दिन कटे हैं धूप चुनते
रात कोरी कल्पना में
दिन कटे हैं धूप चुनते
प्यास लेकर
जी रहीं हैं
आज समिधाएँ नई
कुण्ड में
पड़ने लगीं हैं
क्षुब्ध आहुतियां कई
भक्ति बैठी रो रही अब
तक धुंए का मन्त्र सुनते
छाँव के भी
पाँव में अब
अनगिनत छाले पड़े
धुन्ध-कुहरे
धूप को फिर
राह में घेरे खड़े
देह की निष्ठा अभागिन
जल उठी संकोच बुनते
सौंपकर
थोथे मुखौटे
और कोरी वेदना
वस्त्र के
झीने झरोखे
टांकती अवहेलना
दुःख हुए संतृप्त लेकिन
सुख रहे हर रोज घुनते
काँपे अंतर्तम
टेर लगाती
मौसम के
पीछे पीछे हरदम
पुरवाई की
आँखें भी अब
हो आईं पुरनम।
प्यास अनकही
दिन भर ठहरी
अब तो साँझ हुई
कोख हरी
होने की इच्छा
लेकिन बाँझ हुई।
अंधियारे का
रिश्ता लेकर
द्वार खड़ी रातें
ड्योढ़ी पर
जलते दीपक की
आस हुई अब कम।
उपजे कई
नए संवेदन
हरियर प्रत्याशा में
ठूंठ हुए
सन्तापों वाले
पेड़ कटे आशा में
भूख किताबी
बाँच रही अब
चूल्हे का संवाद
देह बुढ़ापे की
लाठी पर
काँपे अंतर्तम।
भूख चली पीहर
सूनी आँखों में
सपनों की
अब सौगात नहीं
चीख,
तल्खियों वाले मौसम
हैं,बरसात नहीं
आँख मिचौली
करते करते
जीवन बीत गया
सुख-दुःख के कोरे
पन्नों पर
सावन रीत गया
द्वार देहरी
सुबह साँझ सब
लगते हैं रूठे
दिन का
थोड़ा दर्द समझती
ऐसी रात नहीं
शून्य क्षितिज के
अर्थ लगाते
मौसम गुजर गए
बूँदों की
परिभाषा गढ़ते
बादल बिखर गए
रेत भरे
आँचल में अपने
सावन की बेटी
सूखे खेतों से कहती है
अब खैरात नहीं
दीवारों के
कान हो गए
अवचेतन-बहरे
बात करें
किससे हम मिलकर
दर्द हुए गहरे
चीख-चीख कर
मरी पिपासा
भूख चली पीहर
प्रत्याशा हरियर होने की
पर, ज़ज़्बात नहीं
आवाज़ कम कर
यह रईसों का
मुहल्ला है जरा
आवाज़ कम कर
चाय पीने पर निकलती
भी नहीं हैं चुस्कियां,
अब नहीं बजतीं घरों में
कूकरों की सीटियां
टिकटिकाती
भी नहीं कोई घड़ी
चलती निरन्तर
फुसफुसातीं हैं महज़ अब
पायलें औ चूड़ियां,
बस इशारों में समझते हैं
लिफाफे चिट्ठियां
गिट्टियों सीमेंट
वाले मन
हुए हैं ईंट पत्थर
रात दिन बस पोपले मुख
बुदबुदाहट, आहटें
बिस्तरों से बात करती हैं
यहां खिसियाहटें
गेट दीवारें
पड़ी सूनी सड़क तू
आह मत भर
दोहे
सिरहाने की चुप्पियाँ, पैताने की चीख।
मौन देह की अस्मिता, मृत्यु-पाश की भीख।।
दीवारें, ईंटें सभी, रोईं हर-पल साथ।
दरवाजे,छत,खिड़कियां, छोड़ चले अब हाथ।।
खेत-मेंड़ लिखने लगे, फसलों का सन्दर्भ।
देख इसे चुपचाप है, क्यों धरती का गर्भ??
मुड़ा-तुड़ा कागज हुआ, सूरज का विश्वास।
बादल भी लिखने लगे , बुझी अनबुझी प्यास।।
टूट टूट गिरने लगे, नक्षत्रों के दाँत।
उम्मीदें रूठी हुईं, ऐंठ रही है आँत।।
भूल गया मानव यहाँ,रिश्तों का भूगोल।
भीतर बैठा भेड़िया, ऊपर मृग की खोल।।
जटिल हुई जीवन्तता , टूट गए सम्वेद।
उग आये फिर देह पर,कुछ मटमैले स्वेद।।
बाहर सम्मोहन दिखा,भीतर विषधर सर्प।
अनपढ़ चिट्ठी ने पढ़े, अक्षर अक्षर दर्प।।
कथरी,कमरी,चीथड़े,फटी पुरानी शाल।
ओढ़े दुबकी है व्यथा,कोने में बेहाल।।
स्वाहा होते कुण्ड में, आशाओं के मंत्र।
धुआँ हुए परिवेश से, परिचय का गणतंत्र।।
भूख-प्यास से त्रस्त है, लोकतंत्र का पेट।
हवा चिताओं से रही,सुलगाती सिगरेट।।
विक्रम भी चुपचाप हैं,ओढ़े मोटी खाल।
प्रजातन्त्र की रीढ़ पर,चढ़ बैठा बेताल।।
दशा-दिशा दोनों हुए, शोषित,दलित, निरीह।
जातिवाद की डायनें,नहीं डाँकतीं डीह।।
संविधान किससे कहे,अपनी व्यथा असीम।
राजनीति ने कर दिए,कितने राम-रहीम ?
