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Anuradha-singh-kavita-kosh.jpg

क्या सोचती होगी धरती 

मैंने कबूतरों से सब कुछ छीन लिया
उनका जंगल
उनके पेड़
उनके घोंसले
उनके वंशज
यह आसमान जहाँ खड़ी होकर
आँजती हूँ आँख
टाँकती हूँ आकाश कुसुम बालों में
तोलती हूँ अपने पंख
यह पन्द्रहवाँ माला मेरा नहीं उनका था
फिर भी बालकनी में रखने नहीं देती उन्हें अंडे

मैंने बाघों से शौर्य छीना
छीना पुरुषार्थ
लूट ली वह नदी
जहाँ घात लगाते वे तृष्णा पर
तब पीते थे कलेजे तक पानी
उन्हें नरभक्षी कहा
और भूसा भर दिया उनकी खाल में
वे क्या कहते होंगे मुझे अपनी बाघभाषा में

धरती से सब छीन कर मैंने तुम्हें दे दिया
कबूतर के वात्सल्य से अधिक दुलराया
बाघ के अस्तित्व से अधिक संरक्षित किया
प्रेम के इस बेतरतीब जंगल को सींचने के लिए
चुराई हुई नदी बाँध रखी अपनी आँखों में
फिर भी नहीं बचा पाई कुछ कभी हमारे बीच
क्या सोचती होगी पृथ्वी
औरत के व्यर्थ गए अपराधों के बारे में

अव्यक्त

कह रहे थे
तुम अपने प्रेम की गाथा
पूरे उद्वेग, पीड़ा और सुख के साथ

सुन रही थी मैं
एक साध कसी
उदार
तल्लीन

निचले होंठ में दाबे
अपना पूरा प्रेम,
सुख, पीड़ा
और एक सिसकी।

देगची में प्रेम

बगल वाले कमरे में
उसके अब्बा घर की सबसे बड़ी देग में
परमाणु बम बना रहे थे
फ्रिज में एक नामालूम सा लाल रंग का माँस रखा था
बहुत आगे जाकर पूरब में कहीं
तख़्ता पलट होने वाला था
मैं प्रेम को सिरे से खारिज करता हुआ
‘प्रेम’ की आखिरी किश्त भी
भुना लेना चाहता था
और यही आखिरी मुद्दा पिछले कई सौ सालों से
उसे परेशान किए हुए था
आज तो
हमारे मजहब और धर्म की निरी अदला बदली
भी उसकी हताशा कम नहीं कर पाएगी
उसके और मेरे लोग
घरों, बाज़ारों, सड़कों, स्कूलों को
परमाणु रियेक्टर बनाए हुए हैं
फ्रिज में पता नहीं क्या क्या रखा है
और पूरब में लोग कितना ऊपर चढ़ने के लिए
यहाँ कितने गहरे गिर रहे हैं
इन सबसे ज़्यादा बड़ा मसला
मेरा उसके प्रेम को हल्के में लेना था
और वह सिरे से ‘न’ कहना सीख रही थी।

अप्रेम 

तुम हर बार कितने भी अलग
नए चेहरे में आये मेरे पास
मैं पहचान लेती रही
विडम्बना यह थी कि
मैं तुममें का
प्रेम पहचानती रही
आह्लाद से आपा खोती रही हर बार
भूल भूल जाती रही
कि प्रेम तुम तब तक
और उतना ही कर पाओगे मुझसे
जब तक और जितनी मैं तुम्हारे अप्रेम में रहूंगी
मेरी माँ यह कठिन यंत्र सिखाना भूल गयी थीं मुझे
और उनकी माँ उन्हें
वे सब कच्ची जादूगर थीं
पहले ही जादू में अपनी पूरी ताकत झोंक देतीं थीं
उस पर कि
बस आधा जादू जानती थीं
अपने ही तिलिस्म में फँस कर
दम तोड़तीं रहीं
उन्हें उस मंतर का तोड़ तक नहीं मालूम था
जो पलट वार करता था
हालाँकि सीना पिरोना साफ़ सफाई और पकाने से ज़्यादा
अनिवार्य विषय था
अप्रेम में रहना सीखना और सिखाना
बहुत करीब से दूर तक जो पगडंडियाँ
सड़कें और पुल पुलिया देखती हूँ
जो तुमने बनाये हैं
किसी न किसी सदी तारीख या पहर
वे सब किसी न किसी जगह से बाहर
जाने के तरीके हैं
प्रेम से बाहर जाने का तरीका नहीं है इनमें से एक भी।

