हमारे गाँव में हमारा क्या है !
आठ बाई दस के
कड़ियों वाले कमरे में पैदा हुए
खेलना सीखा तो
माँ ने बताया
हमारे कमरे से लगा कमरा
हमारा नहीं है
दस कदम की दूरी के बाद
आँगन दूसरों का है।
हर सुबह
दूसरों के खेतों में
फ़ारिग़ होने गये
तो पता होता कि खेत किसका है
उसके आ जाने का डर
बराबर बना रहता।
तोहर के पापड़ों पर लपके
या गन्ने पर रीझे
तो माँ ने आगाह किया कि
खेतवाला आ जायेगा।
दूसरों के कुबाड़े से
माचिस के तास चुगकर खेले
दूसरों की कूड़ियों से
पपैया फाड़कर बजाया
दूसरों के खेतों से बथुआ तोड़कर लाये
आलू चुगकर लाये।
दूसरों के खेतों में ही
गन्ने बुवाते
धान रोपते, काटते
दफन होते रहे हमारे पुरख़े
दूसरों के खेतों में ही।
ये खेत मलखान का है
वो ट्यूबवेल फूलसिंह की है
ये लाला की दुकान है
वो फैक्ट्री बंसल की है
ये चक धुम्मी का है
वो ताप्पड़ चौधरी का है
ये बाग़ खान का है
वो कोल्हू पठान का है
ये धर्मशाला जैनियों की है
वो मंदिर पंडितों का है
कुछ इस तरह जाना
हमने अपने गाँव को।
हमारे गाँव में हमारा क्या है!
ये हम आज तक नहीं जान पाए।
कोइली की बेटी
कोइली की बेटी बहुत जिद्दी थी।
गरीब थी, बीमार थी और भूखी भी
फिर भी जी गयी कई दिन।
वह जीना चाहती थी
इसलिये माँग रही थी भात
वही भात जिसे तुम्हारी नाक सूँघना तक पसंद नहीं करती
मगर कोइली की बेटी के प्राण बसते थे उसी भात में
अपने प्राणों के लिये लड़ रही थी कोइली की बेटी।
हाँ कोइली की बेटी लड़ाकू भी थी
फोटो देखा उसका? उसकी आँखों में
उनकी तस्वीर साफ़ दिखाई दे रही है
जिन्होंने उसके भात से दिवाली की मिठाई बनायी है।
उसकी सफ़ेद शर्ट बताती है कि
वह स्कूल जाती थी,
गर्दन वाला बटन बंद करके उसने
टाई के आने की भूमिका बनानी शुरू कर दी थी
यहीं से बनता कोइली की बेटी का आधार
इसी आधार पर कुछ बनना चाहती थी कोइली की बेटी
बन भी जाती और उनसे लड़ती भी
जिन्होंने उसके भात से बनायी थी
दिवाली की मिठाई।
जीतती भी कोइली की बेटी ही
इस बात को भात चुराने वाले भी जानते थे
इसलिये उन्होंने नहीं दिया
कोइली की बेटी को भात
उसके आधार को लिंक नहीं किया आधार कार्ड से
वे बहुत डरे हुए थे
क्योंकि कोइली की बेटी बहुत जिद्दी थी
बहुत लड़ाकू भी॥
थोड़ी-सी ज़मीन बगैर आसमां
यह थोड़ी-सी ज़मीन
फुटपाथ पर हो सकती है
किसी पुल के नीचे हो सकती है
बस्तियों के बाहर हो सकती है
सड़क के किनारे या
रेलवे ट्रैक के बराबर में हो सकती है
ये कुछ ऐसी ज़मीने हैं
जिनका कोई आसमां नहीं होता।
बारिश इस ज़मीन पर रहने वालों के
सिर तक सीधे पहुँचती है
हवा इनकी झुग्गी-झोपड़ियों से
खुलकर मज़ाक करती है
सर्दी किसी बुरी आत्मा की तरह
इनकी हड्डियों में आ समाती है
सूरज इनमें जितना
प्राणों का संचार करता है
