम गया है
मैं जब भी कहीं
झंडा लहराता देखता हूँ
सोचने लगता हूँ
कितने झंडों के
कपड़ों को
जोड़कर
मेरी माँ की साड़ी
बन सकती है
ये सोचकर मैं
शर्मिन्दा होता हूँ
और चाहता हूँ
कि देश पिता हो जाए
मेरे सिर पर हाथ रखे
और मैं उसके सामने
फूट-फूटकर रोऊँ
मेरे जीवन के सबसे अच्छे दिन
मेरे बचपन के दिन थे
मैंने अपने बचपन के दिनों की यादें
बहुत सहेज कर रखीं हैं
पर मुझे हर वक़्त उनके खोने का डर
लगा रहता है
मैं पूछना चाहता हूँ
क्या हमारे देश में
कोई ऐसा बैंक खुला है,
जहाँ वे लोग
जो पैसा नहीं रख सकते
अपने गुज़रे हुए दिन
जमा कर सके
एकदम सुरक्षित !
दुनिया का नक़्शा
मैं जानता हूँ
मैं उनके नक़्शे में
कहीं नहीं हूँ
वे चुपके से हर रात
मेरी नींद में आते हैं
फूल पत्थर नदी पहाड़
चुरा ले जाते हैं ।
जब चुभने लगती है
उन्हें मेरी हँसी
वे मुझे बाँध देते हैं
किसी पेड़ से
मैं उदास सोचता रहता हूँ
मेरी उदासी नाप आती है
दुनिया की पूरी लम्बाई
मेरे पैरों के नीचे
घूमती धरती थम जाती है ।
सूरज अपनी आँखें झुका
शर्मिन्दा-सा हो जाता है
नदियाँ खिलखिलाना भूलकर
कोई दुखभरा राग छेड़ देती हैं
पत्थर एक अजीब-सी ख़ामोशी में
जड़ स्तब्ध खड़े रहते हें ।
ऐसे में
पेड़ सुनाते हैं मुझे
एक पुरानी कहानी
हवा के झोंकों से दुलारते हुए
वो मुझे बताते हैं
हर ज़ंजीर उसी लोहे से कटती है
जिससे वह बनती है ।
और जब दुनिया की सबसे गीली मिट्टी
मेरे पैरों के नीचे होती है
मैं सारे दर्द
भूल जाता हूँ
रोटी की मीठी सुगंध
भर जाती है मेरी नस-नस में
मेरा मन करता है
मैं धरती को चूम लूँ
मैं फावड़ा हाथ में
लिए धरती की छाती पर
उकेरता हूँ
गोल-गोल रोटियाँ
और तब
मैं ख़ुद से पूछता हूँ
क्या दुनिया के इस नक़्शे को
इसी दुनिया का नक़्शा मानना चाहिए
जिसमें कहीं कोई लड़की
फ़सल का गीत नहीं गाती
जहाँ कोई बच्चा गिरकर
उठ नहीं पाता
जहाँ किसी फावड़े को उठाए हाथ
फूलों को सहलाते नहीं
जहाँ आदमी की आँख आकाश की ऊँचाई देखकर
आश्चर्य से फटी नहीं रह जाती
जहाँ एक औरत अपनी गीली आँखों को पोछ
फिर से काम में नहीं जुट जाती
अगर ऐसा नहीं है
तो फिर ये कैसी दुनिया है ?
मैं चाहता हूँ
दुनिया के नक्शे को
मेरे रूखड़े सख़्त हाथों की तरह
होना चाहिए
मेरी बेटी के हँसते वक़्त
दिखने वाले छोटे दाँतों की तरह
होना चाहिए
मेरी पत्नी के
खुले केशों की तरह
होना चाहिए
उठता नहीं है मेरा भरोसा
दुनिया के सबसे
मेहनतकश हाथ से
कि एक दिन
चाहे सदियों बाद ही सही
बनेगा दुनिया का एक ऐसा नक़्शा
जहाँ हर उठे हुए हाथ में फावड़ा
और हर झुके हुए हाथ में रोटी होगी ।
इस शहर में
शहर में नदी सूख गई है
पेड़ अब ख़ामोश रहते हैं
सड़कों पर बहुत है भीड़
पर इंसान नज़र नहीं आते
टिफ़िन का खाली डिब्बा
साइकिल के हैंडिल से टकराकर
कभी-कभी तोड़ देता है इस सन्नाटे को
शाम का ये वक़्त
और शामों की तरह
चुपचाप ख़ामोश
दर्ज़ किए बग़ैर कुछ भी
गुज़र जाएगा
अँधेरा अभी पसरने वाला है
सुबह जो फूल टूट कर गिरे थे
उनकी पँखुड़ियाँ धूल में मिल चुकी हैं
चाय की दुकानों के बाहर
लोग उठ रहे हैं
जली हुई चायपत्ती की ख़ुशबू
और सिगरेट के धुएँ ने
कोई षड्यंत्र-सा कर रखा है
लोग
लौट रहे हैं
बिना चेहरे वाले लोग
लौटकर तलाशेंगे
अपने चेहरे
दिन भर की मेहनत, हताशा, ज़िल्लत
रात की एक आदिम भूख में
बदल जाएगी
भूख-भूख बस भूख
फैल जाएगी, हर सिम्त
उस वक़्त दाँत के खोलों में फँसा
रोटी का टुकड़ा
माँस की तरह हो जाएगा
लोग पाग़ल हो जाएँगे ।
भूख-भूख बस भूख की बाबत सोचेंगे
और फैल जाएगा अँधेरा
अँधेरा अँधेरे से मिलकर
गहरा जाएगा
रात की ठिठुरन, भूख, प्यास, सन्नाटा
सब एक बिन चेहरे वाले राक्षस में
बदल जाएँगे
सूखी हुई नदी
ख़ामोश पेड़ों से
नहीं बोलेगा कोई
इस गहरे अँधेरे में
कहीं दूर बहुत दूर
जलती हुई अलाव के भीतर
चिटकेगी कोई चिंगारी भी
मैं वर्षों तक
बस सोचता रहूँगा उसी की बाबत
मेरे शहर के लोग
बीड़ी की तरह सुलग रही है रात
धुआँ फेफड़े से गुज़रते हुए
सुबह के मुँह से निकलेगा
एक अजीब चुप्पी है
घरों में खाने के बाद
खाली बर्तन भी चुप बैठे हैं
जैसे सब किसी आहट की प्रतीक्षा में
और कहीं कोई आहट नहीं
कभी-कभी एक मरियल-सी चीख़ जैसे दूर
किसी के परिन्दे के पर नोचे जा रहे हों !
समय सायरनों में बँट गया है
सायरन बजता है
और लोग सोचते हैं
‘‘चलो एक पहर गुज़र गया’’
सब कुछ गुज़र रहा है
लोग उँगलियों में उँगलियाँ फँसा
रात को एक झूठी नींद में बदल देना चाहते हैं
उन्हें अपनी पीठ और
अपनी चमड़ी का यक़ीन है
झूठी नींद में वे देखना चाहते हैं
झूठे सपने –
बच्चे ने गेंद को लात मारी
गेंद घास पर लुढ़कती हुई
बम में तब्दील नहीं हुई
बच्चे को ख़रोंच तक नहीं आई
एक ऐसी सुबह है
जिसके पीछे कोई रात नहीं
‘‘सब स्वप्न है’’ वे बुड़बुड़ाते हैं
फिर पत्नी के पास जाकर
फुसफुसाते हुए कहते हैं,
यह भोर का सपना है
पत्नियाँ जानती हैं
और मुस्कराती नहीं
एक चीख़ उठती है
और बिस्तर पर लेटे-लेटे
सब अपने पास वाले को टटोलते हैं
ठंडा पानी पीते हैं
और आसमान की तरफ़
शुक्रिया कहकर
फिर अगली चीख़ की प्रतीक्षा में
झूठी नींद के सहारे
रात काट देना चाहते हैं
यह मेरा शहर है
और ये मेरे शहर के लोग हैं
ये जीते-जागते लोग हैं
इनकी आँखें पत्थरों की नहीं हैं
इनके फेफड़ों में हर पल
उतनी ही हवा भरी होती है
जितनी की एक ज़िंदा स्वस्थ आदमी के फेफड़ों में
इनका रक्तचाप कभी नहीं बढ़ता
शहर के इस नाले के रूके जल में
अपना चेहरा देख ये चौंकते नहीं
इनके चेहरे सपाट हैं
और इनके हाथ एक मशीन की तरह
उठ-गिर रहे हैं
ये मेरे शहर के लोग हैं
और मेरे शहर की सड़कें
इनके पाँवों से शुरू होकर
इनके पाँवों तक ख़त्म होती हैं
सड़कों का काला रंग
और उस पर पड़े लाल धब्बे देखकर
कुछ फ़र्क नहीं पड़ता
ये लौट रहे हैं या जा रहे हैं
कुछ पता नहीं चलता ।
पर मेरे शहर के लोग बेहोश नहीं हैं
दाढ़ी बनाते वक़्त
जब इनके गाल छिल जाते हैं
इनको उफ़्फ़ करते हुए सुना है मैंने
और नाले की छप-छप में
सुनी है इनकी धीमी कराह भी
सात नंबर सड़क की
इस तीसरी आलीशान कोठी के
इस बड़े-से दफ़्तर की फ़ाइलों में
इनके नाम हैं
और ये सोचते हैं यह शहर इनका है
और ये इस शहर के हैं
मेरे शहर के लोग
तालाब की मछलियों को देखकर डर जाते हैं
और उस वक़्त तो उनकी आँखों का खौफ़
साफ़ देखा जा सकता है
जब कोई शिकारी मछली पकड़ने जा रहा हो
पिछली रात एक अजीब घटना हुई
शहर के रिहाइशी इलाकों की
ऊँची बिल्डिंगों के
सभी एक्वेरियम टूटे पाए गए
तोड़ने वालों की ठीक-ठीक संख्या
किसी को नहीं मालूम
वे शहर के लोगों के नुचे हुए चेहरे
पहनकर आए थे
जाते वक़्त वे कह रहे थे
तालाब की सारी मछलियाँ नदी में
और फिर नदी से समुंदर में चली जाएँगी
धरती की सबसे उदास औरत
किसी नक़ाबपोश रात में
धरती की सबसे उदास औरत
लौटती है मेरे सपने में
सिरहाने छोड़ जाती है ख़त के टुकड़े
सूखे हुए गुलमोहर के फूल
धरती की सबसे उदास औरत पूछती है
क्यों प्रेम-पत्र हर बार
मिलता है उसे टुकड़ों में
क्यों गुलमोहर के फूल
उस तक आते-आते सूख जाते हैं
क्यों एक ही समय में
दो मौसम हो जाते हैं
एक पतझर उसका
दूसरा वसंत उनका
धरती की सबसे उदास औरत
अपने सपनों का इतिहास दुहराती नहीं
पर लौट जाती हैं हर बार
किसी दूसरे के सपने में !
