एक अच्छा देश
एक दिल्ली जो हम सब अपने साथ गांव से लाये
खाली कमरे के कोने में पड़ी हांफ रही है
खुरदरे फर्श पर एक काला रेडियो बोल रहा है
चंद काग़ज़ सादे
जिन पर हम लंबी कहानियां लिखेंगे
पीले बेरोज़गार दिनों के धब्बे बटोर रहे हैं
एक विचार तो ये भी है कि पहाड़ पर एक घर हो
और दिमाग़ में लंबी खामोशी
ये भी कुछ वैसा ही है
जैसे एक अच्छी नौकरी, ऊंचा ओहदा
उन लोगों के फार्म हाउस जैसा जिनका दिल्ली में भी अपना घर होता है!
गांव में चार कट्ठा ज़मीन है
एक टूटता हुआ पुराना घर
संदूक में रखे कुछ सुनहरे बर्तन सदियों की धूल में सने
सब कुछ जैसे एक भरोसा कि जेब भरी हुई है
लेकिन अच्छी खामखयाली गुलज़ार कहें तभी ठीक है
उनके पास हिंदी फिल्में हैं, एक बड़ा प्रकाशक है और डूबी हुई आवाज़ है
हम किरायेदार हैं दीवारों से झड़ती हैं परतें
सुबह पानी के खाली गिलास सी प्यासी, जलते कंठों की कूक में लिपटी हुई
अभी पूरा दिन पड़ा है
देह थकी सदियों सी बेजान
कुछ लोग कभी कोई काम नहीं कर पाते
हाथों की उन लकीरों की तरह जो बेजान होकर भी ज़िंदा दिखते हैं
उन कुछ लोगों के पीछे हम बहुत सारे रोज़ खड़े हो जाते हैं
और दिल्ली है एक छोटा सा दफ्तर
जहां सिफारिशें हैं, रिश्वत है, देह व्यापार है, दलाली है
हम सिर्फ कवि नहीं हो सकते
हम भी हो सकते हैं बेईमान
लेकिन वे बड़े बेईमान हमारी ख्वाहिशों से भी बहुत बड़े हैं
नाम अमर सिंह हुनर चतुराई धंधा राजकाज
खूब चमक रहा है सब कुछ
बेडौल खरबूज-सी देह पर सज रहे हैं चमकीले सूट
जीभ पर लपलपाते हुए षेर मीडिया की वाहवाही लूटते हैं
कमरे में बहुत पुरानी चादर मुड़ी-मुड़ी सी
लकड़ी की एक पुरानी कुर्सी
बरसों पुराना अंधेरा जाना पहचाना किसी उजास से नफ़रत करता
चाहतों के पंख होते हैं
प्रतिभा की दलील होती है
एक अच्छा सिनेमा उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे मीना कुमारी
एक अच्छी कविता उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे मुक्तिबोध
एक अच्छी कहानी उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे प्रेमचंद
एक अच्छी राजनीति उतनी ही बड़ी हसरत है जैसे भगत सिंह
एक अच्छे देश को और अच्छा बनाने की हसरत अभी बाक़ी है
अभी तो ये दलालों के जबड़े में है!