उससे ज़्यादा इनको जलाता है
दिन इनके लिये
नींद से डराकर उठाने वाले
किसी अलार्म से कम नहीं होता
जो सिर्फ़ यह बताने के लिए निकलता है-
चल उठ बे! काम पर चलने का वक़्त हो गया।
और हाँ! यह थोड़ी-सी ज़मीन
खेती की भी हो सकती है
और मरघट की भी
एक में मुर्दे दफ़्न होते हैं
तो दूसरी में ज़िंदा लोग
थोड़ा-थोड़ा रोज दफ़्न होने के लिए
पहुंचते रहते हैं
सुबह सवेरे से ही देर रात तक।
इन ज़मीनों का भी कोई आसमां नहीं होता॥
वे जब पैदा होते हैं
वे जब पैदा होते हैं
तो उनकी आँखों में दूधिया चमक होती है
सही पोषण के अभाव में
वह धीरे-धीरे पीली पड़ती जाती है
और उनकी आँखों की ज़मीन बंज़र हो उठती है
जो सपने बोने के नहीं
दफनाने के काम आती है।
वे जब पैदा होते हैं
तो उनकी रीढ़ सीधी होती है
कंधों पर जरूरत से ज़्यादा भार से
वह धीरे-धीरे झुकती जाती है
जो सीधे खड़े होकर नहीं
झुककर चलने के काम आती है।
वे जब पैदा होते हैं
तो उनके रंग उजियारे होते हैं
गंदगी उगलते समाज में रहकर
उनका रंग धीरे-धीरे धूमिल होता जाता है
जो पहचान बनाने के नहीं
छुपाने के काम आता है।
वे जब पैदा होते हैं
तो उनका मस्तिष्क कोरी स्लेट होता है
लगातार स्याही पोते जाने से
वह इतना स्याह हो उठता है
कि वह मोती जैसे अक्षर गढ़ने के नहीं
स्याही पोतने के ही काम आता है।
वे जब पैदा होते हैं
तो एक समृद्ध दुनिया में आँख खोलते हैं
बड़े होने के साथ
धीरे-धीरे उन्हें अहसास होता है
कि इस भरी-पूरी दुनिया में
वे कितने अकेले और कंगाल हैं
उनके पैदा होने से पहले ही
उनका सब कुछ छीना जा चुका होता है
अब उनकी ज़िन्दगी जीने के लिए नहीं
सिर्फ ढोने के काम आती है।
जीवन की जंग
पैदा होने के साथ
वे एक जंग लड़ने लगते हैं
उनकी जंग सीमा पर लड़े जाने वाली जंग नहीं होती
न उस तरह की जंग होती है
जो देश के भीतर लड़ी जाती है
जातीयता और धर्म के हथियारों से।
उनकी जंग
अल्पपोषण की शिकार
माँ की दूधियों से दूध निचोड़ने की जंग होती है
वे रोटी, कपड़ा और मकान के दम पर
जीवन की जंग नहीं लड़ते
बल्कि उनको हासिल करने के लिये
जीवन दाँव पर लगाये रखते हैं।
दरांती, खुरपा, कुदाल, फावड़ा
करनी-बिसौली या छैनी-हथौड़ी
उनके जंगी हथियार होते हैं
बहुत बार वे अपने हथियारों से भी जख़्मी होते हैं
कई बार तो मर भी जाते हैं
अपने ही हथियार से।
फिर भी
जीवित बचे रहने के लिए
वे लगातार लड़ते हैं
जबकि उन्हें मालूम तक नहीं होता
कि उनकी लड़ाई किससे है
कौन उन पर कहाँ से हमले करता है
वे बस चारों तरफ से हो रहे हमलों से
लहूलुहान होते रहते हैं
और अपनी पूरी शक्ति समेटकर
अपने मट्ठे हथियारों से युद्धरत रहते हैं।
उनके जीवन में संघर्ष-विराम
या संधि-वार्ता जैसी कोई चीज़ नहीं होती।
अंत मे वे लड़ते हुए ही मारे जाते हैं
