चलो ये तो सलीका है बुरे को मत बुरा कहिए
चलो ये तो सलीका है बुरे को मत बुरा कहिए
मगर उनकी तो ये ज़िद है हमें तो अब ख़ुदा कहिए
सलीकेमन्द लोगों पे यूँ ओछे वार करना भी
सरासर बदतमीज़ी है इसे मत हौसला कहिए
तुम्हारे दम पै जीते हम तो यारों कब के मर जाते
अगर ज़िंदा हैं क़िस्मत से बुजुर्गों की दुआ कहिए
हमारा नाम शामिल है वतन के जाँनिसारों[1] में
मगर यूँ तंगनज़री[2] से हमें मत बेवफ़ा कहिए
तुम्हीं पे नाज था हमको वतन के मो’तबर[3] लोगों
चमन वीरान-सा क्यूँ है गुलों को क्या हुआ कहिए
किसी की जान ले लेना तो इनका शौक है ‘आज़ाद’
जिसे तुम क़त्ल कहते हो उसे इनकी अदा कहिए
चार दिनों की उम्र मिली है और फ़ासले जन्मों के
चार दिनों की उम्र मिली है और फ़ासले जन्मों के
इतने कच्चे रिश्ते क्यूँ हैं इस दुनिया में अपनो के
सिर्फ़ मुहब्बत की दुनिया में सारी ज़बानें अपनी हैं
बाकी बोली अपनी-अपनी खेल तमाशे लफ़्ज़ों के
आँखों ने आँखों को पल में जाने क्या-क्या कह डाला
ख़ामोशी ने खोल दिये हैं राज छुपे सब बरसों के
अबके सावन ऐसा आया दिल ही अपना डूब गया
अश्कों के सैलाब में गुम है गाँव हमारे सपनों के
किसी मनचली मौज ने आकर इतने फूल खिला डाले
कोई पागल लहर ले गई सारे घरौंदे बच्चों के
नई हवा ने दुनिया बदली सुर-संगीत बदल डाले
हम आशिक‘आज़ाद’हैं अब भी उन्हीं पुराने नगमों के
अजब जलवे दिखाए जा रहे हैं
अजब जलवे दिखाए जा रहे हैं
ख़ुदी को हम भुलाए जा रहे हैं
शराफ़त कौन-सी चिड़िया है आख़िर
फ़कत किस्से सुनाए जा रहे हैं
बुजुर्गों को छुपाकर अब घरों में
सजे कमरे दिखाए जा रहे हैं
खुद अपने हाथ से इज़्ज़त गँवा कर
अब आँसू बहाए जा रहे हैं
हमें जो पेड़ साया दे रहे थे
उन्हीं के क़द घटाए जा रहे हैं
सुख़नवर अब कहाँ हैं महफ़िलों में
लतीफ़े ही सुनाए जा रहे हैं
‘अजीज’अब मज़हबों का नाम लेकर
लहू अपना बहाए जा रहे हैं
तेरे बदन की ख़ुशबू आई
तेरे बदन की ख़ुशबू आई
हवा चमन की फिर गर्माई
पत्ता-पत्ता नाच रहा है
बूढ़े शजर की शामत आई
भँवरों ने कलियों को चूमा
सारी फ़ज़ा में मस्ती छाई
प्यार का जब पैमाना छलका
दिल की प्यास लबों पे आई
रूप का आँचल सरक रहा है
मस्त हवा ने ली अँगडाई
चाँद नदी में डूब रहा है
काँप रही है अब परछाई
अब मेरा दिल कोई मजहब न मसीहा मांगे
अब मेरा दिल कोई मज़हब न मसीहा माँगे
ये तो बस प्यार से जीने का सलीका माँगे
ऐसी फ़सलों को उगाने की ज़रूरत क्या है
जो पनपने के लिए ख़ून का दरिया माँगें
सिर्फ़ ख़ुशियों में ही शामिल है ज़माना सारा
कौन है वो जो मेरे दर्द का हिस्सा माँगे
ज़ुल्म है, ज़हर है, नफ़रत है, जुनूँ है हर सू
ज़िन्दगी मुझसे कोई प्यार का रिश्ता माँगे
ये तआलुक है कि सौदा है या क्या है आख़र
लोग हर जश्न पे मेहमान से पैसा माँगें