विनम्रता
वह सब लिखा जा चुका
जो सबसे बेहतर हो सकता है
जिन्न की कहानी
परियों की कविता
गणित के सवाल
विज्ञान की बारीकी
विचार ज़िंदगी की उधेड़बुन में फूटते हैं
एक अच्छा मकान
चिकनी सड़क
साफ हवा
सीधी धूप वाली बालकनी
बैंक की आसान सुलझी हुई किस्तें विचार के रास्ते में बाधा हैं
एक नये बनते शहर में पुराने विचार ज्यादा काम आते हैं
वह सब सोचा जा चुका जो सबसे बेहतर हो सकता है
जाति के समीकरण
मज़दूरों की मुक्ति
दलितों का समाजशास्त्र
आधुनिकता का उत्कर्ष
सादा काग़ज़ खाली दिमाग़ अनबुझी प्यास
उत्तम रचना के लिए ख़तरनाक है
जहां मेट्रो की सरपट लाइनें बिछ रही हैं
वहां बेरोज़गारों का क्या काम
वे सारी भर्तियां हो चुकीं जो सबसे बेहतर हो सकती हैं
बैंक में क्लर्क
रेलवे में गार्ड
मीडिया में नौकर
होटल में बैरा
इस हरी-भरी पनियल धरती पर अनगिन मकान
काली गंधाती सड़ी हुई नदी के किनारे अनगिन झुग्गियां
वे कहां जाएंगे जिनका पुश्तैनी घर किसी गांव में था
बचपन के दोस्त की आखिरी चिट्ठी में ढह चुका
अखबार के वर्गीकृत विज्ञापनों में वे सारी हसरतें भरी जा चुकीं
जो सबसे बेहतर हो सकती हैं
सोसाइटी में फ्लैट
एक अच्छी वधू
विदेश की उड़ान
लॉटरी के नंबर
वो गीत लिखा जा चुका जो सबसे बेहतर हो सकता है
छोटे-छोटे शहरों से ऐसी भोर-दुपहरों से हम तो झोला उठा कर चले
अब क्या बचा है इस शहर में जहां प्रधानमंत्री रहते हैं
न सोचने की ताक़त न जीने की चाह
सफल लोगों की दुनिया में सबसे अधिक बसते हैं हारे हुए लोग
हम हारे हुए लोग
बेहतर रचना की प्रतीक्षा में
रिक्त होते जाएंगे
और वे उतनी ही पुरानी कविता उतना ही पुराना विचार सुनाएंगे
जितना पुराना अहंकार है
विनम्रता इस दुनिया की सबसे हसीन चीज़ है
जो किसी भी रचना नौकरी मकान गीत विचार से बेहतर
हारे हुए लोगों की सबसे बड़ी हिम्मत है!
सुख की स्मृतियाँ
जब सुख के मोती हों आंगन में बिखरे
तो मुहब्बत का पुराना गीत याद आता है
एक गोरैया आती है सूखे नलके की टोंटी पर दो पल के लिए
जामुन की दोपहर याद आती है
कमरे में हो दिल्ली की धूप
उखड़ी लिखावट में वो ख़त याद आता है
दो पंक्तियों के बीच छिपा शब्द संकेत
आना पुरानी नदी के किनारे
जब गोधूलि की गंध लिये पूरा गांव लौट रहा हो गांव की ओर
सबका प्रेम सबकी कहानी
कह चुके कलमनवीस
मेरी कहानी अब भी बची है
लैला और सोहणी खुद को जितना जानती थीं
उससे भी अधिक जानते थे उन्हें गुरबख्श सिंह
कागा सब तन खाइयो चुन चुन खाइयो मास
दो नैना मत खाइयो मोहे पिया मिलन की आस
सब कुछ कहने के बाद भी बचता है अनकहा
वो रोशनी प्यार की उंगलियों में अंगूठी की तरह पहने हुए
रहस्य की पगडंडी पर चलते थे
उम्र के साथ फिसल गयी
सूखी घासों में हम अब भी ढूंढते हैं अपना बचपन
हरा तोता
श्वेत बकुल
पीली तितली
और आसमानी आंखोंवाली वो लड़की
सुख में ही होती है फुर्सत
कि आप सुबह टहल सकें
दोपहर में सो सकें
और शाम की मुंडेर पर खड़े होकर कटती हुई पतंगों को देख सकें
सभी औरतें क्यों लगती हैं बचपन की सखियों-सी?
एक सफल दांपत्य क्यों होता है रिक्त स्थानों से भरा?
शास्त्र रचने वाले पंडित हमारी बेचैनियों का दंड तय करें
उन यादों से खदेड़ने की तरक़ीबें बता दें
जो हमारी हार पर हंसती हैं
बचपन का प्रेम सबने हारा
तेल में चुपड़ी दो चोटियों से झूलता हुआ लाल रिबन
हमारी ज़िन्दगी से ऐसे निकल गया
जैसे जाती हुई बहार चली जाती है
चुपचाप
बरसों बीत जाने के बाद
रेल के किसी सफर में
मातृत्व की करुणा में लिपटी हुई स्त्री का एक ही संबोधन होता है
‘भाई साहब’
वही तो है, जिसके जूड़े में हरसिंगार के फूल सजाता
वही तो है, जिसकी रातें अमावस के अंधेरे से चुरा कर
चांदनी के महकते बगीचे में ले जाता
वही तो है, जिसका सुख ही मेरा पसंदीदा गीत था
पुराना सुख लौट कर नहीं आता
दुख के झकोरों-सी आती हैं उसकी यादें
सुखी जीवन पर दस्तक देती है पुरानी मोहब्बत
मैं अपना दांपत्य बचाना चाहता हूं
शास्त्र रचने वाले पंडित
हमें उन यादों से खदेड़ने की तरक़ीबें बता दें!
