तराना-ए-हिन्दी (सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा )
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा
हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसिताँ हमारा
ग़ुर्बत[1] में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा
परबत वह सबसे ऊँचा, हम्साया[2] आसमाँ का
वह संतरी हमारा, वह पासबाँ[3] हमारा
गोदी में खेलती हैं इसकी हज़ारों नदियाँ
गुल्शन है जिनके दम से रश्क-ए-जनाँ[4] हमारा
ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा![5] वह दिन हैं याद तुझको?
उतरा तिरे किनारे जब कारवाँ हमारा
मज़्हब नहीं सिखाता[6] आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोसिताँ हमारा
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा[7] सब मिट गए जहाँ से
अब तक मगर है बाक़ी नाम-व-निशाँ हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा
इक़्बाल! कोई महरम[8] अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ[9] हमारा!
- ऊपर जायें↑ परदेस
- ऊपर जायें↑ पड़ोसी
- ऊपर जायें↑ रक्षक
- ऊपर जायें↑ स्वर्ग का प्रतिस्पर्धी
- ऊपर जायें↑ गंगा का बहता पानी
- ऊपर जायें↑ धर्म
- ऊपर जायें↑ यूनान, मिस्र और रोम
- ऊपर जायें↑ परिचित
- ऊपर जायें↑ छिपा हुआ दु:ख
तस्कीन न हो जिस से
तस्कीन[1] न हो जिस से वो राज़ बदल डालो
जो राज़ न रख पाए हमराज़ बदल डालो
तुम ने भी सुनी होगी बड़ी आम कहावत है
अंजाम का जो हो खतरा आगाज़[2] बदल डालो
पुर-सोज़[3] दिलों को जो मुस्कान न दे पाए
सुर ही न मिले जिस में वो साज़ बदल डालो
दुश्मन के इरादों को है ज़ाहिर अगर करना
तुम खेल वो ही खेलो, अंदाज़ बदल डालो
ऐ दोस्त! करो हिम्मत कुछ दूर सवेरा है
गर चाहते हो मंजिल तो परवाज़[4] बदल डालो
- ऊपर जायें↑ तसल्ली
- ऊपर जायें↑ शुरुआत
- ऊपर जायें↑ दु:खी
- ऊपर जायें↑ उड़ान
लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना
लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी
ज़िन्दगी शमा की सूरत[1] हो ख़ुदाया मेरी
दूर दुनिया का मेरे दम से अँधेरा हो जाये
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाये
हो मेरे दम से यूँ ही मेरे वतन की ज़ीनत[2]
जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत
ज़िन्दगी हो मेरी परवाने की सूरत या रब
इल्म की शम्मा[3] से हो मुझको मोहब्बत या रब
हो मेरा काम ग़रीबों की हिमायत[4] करना
दर्द-मंदों से ज़इफ़ों[5] से मोहब्बत करना
मेरे अल्लाह बुराई से बचाना मुझको
नेक जो राह हो उस राह पे चलाना मुझको
- ऊपर जायें↑ दीपक की भाँति
- ऊपर जायें↑ शोभा
- ऊपर जायें↑ ज्ञान का दीपक
- ऊपर जायें↑ सहानुभूति
- ऊपर जायें↑ दुर्बल
जवाब-ए-शिकवा
दिल से जो बात निकलती है असर रखती है ।
पर नहीं, ताकत-ए-परवाज़ मगर रखती है ।
क़दसी अलासल है, रफ़ात पे नज़र रखती है ।
ख़ाक से से उठती है गर्दू पे गुज़र रखती है ।
इश्क था फ़ितनागर व सरकश व चालाक मेरा ।
आसमान चीर गया नाला-ए-बेबाक मेरा ।
पीर ए गरदू ने कहा सुन के, कहीं है कोई
बोले सयादे, रस अर्श बर ईँ है कोई ।
चाँद कहता था नहीं अहल-ए-ज़मीं [1] है कोई ।
कहकशाँ कहती थी पोशीदा यहीं है कोई ।
कुछ जो समझा मेरे शकू-ए-कू तो रिज़्वान समझा ।
मुझे जन्नत से निकाला हुआ इंसान समझा ।
थी फ़रिश्तों को भी ये हैरत कि ये आवाज़ क्या है?
अर्श[2] डालों पे भी खिलता नहीं ये राज़ क्या है?
तासरे-अर्श भी इंसान की तगूताज़ है क्या ?
आ गई आग की चुटकी को भी परवाज है क्या ?