शेड कार्ड और पटरियाँ

लौट आना है उसी जगह
जहाँ आँगन में सूखते कपड़े
भीग जाने से पहले मेरी बाट जोह रहे हैं
पतीले में खौलता दूध
रुकने या उफन जाने की
कशमकश में है
और चादर और परदे इतने
आहिस्ता आहिस्ता रंगहीन हो रहे हैं
कि मेरा उन पर नज़र रखना बड़ा ज़रूरी है
बड़े गौर से नज़र रखती हूँ इन सब पर
और घंटों, महीनों, सालों
चर्चा करती रहती हूँ इन सब अहम मुद्दों पर
जो ज़िन्दगी को पटरी पर रखते हैं
कभी कभी बिलकुल खाली
और बेकार वक़्त में सबसे छिपकर
सोच लेती हूँ
अंदर कुछ खौलने और उफन जाने की कशमकश
बादलों के इश्क़ पेंचा को बिना छुए
अनायास गुज़र जाने और
ज़िन्दगी से उन सब रंगों
के उड़ जाने के बारे में
जो इस साल एशियन पेंट्स के
शेड कार्ड में नहीं दिए गए थे
फिर ज़िन्दगी की गाड़ी और पटरी के
बारे में सोचती हूँ
और दूध और धोबी का हिसाब
तसल्ली से एक बार फिर लगाती हूँ।

प्रेम का समाजवाद 

दलित लड़कियाँ उदारीकरण के तहतछोड़ दी गयीं
उनसे ब्याह सिर्फ किताबों में किया जा सकता था
या भविष्य में
सवर्ण लड़कियाँ प्रेम करके छोड़ दी गयीं
भीतर से इस तरह दलित थीं
कि प्रेम भी कर रही थीं
गृहस्थी बसाने के लिए
वे सब लड़कियाँ थीं
छोड़ दी गयीं

दलित लड़के छूट गए कहीं प्रेम होते समय
थे भोथरे हथियार मनुष्यता के हाथों में
किताबों में बचा सूखे फूल का धब्बा
करवट बदलते जमाने की चादर पर शिकन
गृहस्थी चलाने के गुर में पारंगत
बस प्रेम के लिए माकूल नहीं थे, सो छूट गए
निबाहना चाहते थे प्रेम, लड़कियाँ उनसे पूछना ही भूल गयीं
लड़कियाँ उन्हीं लड़कों से प्रेम करके घर बसाना चाहती थीं
जो उन्हें प्रेम करके छोड़ देना चाहते थे।

पटाक्षेप के बाद

मैं इस समय की उपज
जब बोलने के लिए पूरे वाक्यों का इस्तेमाल
गैरजिम्मेदारी और अश्लीलता है
एक पूरी कविता लिखने का जोखिम उठाती हूँ अक्सर.
बेस्ट सेलर्स में ढूंढती हूँ
पटाक्षेप के बाद की कहानी

तीन चौथाई सदी पहले पंद्रह साल की ऐन फ्रैंक
भूख बीमारी और घुटन से लड़ते हुए मारी जा चुकी है
गांधी ने पता नहीं क्यों ‘हे राम’ कहा था
उन्हीं दिनों

मेरी बेटी ने दो रातों एक दिन के भीतर
‘द डायरी ऑफ़ अ यंग गर्ल’ पढ़ डाली है
ऐसे ही पढ़ी थी उसने एक बार महात्मा गाँधी की आत्मकथा
और तब से हलकान कर रखा है उसे
महारानी के भारत और हिटलर के जर्मनी ने
इसी बीच होलोकॉस्ट के दौरान भूख से मार दिए गए
यहूदी बच्चे की छोटी सी जैकेट
अमरीका के संग्रहालय में सजाने को सौंप दी गयी है
मेरे शहर की मजदूर सड़कों के बदन में गड्ढे पड़ गए हैं

बाक़ी सड़कें हैं अजगर की छाती सी काहिल चिकनी
गौरी नाम की औरत ने दक्षिण मुंबई की शीशे सी चमकती
गंगा के पाट सी चौड़ी सड़कें नहीं देखीं
जबकि ३४ साल पहले शहर की आंबेडकर चाल में
दत्तात्रेय जाधव के घर जन्मी थी व

नहीं पाती हूँ
मेरी बेटी के लिए ऐसी एक किताब
जिसमें डेढ़ महीने के बच्चे की मौत पर
यहूदी माँ बाप का विलाप लिखा हो
या यह कि बर्तन घिसती गौरी का
दक्षिण मुंबई की एक सड़क को न देख पाना भी
होलोकॉस्ट का ही हिस्सा है

रफूगर 

एक खौंचा सिया
कि छोटी पड़ गयी ज़िन्दगी
बड़े महँगे हो रफूगर तुम
ये क्या कि मरम्मत के वक़्त काट छाँट देते हो
कैसे जिया जायेगा इतने कम में
उसने नज़र उठाई वह भी बेज़ार
सुई की नोक भी
निशाने पर मेरी आँख, बेझप
कौन है तू?
मैंने चूम लीं उसकी उंगलियाँ
और उन उँगलियों की हिकारत
फुसफुसाई कान की लौ पर, वक़्त थरथराया