मगर उनके काँधों पर
बहादुरी का तमगा नहीं लगाया जाता
न ही उनके जिस्म लपेटे जाते हैं किसी ध्वज में
देश की जबान में ऐसे लोग
शहीद नहीं होते
क्योंकि वे देश की नहीं
जीवन की जंग लड़ते हैं।
यह आम रास्ता नहीं है
उनका बनाया एक भी रास्ता आम नहीं था
इसलिए उन्होंने हर रास्ते पर लिख रखा था
यह आम रास्ता नहीं है
अथवा यह निजी रास्ता है
बिना आज्ञा प्रवेश निषेध।
प्रवेश की आज्ञा आम आदमी को नहीं
उनके अपने खास लोगों को थी
सिर्फ वे ही आ-जा सकते थे
उनके बनाये खास और निजी रास्तों से।
उन्होंने कुछ खास सुविधाओं को ध्यान में रखकर
रास्तों पर कुछ पुल बनवाये थे
ताकि वे भीड़ के ऊपर से जा सके
इन पुलों पर कोई सिग्नल, रेड लाइट आदि नहीं थे
इसलिये वे बगैर रोक-टोक
आ-जा सकते थे पुलों से कभी भी।
आम आदमी इन पुलों से भी नहीं आ-जा सकता था
उसके पैरों में इतनी रफ्तार नहीं थी
कि वह दौड़ सकता उनके संवाहको के साथ।
बारिश में कुछ पल आम आदमी
पुल के नीचे खड़ा भर रह सकता था,
रिक्शा वाले, ठेली वाले या दूसरे फेरीवाले
सुस्ता भर सकते थे पुल के नीचे
छोटी-मोटी सब्जी आदि की दुकान लगाकर
जीवन चलाने की जद्दोजहद कर सकते थे
या सो सकते थे उस जगह
जो बच गयी हो गायों-बैलों या गधे-घोड़ों से।
कुछ पुलों के नीचे तो इतनी गंदगी जमा कर दी गयी थी
कि जानवर तक जाने से कतराते थे उनके नीचे
कुछ पुल इतने कमज़ोर बनाये गए थे
कि इनके नीचे दबकर मर सके आम आदमी।
और हाँ! खास रास्तों के नीचे या ऊपर
कुछ, सब वे या पैदल पार पथ भी बनाये गए थे
जो सिर्फ आम आदमी के लिये थे
ताकि आम आदमी को भेजा जा सके
मुख्य मार्ग से इस तरफ या उस तरफ॥
हमारे गाँव में हमारा क्या है !
आठ बाई दस के
कड़ियों वाले कमरे में पैदा हुए
खेलना सीखा तो
माँ ने बताया
हमारे कमरे से लगा कमरा
हमारा नहीं है
दस कदम की दूरी के बाद
आँगन दूसरों का है।
हर सुबह
दूसरों के खेतों में
फ़ारिग़ होने गये
तो पता होता कि खेत किसका है
उसके आ जाने का डर
बराबर बना रहता।
तोहर के पापड़ों पर लपके
या गन्ने पर रीझे
तो माँ ने आगाह किया कि
खेतवाला आ जायेगा।
दूसरों के कुबाड़े से
माचिस के तास चुगकर खेले
दूसरों की कूड़ियों से
पपैया फाड़कर बजाया
दूसरों के खेतों से बथुआ तोड़कर लाये
आलू चुगकर लाये।
दूसरों के खेतों में ही
गन्ने बुवाते
धान रोपते, काटते
दफन होते रहे हमारे पुरख़े
दूसरों के खेतों में ही।
ये खेत मलखान का है
वो ट्यूबवेल फूलसिंह की है
ये लाला की दुकान है
वो फैक्ट्री बंसल की है
ये चक धुम्मी का है
वो ताप्पड़ चौधरी का है
ये बाग़ खान का है
वो कोल्हू पठान का है
ये धर्मशाला जैनियों की है
वो मंदिर पंडितों का है
कुछ इस तरह जाना
हमने अपने गाँव को।
हमारे गाँव में हमारा क्या है!