इस क़दर शोख के अल्लाह से भी बरहम है ।
था जो मस्जूद मलाएक ये वही आदम है
आलिम ए गैर है सामां ए रूजे कम है ।
हाँ मगर अजीज़ के असरार से मरहम है ।
एश्क ए बेताब से लबरेज़ है पैमाना तेरा
किस क़दर शोख जबां है दीवाना तेरा
हम सुखन कर दिया बंदों
राह दिखलाएँ किसे रहरव-ए-मंज़िल ही नहीं
जिससे तामीर हो आदम की ये वो दिल ही नहीं
ढूँञने वालों को दुनिया नई देते है
उम्मती
बुत शिकन उठ गए, बाक़ी जो रहे बुतगर है
ङरम ए काबा नया, बुत नए तुम भी नए
वो भी दिन थे
जो मुसलमान था अल्लाह का सौदाई था
किस क़दर तुम पे
हम से कब प्यार है हाँ नींद तुम्हें प्यारे
सफ़ा-ए-दहर
थे भावा व तुम्हारे ही
हाथ पर हाथ धरे
क्या कहा दहर-ए-मुसलमां
शिकवा अगर करे
तुम में हूरों का कोई चाहने वाला ही नहीं
एक ही सब का नबी, दीन भी दीवान भी एक
कुछ बड़ी बात थी होते मुसलमान भी एक
किसकी आँखों में समाया है दयार-ए-अगियार
मसादि में
रहमतें रोजा जो करते है तो ग़रीब
नाम लेता है अगर कोई हमारा तो ग़रीब
पुख्ता खयाली न रहीं
शोला
रूह-ए-बिलाली न रहीं
मस्जिदए कि नवाजी न रहे
सहिब-ए-अल्ताफ-ए हिजाज़ी न रहे ।
(कविता अपूर्ण और अशुद्ध है । सहयोग अपेक्षित है । )
- ऊपर जायें↑ जमीन पर रहने वाला
- ऊपर जायें↑ काँटा
एक आरज़ू
दुनिया की महफ़िलों से उक्ता गया हूँ या रब
क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो
शोरिश से भागता हूँ दिल ढूँढता है मेरा
ऐसा सुकूत जिस पर तक़रीर भी फ़िदा हो
मरता हूँ ख़ामुशी पर ये आरज़ू है मेरी
दामन में कोह के इक छोटा सा झोंपड़ा हो
आज़ाद फ़िक्र से हूँ उज़्लत में दिन गुज़ारूँ
दुनिया के ग़म का दिल से काँटा निकल गया हो
लज़्ज़त सरोद की हो चिड़ियों के चहचहों में
चश्मे की शोरिशों में बाजा सा बज रहा हो
गुल की कली चटक कर पैग़ाम दे किसी का
साग़र ज़रा सा गोया मुझ को जहाँ-नुमा हो
हो हाथ का सिरहाना सब्ज़े का हो बिछौना
शरमाए जिस से जल्वत ख़ल्वत में वो अदा हो
मानूस इस क़दर हो सूरत से मेरी बुलबुल
नन्हे से दिल में उस के खटका न कुछ मिरा हो
सफ़ बाँधे दोनों जानिब बूटे हरे हरे हों
नद्दी का साफ़ पानी तस्वीर ले रहा हो
हो दिल-फ़रेब ऐसा कोहसार का नज़ारा
पानी भी मौज बन कर उठ उठ के देखता हो
आग़ोश में ज़मीं की सोया हुआ हो सब्ज़ा
फिर फिर के झाड़ियों में पानी चमक रहा हो
पानी को छू रही हो झुक झुक के गुल की टहनी
जैसे हसीन कोई आईना देखता हो
मेहंदी लगाए सूरज जब शाम की दुल्हन को
सुर्ख़ी लिए सुनहरी हर फूल की क़बा हो
रातों को चलने वाले रह जाएँ थक के जिस दम
उम्मीद उन की मेरा टूटा हुआ दिया हो
बिजली चमक के उन को कुटिया मिरी दिखा दे
जब आसमाँ पे हर सू बादल घिरा हुआ हो
पिछले पहर की कोयल वो सुब्ह की मोअज़्ज़िन
मैं उस का हम-नवा हूँ वो मेरी हम-नवा हो
कानों पे हो न मेरे दैर ओ हरम का एहसाँ
रौज़न ही झोंपड़ी का मुझ को सहर-नुमा हो
फूलों को आए जिस दम शबनम वज़ू कराने
रोना मिरा वज़ू हो नाला मिरी दुआ हो
इस ख़ामुशी में जाएँ इतने बुलंद नाले
तारों के क़ाफ़िले को मेरी सदा दिरा हो
हर दर्दमंद दिल को रोना मिरा रुला दे
बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे
नसीहत
बच्चा-ए-शाहीं[1] से कहता था उक़ाबे-साल -ख़ुर्द[2]
ऐ तिरे शहपर[3] पे आसाँ रिफ़अते- चर्ख़े-बरीं[4]
है शबाब[5]अपने लहू की आग मे जलने का काम
सख़्त-कोशी[6]से है तल्ख़े-ज़िन्दगानी[7]अंग-बीं[8]
जो कबूतर पर झपटने मे मज़ा है ऐ पिसर
वो मज़ा शायद कबूतर के लहू मे भी नहीं
- ऊपर जायें↑ बाज़(पक्षी)के बच्चे से
- ऊपर जायें↑ बूढ़ा उक़ाब
- ऊपर जायें↑ पंख
- ऊपर जायें↑ आकाश की ऊँचाई
- ऊपर जायें↑ यौवन
- ऊपर जायें↑ कठोर परिश्रम
- ऊपर जायें↑ जीवन का कड़वापन
- ऊपर जायें↑ शहद, मधु
शिकवा
टिप्पणी: शिकवा इक़बाल की शायद सबसे चर्चित रचना है जिसमें उन्होंने इस्लाम के स्वर्णयुग को याद करते हुए ईश्वर से मुसलमानों की तात्कालिक हालत के बारे में शिकायत की है। यह 1909 में प्रकाशित हुई थी।
क्यूँ ज़ियांकार बनूँ, सूद फ़रामोश रहूँ
फ़िक्र-ए-फ़र्दा[1] न करूँ, महव[2]-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ
नाले बुलबुल की सुनूँ और हमा-तन-गोश[3] रहूँ
हमनवा[4] मैं भी कोई गुल हूँ के ख़ामोश रहूँ।
जुरत-आमोज़[5] मेरी ताब-ए-सुख़न[6] है मुझको
शिकवा अल्लाह से ख़ाकम बदहन है मुझको
है बजा शेवा-ए-तसलीम में, मशहूर हैं हम
क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मजबूर हैं हम
साज-ए-ख़ामोश हैं, फ़रियाद से मामूर हैं हम
नाला आता है अगर लब पे, तो माज़ूर हैं हम
ऐ ख़ुदा, शिकवा-ए-अरबाब-ए-वफ़ा भी सुन ले
ख़ूगर-ए-हम्द [7] से थोड़ा सा ग़िला भी सुन ले।
थी तो मौजूद अज़ल [8] से ही तेरी ज़ात-ए-क़दीम [9]
फूल था ज़ेब-ए-चमन, पर न परेशान थी शमीम[10]।
शर्त-ए-इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीम [11]।
बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती न नसीम [12]।
हमको जमहीयत-ए-ख़ातिर ये परेशानी थी
वरना उम्मत तेरी महबूब की दीवानी थी।
हमसे पहले था अजब तेरे जहाँ का मंज़र।
कहीं मस्जूद[13] थे पत्थर, कहीं माबूद[14] शजर [15]।
ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस[16] थी इंसा की नज़र।
मानता फ़िर अनदेखे खुदा को कोई क्यूंकर?
