रोशनी
बार-बार लौटा हूँ उस दर से
जहॉँ मुझे नहीं जाना चाहिए था
वहाँं कभी पहुँच नहीं पाया
जहाँ मेरी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी
उन रास्तों पर अक्सर चलता चला गया
जहाँ चलते रहने के अलावा कुछ भी नहीं था
जिनसे किसी ठिकाने पर पहुँचा जा सकता था
वे रास्ते मेरी नज़रों से हरदम ओझल रहे
जिनके साथ नहीं होना चाहिए था मुझे पल भर
वे मेरे दिन-रात के साथी रहे
जो पुकारते रहे मुझको
और अपने जीवन में मेरे लिए जगह बनाते रहे
मैंने कभी नहीं सुनी उनकी प्रार्थना
मेरे सामने चकाचौंध रोशनी थी
जो मेरे पीछे के अँधेरों से जीवन ले रही थी
जब मेरी आँखें
अपने पीछे का अँधेरा पहचानने लायक हुईं
मेरे सामने की रोशनी ख़त्म हो गई थी।
बाकी बचे कुछ लोग
सब कुछ पा कर भी
उसका मन बेचैन रहता है
हर तरफ अपनी जयघोष के बावज़ूद
वह जानता है
कुछ लोगों को अभी तक
जीता नहीं जा सका
कुछ लोग अभी भी
सिर उठाए उसके सामने खड़े हैं
कुछ लोग अभी भी रखते हैं
उसकी आँखों में आँखें डाल कर बात करने का हौसला
उसके झूठ को झूठ कहने की ताकत
उसके अंदर के जानवर को
शीशा दिखाने का कलेजा
वह जानता है
बाकी बचे कुछ लोगों के बिना
अधूरी है उसकी जीत
और यह सोच कर
और गहरी हो जाती है उसके चेहरे की कालिख
वह नींद में करवट बदलता है
और उठ जाता है चौंक कर
देखता है चेहरे को छू- छू कर
उसकी हथेलियाँ खून से सन जाती हैं
गले में फँस जाती हैं
हज़ारों चीखें और कराहें
वह समझ नहीं पाता
दिन की कालिख रातों में
चेहरे पर लहू बन कर क्यों उतर जाती है
वह उसे नृत्य संगीत रंगों और शब्दों के सहारे
घिस-घिस कर धो देना चाहता है
वह कोशिश करता है बाँसुरी बजाने की
मगर बाँसुरी से सुरों की जगह
बच्चों का रुदन फूट पड़ता है
वह मुनादी की शक्ल में ढोल बजाता है
और उसके भयानक शोर में
सिसकियाँ और चीत्कारें
दफ़्न हो जाती हैं
वह मरे हुए कबूतरों के पंखों को समेटता
किसी अदृश्य बिल्ली की ओर इशारा करता है
वह हर बार एक घटिया तर्कहीन बात के साथ
कहता है इस देश के लोग यही चाहते हैं
अपनी सार्वजनिक स्वीकार्यता के लिए
अंतत: हर तानाशाह
संस्कृति के ही पास आता है
बाकी बचे कुछ लोग यह जानते हैं.
गोरे रंग का मर्सिया
सौन्दर्य की भारतीय परिभाषा में
लगभग प्रमुखता से समाया हुआ है गोरा रंग
देवताओं से लेकर देसी रजवाड़ों के राजकुमारों तक
सदियों से मोहित होते रहे इस शफ़्फ़ाक रंग पर
कुछ तो इतने आसक्त हुए
कि राजपाठ तक दाँव पर लगा डाला
अपने इस रंग को बचाने के लिए
बादाम के तेल से लेकर
गधी के दूध तक से नहाती रहीं सुन्दरियाँ
हल्दीे, चन्दन और मुल्तानी मिट्टी को घिस-घिस कर
अपनी त्वचा का रंग बदलने को आतुर रहीं
हर उम्र की स्त्रियाँ
कथित असुन्दरता के ख़िलाफ़ अदद जंग जीतने के लिए
जंग जीतने के लिए राजाओं ने ऐसी ही स्त्रियों को
अपना अस्त्र बना डाला
साधन सम्पन्न पुरुष अक्सर सफल हुए गोरी चमड़ी को भोगने में
कुछ पुरुष अन्धे हो गए इस गोरेपन से
कुछ हो गए हमेशा के लिए नपुंसक
और कुछ ने तो इसकी दलाली से पा लिया जीवनभर का राजपाठ
गोरे रंग के सहारे कामयाबी की कई दास्तानें लिखी गईं
पूरी दुनिया में अक्समर मिलते रहे ऐसे उदाहरण
जब चरित्र पर गोरा रंग भारी पड़ता रहा
दरअसल गोरेपन को पाकीजगी मान लेना
हर समय में दूसरे रंगों के साथ अत्याचार साबित हुआ
इसी गोरेपन से
किसी लम्पट के प्रेम में पडक़र
असमय इस दुनिया से विदा हो गईं कई लड़कियाँ
उजली और रेशमी काया से उत्पन्न
उत्तेजना के एवज में
अक्सर मर्सिया दबे हुए रंगों को पढ़ना पड़ा
आख़िर गोरा रंग हमेशा फकत रंग ही तो नहीं रहा ।
मैं रोज़ नींद में लोहे की धमक सुनता हूँ
जेठ की घाम में
बन रही होती, मिट्टी बोवाई के लिए
तपे ढेले टूटते, लय में
उसी लय में भीमा लुहार की सांसें
फड़कती, फिसलती हाथों की मछलियाँ
भट्टी में तपते फाल की रंगत लिए
गाँव में इकलौता लुहार था भीमा
और घर में अकेला मरद
धरती में बीज डालने के औजारों का अकेला निर्माता
गाँव का पूरा लोहा
उतरते जेठ, रात के तीसरे पहर से ही
शुरू हो जाती, उसके घन की धमक
साथ ही तेज सांसों का हुंकारा
धम…ह:.धम…ह:.धम…ह:.धम…ह:.