धरती की सबसे उदास औरत के पास
क्या अब भी कोई सपना है ?
वह सपने के बाहर है
तो सूरज से कितनी दूर ?
कैसे तब्दील कर लेती है वह
सपनों को रोटी में !
धरती की सबसे उदास औरत
जब चलती है ज़मीन पर
पीछे छूट गए पाँव के निशानों को निहारती है
वह हाथ बढ़ाती है
सपनों के बाहर की दुनिया को थामने के लिए
अपनी गोद में खिलाने के लिए
धरती की सबसे उदास औरत
अपने बगल में लेटे पुरूष को
जानवर में तब्दील होते देखती है
पहचानती है उसे थोड़ा घबराती है
फिर जूड़ों में दबा पिन निकालती है
उसकी नोक को अपनी उँगलियों से तौलती है
और मुस्कुराती है
धरती की सबसे उदास औरत
ठहाके मारकर हँसती है
शायद कोई बाहर गया
दुपहरिया खदक रही होगी ।
पिता के रक्तचाप-सी
माँ की आँखों की चमक
बुझे हुए गोइँठे की राख में खो गई होगी ।
वहाँ बरसने का मौसम हो रहा होगा
अपने रात भर के सूजे चेहरे को
दिन में बरसने को
इस कोने से उस कोने भटक रही होगी बहन
ये जगह जो घर होने को अभिशप्त है
वहाँ ईंट के खोडरों में दियासलाई नहीं
एक रोशन ख़याल जब
घर की दीवारों को
छू रहा होगा
पिता, इस बार भयंकर ठंड
की अख़बारी भविष्यवाणी
की बात सुनाएँगे
माँ अपने अधपके बालों में
रोशनी तलाशेगी
और चावल के कंकड़ों में
अपनी आंखें फोड़ने लगेगी
अब इस जगह ख़बरें नहीं आती
यहाँ सब कुछ शांत है
बहन क़िताबें पढ़कर
ज़िंदगी को अख़बार की तरह मोड़ लेती है
वह नहीं जानती सुर्ख़ियाँ
मोड़ने से नहीं छिपतीं
लेकिन इस शांति का क्या करें
जो हर वक़्त
कपड़ों की तरह उसके बदन से चिपकी हुई है
बहन पूछती है क्या करें ?
माँ पूछती है क्या करें ?
पिता पूछते हैं क्या करें ?
आख़िर क्या करें
अगर दिन बर्फ़ की तरह जमने के बाद
पिघल नहीं रहें हों
शाम एक छोटी-सी ख़बर की तरह भी
चाय की प्यालियों के बीच कहीं दर्ज़ न हो
रात पहाड़ से लुढ़कते हुए चट्टानों की आवाज़ भी
पैदा न कर सके
तो आख़िर क्या करें वो
कहाँ जाएँ
क्या वहाँ दीवारें नहीं होंगी
वहाँ घर नहीं होगें
वहाँ चूल्हे, वहाँ राख
वहाँ केरोसिन की गंध में डूबे अख़बार नहीं होंगे
वे दिन भर टकराते हैं दीवारों से
और रात को चादर की तरह ओढ़ लेते हैं
दीवारों के ख़िलाफ़
दिन को वे काट देते हैं
कबूतर और कौए की प्रतीक्षा में
जो कभी-कभार
टीन के छत पर बैठते हैं
पर सिवा बीट के वे कुछ भी नहीं करते
यही होता है यहाँ और कुछ भी नहीं होता
यह घर टूट नहीं रहा
बस धीरे-धीरे तोड़ रहा है सबको
सब धीरे-धीरे टूट रहे हें इस घर में
एक दिन बचा रह जाएगा बस ये घर
पर क्या घर बचा रह जाएगा
दीवारों से चिपकी ये बुझी आँखें सवाल करती हैं
कौए ऊपर आसमान में उड़ने लगते हैं
माँ चुप है, पिता चुप
बहन अपने हाथों को रगड़ते हुए
अपने ठंडे गालों को सेंकती है
भर्रर से दरवाज़े के खुलने की
एक ज़ोरदार आवाज़ होती है
शायद कोई बाहर गया ।
स्त्रियाँ
अब नदियों में
पहाड़ चढ़ने का हौसला नहीं रहा
बुखार में तपती एक नदी
बर्फ़ में लिपटे एक सूरज को
अपनी आँखों में दर्ज़ कर रही है ।
और समय पत्थरों में क़ैद
स्तब्ध है ।
पत्तियों में अब
क़ैद नहीं रहा
वृक्षों का बचपन
मिट्टी वृक्षों का भार
ढोते-ढोते ऊब चुकी है ।
स्त्रियाँ अपने कंधों से
समय की गर्द
झाड़ रही है
उनके पैरों ने
सीख ली है
हवा की भाषा
अपने पैरों से वे
धरती पर उभार रही है
वर्णमालाएँ ।
कई-कई पैर मिलकर
रच रहे हैं शब्द
जीवन स्त्रियों का
रच रहा है एक समय
जो खड़ा है उस समय के बरक्स
जो क़ैद है पत्थरों में
स्त्रियां काम से लौटते हुए
पत्थरों पर
अपने घिसे हुए
अँगूठों के निशान देखती हैं
अब वे इन निशानों को
दे रही हैं आकार
साबुत धरती में
पड़ गई है दरार
आसमान तक धरती
हो गई विभाजित
एक टुकड़ा है जिसे सहेज रही हैं
स्त्रियाँ
जिसमें नरम दूब की तरह
उग आए हैं सपने
और नदियाँ जहाँ
तय कर रही हैं आकाशगंगाएँ
समय ने रच दी है संभावनाएँ
अनंत तक फैले
स्मृति-बिंबों में
आकार
ले रही हैं स्त्रियाँ
वक़्त, जो क़ैद नहीं है
पत्थरों में
गीली मिट्टी की तरह
क़ैद है उन हाथों में
जिन्होंने मेंहदी की जगह
अपने हाथों को सराबोर
कर लिया है मिट्टी से !
मैं इसलिए लिख रहा हूँ
मैं इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कविता
की मेरे हाथ काट दिए जाएँ
मैं इसलिए लिख रहा हूँ
कि मेरे हाथ तुम्हारे हाथों से जुड़कर
उन हाथों को रोकें
जो इन्हें काटना चाहते हैं
पृथ्वी के बाहर
दिन उदास है
और रातें बेतरतीब
सुरंग की अँधेरी खोह से
गुज़रती है ट्रेन
पल भर के लिए सब कुछ डूब जाता है
अँधेरे में ।
इसी अँधेंरे में शुरू होती है एक तलाश
और नदी का कोई वीरान-सा किनारा
स्मृतियों में कौंधने लगता है
‘सब कुछ ठीक है’
वे बुदबुदाते हैं
एक दूसरे को पीठ ठोंकते हैं
और इस बात पर
ख़ुश होते हैं कि
पीठ रेत के टीले नहीं बने अब तक
यहीं से शुरू होती है ख़ुशी
जो अधकटे चन्द्रमा की तरह
किसी मीनार के पीछे छिप जाएगी
गर्म पकौड़ी की गन्ध से भरी शामें
और दिल्ली के चाँदनी चौक में
रोशनी के
झाड़-फानूस लगाए जा रहे हैं ।
पटरियों पर भूख की कतार है
और शाम गर्म पकौड़ी से जलेबी तक
रंगीन और लजीज़ होती जाएगी ।
उदास दिनों और
गर्म पकौड़ी-सी शामों के बीच
उबले हुए आलू-सा दोपहर
नमक की तलाश में
समुद्र की ओर निकल पड़ेगा ।
भापित जीवन और पसीने की गंध से
दोपहर पिघल कर
रोटी तरकारी और जले हुए रक्तकणों में
तब्दील हो जाएगी
यहाँ जीवन बाढ़ के पानी-सा
उफ़नता नहीं
न ही सूर्य की तरह तेज़ चमकता है
जीवन पृथ्वी की तरह
बिना रूके घूम रहा है लगातार
यह शाम, यह रात
यह दिन, यह दोपहर,
यह सूर्य, यह चन्द्र
सब में तो है जीवन
कहाँ हैं जीवन के बाहर ये ?