तुझको मालूम है लेता था कोई नाम तेरा।
कुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तेरा।
बस रहे थे यहीं सल्जूक[17] भी, तूरानी[18] भी।
अहल-ए-चीं चीन में, ईरान में सासानी[19] भी।
इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी।
इसी दुनिया में यहूदी भी थे, नसरानी[20] भी।
पर तेरे नाम पर तलवार उठाई किसने?
बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किसने?
थे हमीं एक तेरे मअर का आराओं में।
खुश्कियों में कभी लड़ते, कभी दरियाओं में।
दी अज़ानें कभी योरोप के कलीशाओं[21] में।
कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सेहराओं[22] में।
शान आँखों में न जँचती थी जहाँदारों की।
कलेमा[23] पढ़ते थे हम छाँव में तलवारों की।
हम जो जीते थे, तो जंगों की मुसीबत के लिए
और मरते थे तेरे नाम की अज़मत[24] के लिए।
थी न कुछ तेग़ ज़नी अपनी हुकूमत के लिए
सर बकफ़[25] फिरते थे क्या दहर[26] में दौलत के लिए?
कौम अपनी जो ज़रोमाल-ए-जहाँ पर मरती
बुत फरोशी के एवज़ बुत-शिकनी क्यों करती?
टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे।
पाँव शेरों के भी मैदां से उखड़ जाते थे।
तुझ से सरकश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे।
तेग़[27] क्या चीज़ है, हम तोप से लड़ जाते थे।
नक़्श तौहीद[28] का हर दिल पे बिठाया हमने।
तेरे ख़ंज़र लिए पैग़ाम सुनाया हमने।
तू ही कह दे के, उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर[29] किसने?
शहर कैसर[30] का जो था, उसको किया सर किसने?
तोड़े मख़्लूक[31] ख़ुदाबन्दों के पैकर[32] किसने?
काट कर रख दिये कुफ़्फ़ार[33] के लश्कर[34] किसने?
किसने ठंडा किया आतिशकदा[35]-ए-ईरां को?
किसने फिर ज़िन्दा किया तज़कर-ए-यज़दां को?
कौन सी क़ौम फ़क़त[36] तेरी तलबगार हुई?
और तेरे लिए जहमतकश-ए-पैकार हुई?
किसकी शमशीर[37] जहाँगीर, जहाँदार हुई?
किसकी तक़दीर से दुनिया तेरी बेदार हुई?
किसकी हैबत [38] से सनम[39] सहमे हुए रहते थे?
मुँह के बल गिरके ‘हु अल्लाह-ओ-अहद’ कहते थे।
आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़
क़िब्ला रू हो[40] के ज़मीं-बोस[41] हुई क़ौम-ए-हिजाज़ [42]।
एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद -ओ- अयाज़ [43]
न कोई बन्दा रहा, और न कोई बन्दा नवाज़।
बन्दा ओ साहिब ओ मोहताज़ ओ ग़नी [44]एक हुए
तेरी सरकार में पहुँचे तो सभी एक हुए।
महफिल-ए-कौन-ओ मकामे सहर-ओ-शाम फ़िरे
मय-ए-तौहीद को लेकर सिफ़त-ए-जाम फिरे।
कोह-में दश्त [45] में लेकर तेरा पैग़ाम फिरे
और मालूम है तुझको कभी नाकाम फिरे?
दश्त-तो-दश्त हैं, दरिया भी न छोड़े हमने।
दहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिये घोड़े हमने।
सिफ़हा-ए-दहर[46] से बातिल[47] को मिटाया हमने।
दौर-ए-इंसा को ग़ुलामी से छुड़ाया हमने।
तेरे काबे को ज़बीनों [48] पे बसाया हमने
तेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया हमने।
फिर भी हमसे ये ग़िला है कि वफ़ादार नहीं?
हम वफ़ादार नहीं, तू भी तो दिलदार नहीं।
उम्मतें और भी हैं, उनमें गुनहगार भी हैं।
इजज़[49] वाले भी हैं, मस्त-ए-मय-ए-पिन्दार [50] भी हैं।
इनमें काहिल भी है, ग़ाफ़िल[51] भी हैं, हुशियार भी है
सैकड़ों हैं कि तेरे नाम से बेदार भी है।
रहमतें हैं तेरी अग़ियार[52] के काशानों पर।
बर्क गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर।
बुत सनमख़ानों में कहते हैं मुसलमान गए।
है खुशी उनको कि काबे के निगहबान गए।
मंजिले-ए-दहर से ऊँटों के हदीख़्वान गए।
अपनी बगलों में दबाए हुए क़ुरान गए।
ज़िंदाज़न कुफ़्र है, एहसास तुझे है कि नहीं?
अपनी तौहीद का कुछ पास[53] तुझे है कि नहीं?
ये शियाकत नहीं, हैं उनके ख़ज़ाने मामूर।
नहीं महफिल में जिन्हें बात भी करने का शअउर।
कहर तो ये है कि काफिर को मिले रुद-ओ-खुसूर।
और बेचारों मुसलमानों को फ़कत वादा-ए-हूर।
अब वो अल्ताफ़[54] नहीं, हम पे इनायात[55] नहीं
बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं?