पूरा गाँव सुनता धमक, उठता नींद से गाफिल
आते आषाढ़ में वैसे भी किसान को नींद कहाँ
लोग उठते और फारिग हो, ले पहुँचते अपना अपना लोहा
दहकते अंगारों से भीमा की भट्टी
खिलखिला उठती धरती की उर्वर कोख हरियाने
भट्टी के लाल उजाले में
देवदूत की तरह चमकता भीमा का चेहरा
घन उठता और हज़ार घोड़ों की ताक़त से
तपते लोहे पर गिरता
लाल किरचिया बिखरतीं टूटते तारों की मानिंद
गिरते पसीने से छन-छन करता पकता लोहा
भीमा घन चलाता
उसकी पत्नी पकड़ती संड़सी से लोहे का फाल
घन गिरता और पत्नी के स्तन
धरती की तरह कांप जाते
जैसे बीजों के लिए उनमें भी उतरता दूध
लगते आषाढ़
जितनी भीड़ खेतों में होती
उतनी ही भीमा की भट्टी पर
धौकनी चलती, तपता लोहा, बनते फाल
कुँआरी धरती पर पहली बारिश में
बीज उतरते करते फालों को सलाम
भीमा की तड़कती देह
फिर अगहन की तैयारी में जुटती
बरस भर लोहा उतरता उसके भीतर
बिन लोहा अन्न और बिन भीमा लोहा
अब भी संभव नहीं है।
इनर ग्राउंड
जून में इनर ग्राउंड कैसा दीखता हेागा
इसकी कल्पना बहुत मुश्किल थी
अप्रैल की आख़िरी तारीख़ को मिले
परीक्षाफल की खुशी को समेटे हम दो महीने
बाक़ी दस महीनों को भुला देना चाहते थे
मई और जून में कई मौके आते
जब जाया जा सकता था शहर
हम कभी शहर न जाने की कसमें खाते
बिसराए तेज़ धूप में सब कुछ
करते रहते अमराइयों में लेटे कोयलिया आम का जुगाड़
तमाम उठा-पटक के बाद घर के कबाड़ से
हर गर्मियों में ढूँढी जाती एक डिब्बी
नमक मिर्च और धनिया के मसाले के लिए यह ज़रूरी थी
बिजली के मोटे जर्मन तार को घिसकर
बनाते एक तेज़ चाकू और एक रिंग होती लोहे की
चलती का नाम गाड़ी
चाकू रिंग और मसाले की डिब्बी
गर्मियों के बेहतरीन साथी होते
और इसके बाद पाने के लिए कुछ नहीं बचता
उस मिशन स्कूल के प्रभु ईसू के संदेश
हम भुला देना चाहते पिछली कक्षा की पुस्तकों की तरह
तमाम गर्मियों में
हमारे सपनों से स्कूल गायब रहता
मगर पहली बौछार के साथ दस महीनों की
पढ़ाई की संपूर्ण घृणा उजागर होती
शहर पहुँचते ही सबसे पहले दीखता ईनर ग्राउंड
और उसके ठीक सामने मिशन स्कूल
पहली जुलाई से हमारी पीठ पर सवार।
डायरी
अल्हड़ और मस्ती भरे दिन
दर्ज़ हैं इस डायरी में
इसी में पढ़ने का टाइमटेबल
छोटे होटलों धर्मशालाओं और रिश्तेदारों के पते
प्रेम के दिनों के मुलायम वाक्य
और दुखी दिनों के उदास पैराग्राफ
बरसों इसी डायरी में जगह बनाते रहे
इसी में दर्ज़ हुई लाल स्याही से कई तारीखें
वे निश्चित थीं महत्वपूर्ण साक्षात्कारों के लिए
मगर एक अदद नौकरी तक नहीं पहुँचा पाईं
नब्बे फीसदी लोगों की तरह
मैं भी गलत जगह पर पहुँचा
प्रेम कविताएँ लिखी गईं इसी डायरी में
मगर कभी भी मुकम्मल नहीं हुईं
इसी में शामिल हुए कुछ नए रिश्ते
और असमय मृत्यु को प्राप्त हुए
शायद उन्हें किसी और बेहतर की दरकार थी
इसी में दर्ज़ हुआ