बच्चे की पतंग कट गई
पतंग हवा के साथ
हवा पृथ्वी के साथ
पृथ्वी को पृथ्वी नहीं
ज़मीन समझता है
और बच्चा उदास है ।
एक आदमी यहाँ पटरियों पर
गिर कर ख़ून की उल्टियाँ कर रहा है
इसी पृथ्वी पर
जहाँ अन्न के दाने उगते हैं
इस कोने से उस कोने तक
पृथ्वी भरी हुई है
हवा और गैस से नहीं
जीवन से ।
वे जो पृथ्वी को
ज़मीन के टुकड़ों
में बदल देना चाहते हैं
वे जो चाहते हैं
कि टुकड़े उनके हों जाएँ
वे पृथ्वी को तरबूज समझकर
अपना हिस्सा काट लेना चाहते हैं ।
वे पृथ्वी का हिस्सा काटकर
कहाँ जाएँगे
चन्द्रमा पर, बृहस्पति पर
शनि पर या मंगल की शिलाओं पर
पर वहाँ तो जीवन नहीं
आखिर कहाँ जाएँगे वे ?
पृथ्वी के टुकड़ों को काटकर ।
और अब पृथ्वी गर्म हो रही है
अधिक गतिशील अविभाजित
एक कभी न डूबने वाले सूर्य की तरह
आख़िर समुद्र भी तो पृथ्वी में है
कोई डूबकर भी नहीं जा सकता
पृथ्वी से बाहर ।
धूल-कण
यह चाय के पानी से
खदकती दुपहरिया
और इन जलते हुए रास्तों को
पार कर जाने की
चिलचिलाती हुई बैचनी
अभी यह पहली बस्ती आएगी
जहाँ गीले धान की तरह
खुले में
सूख रहे होंगे लोग
बरसों पहले उनके पसीने और नमक
सूखकर
वायुमंडल में चले गए
और अब वे खाली परात-सा
ताकते रहते हैं सूर्य को
जिससे हर पल बरस रहे हैं
अग्नि कण
जिससे उड़ रही है धूल
जम रही है पृथ्वी के माथे पर
और रोज़-रोज़ पुरानी होती जा रही है पृथ्वी ।
ये पुरानी पड़ रही पृथ्वी के
धूल कण हैं
जो इस धरती की मिट्टी में मिल जाना चाहते हैं
इन्हीं से उगते हैं अंकुर
इन्हीं का सीना फाड़कर दाने पौधे में तब्दील होते हैं
ये पृथ्वी के धूल-कण है
पुरानी पड़ रही पृथ्वी के
ऊपर एक आकाश है
जिसके नीचे
यह टूटी पुलिया
अपनी जर्जरता
और अपने खड़े रह सकने के अदम्य साहस का
परिचय देती
टूँगती रहती है आकाश को
जब इसके बदन
सूरज से आ रहे धूल-कणों से भर जाते हैं
आकाश द्रवित हो उठता है
और एक सुबह
चमकीली धूप में
चमक उठती है इसकी जर्जरता !
इसी के किनारे बैठते हैं मोची
जूते में ठोकते हुए कील
करते रहते हैं मरम्मत
इसी टूटी पुलिया के किनारे
और यहीं से गुज़रते हैं
सब्ज़ी वाले, फल वाले
चूड़ियाँ, बैलून, खिलौने
और नानखटाई वाले
जैसे सूरज से होकर
चले आते हैं धूल-कण
पृथ्वी पर
गुज़रते हुए
वे अक्सर तलाशतें हैं एक ऐसी ही पृथ्वी
और दोपहर ढलने लगती है
और कई जोड़ी आँखें
मोमबत्ती की तरह गलती हुई
टिमटिमाने लगती है
पर रात यहाँ शुरू नहीं होती
ख़त्म होता है दिन यहाँ
वे समेटने लगते हैं दिन को
जैसे दिन भर सूखने के बाद
समेटा जाता है धान को
पुलिया को वहीं छोड़
उसी आकाश के नीचे
वे तय करने लगते है एक लम्बी यात्रा
जिसके विषय में इतिहास-ग्रंथों या अर्थशास्त्रों में
बहुत कम लिखा गया है
वे चलते हैं
जिसका संबंध न उनकी रोज़ी से है
न रोज़गार से
बस उनकी जेब में भरी होती है रेज़गारी
और यात्राओं का कभी न ख़त्म होने वाला
एक सिलसिला चल पड़ता है
सिक्के खनखनाते हैं
और पीठ में अचानक
शुरू हो जाती है एक सनसनी
जैसे दिन पर धूप में रूक गया रक्त
चल पड़ा हो !
वे चल रहे होते हैं
जैसे पृथ्वी चल रही होती है
क्योंकि उसे चलना ही है
वे चल रहे होते हैं
जैसे समुद्र में बन रहा है नमक
कि उसे बनना ही है
वे चल रहे होते हैं
जैसे धरती फोड़कर निकलते हैं पौधे
कि उन्हें निकलना ही है
चे वल रहे होते
और एक सिरा छूटता जाता
जबकि दूसरा सिरा कभी नहीं मिलता
उनके रास्ते में बार-बार
आते हैं पुल
वे बार-बार बैठते हैं उसके किनारे
वे सूखते रहते हैं
ताकि सूरज की आग से बचे रहें लोग
वे भीगते हैं बारिश में
वे पृथ्वी के भूकम्प में समा जाते हैं
वे अपनी पीठ पर लाद लेते हैं पहाड़
वे चलते रहते हैं
यह सोचकर
की उन्हें चलना चाहिए
वे राख की तरह अपने भीतर दबाए रखते है आग
ओर सुलगते रहते है
उनके हाथ के छाले पपड़ियाँ बन
उतरने लगते हैं
और सूखने लगता है उनका मन
यहीं से शुरू होती हैं
उनकी बस्तियाँ
और कँधे पर कुदाल लिए निकल पड़ते हैं
वे धरती की छाती पर ताबड़तोड़ करते है चोट
और जब उनकी आँखें जलने लगती हैं
उनकी नसों में दौड़ रहा ख़ून बाहर
आने को होता है
धरती से फूटने लगते हैं
जल के सोते
वे बुझा कर अपनी प्यास
चलने लगते हैं !
एक दिन ये धूल-कण
फिर मिल जाएँगे मिट्टी में
जिनके भीतर धान के गीले दाने
अंकुर बन
फूटने की तैयारी में होंगे
ठीक उसी समय
जब प्रधानमंत्री लौट रहे थे
राष्ट्रपति भवन के जलसे से
जो कि रखा गया था
किसी विदेशी मेहमान के स्वागत में
ठीक उसी समय
जब मल्लिका सहरावत
अगले दिन विज्ञापन में खड़े होने के लिए
सबसे छोटे कपड़ों का चयन कर रही थी
ठीक उसी समय
जब मंत्री ने
साथी अफ़सर अधिकारी के साथ
तय किया
किस विदेशी कम्पनी को
बुलाने से ज़्यादा फ़ायदा है
ठीक उसी समय
जब पुलिस अफ़सर ने
बाबा के आश्रम के पास
बसी झोपड़ियों को हटाने के लिए
बुलडोजर चलाने का आदेश दिया
ठीक उसी समय
जब आन्ध्र प्रदेश के
किसानों ने
तय किया कि ऐसे में सबसे बेहतर है
आत्महत्या करना
ठीक उसी समय
मिन्टो ब्रिज के नीचे
कड़ाके की सर्दी से
लड़ता हुआ एक भिखारी
मरता है ।
यह सब कुछ
ठीक उसी समय
जब अमेरीका के राष्ट्रपति ने
घोषणा की –
‘भारत अब विकास कर रहा है ।’
सुबह के इन्तज़ार में
रात के हारमोनियम पर
बजता है एक क्षीण स्वर
सीटी बजाती हुई रेलगाड़ी
दूर जाकर रूक गई है ।
बैचेन आत्माओं को
नींद कहाँ आती है ?
गुदरी से बाहर निकलती देह
ताकती है आसमान को
समय का रथ कहीं
कीचड़ में फँसा-सा लगता है
भीषण रात ये
सीने पर वज्रपात ये
कटेगी मगर रात ज़रूर
स्मृतियाँ भाप बन
थोड़ा गर्मा रही है मन को
शांत क्षणों में
काँपती हैं क्षीण कायाएँ ।
मगर अभी-अभी खुलते देखा
कुछ कोंपलों को
बढ़ रहे हैं ये
लेकर खाद पानी मिट्टी से
हम भी तो टिके हैं
इन्हीं मिट्टियों पर
खुदे न सही जुड़े तो हैं ।
कुछ बढ़ेंगे
हम ज़रूर
दुःख अभी आधा ही है
पकड़े हुए है मिट्टी
आधा दुःख
यह आधी रात
सुबह के इंतज़ार में
अब और था
वह जब ‘अ’ के साथ था
तो ‘ब’ के विरोध में था
जब वह ‘ब’ के साथ था
तो ‘अ’ के विरोध में था
फिर ऐसा हुआ की
‘अ’ और ‘ब’ मिल गए
अब ?