क्यों मुसलमानों में है दौलत-ए-दुनिया नायाब?
तेरी कुदरत तो है वो, जिसकी न हद है न हिसाब।
तू जो चाहे तो उठे सीना-सहरा से हुबाब[56]।
रहरव-ए-दश्त सैली ज़ दहा मौज-ए सराब।
बाम-ए-अगियार है, रुसवाई है, नादारी है।
क्या तेरे नाम पे मरने का एवज़ ख़्वारी है?
बनी अगियार की अब चाहने वाली दुनिया।
रह गई अपने लिए एक ख़याली दुनिया।
हम तो रुख़सत हुए, औरों ने संभाली दुनिया।
फ़िर न कहना कि हुई तौहीद से खाली दुनिया।
हम तो जीते हैं कि दुनिया में तेरा नाम रहे।
कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे, जाम रहे?
तेरी महफिल भी गई चाहनेवाले भी गए।
शब की आहें भी गईं, जुगनूं के नाले भी गए।
दिल तुझे दे भी गए, अपना सिला ले भी गए।
आ के बैठे भी न थे और निकाले भी गए।
आए उश्शाक़ [57], गए वादा-ए-फ़रदा लेकर।
अब उन्हें ढूँढ चराग-ए-रुख़-ज़ेबा लेकर।
दर्द-ए-लैला भी वही, क़ैस [58] का पहलू भी वही।
नज्द [59]के दश्त-ओ-जबल में रम-ए-आहू [60] भी वही।
इश्क़ का दिल भी वही, हुस्न का जादू भी वही।
उम्मत-ए-अहमद-मुरसल भी वही, तू भी वही।
फिर ये आजुर्दगी[61], ये ग़ैर-ए-सबब क्या मानी?
अपने शऽदाओं पर ये चश्म-ए-ग़ज़ब क्या मानी?
तुझकों छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी [62] को छोड़ा?
बुतगरी पेशा किया, बुतशिकनी[63] को छोड़ा?
इश्क को, इश्क़ की आशुफ़्तासरी [64] को छोड़ा?
रस्म-ए-सलमान-ओ-उवैश-ए-क़रनी[65] को छोड़ा?
आग तकबीर [66] की सीनों में दबी रखते हैं
ज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल-ए-हबसी रखते हैं।
इश्क़ की ख़ैर, वो पहली सी अदा भी न सही
ज्यादा पैमाई-ए-तस्लीम-ओ-रिज़ा भी न सही।
मुज़्तरिब[67] दिल सिफ़त-ए-क़िबलानुमा भी न सही
और पाबंदी-ए-आईन[68]-ए-वफ़ा भी न सही।
कभी हमसे कभी ग़ैरों से शनासाई [69] है।
बात कहने की नहीं, तू भी तो हरजाई है।
सर-ए-फ़ाराँ पे किया दीन को कामिल तूने।
इक इशारे में हज़ारों के लिए दिल तूने।
आतिश अंदोश किया इश्क़ का हासिल तूने।
फ़ूँक दी गर्मी-ए-रुख्सार से महफ़िल तूने।
आज क्यूँ सीने हमारे शराराबाज़ नहीं?
हम वही सोख़्ता सामां हैं, तुझे याद नहीं?
वादी ए नज्द में वो शोर-ए-सलासिल [70] न रहा।
क़ैस दीवाना-ए-नज़्ज़ारा-ए-महमिल न रहा।
हौसले वो न रहे, हम न रहे, दिल न रहा।
घर ये उजड़ा है कि तू रौनक-ए-महफ़िल न रहा।
ऐ ख़ुश आं रूज़ के आइ व बसद नाज़ आई।
बे हिजाबाने सू-ए-महफ़िल-ए-मा बाज़ आई।
बादाकश ग़ैर हैं, गुलशन में लब-ए-जू [71] बैठे
सुनते हैं जाम बकफ़[72], नग़मा-ए-कू-कू बैठे।
दूर हंगामा-ए-गुल्ज़ार से यकसू [73] बैठे
तेरे दीवाने भी है मुंतज़िर-ए-हू बैठे।
अपने परवानों को फ़िर ज़ौक-ए-ख़ुदअफ़रोज़ी[74] दे।
बर्के दैरीना[75] को फ़रमान-ए-जिगर सोज़ी दे।
क़ौम-ए-आवारा इनां ताब है फिर सू-ए-हिजाज़।
ले उड़ा बुलबुल-ए-बेपर को मदाके परवाज।
मुज़्तरिब बाग़ के हर गुंचे में है बू-ए-नियाज़।
तू ज़रा छेड़ तो दे तश्ना मिज़राब-ए-साज।
नगमें बेताब हैं तारों से निकलने के लिए।
तूर मुज्तर हैं उसी आग में जलने के लिए।
मुश्किलें उम्मत-ए-मरहूम[76] की आसां कर दे।
मूर-ए-बेमायां को अंदोश-ए-सुलेमां कर दे।
जिन्स-ए-नायाब-ए-मुहब्बत[77] को फ़िर अरज़ां[78] कर दे
हिन्द के दैर नशीनों[79] को मुसल्मां कर दे।
जू-ए-ख़ून मीचकद अज़ हसरते दैरीना मा।
मीतपद नाला ब-निश्तर कदा-ए-सीना मा। [80]
बू-ए-गुल ले गई बेरूह-ए-चमन राज़-ए-चमन।
क्या क़यामत है कि ख़ुद फूल हैं ग़माज़-ए-चमन।
अहद-ए-गुल ख़त्म हुआ टूट गया साज़-ए-चमन।
उड़ गए डालियों से जमजमा-ए-परवाज़-ए-चमन।
एक बुलबुल है कि है महव-ए-तरन्नुम[81] अबतक।
इसके सीने में हैं नग़मों का तलातुम[82] अबतक।
क़ुमरियां साख़-ए-सनोबर[83] से गुरेज़ां भी हुई।
पत्तिया फूल की झड़-झड़ की परीशां भी हुई।
वो पुरानी रविशें बाग़ की वीरां भी हुई।
डालियां पैरहन-ए-बर्ग [84] से उरियां भी हुई।