कितना लाज़म है मुहब्बत में सलीका ऐ‘अज़ीज़’
ये ग़ज़ल जैसा कोई नर्म-सा लहज़ा माँगे
किसलिए वो याद फिर आने लगी
किसलिए वो याद फिर आने लगी
ज़िन्दगी की शाम गहराने लगी
आज इस सूखे शजर पर किसलिए
फिर घटा आ-आ के लहराने लगी
फिर ये सावन सर पटकता है मगर
चाहतों की शाख मुर्झाने लगी
थरथराते एक पत्ते की तरह
सारी दुनिया अब नज़र आने लगी
क्या हुआ जो आज बहलाने मुझे
ज़िन्दगी क्यूँ प्यार बरसाने लगी
अब कोई ‘आज़ाद’ शिकवा किसलिए
सो ही जाएँ नींद जब आने लगी
तुम ज़रा प्यार की राहों से गुज़र कर देखो
तुम ज़रा प्यार की राहों से गुज़र कर देखो
अपने ज़ीनों से सड़क पर भी उतर कर देखो
धूप सूरज की भी लगती है दुआओं की तरह
अपने मुर्दार ज़मीरों से उबर कर देखो
तुम हो ख़ंजर भी तो सीने में समा लेंगे तुम्हें
प’ ज़रा प्यार से बाँहों में तो भर कर देखो
मेरी हालत से तो ग़ुरबत का गुमाँ हो शायद
दिल की गहराई में थोड़ा-सा उतर कर देखो
मेरा दावा है कि सब ज़हर उतर जायेगा
तुम मेरे शहर में दो दिन तो ठहर कर देखो
इसकी मिट्टी में मुहब्बत की महक आती है
चाँदनी रात में दो पल तो पसर कर देखो
कौन कहता है कि तुम प्यार के क़ाबिल ही नहीं
अपने अन्दर से भी थोड़ा-सा सँवर कर देखो
मैं तो बस ख़ाके-वतन हूँ गुलो-गौहर तो नहीं
मैं तो बस ख़ाके-वतन हूँ गुलो-गौहर तो नहीं
मेरे ज़र्रों की चमक भी कोई कमतर तो नहीं
मैं ही मीरा का भजन हूँ मैं ही ग़ालिब की ग़ज़ल
कोई वहशत कोई नफ़रत मेरे अन्दर तो नहीं
मेरी आग़ोश तो हर गुल का चमन है लोगो
मैं किसी एक की जागीर कोई घर तो नहीं
मैं हूँ पैग़ामे-मुहब्बत मेरी सरहद ही कहाँ
मैं किसी सिम्त चला जाऊँ मुझे डर तो नहीं
गर वतन छोड़ के जाना है मुझे लेके चलो
होगा एहसास के परदेस में बेघर तो नहीं
मेरी आग़ोश तो तहज़ीब का मरकज़ है ‘अज़ीज़’
कोई तोहमत कोई इल्ज़ाम मेरे सर तो नहीं
मुश्किल चाहे लाख हो लेकिन इक दिन तो हल होती है
मुश्किल चाहे लाख हो लेकिन इक दिन तो हल होती है
ज़िन्दा लोगों की दुनिया में अक्सर हलचल होती है
जीना है तो मरने का ये ख़ौफ़ मिटाना लाज़िम है
डरे हुए लोगों की समझो मौत तो पल-पल होती है
कफ़न बाँध कर निकल पड़े तो मुश्किल या मजबूरी क्या
कहीं पे काँटे कहीं पे पत्थर कहीं पे दलदल होती है
जिस बस्ती में नफ़रत को परवान चढ़ाया जायेगा
सँभल के रहना उस बस्ती की हवा भी क़ातिल होती है
इतना लूटा, इतना छीना, इतने घर बरबाद किये
लेकिन मन की ख़ुशी कभी क्या इनसे हासिल होती है
अम्नो-अमाँ के साये में ही सब तहज़ीबें पलती हैं
नफ़रत में पलने वालों की नस्ल तो ग़ाफ़िल होती है
होकर भी ‘आज़ाद’ जो अब तक दुनिया में मोहताज रहे
उन लोगों की हालत आख़िर रहम के क़ाबिल होती है
नफ़रत की आग जब भी कहीं से गुज़र गई