‘राजा गूँगा है यहाँ,बहरी है सरकार’।
कहते-कहते इस तरह,प्रजा गिरी मझधार।।
बूढ़े बरगद की जड़ें,भूख-प्यास से त्रस्त।
शाखा-गूलर-पत्तियाँ, सब अपने में मस्त।।
बौराने के ढेर बहाने
धूप लगाकर नेह-महावर
उतर गई सागर के जल में,
फगुनाई फिर याद तुम्हारी
आकर बैठ गई सिरहाने
फागुन-रंग,बसन्त-गुलाबी
पनघट,नदी,चाँदनी रातें,
भीग रहा मेरा मन हर पल
चाह रहा करना कुछ बातें
पोर-पोर मथने को आतुर
हरसिंगार की खुशबू वाली
हौले से आकर पुरवाई
फिर से लगी मुझे बहकाने
उठी गुदगुदी मन में तन में
मोरपंखिया नई छुवन से,
परकोटे की आड़ लिए जो
नेह-देह की गझिन तपन से,
सूरज की अनब्याही बेटी
आभा के झूले पर चढ़कर
कुमकुम रोली को मुट्ठी में
आकर फिर से लगी उठाने
अधरों पर पलाश की रंगत
पिए वारुणी दशों दिशाएँ,
आगन्तुक वासन्ती ऋतु का
आओ अवगुण्ठन सरकाएँ
किसिम-किसिम की मंजरियों पर
कनखी-कनखी दिन बीते हैं,
साँसें फिर से खोज रही हैं
बौराने के ढेर बहाने
पसीने छूट रहे हैं
कर्क राशि से
मकर राशि तक
मौसम है ग़मगीन
पसीने छूट रहे हैं
विषधर जैसा
फन फैलाये
चिलक रहा है सूरज,
धूप कुँवारी
चमक रही है
जैसे कोरा कागज,
क्षणभंगुर
छाया बादल की
उघरी देह जमीन
पसीने छूट रहे हैं
थकी हुई
खिड़की पर बैठी
निपट अभागिन पुरवाई,
हाँफ रहे
दिन-सुबह-साँझ पर
रातें करें ढिठाई,
ऊँघ रही पेड़ों के नीचे
छाया मोट-महीन
पसीने छूट रहे हैं
उथली
नदियों के पारंगत
जलचर भी उतराये,
रेत भाग्य में
लिखी हुई अब
अपने प्राण गंवाये
प्रश्न अढाई गुना बढ़े तो
उत्तर साढ़े तीन
पसीने छूट रहे हैं
आँगन की बूढ़ी खाँसी
सही नहीं
जाती है घर को
आँगन की बूढ़ी खाँसी
दरवाजे पर करती रहती
साँसों से प्रतिवाद,
बाँच पोथियाँ ज्ञानी जैसा
करती है संवाद,
दीवारें,खिड़कियां
सीढियां
लेने लगीं उबासी
धोखे में ही बीत गया है
अरसा लम्बा हिस्सा,
बीमारी के दलदल में ही
जीवन भर का किस्सा,
वसा विटामिन
रहित सदा ही
मिलता भोजन बासी
सहयात्री के साथ नया
अनुबन्ध नहीं हो पाया,
छतें,झरोखे,अलगनियों
के साथ नहीं रो पाया
पीड़ाओं का
अंतर भी अब
है घनघोर उदासी
विक्रम हैं बेहाल
विक्रम के
सिंहासन पर
है प्रश्नों का बेताल,
टूटे पहिये
वाले रथ का
चलना हुआ मुहाल।।
सभासदों के
अपनेपन में
निष्ठुर स्वार्थ झलकता,
चौखट के
समीप में कोई
अग्निबीज है उगता।
परिचपत्रों
पर फोटो के
ऊपर फोटो रखकर,
जनता की
आँखों से कॉपी
मंत्री रहा निकाल।।
कानों में
जबरन घुस आतीं
फ़ब्ती गन्दी बातें,
गली नुक्कड़ों
चौराहों पर
सहम रही हैं रातें,
मांस नोचते
लाशों के
व्यापारी सुबहो शाम
समय धार्मिक
चिन्तनवाला
कीचड़ रहा उछाल।।
जीत-हार के
पाटों में हम
घुन जैसे पिसते हैं,
भींच मुट्ठियाँ,
कान छेदतीं
दुत्कारें सहते हैं।
मछली अच्छी
मगरमच्छ या