वह रह गया
बस था ।
बाढ़-1
हर तरफ अथाह जल
जैसे डूब जाएगा आसमान
यही दिखाता है टी०वी०
एक डूबे हुए गाँव का चित्र
दिखाने से पहले
बजाता है एक भड़कीली धुन
और धीरे-धीरे डूबता है गाँव
और तेज़ बजती है धुन …
एक दस बरस का अधनंगा बच्चा
कुपोषित कई दिनों से रोता हुआ
दिखता है टी०वी० पर
बच्चा डकरते हुए कहता है–
भूखा हूँ पाँच दिन से
कैमरामैन शूट करने का मौक़ा नहीं गँवाता
बच्चा, भूखा बच्चा
कई दिन का भूखा बच्चा
क़ैद है कैमरे में …
टी०वी० पर फैलती है तेज़ रोशनी
बदलता है दृश्य
डूबता हुआ गाँव डूबता जाता है
बच्चा, भूखा बच्चा
हर तरफ़ है अथाह जल
हर तरफ़ है अथाह रौशनी …
बाढ़-2
डूबता हुआ गाँव
एक ख़बर है
डूबता हुआ बच्चा
एक ख़बर है
ख़बर के
बाहर का गाँव
कब का डूब चुका है
बच्चे की लाश
फूल चुकी है
फूली हुई लाश
एक ख़बर है …
बाढ़-3
जब डूब रहा था
सब-कुछ
तुम अपने
मज़बूत किले में बंद थे
जब डूब चुका है
सब-कुछ
तुम्हारे चेहरे पर अफ़सोस है
तुम डूबे हुए आदमी के
प्रतिनिधि हो…
बाढ़-4
एक डूबते हुए आदमी को
एक आदमी देख रहा है
एक आदमी यह दृश्य देख कर
रो पड़ता है
एक आदमी
आँखें फेर लेता है
एक आदमी हड़बड़ी में देखना
भूल जाता है
याद रखो
वे तुम्हें भूलना सिखाते हैं …
बाढ़-5
एक गेंद डूब चुकी है
एक पेड़ पर बैठे हैं लोग
एक पेड़ डूब जाएगा
डूब जाएँगी अन्न की स्मृतियाँ
इस भयँकर प्रलयकारी जलविस्तार में
एक-एक कर डूब जाएगा सब-कुछ …
एक डूबता हुआ आदमी
बार-बार ऊपर कर रहा है अपना सिर
उसका मस्तिष्क अभी निष्क्रिय नहीं हुआ है
वह सोच रहा है लगातार
बचने की उम्मीद बाक़ी है अब भी …
लड़के जवान हो गए
और लड़के जवान हो गए
वक़्त की पीठ पर चढ़ते
लुढ़कते फिसलते
लड़के जवान हो गए
उदास मटमैला फीका शहर
तेज़ रौशनी के बिजली के खम्भे
जिनमे बरसों पहले बल्ब फूट चुका है
अँधेरे में सिर झुकाए खड़े जैसे
कोई बूढा बाप जवान बेटी के सामने
उसी शहर में देखते-देखते
लड़के जवान हो गए
लड़के जिन्होंने क़िताबें
पढ़ी नहीं सिर्फ बेचीं
एक जौहरी की तरह
हर किताब को उसके वज़न से परखा
गली-गली घूमकर आइसक्रीम बेचीं
चाट-पापड़ी बेचीं
जिसका स्वाद उनके बचपन की उदासी में
कभी घुल नहीं सका
वे ही लड़के जवान हो गए
एकदम अचूक निशाना उनका
वे बिना किसी ग़लती के
चौथी मंज़िल की बाल्कनी में अख़बार डालते
पैदा होते ही सीख लिया जीना
सावधानी से
हर वक़्त रहे एकदम चौकन्ने
कि कोई मौक़ा छूट न जाए
कि टूट न जाए
काँच का कोई खिलौना बेचते हुए
और गवानी पड़े दिहाड़ी
वे लड़के जवान हो गए
बेधड़क पार की सड़कें
ज़रा देर को भी नहीं सोचा
कि इस या उस गाड़ी से टकरा जाएँ
तो फिर क्या हो ?
जब भी किसी गाड़ीवाले ने मारी टक्कर
चीख़ते हुए वसूला अस्पताल का खर्च
जिससे बाद में पिता के लिए
दवा ख़रीदते हुए कभी नहीं
सोचा चोट की बाबत
वे लड़के जवान हो गए
अमीरी के ख़्वाब में डूबे
अधजली सिगरेट और बीडियाँ फूँकतें
अमिताभ बच्चन की कहानियाँ सुनातें
सुरती फाँकते और लड़कियों को देख
फ़िल्मी गीत गाते
लड़के जवान हो गए
एक दिन नकली जुलूस के लिए
शोर लगाते लड़के
जब सचमुच में भूख-भूख चिल्लाने लगे
तो पुलिस ने दना-दन बरसाईं गोलियाँ
और जवान हो रहे लड़के
पुलिस की गोलियों का शिकार हुए
पुलिस ने कहा वे खूँखार थे
नक्सली थे तस्कर थे
अपराधी थे पॉकेटमार थे
स्मैकिए थे नशेड़ी थे
माँ बाप ने कहा
वे हमारी आँख थे वे हमारे हाथ थे
किसी ने यह नहीं कहा वे भूखे
और जवान हो गए थे
बूढ़े हो रहे देश में
इस तरह मारे गए जवान लड़के
ढेपा
रात को
पुरानी कमीज़ के धागों की तरह
उघड़ता रहता है जिस्म
छोटुआ का
छोटुआ पहाड़ से नीचे गिरा हुआ
पत्थर नहीं
बरसात में मिटटी के ढेर से बना
एक भुरभुरा ढेपा है
पूरी रात अकड़ती रहती है उसकी देह
और बरसाती मेंढक की तरह
छटपटाता रहता है वह
मुँह अँधेरे जब छोटुआ बड़े-बड़े तसलों पर
पत्थर घिस रहा होता है
तो वह इन अजन्मे शब्दों से
एक नयी भाषा गढ़ रहा होता है
और रेत के कणों से शब्द झड़ते हुए
धीरे-धीरे बहने लगते हैं
नींद स्वेप्न और जागरण के त्रिकोण को पार कर
एक गहरी बोझिल सुबह में
प्रवेश करता है छोटुआ
बंद दरवाज़ों की छिटकलियों में
दूध की बोतलें लटकाता छोटुआ
दरवाज़े के भीतर की मनुष्यता से बाहर आ जाता है
पसीने में डूबती उसकी बुश्शर्ट
सूरज के इरादों को आँखें तरेरने लगती हैं
और तभी छोटुआ
अनमनस्क-सा उन बच्चों को देखता है
जो पीठ पर बस्ता लादे चले जा रहे हैं
क्या दूध की बोतलें,अख़बार के बंडल
सब्ज़ी की ठेली ही
उसकी क़िताबें हैं…
दूध की खाली परातें
जूठे प्लेट, चाय की प्यालियाँ ही
उसकी कापियाँ हैं…
साबुन और मिट्टी से
कौन सी वर्णमाला उकेर रहा है छोटुआ ?
तुम्हारी जाति क्या है छोटुआ ?
रंग काला क्यों है तुम्हारा ?
कमीज़ फटी क्यों है?
तुम्हारा बाप इतना पीता क्यों है ?
तुमने अपनी कल की कमाई
पतंग और कंचे खरीदने में क्यों गँवा दी ?
गाँव में तुम्हारी माँ, बहन और छोटा भाई
और माँ की छाती से चिपटा नन्हका
और जीने से उब चुकी दादी
तुम्हारी बाट क्यों जोहते हैं ?…
क्या तुम बीमार नहीं पड़ते
क्या तुम स्कूल नहीं जाते
तुम एक बैल की तरह क्यों होते जा रहे हो
छोटुआ ?
बरतन धोता हुआ छोटुआ बुदबुदाता है
शायद ख़ुद को कोई किस्सा सुनाता होगा
नदी और पहाड़ और जंगल के
जहाँ न दूध की बोतलें जाती हैं
न अख़बार के बंडल
वहाँ हर पेड़ पर फल हैं
और हर नदी में साफ़ जल
और तभी मालिक का लड़का
छोटुआ की पीठ पर एक धौल जमाता है –
“साला ई त बिना पिए ही टुन्नै है
ई एतवे गो छोड़ा अपना बापो के पिछुआ देलकै
मरेगा साला हरामख़ोर
खा-खा कर भैंसा होता जा रहा है
और खटने के नाम पर
माँ और दादी याद आती है स्साले को”
रेत की तरह ढहकर
नहीं टूटता है छोटुआ
छोटुआ आकाश में कुछ टूँगता भी नहीं
न माँ को याद करता है न बहन को
बाप तो बस दारू पीकर पीटता था
छोटुआ की पैंट फट गई है
छोटुआ की नाक बहती रहती है
छोटुआ की आँख में अजीब सी नीरसता है
क्या छोटुआ सचमुच आदमी है
आदमी का ही बच्चा है छोटुआ क्या ?
क्या है छोटुआ?
पर
पहाड़ से लुढ़कता पत्थर नहीं है छोटुआ
बरसात के बाद
मिट्टी के ढेर से बना ढेपा है
छोटुआ धीरे-धीरे सख़्त हो रहा है
बरसात के बाद जैसे मिट्टी के ढेपे
सख़्त होते जाते हैं
और कभी तो इतने सख़्त कि
पैर में लग जाए तो
ख़ून निकाल ही दे
आख़िर कब तक बची रहेगी पृथ्वी
वे बचाएँगे पृथ्वी को
जी-२० के सम्मलेन में
चिंतित उनकी आँखें
उनकी आँखों में डूबती पृथ्वी
नष्ट हो रहा है पृथ्वी का पर्यावरण
पिघल रही है बर्फ़
और डूब रही है पृथ्वी
वे चिंतित हैं पृथ्वी कि बाबत
जी-२० के सम्मलेन में
पृथ्वी का यह बढ़ता तापमान
रात का यह समय
और न्योन लाइट की
रौशनी में जगमगाता हॉल
हॉल में दमकते उनके चेहरे
और उनके चेहरे से टपकती चिंताएँ
और चिंताओं में डूबती पृथ्वी !
क्या पृथ्वी का डूबना बच रहा है
जी-२० के इस सम्मलेन में ?
कौन सी पृथ्वी बचायेंगे वो
वो जो ग्लोब सरीखी रखी है
जी-२० के इस सम्मलेन में !
क्या प्लास्टिक की वह पृथ्वी
डूब जाएगी ?