नफ़रत की आग जब भी कहीं से गुज़र गई
एक कायनात अम्न की जल कर बिखर गई
जो थे चमन के फूल वो शोलों में ढल गए
जन्नत है जो ज़मीं की फ़सादों में घिर गई
हम बेलिबास हो गए तहज़ीब के बग़ैर
पहचान वो हमारी तलाशो किधर गई
जिस शहर का निज़ाम हो क़ातिल के हाथ में
उस शहर की अवाम तो बेमौत मर गई
लीडर हमारे देश के नासूर बन गए
क़ुर्बानियाँ अवाम की सब बेअसर गईं
जो लेके फिर रहे हैं हथेली पे आबरू
ज़िन्दा हैं वो तो क्या है अगर शर्म मर गई
‘आज़ाद’ जी रहे हैं ग़ुलामों की ज़िन्दगी
मुर्दा ज़मीर लोगों की क़िस्मत सँवर गई
वो नदी-सी सदा छलछलाती रही
वो नदी-सी सदा छलछलाती रही
हम भी प्यासे रहे वो भी प्यासी रही
जुगनुओं को पकड़ने की हसरत लिए
मेरी चाहत यूँ ही छटपटाती रही
मेरी ऑंखों से ख़्वाबों के रिश्ते गए
याद आती रही जी जलाती रही
आज फिर मैं सुबगता रहा रात-भर
चाँदनी तो बहुत खिलखिलाती रही
वो परिन्दे न जाने कहाँ गुम हुए
बस हवा ही हवा फड़फड़ाती रही
वो न आए तो आई नहीं मौत भी
साँस आती रही साँस जाती रही
मयस्सर हमें कोई ऐसा जहाँ हो
मयस्सर हमें कोई ऐसा जहाँ हो
जहाँ दाना-पानी हो इक आशियाँ हो
तरसते हुए हम कहीं मर न जाएँ
कभी ज़िन्दगी का हमें भी गुमाँ हो
गिरे आशियाने शजर कट रहे हैं
हमारे भी सर पर कोई सायबाँ हो
जहाँ पास रह कर हैं सब अजनबी-से
मिले कोई अपना कोई हमज़बाँ हो
फ़सादों से सारा चमन जल न जाए
यहाँ प्यार का कोई दरिया रवाँ हो
परिन्दे तो उड़ते हैं ‘आज़ाद’ हर सू
हमारी ही ख़ातिर हदें क्यूँ यहाँ हो
लोग सौ रंग बदलते हैं लुभाने के लिए
लोग सौ रंग बदलते हैं लुभाने के लिए
कितने होते हैं जतन दिल की बुझाने के लिए
राह रुक जाती है जिस्मों की हदों तक जाकर
फिर मुहब्बत का सफ़र ख़त्म ज़माने के लिए
चन्द लम्हों में किया चाहेंगे बरसों का हिसाब
किसको फ़ुरसत है यहाँ साथ निभाने के लिए
प्यार करते हैं छुपाते हैं गुनाह हो जैसे
कौन तैयार है इल्ज़ाम उठाने के लिए
कैसे मुमकिन है के हर मोड़ पे मिल जाएँ ‘अज़ीज़’
ज़िन्दगी कम है जिन्हें अपना बनाने के लिए
यहाँ से दर्द का ख़ामोश समन्दर ले जा
यहाँ से दर्द का ख़ामोश समन्दर ले जा
कुछ नहीं है तो फ़क़त याद के पत्थर ले जा
प्यार बन-बन के बरसती है लिपट जाती है
ये वो मिट्टी है इसे जिस्म पे मल कर ले जा
फूल तपते हुए सहरा में भी खिल जाते हैं
अपनी आँखों में छुपा कर यही मंज़र ले जा
सर छुपाने की जगह तुझको मिले या न मिले
चाहे पैबन्द सही घर से ये चादर ले जा
ऐसे मौसम में परिन्दे तो न आएँगे ‘अज़ीज़’
पिछले मौसम के बचे पर ही उठा कर ले जा
इस दौर में किसी को किसी की ख़बर नहीं
इस दौर में किसी को किसी की ख़बर नहीं
चलते हैं साथ-साथ मगर हमसफ़र नहीं
अपने ही दायरों में सिमटने लगे हैं लोग