तुम आलीपनाह
मेरा नाम कुछ भी हो सकता है
जैसे नाचीज़
और अब अगर जान लिया है मेरा नाम
तो रफू करो मेरा सब फटा उधड़ा
मिला दो मेरी चिंदी चिंदी
जोड़ दो यह चाक जो बढ़ता ही जा रहा है हर घड़ी
नहीं भरता यह ज़ख्म कोई वक़्त मरहम
लो सिलो पूरी दयानतदारी
थोड़ी फिजूलखर्ची से
कि अब भी सलामत है मेरी फटी जेब चाक गरेबां
खस्ता आस्तीन
सिलो कि सलामत रहें तुम्हारी उँगलियाँ
उनकी हिक़ारत

न दैन्यं… 

दीन हूँ, पलायन से नहीं आपत्ति मुझे
ऐसे ही बचाया मैंने धरती पर अपना अस्तित्व
जंगल से पलायन किया जब देखे हिंस्र पशु
नगरों से भागी जब देखे और गर्हित पशु
अपने आप से भागी जब नहीं दे पाई
असंभव प्रश्नों के उत्तर
घृणा से भागती न तो क्या करती
बात यह थी कि मैं प्रेम से भी भाग निकली

सड़कें देख
शंका हुई आखेट हूँ सभ्यता का
झाड़ियों में जा छिपी
बर्बरता के आख्यान सुनाई दिए
मैदान में आ रुकी
औरतों के फटे नुचे कपड़े बिखरे थे
निर्वस्त्र औरतें पास के ढाबे में पनाह लेने चली गयी थीं
मैं मैदान में तने पुरुषों
ढाबे में बिलखती औरतों से भाग खड़ी हुई

एक घर था जिसमें दुनिया के सारे डर मौजूद थे
फिर भी नहीं भागी मैं वहाँ से कभी
यह अविकारी दैन्य था
निर्विकल्प पलायन
न दैन्यं न पलायनम कहने की
सुविधा नहीं दी परमात्मा ने मुझे

अबकी मुझे चादर बनाना

माँ ढक देती देह
जेठ की तपती रात भी
‘लड़कियों को ओढ़ कर सोना चाहिए’
सेहरा बाँधे पतली मूँछवाला मर्द
मुड़कर आँख तरेरता
राहें धुँधला जाती पचिया चादर के नीचे
नहीं दिखते गड्ढे पीहर से ससुराल की राह में
नहीं दिखते तलवों में टीसते कीकर
अनचीन्हें चेहरे वाली औरत खींच देती
बनारसी चादर पेट तक
‘बहुएँ दबीं ढकीं ही नीकीं’
चादर डाल देता देवर उजड़ी मांग पर
और वह उसकी औरत हो जाती
माँ, अबकी मुझे देह नहीं
खड्डी से बुनना
ताने बाने में
नींद का तावीज़ बाँध देना
चैन का मरहम लेप देना
मौज का मंतर फूँक देना
बुनते समय
रंग बिरंगे कसीदे करना
ऐसे मीठे प्रेम गीत गाना
जिनमें खुले बालों वाली नखरैल लड़कियां
पानी में खेलती हों
धूप में चमकतीं हों गिलट की पायलें
माँ, अबकी मुझे देह नहीं चादर बनाना
जिसकी कम से कम एक ओर
आसमान की तरफ उघड़ी हो
हवा की तरफ
नदी की तरफ़
जंगल की तरफ
साँस लेती हो
सिंकती हो मद्धम मद्धम
धूप और वक़्त की आँच पर

स्मृतिलोप 

स्मृतिलोप बड़ा शस्त्र था
विसंगतियों विषमताओं अन्याय के विरुद्ध
भूल जाना बड़ी शक्ति
विभव था
पराक्रम
बल था
था ज़हरमार
रीढ़ को निगलती पीड़ा झटक देने
कबूतर की तरह आँखें पलट लेने
पत्थर पहाड़ पार्क बेंचें उन पर बैठे
अब और न बैठे लोग
भुलाए बिना जीवन असंभव था
चादर ओढ़ने से रात नहीं कटती
करवट बदलने से दुस्वप्न कहाँ टलते हैं
मुड़े हुए पृष्ठ सीधे किए बिना पढ़ना दुष्कर
सूखे गुलाबों को एक अनाम कोने में विस्मृत कर आना ही श्रेयस्कर था
तुम्हारे नाखूनों और आँखों का रंग भूल जाना
अनिवार्य शर्त थी अगली एक श्वास के लिए।

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