कवि मित्र जो कहें सो कहें
हमारे पास है पृथ्वी जितना मन
पेड़ पौधे अनंत
नदी में बहते हुए मिट्टी के अनगिनत कण
समंदर का खारा पानी
जहां जहां गयी यह देह वहां वहां घूमा मन
सबसे ज्यादा रहा एक कस्बे में
उससे थोड़ा कम दिन
पटना में गंगा किनारे रात बिरात
यहीं चढ़ीं वो गालियां जुबान पर
जो मुल्क के सत्तर फीसदी समाज में बोली भुनभुनायी जाती हैं
लेकिन कविता के चैराहे पर आकर
हमारी भाषा संपादित हो जाती है
कविता में एक अच्छा आदमी बनने की होड़ में हैं हमारे कवि
दस लोगों के बीच सबसे अधिक गैर मनुष्य
अपने गांव में श्रमविहीन अन्न की कश्ती पर सवार
वे पार करना चाहते हैं इतिहास की सरहद
एक लघुपत्रिका में उन्होंने पढ़ा-
कविता इतिहास से अधिक मूल्यवान है, शाश्वत है
उन्हें संतोष है- कविता का उनका इतिहास
इसी विचार की बुनियाद पर लिखा जाएगा
वे सचिवालय में घूस लेंगे
ट्रेन का टिकट लेंगे तो इस डर से कि कहीं टीटी पकड़ न ले
जुलूस में शामिल होंगे कि उन्हें क्रांति की कतार का कवि माना जाए
और एक रिक्शे वाले से पांच रुपये के लिए गाली-गलौज करेंगे
लेकिन कविता के एकांत में उनका हृदय पिघल जाएगा
वे मनुष्यता के गीत लिखेंगे
दयित्व की कड़ियां जोड़ेंगे
दया के छंद रचेंगे
श्रोता समाज आंखों में पानी भर भर कहेगा- वाह!
मैं भी होना चाहता हूं कवि
कविता में बड़ा नाम है
लेकिन सम्पादक बैरंग वापिस कर देते हैं कविता के लिफाफे
मैं दुखी होकर गाली देता हूं
और मुल्क के सत्तर फीसदी समाज में शामिल हो जाता हूं
यहां कितना संतोष है!
संताप मिटाने वाले सैकड़ों रिश्ते!
मैं कविता की रेत पर रचना चाहता हूं ढेर सारी गाली
कवि मित्र जो कहें सो कहें!
आधी रात को इंसाफ़ का रिवाज़ नहीं
किसी भी वक्त में
उस एक आदमी के ख़िलाफ कुछ भी नहीं कहा जा सकता
जो सबके बारे में कुछ भी कहने को आज़ाद है
और आज़ाद भारत उसके लफ़्ज़ों का इस्तिक़बाल करने को इतना मज़बूर
कि एक देश देश नहीं
बूढ़ी-बेकार-बदबूदार हड्डियां लगे
मुझे उस औरत से हमदर्दी है
जिसका जवान बेटा बंदूकों से सजी सेना वाले देश में
बेक़सूर मारा गया
दंगे में नहीं, दिल्ली की बमबारी में
और शातिर सरकार ने मुआवज़े की मुनादी की
लेकिन वो औरत उसकी हक़दार नहीं हो सकी
क्योंकि उससे और उसके पति से उसके जवान बेटे का डीएनए अलग था
मेरी हमदर्दी मुआवज़े के ख़ाक हो जाने के कारण नहीं है
है, तो इसलिए कि जवान बेटे की लाश
सरकारी ख़ज़ाने में सड़ती रही
और आवारा जला दी गयी
लेकिन आख़िर तक नहीं माना गया कि
एक जवान बेटा अपनी उसी मां की औलाद है
जिसकी गोद में वह बचपन से बेतक़ल्लुफ़ था
वह आदमी भी खामोश रहा
और उसकी खामोशी कई मांओं से उनके बेटे छीनती रही
वह आदमी एक नकली इंसाफ का नाटक रचता है
और जनता की जागीर सरकारों पर फिकरे कसता है