क़ैद ए मौसम से तबीयत रही आज़ाद उसकी।
काश गुलशन में समझता कोई फ़रियाद उसकी।
लुत्फ़ मरने में है बाक़ी, न मज़ा जीने में।
कुछ मज़ा है तो यही ख़ून-ए-जिगर पीने में।
कितने बेताब हैं जौहर मेरे आईने में ।
किस क़दर जल्वे तड़पते है मेरे सीने में।
इस गुलिस्तां में मगर देखने वाले ही नहीं।
दाग़ जो सीने में रखते हैं वो लाले ही नहीं।
चाक इस बुलबुल ए तन्हा की नवां से दिल हों
जागने वाले इसी बांग-ए-दरा से दिल हों।
यानि फ़िर ज़िन्दा ना अहद-ए-वफ़ा से दिल हों
फिर उसी बादा ए तेरी ना के प्यासे दिल हों।
अजमी ख़ुम है तो क्या, मय तो हिजाज़ी[85] है मेरी।
नग़मा हिन्दी है तो क्या, लय तो हिजाज़ी है मेरी।
(कविता में बहुत सी अशुद्धियाँ है। शब्दार्थों तथा शोधन में सहयोग का स्वागत है।)
- ऊपर जायें↑ कल की चिन्ता
- ऊपर जायें↑ खोया रहना
- ऊपर जायें↑ चुपचाप सुनना
- ऊपर जायें↑ साथी
- ऊपर जायें↑ साहस सिखाने वाला
- ऊपर जायें↑ बातों का तेज
- ऊपर जायें↑ प्रशंसा करने के आदी
- ऊपर जायें↑ आदि
- ऊपर जायें↑ पुराने प्राणी
- ऊपर जायें↑ सुगंध
- ऊपर जायें↑ सार्वभौमिक, स्र्वोपरि. यहाँ पर मतलब ईश्वर या अल्लाह से है।
- ऊपर जायें↑ पवन
- ऊपर जायें↑ पूज्य (जिसका सजदा किया जाय)
- ऊपर जायें↑ पूज्य
- ऊपर जायें↑ पेड़
- ऊपर जायें↑ महसूस कर सकने वाली आकृति को (पूजने की) आदी
- ऊपर जायें↑ उत्तरपश्चिमी ईरान और पूर्वी तुर्की में दसवीं सदी का एक साम्राज्य, शासक तुर्क मूल के थे
- ऊपर जायें↑ मध्य-एशियाई
- ऊपर जायें↑ अरबों की ईरान पर फ़तह के ठीक पहले के शासक, अग्निपूजक पारसी, अमुस्लिम
- ऊपर जायें↑ ईसाई
- ऊपर जायें↑ चर्च, गिरिजाघर
- ऊपर जायें↑ रेगिस्तान
- ऊपर जायें↑ ये कहना कि ‘अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका संदेशवाहक था’, इस्लाम का सबसे ज्यादा प्रयुक्त वंदनवाक्य
- ऊपर जायें↑ महानता
- ऊपर जायें↑ हथेली पर
- ऊपर जायें↑ दुनिया
- ऊपर जायें↑ तलवार
- ऊपर जायें↑ त’वाहिद, एकत्व. यानि ये कहना कि अल्लाह एक है और उसके तस्वीर या मूर्तियां नहीं हैं, अरबी गिनती में वाहिद का अर्थ ‘एक’ होता है।
- ऊपर जायें↑ ख़ैबर मदीना के पास एक स्थान है, जहाँ यहूदी रहा करते थे। अन्य यहूदियों के साथ सांठगाँठ करने के शक में मुस्लिम सेना को पैग़म्बर मुहम्मद ने इनपर आक्रमण का हुकम दिया। युद्ध में यहूदी हार गए और इस लड़ाई को उस समय और आज भी एक प्रतीकात्मक विजय के रूप में देखा जाता है। उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान में पेशावर के पास का दर्रा भी इसी नाम से है, जिससे होकर कई विदेशी आक्रांता भारत आए; सिकंदर, बाबर और नादिर शाह इनमें से कुछ उल्लेखनीय नाम हैं।
- ऊपर जायें↑ सीज़र का अरबी नाम, सीज़र रोम के शासक की उपाधि होती थी – जूलयस सीज़र, ऑगस्टस सीज़र आदि
- ऊपर जायें↑ बनाया हुआ, कृत्रिम। इस्लाम के मुताबिक ईश्वर की वंदना उचित है और ईश्वर के रूपक (तस्वीर, मूर्ति ) अर्थात बनाई गए चीज़ों की वंदना अनुचित। इन ईश्वर द्वारा बनाई गई चीजों में सूर्य, चांद, पेड़, कोई व्यक्ति इत्यादि आते हैं जिसकी वंदना स्वीकार्य नहीं है।
- ऊपर जायें↑ आकृति, स्वरूप
- ऊपर जायें↑ काफ़िर का बहुवचन
- ऊपर जायें↑ सेना
- ऊपर जायें↑ अग्निगृह, इस्लाम के पूर्व ईरान के लोग आग और देवी-देवताओं की पूजा करते थे
- ऊपर जायें↑ सिर्फ़
- ऊपर जायें↑ तलवार
- ऊपर जायें↑ डर
- ऊपर जायें↑ मूर्तियाँ
- ऊपर जायें↑ मक्के के रुख होकर
- ऊपर जायें↑ जमीन चूमना, अर्थ सजदे के लिए झुकने से है।
- ऊपर जायें↑ मुस्लिम क़ौम। हिजाज़ वो अरबी प्रांत है जिसमें मक्का और मदीना हैं।
- ऊपर जायें↑ अयाज़ नाम का सुल्तान महमूद ग़ज़नी का एक ग़ुलाम था जिसकी बन्दगी से ख़ुश होकर सुल्तान ने उसे शाह का दर्जा दिया था और लाहौर को सन् १०२१ में बड़ी मुश्किलों से जीतने के बाद, उसे वहाँ का राजा बनाया था।