औरों की ग़म-ख़ुशी का किसी पे असर नहीं
दुनिया मेरी तलाश में रहती है रात-दिन
मैं सामने हूँ मुझ पे किसी की नज़र नहीं
वो नापने चले हैं समन्दर की वुसअतें[1]
लेकिन ख़ुद अपने क़द पे किसी की नज़र नहीं
राहे-वफ़ा में ठोकरें होती हैं मंज़िलें
इस रास्ते में मौत का कोई भी डर नहीं
सजदे में सर को काट के ख़ुश हो गया यजीद
ये साफ़ बुज़दिली[2] है तुम्हारा हुनर नहीं
हम लोग इस ज़हान में होकर हैं गुम ‘अज़ीज़’
जीते रहे हैं ऐसे के जैसे बशर[3] नहीं
मेरे वजूद का रिश्ता ही आसमान से है
मेरे वजूद का रिश्ता ही आसमान से है
न जाने क्यूँ उन्हें शिकवा मेरी उड़ान से है
मुझे ये ग़म नहीं शीशा हूँ हश्र क्या होगा
मेरी तो जंगे-अना ही किसी चट्टान से है
सभी ने की है शिकायत तो ज़ुल्म की मुझ पर
मगर ये सारी शिकायत दबी ज़बान से है
मैं जानता था सज़ा तो मुझे ही मिलनी थी
मुझे तो सिर्फ़ शिकायत तेरे बयान से है
भरे घरों को जला कर यूँ झूमने वालों
तुम्हारा रिश्ता भी आख़िर किसी मकान से है
हमें ज़माना ये कैसी जगह पे ले आया
ज़मीं से है कोई रिश्ता न आसमान से है
उम्र बस नींद-सी पलकों में दबी जाती है
उम्र बस नींद-सी पलकों में दबी जाती है
ज़िन्दगी रात-सी आँखों में कटी जाती है
वो लरजती हुई इक याद की ठण्डी-सी लकीर
क्यों मेरे ज़हन में आती है चली जाती है
मैं तो वीरान-सा खंडहर हूँ बयाबाँ के क़रीब
दूर तक रोज़ मेरी चीख़ सुनी जाती है
देख सूखे हुए पत्तों का सुलगना क्या है
आग हर सिम्त से जंगल में बढ़ी जाती है
उफ अँधेरे की तड़प देख सुराखों के क़रीब
किस तरह धूप भी चेहरों पे मली जाती है
जैसे दिलकश है बहुत डूबता सूरज ऐ ‘अज़ीज़’
यूँ ही हर शाम तेरी उम्र ढली जाती है
जो दुनिया पे छाए-छाए फिरते हैं
जो दुनिया पे छाए-छाए फिरते हैं
मौत से इतना क्यूँ घबराए फिरते हैं
सन्नाटे पसरे हैं मन की वादी में
फिर भी कितना शोर मचाए फिरते हैं
ख़ुद का बोझ नहीं उठता जिन लोगों से
वो धरती को सर पे उठाए फिरते हैं
ख़ुद को ज़रा-सी ऑंच लगी तो चीख़ पड़े
जो दुनिया में आग लगाए फिरते हैं
उनके लफ्ज़ों में ही ख़ुशबू होती है
जो सीने में दर्द छुपाए फिरते हैं
क्या होगा ‘आज़ाद’ भला इन ग़ज़लों से
लोग अदब से अब कतराए फिरते हैं
कुछ इस तरह से साथ मेरे हमसफ़र चले
कुछ इस तरह से साथ मेरे हमसफ़र चले
साये से जैसे जिस्म कोई बेख़बर चले
ख़ामोशियों का सर्द अँधेरा है इस कदर
यूँ अजनबी से यार न जाने किधर चले
इस दस्ते-बेकराँ में खटकती है बेरुख़ी
लाज़िम है इस घड़ी में लिपट कर बशर चले
इतना भी कम नहीं के शरीके-सफ़र रहे
जैसे भी मेरे साथ चले वो मगर चले
हम आ के एक मोड़ पे रुके तो ये लगा
या रब ज़रा-सा और ये दौरे-सफ़र चले
हम तो ‘अज़ीज़’ डूबते सूरज के साथ-साथ
कितनी अधूरी हसरतें लेके यूँ घर चले