बनियों, दूधवालों और दवाइयों का हिसाब
और दो एक बार सुसाइड नोट के ड्राफ्ट भी लिखे गए इसी में
बुरे से बुरे दिनों में इसी में लिखी गईं कविताएँ
अच्छे दिनों की उम्मीद में।
उनकी भाषा
वे एक ऐसी भाषा का उपयोग करते हैं
कि हम अक्सर
असमर्थ हो जाते हैं
उनकी नीयत का पता लगाने में
हम भरोसे में रहते हैं
और भरोसा धीरे-धीरे भ्रम में बदलता जाता है
जब छँटता है दिमाग से कोहरा
नींद छूटती है सपनों के आगोश से
आँखें जलने लगती हैं सामने की तस्वीर देखकर
लेकिन हमारी मुट्ठियाँ तनें
और उबाल आए बरसों से जमे हुए लहू में
उससे पहले
आते हैं हम में से ही कुछ
बन कर उनके बिचौलिए
डालते हैं ख़ौफ़नाक तस्वीरों पर परदा
और लगा देते हैं हमारे गुस्से में सेंध
अपने लाभ और लोभ में घूमते हुए
हम भटकते रहते हैं इधर से उधर
और कायरों की तरह
अपनी भाषा की तमीज़ में
लौट आते हैं…
हम नई राह की तैयारी में हैं
हम उस मिट्टी में पैदा हुए मित्र
जहाँ महीनों पड़ोस से अंगार लेकर
जल जाता था चूल्हा
जहाँ सूरज
फूटता था था औजार की नोक पर
और धरती हरी हो जाती थी
वहाँ बहुत कम लोगों ने पढ़ी थीं किताबें
बहुत सारे लोग
भोपाल का नाम भर जानते थे
उस समय हम अपने कदम जमाने
और एक तरह से
अपना कद ऊँचा करने की
कोशिश कर रहे थे लगातार
हमारे पास
ऊबी हुई शामों
गहराती हुई खाली और काली
और बेचैन रातों के सिवाय
कुछ अपने थे तो सपने ही थे
मनहूस रातों की
दिल पर लगातार ठक-ठक
और बेहिसाब करवटों से घबराकर
ये सपने
चढ़ते सूरज के साथ रोज़ बढ़ते
और पश्चिम में सूरज के साथ ढह जाते
हमारे मन में हर सुबह
उम्मीद के साथ
छोड़ जाती पारे की तरह कई सवाल
इन फिसलते सवालेां की दुनिया में
हम बेकार थे और बेजार भी थे
और यह कहना भी सरलीकरण होगा
कि हम दोपहर उम्र की तरह काटते थे
हमने अपनी डायरी में
तमाम बड़े शहरों के निवासी
अपने रिश्तेदारों के पते दर्ज़़ किए
बड़ी ललक के साथ
उन पतों पर पहुँचे थी कई बार
और बहुत उम्मीदों भरी
मगर बेहद मजबूर रातें गुजारीं
उनके बच्चे हमें एकदम गँवार
और इसलिए तिरस्कार के योग्य समझते रहे
मगर लड़कियों के पिताओं की ऑंखों में
दूर भविष्य के लिए
एक गहरी चमक दिखाई देती रही
वे इतिहास की सारी नवाबी भूलकर
बराबर मनुहार से
पेट भर रोटी खिलाते रहे
हम बेहद मज़बूर थे
मगर हमें लगा मज़बूरी के भी कई रंग हैं
वैसी ही गहरी तासीर के साथ
ग्लानि शर्म और आक्रोश को दबाकर
तन और मन को चूर करने वाले
हमारी प्रेमिकाएँ
हमारे खालीपन से लगातार परेशान होने के बावजूद
हम पर बेतरह विश्वास में मुब्तिला थीं
वे पीली रंगत की इकहरी देह वाली
बेहद शर्मीली लड़कियां थीं
छत से ताकना और हवा में चुंबन उछालना
उन्हें ज़रूर आता था
मगर वे अंधेरे से डरती थीं
और उजाले में अपनी ही देह से परेशान
उनके परिवार के
पहले और आखिरी फरमान की घड़ी में
उनके प्रेम की अकाल मौत तय थी
हमारे मन में
अपनी मासूम आवारगी को छोड़कर