उस आदमी को चेहरे की निर्दोष चमक से ज़्यादा
ख़रीदे गये सबूतों पर यक़ीन है
उसे तो इतना भी नहीं पता
कि आंखों का पानी सदियों से नमकीन है
ये मुहावरा अगर पुराना नहीं पड़ चुका
और भाषा में अब भी असरदार है
तो सचमुच उस आदमी की थाली में छेद ही छेद हैं
मकान-दुकान की अफरात षान के उसके बरामदे में
तारीख़ें हैं, गवाह हैं, रज़िस्टर हैं, रहस्य हैं, भेद हैं
उस आदमी की औकात के आगे हमारा होना किस्सा है
नदी का बहना किस्सा है
चांद रातों की रोशनी किस्सा है
मज़दूर की मेहनत और उसके घर का बुझा हुआ चूल्हा किस्सा है
हक़ीकत सब उसकी मुट्ठी में क़ैद है
जाहिर है, क्योंकि इंसाफ की नज़र
दस से पांच के उसके सरकारी वक़्त के लिए मुस्तैद है
मेरी नन्हीं बेटी को दरिंदों ने नोच लिया है
वह दौड़ती हुई मेरे पास आकर मुझसे भी डरी हुई है
सरकार के थाने उसे लालची नज़रों से देख रहे हैं
रात के बारह बजे अंधेरे उसे नोच रहे हैं
भोर तक उसके दिल की आग… नफरत… वह खुद दफ्न हो जाएगी
और इस वक़्त इंसाफ का वह मालिक गहरी नींद में है
उसे जगाया नहीं जा सकता
आधी रात को इंसाफ का रिवाज़ नहीं है!
अब सबके अहाते में अपने हैं राम
बजाते हैं नौकरी उठाते हैं जाम
मेरी नौज़वानी को बारहा सलाम
थके गाँव के मेरे बूढ़े हितैषी
जो कहते कमाया है मैंने बहुत नाम
वो भी… जो बचपन के हमउम्र हमराज़
बेरोज़गारी में काटे हैं सब शाम
कि मुन्ना तू अब तो बड़ा आदमी है
कहीं भी लगा दो दिला दो कोई काम
मैं गाहे ब गाहे कई रेल चढ़ कर
हुलस कर जो जाता हूँ अपने ही गाम
तो दुपहर का सूरज कसाई-सा लगता
और बेमन बगीचे में सुस्वादु आम
नदी थी किनारे लबालब लबालब
दिखती वहाँ अब हैं रेतें तमाम
दो एक दिन जैसे बरसों का बोझा
सुकून ओ अमन का कहां है मुकाम
मेरे बोल शहरी तो ऐसे ही फूटें
बोली वो काकी और कक्का बलराम
मगर सच है सौ फीसदी पहले थे सबके
अब सबके अहाते में अपने हैं राम
अब रूक कर बदलना बड़ी बात होगी
मैं शहरी…शहर में है अपनी दुकान
वहीं बैठ कर गीत लिक्खा करेंगे
कि रौशन है दुनिया, मेहनतकश अवाम !
सिनेमा हॉल के बाहर का सिनेमा आँखों में ज़्यादा बसता है
कुछ वक्त कुछ बेवक्त मगर अक्सर तीन बजे
या उससे थोड़ा पहले, जब धूप का ताप अधिक महसूस होता है
हमारी कालोनी के अंत में या शुरू में बने सिनेमा हाल से
(जो तब बना था, जब हॉल में बैठ कर कैम्पा कोला पीने वाले
सबसे अमीर होते थे)
निकलती हुई पसीने में भीगी भीड़ पर हमारा रिक्शावाला
घंटी बजाता रह जाता है
वरना अमूमन सुबह-शाम ऑफिस आने-जाने के वक्त में
आश्रम और आईटीओ-लक्ष्मीनगर पुल पर जो जाम लगते हैं…
ठीक वैसा ही जाम तो नहीं लगता
लेकिन इच्छा होती है – सिनेमा हाल से निकल कर लोग
सभ्यता से सड़क की बायीं तरफ एक कतार में क्यों नहीं चलते!