डूबते किसान को कुछ भी नहीं पता
डूबती पृथ्वी के बारे में
जी-२० के सम्मलेन को वह नहीं जानता
उसे पता है हल के फाल और मूठ का
जो धरती की छाती तक जाती है
जहाँ वह बीज बोता है
और महीनों, वर्षों, सदियों
सींचता है अपने पसीने से
ताकि बची रहे पृथ्वी
बाँध टूट गया है
किसी भी वक़्त डूब सकता है गाँव
लहलहाती फसल डूब जाएगी
डूबता किसान डूबती धरती के बारे में सोचता है
जी-२० की तरह नहीं
किसान की तरह
अपने निर्जन अँधकार में
यह बारह का वक़्त है
जी-२० का सम्मलेन ख़त्म हो रहा है
सुबह अख़बारों में छपेंगी उनकी चिंताएँ
वे एक दूसरे का अभिवादन करते हैं
और रात के स्वर्णिम होने की शुभकामनाएँ देते हैं
नदी के शोर के बीच
टूटता है बाँध
किसान के सब्र का
उसकी आँखों के आगे नाचते हैं
उसके भूखे बिलखते बच्चे
दिखती है देनदार की वासनामयी आँखें
उसकी बीबी को घूरते
एक झटके से खोलता है
वह डी०डी०टी० का ढक्कन !
सुबह के अख़बार पटे पड़ें है
सफल जी-२० के सम्मलेन की ख़बरों से
डूबते गाँव में कोलाहल है
किसान की लाश जलाई नहीं जा सकेगी
वह उन फ़सलों के साथ
बह जाएगी जी-२० के सम्मलेन के पार
समुद्र में !
आख़िर कब तक
बची रहेगी पृथ्वी ?
मंदी के दौर में घर
हाँलाँकि हो कुछ नहीं रहा है
बस पत्ते टूटकर गिर रहे हैं
और धूल उड़ रही है
शताब्दियों की धूल उड़ रही है
रोज़-रोज़ इच्छाओं पर जम रही है धूल
रोज़-रोज़ पुरानी पड़ती जा रही हैं इच्छाएँ
रोज़-रोज़ कुछ नहीं हो रहा
एक थका हुआ आदमी
गुस्से से देखता है दूर
और थूक देता है ज़मीन पर
उसके भीतर का डर पुराना हो रहा है
पुरानी होती जा रही है स्मृतियाँ
जिसमें धधकती हुई महीन आग
अब धीमी पड़ती जा रही है
हालाँकि अब शाम हो रही
और लोग लौट रहे हैं
लोग कहाँ से आ रहे हैं ?
लोग कहाँ जा रहे हैं
लोग नहीं जानते
और लोग चल रहें हैं
और लोग रूके हुए हैं
और शाम हो रही है
अभी रोशनी के जलने तक
भीतर पसरेगा अँधकार
बहुत गहरी हैं जड़े इसकी
बिना रौशनी के अँधकार
कैसे जमा लेता है अपनी जड़ें
यह ठीक वक़्त है
दरवाज़ों के बन्द होने का
घर का शोर
बाहर की ओर जा रहा है
इससे पहले कि नष्ट हो बाहर की शांति
बंद कर लेना चाहिए घर के दरवाज़ों को
खिड़कियों को
बुझा देनी चाहिए रोशनी
इससे पहले एक घर
फैल जाए बाहर
घर को छिपा लेना चाहिए
घर हमारी इच्छाओं की क़ब्रगाह
जहाँ टँगे हैं
स्मृतियों के पीले पड़ गए पत्ते
एक अधेड़ उम्र वाली औरत
एक काँपते टाँगों वाला आदमी
एक रेंगता हुआ बच्चा
एक मुरझाई हुई स्त्री
ये चार स्तंभ हैं
जिनके कंधों पर टिका है घर
ये सब एक दूसरे से अपरिचित हैं
इन सबकी अपनी दुनिया है
इन सबके अपने खाली कमरे है
जिनमें भीतर तक ख़ूब अँधेरा है
यह घर है
बंद है जिसकी खिड़कियाँ-दरवाज़े
हाँलाँकि हो कुछ नहीं रहा है
बस पत्ते टूटकर गिर रहे हैं
उस काँपती टाँगोंवाले आदमी को
पिता कहा जा सकता है
उसे माँ, उसे पत्नी
उसे बेटी
और किसी को कुछ भी नहीं
ये महीने के आख़िरी दिन हैं
काम से निकाला जा चुका आदमी
घर के उस हिस्से को
बहुत नफ़रत से देखता है
जहाँ टँगा हुआ कैलेण्डर
फड़फड़ा रहा है
वहा धूल की एक मोटी परत
जम चुकी है
पुराने पड़ रहे कैलेण्डर में
खाली बैठने के नए महीने
आने वाले है ।
दुनिया बनाई जा रही है
पृथ्वी के नीचे
कई सौ मीटर नीचे
एक दुनिया बसाई जा रही है
और आदमी जा रहा है चाँद की तरफ़
इधर-उधर लड़ रहे है भूखे शेर
और झपट्टा मारकर नोच लेते है चिड़ियों को
अख़बारों में एक बहस
पृथ्वी अधिक गर्म है
या सूरज
से रात की शुरूआत है
पहरे पर बैठा उल्लू सपने देख रहा है
गीदड़ परेशान है
प्रधानमंत्री को नींद नहीं आ रही है
एक जम्हाई लेता हुआ आदमी
खा लेना चाहता है पूरे देश को
एक देश का आकार
आदमी के मुहँ जितना है
सोचते है चूहे
और घुस जाते हैं पृथ्वी के पेट में
इस शहर में मौसम नहीं बदल रहा
मौसम विभाग का दफ़्तर
बंद है बरसों से
सारे कर्मचारी परचून की दुकान चलाते हैं
परचून माने फार्चून
माने क़िस्मत
आप फ़ुटपाथ पर चल रहे हैं
और एक आदमी
अपनी कटी हुई टाँगें दिखाता है
जिनका ज़ख़्म अभी ताज़ा है
क्या ज़ख़्म के रंग के हिसाब से
मिलनी चाहिए उसे भीख ?
मुश्किल सवाल है
आप सोचते है
और मूँगफली खाते हुए
ख़राब दाने को कोसने लगते है
क्यों अजायबघर के सारे जानवर
शहर में घुस आए है
क्यों बाढ़ का सारा कूड़ा-करकट
राजधानी के सबसे बड़े चौक पर जमा है
पूछता है एक आदमी अदालत में
और ठठा कर हसँता है जज
कहता है
यह निर्णय संसद करेगी
हालाँकि ये सारी बहसें
ये सारी चर्चाएँ
बस चंद लोग कर रहे हैं
बाकी तो बिछा रहे हैं उनके लिए कालीन
और उगा रहे हैं अन्न
वे चूहों से उधार लेते है
रात भर के लिए ‘बिल’
और टाँगे सिकोड़कर सो जाते है
देखते हैं सपना
एक पहाड़ के पीछे उगता है सूरज
चमकता है नदी में जल
नदी के किनारे
खुले में है उनके घर
दूर तक जाती एक पगडंडी
जाती है चाँद पर ।
कहीं कोई आहट नहीं
एक अजीब सा संयम है
हवाओं में यहाँ
पत्ते क़ायदे से टूटकर गिर रहे हैं
चेहरे पर कोई उफ़ नहीं
नदियाँ बह रही हैं
शोर और संगीत के बीच की लय से
गठा हुआ दर्द का चेहरा
उसपर पाउडर की हल्की सफ़ेदी
और तिसपर धूप की चमक
नाटे क़द की औरतें
दिन भर मक्खियों की तरह
भिनभिनाती हैं
अपने पति की आज्ञाकारी बेटी की तरह
शहर की रोशनी में
देखती हैं अपना चेहरा
और उम्र का हिसाब लगाते हुए
उदासी में
पीठ के खरोंचों को
ब्लाउज सिलाई से जोड़ देती है
कभी लगता है
शहर बरसात का धोंधा है
जिसकी पीठ के भीतर
लिजलिजे माँस सी चिपकी हुई जनसँख्या
दीवार से लटकी हुई
आहिस्ते-आहिस्ते घिसट रही है
साइकिल के पहियों की गति में
डूब रहा है दिन
इन्तज़ार करती हुई पत्नियाँ
कैलेण्डर पर दूध का हिसाब
लिखती हैं
और रात में गर्भनिरोधक को
तकिए के नीचे छिपा देती है
ऐसी ही एक सुबह
इसी संयम भरी हवा की बीच
एक नागरिक के जाने का शोक
और एक भावी नागरिक के पैदा होने की ख़ुशी
वातावरण में फैल जाती है
घात लगाती हुई बिल्ली
आहिस्ते से घुसती है रसोई में
और पी जाती है सारा दूध
कहीं कोई आहट नहीं होती ।
इस चुनाव के बाद
भीतर जल रही महीन आग
के बावजूद
सब कुछ ठंडा है
बाहर हवा है रूकी हुई
मरियल रोशनी में
चल रहा आदमी का एक झुँड
बढ़ रहा है निश्चित दिशा की ओर
उसके ऊपर तनी हुई है
आसमान की चादर ।
कितना सुकून है
कि आसमान में कोई छेद नहीं
और आसमान के पार का सच
बहने लगता है ख़ून में
सफ़ेद कोशिकाओं में फैलने लगती है रात
तुम कहते हो भूख
और आख़िरी दीया भी
बुझ जाता है
ठंडे पानी की चोट
पेट बर्दाश्त कर सकता है
कब तक?
बच्चों की चुप्पी
सवाल करती है!
एक दिन निकलेगा
सचमुच का दिन
और भूख लगेगी
एक फ़रेब-सी
रात भर में
रात भर में
बदल सकता है कुछ भी
एक सूखता हुआ पत्ता
टूटकर गिर सकता है
बातों की गर्माहट से
कट सकती है रात !
पत्नी पूछना चाहती है
और चुप है
घर…. ?