अपनी नज़र से कोई मुझे जगमगा गया
अपनी नज़र से कोई मुझे जगमगा गया
महफ़िल में आज सब की निगाहों में छा गया
कल तक तो इस हुजूम में मेरा कोई न था
लो आज हर कोई मुझे अपना बना गया
आता नहीं था कोई परिन्दा भी आस-पास
अब चाँद ख़ुद उतर के मेरी छत पे आ गया
जो दर्द मेरी जान पे रहता था रात-दिन
वो दर्द मेरी ज़िन्दगी के काम आ गया
हैरान हो के लोग मुझे पूछते हैं आज
‘आज़ाद’ तुमको कौन ये जीना सिखा गया
वो मुहब्बत गई वो फ़साने गए
वो मुहब्बत गई वो फ़साने गए
जो ख़ज़ाने थे अपने ख़ज़ाने गए
चाहतों का वो दिलकश ज़माना गया
सारे मौसम थे कितने सुहाने गए
रेत के वो घरौंदे कहीं गुम हुए
अपने बचपन के सारे ठिकाने गए
वो गुलेलें तो फिर भी बना लें मगर
अब वो नज़रें गईं वो निशाने गए
अपने नामों के सारे शजर कट गए
वो परिन्दे गए आशियाने गए
ज़िद में सूरज को तकने की वो ज़ुर्रतें
यार ‘आज़ाद’ अब वो ज़माने गए
सावन को ज़रा खुल के बरसने की दुआ दो
सावन को ज़रा खुल के बरसने की दुआ दो
हर फूल को गुलशन में महकने की दुआ दो
मन मार के बैठे हैं जो सहमे हुए डर से
उन सारे परिन्दों को चहकने की दुआ दो
वो लोग जो उजड़े हैं फ़सादों से, बला से
लो साथ उन्हें फिर से पनपने की दुआ दो
कुछ लोग जो ख़ुद अपनी निगाहों से गिरे हैं
भटके हैं ख़यालात बदलने की दुआ दो
जिन लोगों ने डरते हुए दरपन नहीं देखा
उनको भी ज़रा सजने-सँवरने की दुआ दो
बादल है के कोहसार पिघलते ही नहीं हैं
‘आज़ाद’ इन्हें अब तो बरसने की दुआ दो
ज़िन्दगी धूप की बारिशों का सफ़र
ज़िन्दगी धूप की बारिशों का सफ़र
यार क्या ख़ूब है ख़्वाहिशों का सफ़र
ज़ख़्म खाते रहे मुस्कराते रहे
यूँ ही चलता रहा काविशों का सफ़र
ज़ुल्म से ज़ब्त की और ताक़त बढ़ी
हौसला दे गया गर्दिशों का सफ़र
कितनी क़ौमें उलझ कर फ़ना हो गईं
खा गया है उन्हें रंजिशों का सफ़र
लड़खड़ाते हुए घर की जानिब चले
लो शुरू हो गया मैकशों का सफ़र
यार ‘आज़ाद’ थोड़ा सँभल कर चलो
मार डालेगा ये साज़िशों का सफ़र
मुझे कैसी नज़र से देखता है
मुझे कैसी नज़र से देखता है
मेरा होना भी जैसे हादसा है
हमारे दर्द का चेहरा नहीं है
उसे तू यार कब पहचानता है
मेरे उजड़े मकाँ के आईने में
तेरा चेहरा ही अक्सर झाँकता है
मुझे देकर वो थोड़ा-सा दिलासा
वो मुझ से आज क्या-क्या माँगता है
जिसे कहते हैं सारे लोग वहशी
हक़ीक़त में वो कोई दिलजला है
कोई आवाज़ बेमानी नहीं है
हवा ने कुछ तो पत्तों से कहा है
हमें ‘आज़ाद’ कहता है ज़माना
मगर ये तंज भी कितना बड़ा है
ग़म का नामोनिशाँ नहीं होता
ग़म का नामोनिशाँ नहीं होता
ऐसा कोई जहाँ नहीं होता
वहम होता न कुछ गुमाँ होता
गर कोई दरमियाँ नहीं होता
गर न पैरों तले ज़मीं रहती
सर पे भी आसमाँ नहीं होता
तेरे होने का ख़ुद को खोने का