- ऊपर जायें↑ धनाढ्य, संपन्न
- ऊपर जायें↑ रेत, रेगिस्तान
- ऊपर जायें↑ दुनिया का चेहरा
- ऊपर जायें↑ असत्य, शून्य। ये मानना के दुनिया को चलाने वाला कोई नहीं है। अनिस्लमी।
- ऊपर जायें↑ भौंह
- ऊपर जायें↑ कमज़ोरी
- ऊपर जायें↑ अभिमानी, शब्दार्थ – घमंड के नशे में मस्त
- ऊपर जायें↑ नादान
- ऊपर जायें↑ दुश्मन
- ऊपर जायें↑ बचाने की चिंता
- ऊपर जायें↑ दया
- ऊपर जायें↑ मेहरबानी
- ऊपर जायें↑ बुलबुला
- ऊपर जायें↑ आशिक़ का बहुवचन
- ऊपर जायें↑ लैला-मजनूं की कहानी में मजनूं का वास्तविक नाम क़ैस था। मजनूं का नाम उसे पाग़ल बनने के बाद मिला। अरबी भाषा में मजनून का शाब्दिक अर्थ पागल होता है।
- ऊपर जायें↑ मध्य अरब का रेगिस्तान
- ऊपर जायें↑ हिरण की चौकड़ी
- ऊपर जायें↑ चिढ़ाना
- ऊपर जायें↑ अरब का पैग़म्बर, यानि मुहम्मद
- ऊपर जायें↑ मूर्तियों को तोड़ना
- ऊपर जायें↑ रोमांच, पुलक
- ऊपर जायें↑ क़रनी, सीरिया के उवैश जो इस्लाम के शुरुआती परिवर्तितों में थे। हज़रत अली के समर्थन में उन्होंने कर्बला की लड़ाई लड़ी और जिसमें वो शहीद हुए थे।
- ऊपर जायें↑ ये स्वीकारना कि अल्लाह एक है और मुहम्मद उसका दूत था
- ऊपर जायें↑ बेचैन
- ऊपर जायें↑ विधान, नियम
- ऊपर जायें↑ अपना, जुड़ा
- ऊपर जायें↑ जंज़ीर
- ऊपर जायें↑ झरने के किनारे
- ऊपर जायें↑ हथेली पर
- ऊपर जायें↑ एक तरफ़
- ऊपर जायें↑ खुद को जलाने का मज़ा
- ऊपर जायें↑ पुरानी बिज़ली
- ऊपर जायें↑ हारे हुए लोगों की उम्मत, यहाँ पर अर्थ – इस्लाम
- ऊपर जायें↑ ऐसे दुर्लभ प्रेमियों (यहाँ पर अर्थ मुस्लमानों से है)
- ऊपर जायें↑ सुलभ, सस्ता
- ऊपर जायें↑ पुराने देवियो की ख़िदमत करने वाले
- ऊपर जायें↑ फ़ारसी में लिखी पंक्ति का अर्थ है – ख़ून की धार हमारी पुरानी हसरतों से निकलती है, और सीने के हत्यागार से हमारे चीखने की आवाज़ आती है। (अपूर्ण अनुवाद है। )
- ऊपर जायें↑ संगीत में खोया
- ऊपर जायें↑ तूफ़ान
- ऊपर जायें↑ पाईन, एक प्रकार का पेड़।
- ऊपर जायें↑ पत्तियों का पहनावा
- ऊपर जायें↑ अरब का प्रांत जिसमें मक्का और मदीना हैं
आता है याद मुझ को गुज़रा हुआ ज़माना
आता है याद मुझको गुज़रा हुआ ज़माना
वो बाग़ की बहारें, वो सब का चह-चहाना
आज़ादियाँ कहाँ वो, अब अपने घोसले की
अपनी ख़ुशी से आना अपनी ख़ुशी से जाना
लगती हो चोट दिल पर, आता है याद जिस दम
शबनम के आँसुओं पर कलियों का मुस्कुराना
वो प्यारी-प्यारी सूरत, वो कामिनी-सी मूरत
आबाद जिस के दम से था मेरा आशियाना
ख़ुदा का फ़रमान
उट्ठो मेरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो
ख़ाक-ए-उमरा के दर-ओ-दीवार हिला दो
गर्माओ ग़ुलामों का लहू सोज़-ए-यक़ीं से
कुन्जिश्क-ए-फिरोमाया को शाहीं से लड़ा दो
सुल्तानी-ए-जमहूर का आता है ज़माना
जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आये मिटा दो
जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी
उस ख़ेत के हर ख़ोशा-ए-गुन्दम को जला दो
क्यों ख़ालिक़-ओ-मख़लूक़ में हायल रहें पर्दे
पीरान-ए-कलीसा को कलीसा से हटा दो
मैं नाख़ुश-ओ-बेज़ार हूँ मरमर के सिलों से
मेरे लिये मिट्टी का हरम और बना दो
तहज़ीब-ए-नवीं कारगह-ए-शीशागराँ है
आदाब-ए-जुनूँ शायर-ए-मशरिक़ को सिखा दो
मेरा वतन वही है
चिश्ती ने जिस ज़मीं पे पैग़ामे हक़ सुनाया,
नानक ने जिस चमन में बदहत का गीत गाया,
तातारियों ने जिसको अपना वतन बनाया,
जिसने हेजाजियों से दश्ते अरब छुड़ाया,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
सारे जहाँ को जिसने इल्मो-हुनर दिया था,
यूनानियों को जिसने हैरान कर दिया था,
मिट्टी को जिसकी हक़ ने ज़र का असर दिया था
तुर्कों का जिसने दामन हीरों से भर दिया था,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
टूटे थे जो सितारे फ़ारस के आसमां से,
फिर ताब दे के जिसने चमकाए कहकशां से,