इस चुनाव के बाद
दिन को कुछ और कहा जाएगा
रात ऐसी नहीं होगी
बच्चे ख़ुश रहेंगे हरदम
पत्नी की साड़ी का रंग
हरा, नीला, पीला, लाल
और गुलाबी होगा
पैर और सड़क के बीच
एक जोड़ी अदद चप्पल होगी
इस चुनाव के बाद
आसमान में छेद होगा
टूट-टूट कर गिरेगा सूरज
धू-धू कर जल जाएँगे दुख
सुख की इच्छाएँ होंगी
अनंत तक फैली
इस चुनाव के बाद
आकाश के पार
आकाशगंगाओं तक फैली
सुबह होगी !
बच्चे कुनुमुना रहे हैं
मतदाताओं का लिबास पहनने से पहले
तुम्हारे जर्जर घर पर
हो रही है भूख की बारिश
बज चुका है चुनाव का बिगुल
इस बार भी तुम नहीं डाल पाओगे
अपना वोट !!
बेरोज़गारी के दिन
फ़कत धूल फाँकते
दिनों में
सस्ती चायों का सहारा है
इस ऊँघते मौसम में
पेड़ों का हिलना
एक दोस्त की मुस्कराहट की तरह है
हालाँकि अभी
चप्पल को
थैले को
ओर कुर्ते को
कुछ भी नहीं पता
धीरे-धीरे जान जाएँगे वे भी
भीतर एक कोना
रिस रहा है लगातार
चलते हुए पाँव की थकान
चप्पल से उठते हुए
पैरों की माँसपेशियों से गुज़रते
पेट की अतड़ियों में फैलने लगेगी
थकान हर बार क्यों इन दिनों
भूख की शक़्ल अख़्तियार कर लेती है ?
शाम, लौटते हुए
अक्सर याद आते हैं दोस्त
दोस्त क्या कम रोशनी की आमद हैं
जो दिन के बुझने पर
चिराग की तरह टिमटिमाने लगते हैं ।
पत्नी का चेहरा
थोड़ा उलझा हुआ है इन दिनों
चूड़ियों की खनक
खाली बरतनों की आवाज़ पैदा करती है
कोई कुछ नहीं कहता
बस एक चुप्पी है की
बोल रही है
घर शांत है
सड़क शांत है
शहर शांत है
हवा में फड़फड़ाता हुआ कैलेंडर बोल रहा है ।
आँसुओं को इंतज़ार है
बत्ती बुझने को
एक पूरी रात पड़ी है खाली
एकालाप
जब रौशनी हुई
तो मै पढ़ने लगा
और अँधेरा हुआ
तो ख़ुद से लड़ने लगा
पढ़ाई और लड़ाई के बीच
एक अदद ज़िंदगी गुज़रती रही
ठहरती रही
चढ़ती रही
उतरती रही
पिछड़ती रही
नहीं कहूँगा की
सड़ती रही
रौशनी का ख़याल था
वैसे दिल को थोड़ा मलाल था
सबसे ऊपर एक ज़रूरी सवाल था
कि सवाल गुम हो गए थे
और हम ढूँढ़ लिए गए थे
हम पहचान लिए गए थे
हमारी शिनाख़्त हो चुकी थी
हम पिट चुके थे
हम सराहे जा चुके थे
हम चूक गए थे
हम चुन लिए गए थे
और हम कुछ नहीं हुए थे
कुछ नहीं का जुमला
ख़ूब चलता था
मसलन कुछ नहीं
बरसात है
धूप है
रात है
क़त्ल है
वारदात है
पुलिस है
नक्सलाइट है
अँधेरा है
लाइट है
और कुछ नहीं था
क्या हम जंगलो से भाग आए थे
अपनी कटी हुए पूँछ की तलाश में
किसी मूसा के पीछे
किस आदम औ’हौवा की स्मृति में
हम जी रहे थे
धूप में हम पीले पड़े
बरसात में गीले
और ठंड का धुँधलापन
एक नीलापन बन गया
पिता हमारे रास्ते में
बस की तरह नहीं आते थे
वे आते थे और चले जाते थे
दिन की तरह
मौसम की तरह
ख़त की तरह
भूख की तरह
रुमाल की तरह
और कभी-कभी
अँधकार की तरह
पिता अँधकार की तरह
नहीं डूबते हुए संस्कार की तरह
आते थे
और रात भर चौकी पर
करवटों की तरह
इधर से उधर
उधर से इधर
और घर
घर से बाहर
बाहर से घर तक
चले आते थे
हम भी चले थे
घर से बेघर की तरह
बेघर होकर घर की तरफ़
घर की तरफ़ पिता नहीं
रौशनी थी
रौशनी में पिता नहीं
पिता की अनुपस्थिति थी
शाम ढलती थी
और ख़त आते थे
ख़त में कुहरती माँ
डकरते घर
उजड़ते शहर
टूटती सड़क
उफ़नती नदी
और एक हँसता
गुलाबी निशान आता था
महज़ खत आते थे
और सब आते थे
और सब चले जाते थे
ख़त आता
पिता बेकार हो जाते
और हम बेरोज़गार
बेकारी और बेरोज़गारी के बीच
टँगा हुआ चँद्रमा था
टँगी हुई थी माँ की पुरानी फोटो
जिसमे माँ नायिका-सी मुस्कुराती थी
मित्र कहते
बेकारी और बेरोज़गारी के बीच
जैनरेशन-गैप है
और इन व्याख्याओं में
बेरोज़गारी और बेकारी दोनों सुरक्षित थे
सुरक्षित था जीवन
आरक्षित था मन
केंद्रित था पतन
और ठगा जा रहा था वतन
हम भी ठगे जा रहे थे
ठग रहे थे
सो रहे थे
जग रहे थे
कुछ था जो नहीं था
जो नहीं था हम वहीँ थे
हम कहाँ थे
हम जहाँ थे
वहीँ नहीं थे
इसी तरह जीवन
था और है के बीच
एक बिसरे हुए पहाड़े-सा
याद आता और चला जाता
महज जोड़-घटाव था
और हिसाब था की नदी
की तरह चढ़ता जा रहा था
बाढ़ की घोषणाएँ थी महज़
और कूड़ा-कतवार
गले तक भर आता
मरे हुए साँप
और उनके पेट में मरे हुए अंडे
मरे हुए अंडों में
मरी हुए कोशिकाएँ
जिनके भीतर गतिमान अणु
अणुओं के मध्य
कहीं झिलमिलाता परमाणु था
दुनिया की व्याख्या हो रही थी
और लगता था की
अब दुनिया समझी जा चुकी है
इसलिए लोग चन्द्रमा
और मंगल
और बृहस्पति
और यहाँ तक की शनि को समझ रहे थे
और सब समझ रहे थे
की वे क्या समझ रहे थे
वे समझ रहे थे की
वे कुछ नहीं समझ रहे थे
और एक दिन समझते हुए
वे कही नहीं रहे थे
बस, नहीं रहने का समझना था
और समझ-समझ कर रहना था
बेरोज़गारी और रेज़गारी के
अंतर्संबंधों की जटिल व्याख्याएँ थीं
व्याख्याओं के लिए सुविधाओं का अम्बार था
कल तक जहाँ पहाड़ था
आज वहाँ दैनिक अख़बार था
अख़बारों में ख़बरें थी
ख़बरों के ख़बरची थे
कुछ सच्चे
कुछ नक़लची थे
नक़लचियों की भी नक़लें थी
और शक़्लों के भीतर भी शक़्लें थी
कुछ नहीं था
बस भीतर की एक जिरह
रात की बुदबुदाहट
कुछ घटने का स्वप्न
कुछ ख़तरनाक
कुछ ख़ौफ़नाक इच्छाएँ थीं
जो महज़ इच्छाएँ बनकर रह गई थीं
एकालाप और संलाप का ल्म्बा नाटक था
जिसके बीच गायकों का लम्बा अलाप था
कहीं मन्त्र जाप था
तो कहीं विलाप था
व्याख्याएँ थी
व्याख्याओं के भीतर भी व्याख्याएँ थी
उसके भीतर आदमी था
जिसके भीतर जनसँख्या थी
देश था राष्ट्र था
नियम थे कानून थे
घर थे बाज़ार थे
शहर थे कारोबार थे
और लोग बेकार थे
गोली चलती
और संसद में बहस होती
बहस होती और गोली चलती
सब कुछ के बावजूद
एक भुलाए जा सकने वाले
स्वप्न की तरह का
ये दौर गुज़र रहा था
स्मृतियाँ थीं
और स्मृतियों के पहाड़ थे
पहाड़ पर मीनार थी
मीनार पर झूलता एक क्रॉस था
कुछ कहते वह घड़ी है
कुछ बताते वह ईसा मसीह है
सभ्यताओं के नदी के किनारे
होने की आदिम स्मृतियाँ
डायनासोर के फॉसिल के
डी० एन० ए० में दर्ज़ थी
जिसके बारे में सब चुप थे
तिस पर भी
कवि कलाकार बेहद ख़ुश थे
मुसहर
गाँव से लौटते हुए
इस बार पिता ने सारा सामान
लदवा दिया
ठकवा मुसहर की पीठ पर
कितने बरस लग गए ये जानने में
मुसहर किसी जाति को नहीं
दुःख को कहते हैं
बच्चे-1
बच्चे जो की चोर नहीं थे
चोरी करते हुए पकड़े गए
चोरी करना बुरी बात है
इस एहसास से वे महरूम थे
दरअसल अभी वे इतने
मासूम और पवित्र थें
की भूखे रहने का
हुनर नहीं सीख पाए थे
बच्चे-2
सड़क पर चलते हुए एक बच्चे ने घुमाकर
एक घर की तरफ़ पत्थर फेंका
एक घर की खिड़की का शीशा टूट गया
पुलिस की बेरहम पिटाई के बाद बच्चे ने क़बूल किया
वह बेहद शर्मिंदा है कि उसका निशाना चूक गया
किसान
उसके हाथ में अब कुदाल नहीं रही
उसके बीज सड़ चुके हैं
खेत उसके पिता ने ही बेच डाला था
उसके माथे पर पगड़ी भी नहीं रही
हाँ, कुछ दिन पहले तक
उसके घर में हल का फाल और मूठ
हुआ करता था
उसके घर में जो