हमको क्या-क्या गुमाँ नहीं होता
तू न होता अगर ज़माने में
कोई दिलकश समाँ नहीं होता
ख़ुद को मिलना ही हो गया मुश्किल
तू भी आख़िर कहाँ नहीं होता
जब मेरा हर ज़ख़्म गहरा हो गया
जब मेरा हर ज़ख़्म गहरा हो गया
दर्द से पुरनूर चेहरा हो गया
एक क़तरे का करिश्मा देखिए
इस कदर तड़पा के दरिया हो गया
शाम के काँधे पे सूरज क्या झुका
सारी दुनिया में अँधेरा हो गया
चाँद उतरा जब हमारे सहन में
चाहतों का रंग सुन्हेरा हो गया
जब थके-माँदों को नींद आने लगी
एक झपकी में सवेरा हो गया
ज़िन्दगी ज़हरीली नागिन है ‘अज़ीज़’
इस के पीछे क्यूँ सँपेरा हो गया
वहशी नहीं हूँ मैं न कोई बदहवास हूँ
वहशी नहीं हूँ मैं न कोई बदहवास हूँ
महसूस कर मुझे के मैं सहरा की प्यास हूँ
मेरे ग़मों की धूप ने झुलसा दिया मुझे
मुझको हवा न दीजिये सूखी कपास हूँ
जिस्मों के इस हुजूम में मेरा वजूद क्या
पहचानता है कौन मुझे बेलिबास हूँ
मैं हूँ तेरे ख़याल में अशआर की तरह
मुझको ख़ुद ही में ढूँढ़ मैं तेरे ही पास हूँ
मेरे बग़ैर तू भी कहाँ जी सका ‘अज़ीज़’
तेरे बग़ैर मैं भी यक़ीनन उदास हूँ
चलो ये तो सलीक़ा है बुरे को मत बुरा कहिए
चलो ये तो सलीक़ा है बुरे को मत बुरा कहिए
मगर उनकी तो ये ज़िद है हमें तो अब ख़ुदा कहिए
सलीक़ेमन्द लोगों पे यूँ ओछे वार करना भी
सरासर बदतमीज़ी है इसे मत हौसला कहिए
तुम्हारे दम पै जीते हम तो यारो कब के मर जाते
अगर ज़िन्दा हैं क़िस्मत से बुज़ुर्गों की दुआ कहिए
हमारा नाम शामिल है वतन के जाँनिसारों में
मगर यूँ तंगनज़री से हमें मत बेवफ़ा कहिए
तुम्हीं पे नाज़ था हमको वतन के मो’तबर लोगों
चमन वीरान-सा क्यूँ है गुलों को क्या हुआ कहिए
किसी की जान ले लेना तो इनका शौक़ है ‘आज़ाद’
जिसे तुम क़त्ल कहते हो उसे इनकी अदा कहिए
पुराने पेड़ भी कितने घने हैं
पुराने पेड़ भी कितने घने हैं
थके-माँदों को साया दे रहे हैं
पले हैं जो हमारा ख़ून पीकर
उठा कर फन वही डसने लगे हैं
बड़े होकर हमारे सारे बच्चे
सरक कर दूर कितने हो गए हैं
सदा जो हाथ उठते थे दुआ को
न जाने वो लहू से क्यूँ सने हैं
जिन्हें सौंपी थी हमने रहनुमाई
उन्हीं की साज़िशों से घर जले हैं
‘अज़ीज़’ अब छोड़िये बेकार क़िस्से
कहेंगे लोग पागल हो गए हैं
धूप का टुकड़ा उतरा सूने आँगन में
धूप का टुकड़ा उतरा सूने आँगन में
कुछ तो आया तन्हाई के दामन में
चट्टानों में हरी कोंपलें फूट पड़ीं
क्यूँ मुर्झाए फूल हमारे गुलशन में
सारे परिन्दे गुमसुम हो कर बैठ गए
पाँखें भी अबके भीगी न सावन में
वो क़िस्से तो सारे झूठे लगते हैं
जो दादी से हमने सुने थे बचपन में
अपनी ख़ुशबू से ही वो अनजाना है
पागल होकर भाग रहा है बन-बन में
इतने आए लोग तुझे सच समझाने
फिर भी क्यूँ ‘आज़ाद’ पड़ा है उलझन में