बगुला भगत समर्पण,
इस चिंतन में
कई दिनों से
विक्रम हैं बेहाल।।
सो नहीं पाया मुंगेरी
छल रहे कुछ
स्वप्न जिसको
नींद की चादर तले,
सो नहीं
पाया मुंगेरी
जागता ही रह गया।।
तोड़ सीमाएँ
विनय की
खूँटियों पर द्वंद्व लटके,
पालकर विग्रह
नियम के
नेह ने फिर पैर पटके,
कामनाओं की
नुकीली
सूईयों से अर्थ लेकर,
देह के
पैबन्द चुपके
टाँकता ही रह गया।।
घोर आलोचक
समय का
सुर्ख़ियों में आजकल है
युग मशीनों का
हुआ जब
भूख की बातें विफल हैं,
यन्त्रणाएँ
आँत का ही
आकलन करती रही फिर,
रातभर
विषपान का दुख
टीसता ही रह गया।।
बचावें राम रमैया
अपने पूरे रोब दाब से
चढ़ा करेला नीम
बचावें राम रमैया
टूट गई
खटिया की पाटी
बैठे,सोये किस पर,
अब उधार
की बात करे क्या
गिरवी छानी-छप्पर,
लेटे हैं टूटे मचान पर
चुप्पी और नसीम
बचावें राम रमैया
बंधक है
लाचार व्यवस्था
किससे व्यथा सुनाये,
हाल हस्तिनापुर
जैसा अब
दुर्योधन धमकाये
राजनीति की दशा हो गई
जैसे नीम-हक़ीम
बचावें राम रमैया
मंदिर-मस्जिद
चर्च हर जगह
आडम्बर-सम्मोहन,
माँग और
आपूर्ति धार्मिक
व्यापारों के बन्धन
टुकड़े-टुकड़े गये बिखेरे
कितने राम-रहीम
बचावें राम रमैया
कब उठेगा शोर, किस दिन
चुप्पियों के मरुस्थल में
बड़बड़ाती हैं हवाएँ
कब उठेगा शोर, किस दिन ?
अट्टहासों की नटी के
हाथ काली तख्तियाँ हैं
हर सड़क पर उलझनें हैं
दर्पणों में भ्रांतियाँ हैं
टेक घुटने गिड़गिड़ाती
संस्कारी वर्जनायें
कब उठेगा शोर, किस दिन ?
हर समय आखेट का भय
अग्निपंखी बस्तियों में
चोट खाये शब्द व्याकुल
हैं सुबह की सुर्खियों में
अवसरों की ताक में हैं
भीड़ की भौतिक दशायें
कब उठेगा शोर, किस दिन ?
कहकहों के क्रूर चेहरे
क्रोध में सारी दिशायें
रक्तरंजित हो चुकीं हैं
विश्ववन्दित सभ्यतायें,
शीतयुद्धों में झुलसती
जा रही संवेदनायें
कब उठेगा शोर,किस दिन ?
रात लम्बी है बहुत ही
और है गहरा अँधेरा
मौन बैठा है क्षितिज पर
ऊँघता सा फिर सवेरा,
साजिशों के पास गिरवी
अस्मिता की धारणाएँ
कब उठेगा शोर, किस दिन ?
प्यास मिली केवल बस्ती को
घोर निराशाओं का जँगल,
प्यास मिली केवल बस्ती को
चुप बैठो, मत कहो किसी से!
हथकण्डों की मायानगरी
खण्डित आशा-रिश्ते-नाते
रंग-बिरंगे झंडे-बैनर
सपनों का हर महल ढहाते,
मीट्रिक टन-क्विंटल ने आख़िर
कुचल दिया माशा-रत्ती को
चुप बैठो, मत कहो किसी से!
टूटी खटिया पर नेता जी
बैठ रहे हैं जान-बूझकर,
खेत और खलिहान झूमते
बोतल,वादे,हरी नोट पर,
टुन्न पड़ा है रामखिलावन
कैसे समझायें झक्की को
चुप बैठो, मत कहो किसी से!
लोकतंत्र या राजतन्त्र यह
स्थिति बद से भी बदतर है,
प्रश्नों के जाले में उलझा
संविधान का हर अक्षर है,
हत्यारी हो गईं हवायें
नोच रहीं पत्ती-पत्ती को
चुप बैठो, मत कहो किसी से!