नमक की आख़िरी डली बची है
वह इसी हल की बदौलत है
उसके सफ़ेद कुर्ते को
उतना ही सफ़ेद कह सकते हैं
जितना की उसके घर को घर
उसके पेशे को किसानी
उसके देश को किसानो का देश
नींद में अक्सर उसके पिता
दादा के बखार की बात करते
बखार माने
पूछता है उसका बेटा
जो दस रुपये रोज़ पर खटता है
नंदू चाचा की साइकिल की दुकान पर
दरकती हुए ज़मीन के
सूखे पपड़ों के भीतर से अन्न
के दाने निकालने का हुनर
नहीं सीख पाएगा वह
यह उन दिनों की बात है
जब भाषा इतनी बंजर नहीं हुई थी
दुनिया की हर भाषा में वह
अपने पेशे के साथ जीवित था
तब शायद डी०डी०टी० का चलन
भाषा में और जीवन में
इतना आम नहीं हुआ था
वे जो विशाल पंडाल के बीच
भव्य-समारोह में
मना रहे हैं पृथ्वी-दिवस
वे जो बचा रहे हैं बाघ को
और काले हिरन को
क्या वे एक दिन बचाएँगे किसान को
क्या उनके लिए भी यूँ ही होंगे सम्मलेन
कई सदी बाद
धरती के भीतर से
निकलेगा एक माथा
बताया जाएगा
देखो यह किसान का माथा है
सूंघों इसे
इसमें अब तक बची है
फ़सल की गंध
यह मिट्टी के
भीतर से खिंच लेता था जीवन-रस
डायनासोर की तरह
नष्ट नहीं हुई उनकी प्रजाति
उन्हें एक-एक कर
धीरे-धीरे नष्ट किया गया
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन
जीवन के इस विशाल भट्ठे में
धूप-धुन्ध ओस की बून्दें नहीं
जलते हैं रक्त के कण
शुद्ध रक्त के कण
लोहे और जीवन से भरपूर
विशाल शिराओं में दौड़ते हुए
उन पुष्ट भुजाओं के भीतर
महज़ घडी की टिक-टिक नहीं
नहीं एक उदास चुप्पी नहीं
नहीं कंक्रीट की ख़ामोश सड़क नहीं
सही नमक वाला रक्त
हाँ वही लाल रंग
दौड़ता है
जलता है ज़िन्दगी की इस विशाल भट्ठी में
एक अदृश्य भाप उठती है
एक अभेद्य रौशनी होती है
एक अबूझ मौन टूटता है
एक गुलाब खिलता है
भोर होती है
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन
सुन्दर पृथ्वी के जबड़े में अट्टहास करती
फैलती है उनकी हँसी
सम्पन्नहीनता के वैभव में हँसते
वे दुःख के गाल पर तमाचा जड़ते हैं
वे हँसते हैं और पृथ्वी डोलती है
समन्दर हिलोरे लेता है
और हैरान लोग
परेशान आत्माएँ
और चील और गिद्ध
और लकड़बग्घे
विलाप करते हैं
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन
तार-तार हो जाते हैं स्वप्न के परदे
इतनी कम रौशनी और इतनी उज्जवल आँखें
इतनी बदबूदार हवा
और इतने मजबूत फेफड़े
और ऐसी छतें
और ऐसी खिड़कियाँ
और लकड़ी के बग़ैर दरवाज़े
अनन्त उन घरों में
उन घरों में मगरमच्छ के दाँत नहीं
मोर-पंख नहीं उन घरों में
दीवारों पर बाघ के चमड़े नहीं
नहीं बारहसिंघे के सिंह से
सुसज्जित दरवाज़े
एक खाली कटोरी
मिटटी से उठती भभक
और हिलती-डुलती
ठिठोली करती
धक्का-मुक्की करती
दोहरी होती औरतें
और उनके पैरों से
उनके स्तनों से उनके पेट से
और उनकी साँस से
चिपके अनन्त बच्चे
और उन बच्चों के लिए
एक टिन का डिब्बा
एक टूटा साईकल–रिक्शा
एक सुअर का बच्चा
एक तोतली आवाज़
और सर करने को यह दुनिया
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन
झूठें हैं कवि
सारे अख़बार झूठ कहते हैं
सारे नेतागण
सारी व्यवस्थाएँ
सड़े हुए अदरक की गन्ध वाले अफ़सर
मोटे झुमके और हरी ब्लाउज से
झाँकती देह वाली औरतें
और बत्तख
और आँख मिचकाती लडकियाँ
सब झूठ
कौन सी ग़रीबी-रेखा
कैसा प्रमाण–पत्र
कैसा देश
नहीं मृत्यु-देश
नहीं रुदन
नहीं चीत्कार
नहीं बलात्कार
नहीं भूख
नहीं ग़रीबी
नहीं आह
नहीं ओह
नहीं कालाहाण्डी
नहीं विदर्भ
नहीं कोडायकोनाल
नहीं पोस्को
नहीं वेदान्ता
नहीं छत्तीसगढ़
नहीं लालगढ़
भोले लोग फूँकते
नेताओं के पुतले
नेताओं की मृत-आत्मा
देती क्षमा-दान
8.6 की विकास दर
पानी का गिलास पीते हैं वित्त-मन्त्री
नदी का पानी पीता है बुधवा मुण्डा
वित्त-मन्त्री पसीना पोछते हैं
एक जूता घूमता है उनकी और
पटाक्षेप
जूता कुछ भी हो सकता है
जूता बम हो सकता है
जूता आदमी भी हो सकता है
रौशनी होती है
सब स्वप्न
जर्मन कम्पनी का म्युज़िक सिस्टम
बजाता है एक उदास धुन
एक अँग्रेज़ी धुन
और हिन्दी की थरथराहट
एक फ्रेंच गीत का मुखड़ा
और मेरी मैथिल हँसी
सारी दुनिया
एक सेब के बीज से
सारी प्रार्थनाएँ
उसी एक ईश्वर के लिए
सारे बम उस एक ही मनुष्य के लिए
हे प्रभु उन्हें माफ़ करना जो नहीं जानते—
और नींद की भोर में एक लम्बी चुप्पी
और विराम के बाद एक लम्बी यात्रा
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन…
बुधवा मुंडा को नींद नहीं आती
बुधवा मुंडा को नींद नहीं आती
रात भर कोई
उसके सपनो में कहता है
उलगुलान उलगुलान उलगुलान !
के है रे?
खाट पर लेटा बुधवा
इन्तज़ार करता है
उसका पठारी मन पूछता है
जाने कब होगा विहान
जाने कब निकलेगा ललका सूरज
जाने कब ढलेगी ये अन्धेरी रात
और फैलने लगती है चुप्पी
जंगल नदी पेड़ पहाड़
सब ख़ामोश
ख़ामोशी में घूमती है धरती
धरती में पड़ती है दरारें
दरारों में कोई भरता है बारूद
और सपनो में कोई बोलता है
उलगुलान उलगुलान उलगुलान !
और विहान नहीं होता
ललका सूरज नहीं निकलता !
ये उदासी से भरे दिन हैं
ये पृथ्वी की उदासी के दिन हैं
ये नदी पहाड़ की उदासी के दिन हैं
ये बुधवा की उदासी के दिन है
महज़ पेट की आग में नहीं
जल रहा है बुधवा
आग जंगल में लगी है
और पेट पर हाथ रख
पूछता है बुधवा
कहाँ हो बिरसा कहाँ हो शिबुआ ?
कहाँ हो हमार सिधु-कानु?
क्या पृथ्वी पर चल रहा यह कोई नाटक है
जिसका नायक जंगल उदास है
जिसमे परदे के पीछे से बोलता है कोई
उलगुलान उलगुलान उलगुलान !
और उठता है शोर
और डूबता है दिन
और लगती है आग
धधकता है जंगल
बुधवा का कंठ जलने लगता है
बुधवा सोचता है
बहुत बहुत सोचता है बुधवा इन दिनों
शिबुआ बागी हो गया है
बुधवा पूछता है
क्या यह नून की लड़ाई है
शिबुआ कहता है
यह नून से भी बड़ी लड़ाई है
शिबुआ की तलाश में
रोज़ आती है पुलिस
जब कभी छिप के आता है शिबुआ
तो हँस के कहता है दादा
मै तो खुद पुलिस की तलाश में हूँ
शिबुआ ठठाकर हँसता है
उसकी हँसी से गूँज उठता है जंगल
लगता है धरती की दरारों में कोई विस्फोट होने वाला है
उसकी हँसी डराती है बुधवा को
डर बुधवा को तब भी लगा था
जब माँ डायन हो गई थी
दादा के मरने के बाद
माँ को बनना पड़ा था डायन
एक दिन अचानक माँ गायब हो गई
उन्होंने कहा माँ को उठा ले गए हैं देवता
एक देसी मुर्गा और एक बोतल दारू
चढ़ाने पर
देवता ने लौटाई थी माँ की लाश
उस दिन बुधवा
देवता से बहुत डरा था
शिबुआ कहता है
दादा तुमको मालूम नहीं
ये देवता कौन लोग हैं?
ये बस मुर्गा और दारू ही नहीं
आदमी का ग़ोश्त भी खाते हैं
ये तुम्हारा-हमारा
ये पूरे जंगल का ग़ोश्त खाना चाहते हैं दादा
दादा उठो
उठो दादा
दादा तभी होगा विहान
तभी निकलेगा ललका सूरज
बुधवा को लगता है
शिबुआ अब भी बैठा है उसके पास
शिबुआ गा रहा है गीत
“आवो रे बिरसा
उबारो रे बिरसा
बचावो रे बिरसा
रास्ता दिखावो रे बिरसा ………..”