ये हम आज तक नहीं जान पाए।
कोइली की बेटी
कोइली की बेटी बहुत जिद्दी थी।
गरीब थी, बीमार थी और भूखी भी
फिर भी जी गयी कई दिन।
वह जीना चाहती थी
इसलिये माँग रही थी भात
वही भात जिसे तुम्हारी नाक सूँघना तक पसंद नहीं करती
मगर कोइली की बेटी के प्राण बसते थे उसी भात में
अपने प्राणों के लिये लड़ रही थी कोइली की बेटी।
हाँ कोइली की बेटी लड़ाकू भी थी
फोटो देखा उसका? उसकी आँखों में
उनकी तस्वीर साफ़ दिखाई दे रही है
जिन्होंने उसके भात से दिवाली की मिठाई बनायी है।
उसकी सफ़ेद शर्ट बताती है कि
वह स्कूल जाती थी,
गर्दन वाला बटन बंद करके उसने
टाई के आने की भूमिका बनानी शुरू कर दी थी
यहीं से बनता कोइली की बेटी का आधार
इसी आधार पर कुछ बनना चाहती थी कोइली की बेटी
बन भी जाती और उनसे लड़ती भी
जिन्होंने उसके भात से बनायी थी
दिवाली की मिठाई।
जीतती भी कोइली की बेटी ही
इस बात को भात चुराने वाले भी जानते थे
इसलिये उन्होंने नहीं दिया
कोइली की बेटी को भात
उसके आधार को लिंक नहीं किया आधार कार्ड से
वे बहुत डरे हुए थे
क्योंकि कोइली की बेटी बहुत जिद्दी थी
बहुत लड़ाकू भी॥
थोड़ी-सी ज़मीन बगैर आसमां
यह थोड़ी-सी ज़मीन
फुटपाथ पर हो सकती है
किसी पुल के नीचे हो सकती है
बस्तियों के बाहर हो सकती है
सड़क के किनारे या
रेलवे ट्रैक के बराबर में हो सकती है
ये कुछ ऐसी ज़मीने हैं
जिनका कोई आसमां नहीं होता।
बारिश इस ज़मीन पर रहने वालों के
सिर तक सीधे पहुँचती है
हवा इनकी झुग्गी-झोपड़ियों से
खुलकर मज़ाक करती है
सर्दी किसी बुरी आत्मा की तरह
इनकी हड्डियों में आ समाती है
सूरज इनमें जितना
प्राणों का संचार करता है
उससे ज़्यादा इनको जलाता है
दिन इनके लिये
नींद से डराकर उठाने वाले
किसी अलार्म से कम नहीं होता
जो सिर्फ़ यह बताने के लिए निकलता है-
चल उठ बे! काम पर चलने का वक़्त हो गया।
और हाँ! यह थोड़ी-सी ज़मीन
खेती की भी हो सकती है
और मरघट की भी
एक में मुर्दे दफ़्न होते हैं
तो दूसरी में ज़िंदा लोग
थोड़ा-थोड़ा रोज दफ़्न होने के लिए
पहुंचते रहते हैं
सुबह सवेरे से ही देर रात तक।
इन ज़मीनों का भी कोई आसमां नहीं होता॥
वे जब पैदा होते हैं
वे जब पैदा होते हैं
तो उनकी आँखों में दूधिया चमक होती है
सही पोषण के अभाव में
वह धीरे-धीरे पीली पड़ती जाती है
और उनकी आँखों की ज़मीन बंज़र हो उठती है
जो सपने बोने के नहीं
दफनाने के काम आती है।
वे जब पैदा होते हैं
तो उनकी रीढ़ सीधी होती है
कंधों पर जरूरत से ज़्यादा भार से
वह धीरे-धीरे झुकती जाती है
जो सीधे खड़े होकर नहीं
झुककर चलने के काम आती है।
वे जब पैदा होते हैं
तो उनके रंग उजियारे होते हैं
गंदगी उगलते समाज में रहकर
उनका रंग धीरे-धीरे धूमिल होता जाता है
जो पहचान बनाने के नहीं
छुपाने के काम आता है।
वे जब पैदा होते हैं
तो उनका मस्तिष्क कोरी स्लेट होता है
लगातार स्याही पोते जाने से
वह इतना स्याह हो उठता है
कि वह मोती जैसे अक्षर गढ़ने के नहीं
स्याही पोतने के ही काम आता है।
वे जब पैदा होते हैं