उन्हें अपने बच्चे की मॉं बनाने का
खूबसूरत सपना था
हमारे जीवन की पूंजी
और भविष्य की ठोस जरूरत से उपजा हुआ
मगर हमारे सामने और सवालों की तरह
यह भी कोई आसान सवाल नहीं था
हमारे पिताओं के पास
अपनी दो-चार साल की बची नौकरी
या दो-तीन बीघा ज़मीन
या सेठ की मुनीमी
और गहरे उच्छवासों के अलावा कुछ नहीं था
पढ़े-लिखे नातेदारों के आने पर
उनके पास सफाई के लिए
नए बहाने तक नहीं बचे थे
ऐसे मौकों पर हम तो
मुँह दिखाने के काबिल भी नहीं थे
हमारे पास खोने के लिए
अब सिर्फ ईमान बचा था
वही ईमान हमें दर-ब-दर किए हुए था
हमें बुजुर्गों ने बार-बार चेताया
कि चालाक होने से बेहतर है हार जाना
ज़रूरी है चालाकियों को समझना
उन्हें भेदना
एक नई राह निकाल ले जाना
हम ईमान को बचाते हुए
नई राह निकालने की तैयारी में हैं।
नव वर्ष मंगलमय हो
यह उठते हुए नए साल की सुबह है
धुंध कोहरे और काँपती धरती की
अजीब स्तब्ध सनसनी में छटपटाती
सूरज भी जैसे मुँह छुपा रहा
बीते साल के रक्तिम सवालों से
चमक रहे हैं मक्कार चेहरे वैसे ही
वैसे ही जुटे हुए हैं
सभी किस्म के हत्यारे
करोड़ों बच्चे काम के रास्ते में हैं
उत्तर आधुनिक नरक में हैं करोड़ों स्त्रियाँ
एक बड़े व्यापारिक घराने
और उस पर लुढ़कते शेयर बाज़ार पर
औंधे मुँह पड़ा है मीडिया
और बिकती गवाहियों की
क्रुर मुस्कराहटों पर
हाय-हाय करता हुआ न्याय
मुआवज़े की कुछ नहीं जैसी राहत से
ज़हरीली साँसों को बमुश्किल थामे हुए
फिर तिनके जुटा रहे हैं
शहर के बाशिंदे
इस देश के सच्चे धार्मिक
फिर रोने-रोने को हैं
अधर्मियों की कारगुज़ारियों पर
फिर शुरू होने जा रही हैं
सियासी कलाबाजियाँ
मधुबालाओं और मीनाकुमारियों
की जूतियों की धूल
कई मल्लिकाएँ
अश्लील चुटकुलों की तरह
हमारे ड्राइंग रूम में
बरस रही हैं लगातार
कल जैसा ही हाहाकार है चहुँ ओर
कल जैसे ही दु:ख हैं और
आँखें हैं आँसू भरी-भरी
कल के असीम जश्न के बाद
यह नया साल है
जीवन है पेड़ हैं बच्चे हैं
उम्मीदें कायम हैं
अब का समय सुख का बीते
नए साल में यही मंगल कामनाएँ हैं।
ज़िद के बारे में
ज़िद के बारे में जानकारों की राय है
यह ख़राब शै है ऐसी न छूटे तो
तोड़ देती है बाक़ी ज़रूरी चीज़ों को
और अक्सर ज़िद्दी आदमी को भी
इसलिए कोशिश रहती है
ज़िदें तोड़ दी जाएँ बचपन से ही
मुकम्मिल ज़िद बनने से पेश्तर
बहुत हुआ तो वे मामूली पसंद-नापसंद बनें
ठीक है, देखेंगे की तर्ज़ पर
जो ज़िद नहीं करते
वे ही कहलाते हैं राजा बेटे
सुरक्षित रहते हैं वे सब तरफ़ से
और कमीज़ के कफ़ की तरह कभी भी
दबाए जा सकते हैं अंदर
इस तरह बनते हैं वे दुनियादार
ज़िद्दी आदमी का मतलब
मज़बूत क़दम और तीख़ी निगाह से होता है
जो आसानी से इधर-उधर मुड़ने को तैयार नहीं
ज़िद में रहने का मतलब
कुछ की पसंद मगर
बहुतों से बुरा हो जाना है
अब ज़िद्दी आदमी कहाँ देखने को मिलते हैं।