बदहत की लय सुनी थी दुनिया ने जिस मकां से,
मीरे-अरब को आई ठण्डी हवा जहाँ से,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
बंदे किलीम जिसके, परबत जहाँ के सीना,
नूहे-नबी का ठहरा, आकर जहाँ सफ़ीना,
रफ़अत है जिस ज़मीं को, बामे-फलक़ का ज़ीना,
जन्नत की ज़िन्दगी है, जिसकी फ़िज़ा में जीना,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
गौतम का जो वतन है, जापान का हरम है,
ईसा के आशिक़ों को मिस्ले-यरूशलम है,
मदफ़ून जिस ज़मीं में इस्लाम का हरम है,
हर फूल जिस चमन का, फिरदौस है, इरम है,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है॥
मेरी नवा-ए-शौक़ से शोर हरीम-ए-ज़ात में
मेरी नवा-ए-शौक़ से शोर हरीम-ए-ज़ात में
ग़ुलग़ुला-हा-ए-अल-अमाँ बुत-कदा-ए-सिफ़ात में
हूर ओ फ़रिश्ता हैं असीर मेरे तख़य्युलात में
मेरी निगाह से ख़लल तेरी तजल्लियात में
गरचे है मेरी जुस्तुजू दैर ओ हरम की नक़्श-बंद
मेरी फ़ुग़ाँ से रुस्तख़ेज़ काबा ओ सोमनात में
गाह मेरी निगाह-ए-तेज़ चीर गई दिल-ए-वजूद
गाह उलझ के रह गई मेरे तवह्हुमात में
तू ने ये क्या ग़ज़ब किया मुझ को भी फ़ाश कर दिया
मैं ही तो एक राज़ था सीना-ए-काएनात में
वहीं मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी
वहीं मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी
मेरे काम कुछ न आया ये कमाल-ए-नै-नवाज़ी
मैं कहाँ हूँ तू कहाँ है ये मकाँ के ला-मकाँ है
ये जहाँ मेरा जहाँ है के तेरी करिश्मा-साज़ी
इसी कशमकश में गुज़रीं मेरी ज़िंदगी की रातें
कभी सोज़-ओ-साज़-ए-‘रूमी’ कभी पेच-ओ-ताब-ए-‘राज़ी’
वो फ़रेब-ख़ुर्दा शाहीं के पला हो करगसों में
उसे क्या ख़बर के क्या है रह-ओ-रस्म-ए-शाहबाज़ी
न ज़बाँ कोई ग़ज़ल की न ज़बाँ से बा-ख़बर मैं
कोई दिल-ए-कुशा सदा हो अजमी हो या के ताज़ी
नहीं फ़क़्र ओ सल्तनत में कोई इम्तियाज़ ऐसा
ये सिपह की तेग़-बाज़ी वो निगह की तेग़-बाज़ी
कोई कारवाँ से टूटा कोई बद-गुमाँ हरम से
के अमीर-ए-कारवाँ में नहीं ख़ू-ए-दिल-नवाज़ी
हादसा वो जो अभी पर्दा-ए-अफ़लाक में है
हादसा वो जो अभी पर्दा-ए-अफ़लाक में है
अक्स उस का मेरे आईना-ए-इदराक में है
न सितारे में है ने गर्दिश-ए-अफ़लाक में है
तेरी तक़दीर मेरे नाला-ए-बे-बाक में है
या मेरी आह में ही कोई शरर ज़िंदा नहीं
या ज़रा नम अभी तेरे ख़स ओ ख़ाशाक में है
क्या अजब मेरी नवा-हा-ए-सहर-गाही से
ज़िंदा हो जाए वो आतिश जो तेरी ख़ाक में है
तोड़ डालेगी यही ख़ाक तिलिस्म-ए-शब-ओ-रोज़
गरचे उलझी हुई तक़दीर के पेचाक में है
मुझे आहो-फ़ुगाने-नीमशब का
मुझे आह-ओ-फ़ुग़ान-ए-नीम-शब का फिर पयाम आया
थम ऐ रह-रौ के शायद फिर कोई मुश्किल मक़ाम आया
ज़रा तक़दीर की गहराइयों में डूब जा तू भी
के इस जंगाह से मैं बन के तेग़-ए-बे-नियाम आया
ये मिसरा लिख दिया किस शोख़ ने मेहराब-ए-मस्जिद पर
ये नादाँ गिर गए सजदों में जब वक़्त-ए-क़याम आया
चल ऐ मेरी ग़रीबी का तमाशा देखने वाले
वो महफ़िल उठ गई जिस दम तो मुझ तक दौर-ए-जाम आया
दिया ‘इक़बाल’ ने हिन्दी मुसलमानों को सोज़ अपना
ये इक मर्द-ए-तन-आसाँ था तन-आसानों के काम आया
उसी ‘इक़बाल’ की मैं जुस्तुजू करता रहा बरसों
बड़ी मुद्दत के बाद आख़िर वो शाहीं जे़र-ए-दाम आया
लहू
लहू
अगर लहू है बदन में तो ख़ौफ़[1] है न हिरास[2]
अगर लहू है बदन में तो दिल है बे-वसवास[3]
जिसे मिला ये मताए-ए-गराँ बहा[4] उसको
नसीमो-ज़र[5] से मुहब्बत है, नै ग़मे-इफ़्लास[6]
- ऊपर जायें↑ भय
- ऊपर जायें↑ त्रास
- ऊपर जायें↑ निडर
- ऊपर जायें↑ बड़ा धन
- ऊपर जायें↑ सोने-चाँदी
- ऊपर जायें↑ दरिद्रता का कष्ट
सच कह दूँ ऐ ब्रह्मन गर तू बुरा न माने
सच कह दूँ ऐ ब्रह्मन गर तू बुरा न माने
तेरे सनम कदों के बुत हो गये पुराने
अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा
जन्ग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने
तन्ग आके आख़िर मैं ने दैर-ओ-हरम को छोड़ा
वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है
आ ग़ैरत के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
दुनिया के तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आस्माँ से इस का कलस मिला दें
हर सुबह मिल के गायें मन्तर वो मीठे मीठे
सारे पुजारियों को मै पीत की पिला दें
शक्ती भी शान्ती भी भक्तों के गीत में है
धरती के बासियों की मुक्ती प्रीत में है
राम
लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द[1]
सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे हिन्द[2]
ये हिन्दियों के फिक्रे-फ़लक[3] उसका है असर,
रिफ़अत[4] में आस्माँ से भी ऊँचा है बामे-हिन्द[5]
इस देश में हुए हैं हज़ारों मलक[6] सरिश्त[7] ,
मशहूर जिसके दम से है दुनिया में नामे-हिन्द
है राम के वजूद[8] पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,
अहले-नज़र समझते हैं उसको इमामे-हिन्द
एजाज़ [9] इस चिराग़े-हिदायत[10] , का है यही
रोशन तिराज़ सहर[11] ज़माने में शामे-हिन्द
तलवार का धनी था, शुजाअत[12] में फ़र्द[13] था,
पाकीज़गी[14] में, जोशे-मुहब्बत में फ़र्द था
- ऊपर जायें↑ हिन्द का प्याला सत्य की मदिरा से छलक रहा है
- ऊपर जायें↑ पूरब के महान चिंतक हिन्द के राम हैं
- ऊपर जायें↑ महान चिंतन
- ऊपर जायें↑ ऊँचाई
- ऊपर जायें↑ हिन्दी का गौरव या ज्ञान
- ऊपर जायें↑ देवता
- ऊपर जायें↑ ऊँचे आसन पर
- ऊपर जायें↑ अस्तित्व
- ऊपर जायें↑ चमत्कार
- ऊपर जायें↑ ज्ञान का दीपक
- ऊपर जायें↑ भरपूर रोशनी वाला सवेरा
- ऊपर जायें↑ वीरता
- ऊपर जायें↑ एकमात्र
- ऊपर जायें↑ पवित्रता
नया शिवाला
सच कह दूँ ऐ बिरहमन[1] गर तू बुरा न माने
तेरे सनमकदों के बुत हो गये पुराने
अपनों से बैर रखना तू ने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल[2] सिखाया वाइज़[3] को भी ख़ुदा ने
तंग आके मैंने आख़िर दैर-ओ-हरम[4] को छोड़ा
वाइज़ का वाज़[5] छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझ को हर ज़र्रा देवता है
आ ग़ैरियत[6] के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
दुनिया के तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आस्माँ से इस का कलस मिला दें
हर सुबह मिल के गायें मन्तर वो मीठे- मीठे
सारे पुजारियों को मय प्रीत की पिला दें
शक्ती[7] भी शान्ती[8] भी भक्तों के गीत में है
धरती के वासियों की मुक्ती[9] पिरीत[10] में है
- ऊपर जायें↑ ब्राह्मण
- ऊपर जायें↑ दंगा-फ़साद
- ऊपर जायें↑ उपदेशक
- ऊपर जायें↑ मंदिर-मस्जिद
- ऊपर जायें↑ उपदेश
- ऊपर जायें↑ अपरिचय
- ऊपर जायें↑ शक्ति
- ऊपर जायें↑ शांति
- ऊपर जायें↑ मुक्ति
- ऊपर जायें↑ प्रीत
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
सितारों के आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़[1] के इम्तिहाँ[2] और भी हैं
तही ज़िन्दगी से नहीं ये फ़ज़ायें
यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं
क़ना’अत[3]न कर आलम-ए-रंग-ओ-बू[4]पर
चमन और भी, आशियाँ[5]और भी हैं
अगर खो गया एक नशेमन तो क्या ग़म
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ[6]और भी हैं
तू शाहीं[7]है परवाज़[8]है काम तेरा
तेरे सामने आसमाँ और भी हैं
इसी रोज़-ओ-शब [9]में उलझ कर न रह जा
के तेरे ज़मीन-ओ-मकाँ [10]और भी हैं
गए दिन के तन्हा था मैं अंजुमन [11]में
यहाँ अब मेरे राज़दाँ [12]और भी हैं
- ऊपर जायें↑ प्रेम
- ऊपर जायें↑ परीक्षाएँ
- ऊपर जायें↑ संतोष
- ऊपर जायें↑ इन्द्रीय संसार
- ऊपर जायें↑ घरौंदे
- ऊपर जायें↑ रोने-धोने की जगहें
- ऊपर जायें↑ गरुड़ , उक़ाब
- ऊपर जायें↑ उड़ान भरना
- ऊपर जायें↑ सुबह -शाम के चक्कर
- ऊपर जायें↑ धरती और मकान
- ऊपर जायें↑ महफ़िल
- ऊपर जायें↑ रहस्य जानने वाले