तो एक समृद्ध दुनिया में आँख खोलते हैं
बड़े होने के साथ
धीरे-धीरे उन्हें अहसास होता है
कि इस भरी-पूरी दुनिया में
वे कितने अकेले और कंगाल हैं
उनके पैदा होने से पहले ही
उनका सब कुछ छीना जा चुका होता है
अब उनकी ज़िन्दगी जीने के लिए नहीं
सिर्फ ढोने के काम आती है।
जीवन की जंग
पैदा होने के साथ
वे एक जंग लड़ने लगते हैं
उनकी जंग सीमा पर लड़े जाने वाली जंग नहीं होती
न उस तरह की जंग होती है
जो देश के भीतर लड़ी जाती है
जातीयता और धर्म के हथियारों से।
उनकी जंग
अल्पपोषण की शिकार
माँ की दूधियों से दूध निचोड़ने की जंग होती है
वे रोटी, कपड़ा और मकान के दम पर
जीवन की जंग नहीं लड़ते
बल्कि उनको हासिल करने के लिये
जीवन दाँव पर लगाये रखते हैं।
दरांती, खुरपा, कुदाल, फावड़ा
करनी-बिसौली या छैनी-हथौड़ी
उनके जंगी हथियार होते हैं
बहुत बार वे अपने हथियारों से भी जख़्मी होते हैं
कई बार तो मर भी जाते हैं
अपने ही हथियार से।
फिर भी
जीवित बचे रहने के लिए
वे लगातार लड़ते हैं
जबकि उन्हें मालूम तक नहीं होता
कि उनकी लड़ाई किससे है
कौन उन पर कहाँ से हमले करता है
वे बस चारों तरफ से हो रहे हमलों से
लहूलुहान होते रहते हैं
और अपनी पूरी शक्ति समेटकर
अपने मट्ठे हथियारों से युद्धरत रहते हैं।
उनके जीवन में संघर्ष-विराम
या संधि-वार्ता जैसी कोई चीज़ नहीं होती।
अंत मे वे लड़ते हुए ही मारे जाते हैं
मगर उनके काँधों पर
बहादुरी का तमगा नहीं लगाया जाता
न ही उनके जिस्म लपेटे जाते हैं किसी ध्वज में
देश की जबान में ऐसे लोग
शहीद नहीं होते
क्योंकि वे देश की नहीं
जीवन की जंग लड़ते हैं।
यह आम रास्ता नहीं है
उनका बनाया एक भी रास्ता आम नहीं था
इसलिए उन्होंने हर रास्ते पर लिख रखा था
यह आम रास्ता नहीं है
अथवा यह निजी रास्ता है
बिना आज्ञा प्रवेश निषेध।
प्रवेश की आज्ञा आम आदमी को नहीं
उनके अपने खास लोगों को थी
सिर्फ वे ही आ-जा सकते थे
उनके बनाये खास और निजी रास्तों से।
उन्होंने कुछ खास सुविधाओं को ध्यान में रखकर
रास्तों पर कुछ पुल बनवाये थे
ताकि वे भीड़ के ऊपर से जा सके
इन पुलों पर कोई सिग्नल, रेड लाइट आदि नहीं थे
इसलिये वे बगैर रोक-टोक
आ-जा सकते थे पुलों से कभी भी।
आम आदमी इन पुलों से भी नहीं आ-जा सकता था
उसके पैरों में इतनी रफ्तार नहीं थी
कि वह दौड़ सकता उनके संवाहको के साथ।
बारिश में कुछ पल आम आदमी
पुल के नीचे खड़ा भर रह सकता था,
रिक्शा वाले, ठेली वाले या दूसरे फेरीवाले
सुस्ता भर सकते थे पुल के नीचे
छोटी-मोटी सब्जी आदि की दुकान लगाकर
जीवन चलाने की जद्दोजहद कर सकते थे
या सो सकते थे उस जगह
जो बच गयी हो गायों-बैलों या गधे-घोड़ों से।
कुछ पुलों के नीचे तो इतनी गंदगी जमा कर दी गयी थी
कि जानवर तक जाने से कतराते थे उनके नीचे
कुछ पुल इतने कमज़ोर बनाये गए थे
कि इनके नीचे दबकर मर सके आम आदमी।
और हाँ! खास रास्तों के नीचे या ऊपर
कुछ, सब वे या पैदल पार पथ भी बनाये गए थे
जो सिर्फ आम आदमी के लिये थे
ताकि आम आदमी को भेजा जा सके
मुख्य मार्ग से इस तरफ या उस तरफ॥