किसी का रिक्शा किसी की रेहड़
किसी की चुप्पी किसी के तेवर
कहीं नहीं दिखते हैं जेवर
तांबई चमक से तने हुए ललाट से कंधे पर टपकती
है पसीने की बूंद जिसमें मिली है एक कहानी, कुछ
मार-धाड़, बेपनाह रोशनी, तिलस्मी अंधेरा,
हांफते हुए चेहरे
सिनेमा हाल से निकल कर असीम शांति
मन में घुमड़ते हुए उल्लास से ज्यादा जल्दी में हम हैं
लेकिन मुख्य मार्ग की ट्रैफिक पुलिस यहां हमारा साथ देने कभी
नहीं आएगी वो यहां के लिए नहीं होती
हमारे मन में लगे जाम को हटाने के लिए नहीं होती है ट्रैफिक पुलिस
ये गरीब लोग हैं, जो अभी पुराने सिनेमा हॉल में बासी
फिल्में देख कर उनसे ज्यादा आनंद पाते हैं जो नई सदी के
सिनेमा हालों में आज की बनी फिल्म आज ही देख कर
गंभीर सावधानी के साथ निराश समीक्षक की तरह निकलते हैं
धोबी ने पतलून प्रेस की पहनी नयी कमीज
सौ रुपये में देख सिनेमा पटक रहे हैं खीझ
ये आदम की नयी नस्ल हैं इनकी यही तमीज
कहीं कहीं से क्रीज उखड़ गयी है अंधेरे में जानवर की तरह लड़की
को चूमते-चाटते दरअसल और लंबी चलनी थी फिल्म मगर
समय के संक्षिप्त इतिहास में अवसर का दरवाजा
फिलहाल बंद होने के बाद बुझे-बुझे मॉल से निकलते हुए
ये यूं ही लगते हैं निस्तेज, अनाकर्षक
घर पहुंच कर याद आता है रास्ता गुलाबी पॉलिस्टर सलवार-कमीज पर
उसी रंग की ओढ़नी जिसका कोर लहराता है पीछे-पीछे और उंगलियों से
छू लेने को जी चाहता है जब तक चेहरा सामने नहीं आता
तब तक हमारे मन में एक पूरी प्रेम कहानी बनती है और यूं ही बिगड़
जाती है वो कालोनी से सटे सीलन भरे कमरों वाले मोहल्ले की सबसे पतली
गली में चली जाती है
अगले हफ्ते किसी दिन नून शो से निकलते हुए ऐसे ही दिख जाएगी
होता यह है कि जो कहानी अंधेरा मारधाड़ सांसों की धौंकनी सिनेमा हॉल के अंदर
चलती है जहां करोड़ों का सिनेमा बनता है रुपयों में देखा जाता है और गणित का
हिसाब अरबों के ठिकाने लगता है
होता यह है
कि उस सिनेमा हाल के बाहर का सिनेमा
आंखों में ज्यादा बसता है
हिन्दी मेरी भाषा
हमारे दोस्त कुछ ऐसे हैं
जो दरिया कहने पर समझते हैं कि हम किसी कहानी की बात कर रहे हैं
उन्हें यक़ीन नहीं होता कि समंदर को
समंदर के अलावा भी कुछ कहा जा सकता है
सब्जी को शोरबा कहने पर समझते हैं
ये मैं क्या कह रहा हूँ
ऐसा तो मुसलमान कहते हैं
यहाँ तक कि गोश्त कहने पर उन्हें आती है उबकाई
जबकि हज़ारों-हज़ार बकरों-भैंसों को
कटते हुए देखकर भी
वे गश नहीं खाते
शायद इंसानों के मरने का समाचार भी उन्हें वक़्त पर खाने से मना नहीं करता
हमारे गाँव में भी अब बोली जाने लगी है हिंदी
पर उस हिंदी में कुछ दिल्ली है, कुछ कलकत्ता
लखनऊ अभी दूर है
शहरों में होती हैं भाषाएँ तो भाषा में भी होते हैं शहर
दोस्त कहते हैं
तुम्हारी हिंदी में सरहद की लकीरें मिट रही हैं
ये ठीक नहीं है
पिता खाने की थाली फेंक देते हैं
बहनें आना छोड़ देती हैं
पड़ोसी देखकर बचने की कोशिश करते हैं
मैं अपनी हिंदी में खोजना चाहता हूँ गाँव
एक शहर जहाँ दर्जनों तहजीबें हैं
वे सारे मुल्क़ जहाँ हमारे अपने बसे हुए हैं
दोस्तों की किनाराक़शी मंज़ूर है
मंज़ूर है हमारे अपने छोड़ जाएँ हमें
मुझे तो अब गुजराती भी हिंदी-सी लगने लगी है
‘वैष्णव जन तो तेणे कहिए जे
पीर परायी जाणी रे’
हम जितना मुलायम रखेंगे अपनी जबान
हमारे पास उतने मुल्क़ बिना किसी सरहद के होंगे
कितना मर्मांतक है दुनिया भर के युद्धों का इतिहास!