और बुधवा को लगता है
कोई उसे झकझोर रहा है
कोई हिला रहा है उसे
कोई जगा रहा है उसे
कोई कहता है दादा उठो
हमने ढूँढ़ लिया है देवता को
कल विहान होने पर
उसे लटका देंगे फाँसी पर
दादा तभी निकलेगा ललका सूरज
दादा ये जंगल आदमियों का है
आदमखोरो का नहीं
और छटपटाकर
कटे परवे सा उठ बैठता है बुधवा
के है रे? के है रे?
और गहरे अंधकार में
गूंजता है सन्नाटा
सन्नाटे में गूँजती है
शिबुआ की हँसी …..!
अख़बार में छपा है
सरकार ने आदिवासियों के खिलाफ
छेड़ दी है जंग
सरकार मने……..
शिबुआ कहता है
सरकार मने देवता
मुर्गा और दारू उड़ाने वाला देवता
आदमखोर देवता
तो क्या शिबुआ देवता से लड़ेगा
सोचते ही बुधवा की
छूटने लगती है कँपकपी
उसे माँ याद आती है
जो बचपन में उसके डरने पर
उसे बिरसा और सिद्धू-कानू के
किस्से सुनाती थी
लेकिन माँ डायन है
माँ को देवता ले गए
माँ के प्राण खींच लिए थे देवता ने
माँ क्यों बनी थी डायन?
क्या माँ भी देवता के खिलाफ लड़ रही थी ?
ये कैसी बातें सोचने लगा है बुधवा
छिः देवता को लेकर ऐसी बातें
नहीं सोचनी चाहिए उसे
पर कहीं देवता और सरकार………..
अभी विहान नहीं हुआ है
बस भोरुक्वा दिख रहा है बुधवा को
भोरुक्वा की रोशनी में
बुधवा जा रहा है जंगल की तरफ
उसके आगे जा रही है माँ
माँ के कंधे पर बैठा है
छोटका शिबुआ
छोटका शिबुआ गा रहा है
“आवो रे बिरसा
उबारो रे बिरसा
बचावो रे बिरसा
रास्ता दिखावो रे बिरसा ………..”
अभी विहान नहीं हुआ है !
ख़बर
डूबता हुआ गाँव एक ख़बर है
डूबता हुआ बच्चा एक ख़बर है
ख़बर के बाहर का गाँव
कब का डूब चुका है
बच्चे की लाश फूल चुकी है
फूली हुई लाश एक ख़बर है …
प्रतिनिधि
जब डूब रहा था सब-कुछ
तुम अपने मज़बूत क़िले में बंद थे
जब डूब चुका है सब-कुछ
तुम्हारे चेहरे पर अफ़सोस है
तुम डूबे हुए आदमी के प्रतिनिधि हो….
भूलना
एक डूबते हुए आदमी को
एक आदमी देख रहा है
एक आदमी यह दृश्य देख कर
रो पड़ता है
एक आदमी आँखें फेर लेता है
एक आदमी हड़बड़ी में देखना
भूल जाता है
याद रखो
वे तुम्हें भूलना सिखाते हैं …
उम्मीद
एक गेंद डूब चुकी है
एक पेड़ पर बैठे हैं लोग
एक पेड़ डूब जाएगा
डूब जाएंगी अन्न की स्मृतियाँ
इस भयंकर प्रलयकारी जलविस्तार में
एक-एक कर डूब जाएगा सब-कुछ …
एक डूबता हुआ आदमी
बार-बार ऊपर कर रहा है अपना सिर
उसका मस्तिष्क अभी निष्क्रिय नहीं हुआ है
वह सोच रहा है लगातार
बचने की उम्मीद बाक़ी है अब भी …
नाम में क्या रखा है
फ़ोन पर एक अपरीचित सी आवाज़ आई
कहा हलो!आप कैसे हैं?
मैंने कहा ठीक हूँ,
आप कौन?
उन्होंने कहा वे ‘निर्भय’ बोल रहे हैं
‘जागरण’ में थे पिछले दिनों
इससे पहले कि मैं कुछ पूछता
बढ़ गयी उनकी खांसी
थोडा संभले तो पूछने लगे-
कैसी है तबियत आपकी
मैंने कहा ठीक हूँ अब
हाँ ! उन्होंने कहा सुना था,
पिछले दिनों बहुत बीमार रहें आप
पर ले नहीं सका आपका हाल .
मैं कुछ कहता पर वे ही बोल पड़े
‘जागरण’ में आप थे
तो मुलाकात हो जाती थी
अब यह नौकरी भी छूट गयी
कलकत्ते सा शहर और बच्चे दो
कहीं किसी अखबार में आप कह देते
तो बात बन जाती
मैंने कहा आप शायद
मेरे नाम से धोखा खा गए
मैं वह नहीं
जो आप समझे अब तक
नाम ही भर है उनका मेरा एक सा
दुखी आवाज़ में अफसोस के साथ वे बोले-
उफ़!आपको पहले ही बताना चाहिए था
और फिर बढ़ गयी उनकी खांसी
मैं माफ़ी मांगता
कि फ़ोन रख दिया उन्होंने
मैं सोचने लगा
आखिर शेक्सपियर नें क्यों कहा था
नाम में क्या रखा है?
सच के झूठ के बारे में झूठ का एक किस्सा
यह न तो कथा है और न ही सच
यह व्यथा है और झूठ
जैसे कि यह समय
व्यथा जैसे कि
पिता के कंधे पर बेटे की लाश
लेकिन इससे बचा नहीं जा सकता था
सो इसे दर्ज किया गया
जैसे कि मरने से ठीक पहले
दर्ज किया गया मरने वाले का तापमान
क्या उसे दर्ज़ किया जाना चाहिए था?
यह मृतक का तापमान था
आदमी –आदिम राग का गायक
क्या इतना ठंडा हो सकता है?
कांपते हाथों से लिखता हूँ झूठ
गोकि पढता हूँ इसे सच की तरह
सच का सच ही नहीं झूठ भी होता है
सच की रौशनी ही नहीं अंधकार भी होता है
और सच का झूठ
झूठ के सच से अधिक कलुष
अधिक यातनादाई और
सबसे बढकर अधिक झूठ होता है
नींद के बरसात में भीगते हुए
देखते हो तुम सपना
झूठ कहता है कॉपरनिकस कि गोल है पृथ्वी
पर पृथ्वी का यह झूठ बचाता है
तुम्हे गिरने से
चेहरे की किताब पर
दर्ज करते हो तुम ‘जीत’
सच की तरह
शराब के नशे में
शराब के नशे में धुत एक आदमी
दुतकारता है जिन्दगी को
कहता है लौट जाऊंगा
मैं अपने घर
तीन आंगन वाले अपने घर
वहां धूप होगी
सकुचाती हुई
चूमती हुई माथा
उतरेगी शाम
शराब के नशे में धुत आदमी
अपने रतजगे में बुहारता है
सबसे ठंडी रात को
पृथ्वी से बाहर
वह लिखता है इस्तीफा
पढता है ऊँची आवाज़ में
मुझे तबाह नहीं करनी अपनी जिंदगी
लानत भेजता हूँ ऐसी नौकरी पर
सुबकते हुए कहता है
लौट जाऊंगा अपने गाँव
खटूंगा अपने खेतों में
चुकाऊंगा ऋण धरती का
दिन की रौशनी में
स्कूल बस पर बेटी को बिठाने के बाद
वह पत्नी की आँखों में ऑंखें डालकर
कसम खाता है
वह शराब को कभी हाथ नहीं लगाएगा
मुस्कुराती हुई पत्नी को
वह दुनिया की
सबसे खूबसूरत औरत कहता है
और चला जाता है ……
काम पर
मैं थूकने की आदत भूल गया हूँ
लगातार गटकते हुए
एक दिन सहसा
मैंने महसूस किया
मैं थूकने की आदत
भूल गया हूँ
थूकना अब मेरी रोज़-मर्रा की
आदतों में शुमार नहीं
जबकि मुझे थूकना था असंख्य बार
मैं उनदिनों की बात कर
रहा हूँ
जब सूरज बुझा नहीं था
और चन्द्रमा विहीन काली रात
कभी कभी फिसलकर
चमक उठती थी माथे पर
सुहागिन औरत
सरीखी पृथ्वी
असीसती थी
और बरसात होती थी
काले बादलों के शोर में
छिप जाता था दुःख
दुःख जो कि
नदी थी
दुःख जो कि घर था
दुःख जो कि पिता थे
दुःख उमड़ते हुए बादल
दुःख असमान था
दुःख माँ थी
दुःख बहन की आंख थी
जो सूखती हुई नदी थी
समय था
सूखते हुए पत्तों सा
इच्छायें थी
भुरभुरी रेत सी
कल्पनाओं के अनंत पतवार थे
और हम डूबते हुए नाव पर सवार थे
कट जाएँ स्मृतियों के
जीवित तन्तु
बह जाये अंतिम बूंद रक्त
भविष्य की शिराओं से
मैं अंतिम बार थूकना चाहता हूँ
जिन्दगी के इस माथे पर
जिसके कंठ में अटका है
दुःख और
चेहरे फैली हुई
है आसुओं की रक्तिम बूंद
लेकिन मेरी मुश्किल है
मैं थूकने की आदत
भूल गया हूँ
बड़े कवि से मिलना
बड़े कवि से मिलना हुआ
वे सफलता की कई सीढियाँ चढ़ चुके थे
हम साथ -साथ उतरे
औपचारिकतावश उन्होंने मेरा हालचाल पूछा
फिर दो कदम बढ़े
और कहा चलता हूँ
हालाँकि हम कुछ दूर साथ साथ चल सकते थे
हम लोग एक ही ट्रेन के अलग डब्बों पर सवार हुए
उस दिन ट्रेन एक नहीं दो रास्तों से गुजरी.