आसमानों में भी दरवाज़ा लगा कर देखें
आसमानों में भी दरवाज़ा लगा कर देखें
क़ामत-ए-हुस्न का अंदाज़ा लगा कर देखें
इश्क़ तो अपने लहू में ही सँवरता है सो हम
किस लिए रूख़ पे कोई ग़ाज़ा लगा कर देखें
ऐन मुमकिन है कि जोड़े से ज़ियादा महके
अपने कालर में गुल-ए-ताज़ा लगा कर देखें
बाज़-गश्त अपनी ही आवाज़ की इल्हाम न हो
वादी-ए-ज़ात में आवाज़ा लगा कर देखें
कब कहाँ क्या मिरे दिलदार उठा लाएँगे
कब कहाँ क्या मिरे दिलदार उठा लाएँगे
वस्ल में भी दिल-ए-बे-ज़ार उठा लाएँगे
चाहिए क्या तुम्हें तोहफ़े में बता दो वर्ना
हम तो बाज़ार के बाज़ार उठा लाएँगे
यूँ मोहब्बत से न हम ख़ाना-ब-दोशों को बुला
इतने सादा हैं कि घर-बार उठा लाएँगे
एक मिसरे से ज़ियादा तो नहीं बार-ए-वजूद
तुम पुकारोगे तो हर बार उठा लाएँगे
गर किसी जश्न-ए-मसर्रत में चले भी जाएँ
चुन के आँसू तिरे ग़म-ख़्वार उठा लाएँगे
कौन सा फूल सजेगा तिरे जूड़े में भला
इस शश-ओ-पंज में गुलज़ार उठा लाएँगे
कहीं जमाल पज़ीरी की हद नहीं रखता
कहीं जमाल पज़ीरी की हद नहीं रखता
मैं बढ़ रहा हूँ तसलसुल से क़द नहीं रखता
ये क़ब्ल ओ बाद के उस पार की हिकायत है
मिरा दवाम अज़ल और अबद नहीं रखता
वो एक हो के भी हम से गिना नहीं जाता
वो एक हो के भी आगे अदद नहीं रखता
ये उम्र भर की रियाज़त मिरा मुक़द्दर है
तराशता हूँ जिसे ख़ाल-ओ-ख़द नहीं रखता
वो इक सुख़न ही हमारी सनद न बन जाए
वो इक सुख़न जो तुम्हारी सनद नहीं रखता
‘तुराब’ कासा-ए-दिल पेश कर दिया जाए
सुना है कोई सख़ावत की हद नहीं रखता
मेहनत से मिल गया जो सफ़ीने के बीच था
मेहनत से मिल गया जो सफ़ीने के बीच था
दरिया-ए-इत्र मेरे पसीने के बीच था
आज़ाद हो गया हूँ ज़मान-ओ-मकान से
मैं इक ग़ुलाम था जो मदीने के बीच था
अस्ल सुख़न में नाम को पेचीदगी न थी
इबहाम जिस क़दर था क़रीने के बीच था
जो मेरे हम-सीनों से बड़ा कर गया मुझे
एहसास का वो दिन भी महीने के बीच था
कम-ज़र्फि़यों ने ज़र्फ़ को मज़रूफ़ कर दिया
जिस दर्द में घिरा हूँ वो सीने के बीच था
हैं मार-ए-गंज मार के भी सब डसे हुए
तक़्सीम का वो ज़हर ख़ज़ीने के बीच था
तूफ़ान-ए-बहर-ख़ाक डराता मुझे ‘तुराब’
उस से बड़ा भँवर तो सफ़ीने के बीच था
नुमू-पज़ीर हूँ हर दम कि मुझ में दम है अभी
नुमू-पज़ीर हूँ हर दम कि मुझ में दम है अभी
मिरा मक़ाम है जो भी वो मुझ से कम है अभी
तराश ओर भी अपने तसव्वुर-ए-रब को
तिरे ख़ुदा से तो बेहतर मिरा सनम है अभी
नहीं है ग़ैर की तस्बीह का कोई इम्काँ
मिरे लबों पे तो ज़िक्र-ए-मनम मनम है अभी
‘तुराब’ कहाँ होता है ये ख़ुदा का ख़ला
मिरे वजूद के अंदर कहीं अदम है अभी
रात वहशत से गुरेज़ाँ था मैं आहू की तरह
रात वहशत से गुरेज़ाँ था मैं आहू की तरह
पाँव पड़ती रही ज़ंजीर भी घुँगरू की तरह
अब तिरे लौट के आने की कोई आस नहीं
तू जुदा मुझ से हुआ आँख से आँसू की तरह
अब हमें अपनी जिहालत पे हँसी आती है
हम कभी ख़ुद को समझते थे अरस्तू की तरह
हाँ तुझे भी तो मयस्सर नहीं तुझ सा कोई
है तिरा अर्श भी वीराँ मिरे पहलू की तरह
नाज़ ओ अंदाज़ में शाइस्ता सा वो हुस्न-ए-नफ़ीस
हू-ब-हू जान-ए-ग़ज़ल है मिरी उर्दू की तरह
तन्हाइयों के दश्त में भागे जो रात भर
तन्हाइयों के दश्त में भागे जो रात भर
वो दिन को ख़ाक जागेगा जागे जो रात भर
फ़िक्र-ए-मआश ने उन्हें क़िस्सा बना दिया
सजती थीं अपनी महफ़िलें आगे जो रात भर
वो दिन की रौशनी में परेशान हो गया
सुलझा रहा था बख़्त के धागे जो रात भर
क्या क्या न प्यास जागे मिरे दिल के दश्त में
हसरत भी एक आग है लागे जो रात भर
दश्त-ए-ग़ज़ल में जाने कहाँ तक चले गए
सू-ए-ग़ज़ाल क़ाफ़िया भागे जो रात भर