यादों की राहगुज़र
सब हैं अपना घर भी है मन खाली खाली रहता है
कभी गांव की नदी कभी आमों के बीच ठहरता है
वो इस्कूल कि जिसमें बचपन की सखियों का संग रहा
अब यादों के चेहरे पर पानी भी नहीं टपकता है
मिट्टी महंगी, लकड़ी महंगा, आग, धुआं सब महंगा है
ज़हर भरी बोतल शराब की जान गंवाना सस्ता है
शहर शहर में शहर शहर है बिजली और सिनेमा है
अपना गांव अभी भी लेकिन अंधेरे में रहता है
हम दिल की गुलज़ार गली में पूरी उम्र गुज़ार चुके
प्यार का मौसम फिर आएगा बच्चा बच्चा कहता है
एक पुरानी चिट्ठी खोली उखड़ रही थी स्याही सब
नीलकंठ काली कोयल की कूक गुलाब महकता है
सुबह दोपहर शाम सेठ के आगे पीछे करते हैं
बेशर्मी से भरा हुआ श्रम बन कर घाव टभकता है
सब कुछ किस्मत का लेखा कह कर हम भाग निकलते हैं
लेकिन रोयां-रोयां बोले सब बाज़ार में बिकता है
वो परसों ही बोल रही थी भूल गये ना तुम हमको
मेरी चुप्पी मेरा तन्हा वक्त मुझे झुठलाता है
हालाँकि अब भी लोग काम कर रहे हैं
वहाँ जहाँ जीवित लोग काम करते हैं
मुर्दा चुप्पी-सी लगती है जबकि ऐसा नहीं कि लोगों ने बातें करनी बंद कर दी हैं
उनके सामने अब भी रखी जाती हैं चाय की प्यालियाँ
और वे उसे उठा कर पास-पास हो लेते हैं
एक दूसरे की ओर चेहरा करके
देखते हैं ऐसे जैसे अब तक देखे गए चेहरे आज आख़िरी बार देख रहे हों
सब जानते हैं पूरा वाक्य लिखना और अधूरे वाक्य के बाद उनका दिमाग सुन्न पड़ जाता है
एक लंबे अभ्यास की छाया में मशीनी रूप से पूरे होते हैं वाक्य
और जिनमें अनुपस्थित रहता है एक सचेत नागरिक और निष्पक्ष पत्रकार
ये अनुपस्थिति तो यूँ भी रहती आई है
लेकिन हालात बताने के लिए
तमाम विरोधाभास के बावजूद इसका ज़िक्र अभी ज़्यादा ज़रूरी है
बचत के लिए कम की गई रोशनी और बाँटे गए अंधेरे में
आशंका की आड़ी-तिरछी रेखाएँ स्पष्ट आकृति में ढल रही हैं
सबके पास इसका हिसाब नहीं है कि दो महीने बाद मकान का किराया कैसे दिया जाएगा
राशन दुकानदार से क्या कहा जाएगा
और जिनके बच्चे हैं वे उनकी ज़िद को ढाढ़स के किस रूपक से कमज़ोर करेंगे
हालाँकि अब भी लोग काम कर रहे हैं
और उन्हें काम से निकाला नहीं गया है!
अब मैं यहीं ठीक हूँ
एक गाँव था जो कभी वही एक जगह थी जहाँ हम पहुँचना चाहते थे
एक घर बनाना चाहते थे ज़िंदगी के आख़िरी वर्षों की योजना में खाली पड़ी कुल चार कट्ठा ज़मीन पर
एक दालान का नक्शा भी था जहाँ खाट से लगी बेंत की एक छड़ी के बारे में हम सोचते थे
बाबूजी के पास कुछ सालों में नयी डिजाइन की एक छड़ी आ जाती थी
बाबा के पास एक छड़ी उस रंग की थी, जिसका नाम पीले और मटमैले के बीच कुछ हो सकता है
उनके चलने की कुछ डूबती सी स्मृतियाँ हैं जिसमें सिर्फ़ आवाज़ें हैं
खट-खट-खट एक लय में गुँथी हुई ध्वनि
अक्सर अचानक नींद से हम जागते हैं जैसे वैसी ही खट-खट अभी भी सीढ़ियों से चढ़ कर ऊपर तक आ रही है
वही एक जगह थी, जहाँ जाकर हम रोना चाहते थे
लगभग चीख़ते हुए आम के बग़ीचों के बीच खड़े होकर
रुदन जो बग़ीचा ख़त्म होने के बाद नदी की धीमी धार से टकरा कर हम तक लौट आता
सिर्फ़ हम जानते कि हम रोये
थकान और अपमान से भरी यात्राओं में बहुत देर तक हम सिर्फ़ गाँव लौटने के बारे में सोचते रहे
सोचते हुए हमने शहर में एक छत खरीदी
सोचते हुए हमने नयी रिश्तेदारियों का जंगल खड़ा किया
सोचते हुए हमने तय किया कि ये दोस्त है ये दुश्मन ये ऐसा है जिससे कोई रिश्ता नहीं
सोचते हुए ही हमने भुला दिये गाँव के सारे के सारे चेहरे
एक दिन गूगल टॉक पर ललित मनोहर दास का आमंत्रण देख कर चौंके
ऐसे नाम तो हमारे गाँव में हुआ करते थे
जैसे हमारे पिता का नाम लक्ष्मीकांत दास और उनके चचेरे भाई का नाम उदयकांत दास है
स्वीकार के बाद का पहला संदेश एक आत्मीय संबोधन था
मुन्ना चा
हैरानी इस बात की है कि इस संबोधन का मुझ पर कोई असर नहीं था
इस बात की जानकारी और ज़िक्र के बावजूद कि संबोधन का स्रोत दरअसल गाँव ही है
वो एक लड़का जो मेरी ही तरह गाँव से निकल कर अब भी गाँव लौटने की बात सोच रहा है
लेकिन अब मैं सोच रहा हूं एक दूसरे घर के बारे में
जो बुंदेलखंड या पहाड़ के किसी खाली कस्बे में मुझे मिल जाता
मंगल पर पानी की तस्वीरों के बाद
एक वेबसाइट पर मामूली रकम पर
अंतरिक्ष में ज़मीन खरीदने की इच्छा भी जाग रही है
अपनों के बग़ैर की गई यात्रा में बहुत दूर तक साथ रहीं स्मृतियाँ
जिसमें चेहरे थे और थे कुछ संबोधन
सब छूट गया सब मिट गया अब सिर्फ़ मैं हूँ
मेरी उंगलियाँ कंप्यूटर पर चलती हैं आँखें स्क्रीन पर जमती हैं
कोई दे जाता है चाय की एक प्याली बगल में
मै कृतज्ञ हूँ अपने वर्तमान का
पुरानी तस्वीरों से भरा अलबम पिछली बार शहर बदलते हुए कहीं खो गया!
यही वो नन्दीग्राम है
सूखे चेहरे
शव क्षत-विक्षत
सीना ताने
वाम है
बुद्धदेब के बुद्धिजीवी, यही वो नन्दीग्राम है !
सड़कों पर सन्नाटा तैर रहा है पूरे गाँव में
बचे हुए बच्चे भूखे हैं नील गगन की छाँव में
गुज़री सुबह
ओसारे की
सूखी मिट्टी पर
शाम है
बुद्धदेब के बुद्धिजीवी, यही वो नन्दीग्राम है !
कौल दिया है काडर को सब ठीक-ठाक है लगे रहो
प्रतिरोधी आवाज़ दबोचो रात-रात भर जगे रहो
सड़कों पर
सैलाब बना
नागर समाज
सब झाम है
बुद्धदेब के बुद्धिजीवी, यही वो नन्दीग्राम है !
नोबल प्राइज़ विजेता कह दें बुद्धदेब की लाइन सही
फिर भी हम मानेंगे इसको बुद्धिविलासी बात कही
मॉल-सिरी
सिंगूर बाग़ में
झुलसा
ख़ासो आम है
बुद्धदेब के बुद्धिजीवी, यही वो नन्दीग्राम है !