दो चार रोज ही तो मैं तेरे शहर का था
दो चार रोज ही तो मैं तेरे शहर का था
वरना तमाम उम्र तो मैं भी सफ़र का था
जब भी मिला कोई न कोई चोट दे गया
बंदा वो यकीनन बड़े पक्के जिगर का था
हमने भी आज तक उसे भरने नहीं दिया
रिश्ता हमारा आपका बस ज़ख्म भर का था
तेरे उसूल, तेरे फैसले , तेरा निजाम
मैं किससे उज्र करता, कौन मेरे घर का था
जन्नत में भी कहाँ सुकून मिल सका मुझे
ओहदे पे वहाँ भी कोई तेरे असर का था
मंजिल पे पहुँचने की तुझे लाख दुआएं
‘आनंद’ बस पड़ाव तेरी रहगुज़र का था
आ ज़िंदगी तू आज मेरा कर हिसाब कर
आ जिंदगी तू आज मेरा कर हिसाब कर
या हर जबाब दे मुझे या लाजबाब कर
मैं इश्क करूंगा हज़ार बार करूंगा
तू जितना कर सके मेरा खाना खराब कर
या छीन ले नज़र कि कोई ख्वाब न पालूं
या एक काम कर कि मेरा सच ये ख्वाब कर
या मयकशी से मेरा कोई वास्ता न रख
या ऐसा नशा दे कि मुझे ही शराब कर
जा चाँद से कह दे कि मेरी छत से न गुजरे
या फिर उसे मेरी नज़र का माहताब कर
क्या जख्म था ये चाक जिगर कैसे बच गया
कर वक़्त की कटार पर तू और आब कर
खारों पे ही खिला किये है गुल, ये सच है तो
‘आनंद’ के लिए भी कोई तो गुलाब कर
मुश्किल से, जरा देर को सोती हैं लड़कियाँ
मुश्किल से, जरा देर को सोती हैं लड़कियाँ,
जब भी किसी के प्यार में होती हैं लड़कियाँ.
पापा को कोई रंज न हो, बस ये सोंचकर
अपनी हयात ग़म में डुबोती हैं लड़कियाँ.
फूलों की तरह खुशबू बिखेरें सुबह से शाम
किस्मत भी गुलों सी लिए होती हैं लड़कियाँ.
उनमें…किसी मशीन में, इतना ही फर्क है,
सूने में बड़े जोर से, रोती हैं लड़कियाँ.
टुकड़ों में बांटकर कभी, खुद को निहारिये
फिर कहिये, किसी की नही होती हैं लड़कियाँ.
फूलों का हार हो, कभी बाँहों का हार हो
धागे की जगह खुद को पिरोती हैं लड़कियाँ
‘आनंद’ अगर अपने तजुर्बे की कहे तो
फौलाद हैं, फौलाद ही होती हैं लड़कियाँ.
इस नाज़ुक़ी से मुझको मिटाने का शुक्रिया
इस नाज़ुक़ी से मुझको मिटाने का शुक्रिया
क़तरे को समंदर से मिलाने का शुक्रिया
मेरे सुखन को अपनी महक़ से नवाज़ कर
यूँ आशिक़ी का फ़र्ज़ निभाने का शुक्रिया
रह रह के तेरी खुशबू उमर भर बनी रही
लोबान की तरह से जलाने का शुक्रिया
इक भूल कह के भूल ही जाना कमाल है
दस्तूर-ए-हुश्न खूब निभाने का शुक्रिया
आहों में कोई और हो राहों में कोई और
ये साथ है तो साथ में आने का शुक्रिया
दुनिया भी बाज़-वक्त बड़े काम की लगी
फ़ुरसत में आज सारे ज़माने का शुक्रिया
जितने थे कमासुत सभी शहरों में आ गए
इस मुल्क को ‘गावों का’ बताने का शुक्रिया
ना प्यार न सितम न सवालात न झगड़े
‘आनंद’ उन्हें याद न आने का शुक्रिया
भूख लाचारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
भूख लाचारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
जंग ये जारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
अब कोई मज़लूम न हो हक़ बराबर का मिले
ख़्वाब सरकारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
चल रहे भाषण महज औरत वहीं की है वहीं
सिर्फ़ मक्कारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
अमन भी हो प्रेम भी हो जिंदगी खुशहाल हो
राग दरबारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
नदी नाले कुँए सूखे, गाँव के धंधे मरे
अब मेरी बारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
इश्क मिट्टी का भुलाकर हम शहर में आ गए
जिंदगी प्यारी नहीं तों और क्या है दोस्तों
न ही कोई दरख़्त हूँ न सायबान हूँ
न ही कोई दरख़्त हूँ न सायबान हूँ
बस्ती से जरा दूर का तनहा मकान हूँ
चाहे जिधर से देखिये बदशक्ल लगूंगा
मैं जिंदगी की चोट का ताज़ा निशान हूँ
कैसे कहूं कि मेरा तवक्को करो जनाब
मैं खुद किसी गवाह का पलटा बयान हूँ
आँखों के सामने ही मेरा क़त्ल हो गया
मुझको यकीन था मैं बड़ा सावधान हूँ
तेरी नसीहतों का असर है या खौफ है
मुंह में जुबान भी है, मगर बेजुबान हूँ
बोई फसल ख़ुशी की ग़म कैसे लहलहाए
या तू ख़ुदा है, या मैं अनाड़ी किसान हूँ
एक बार आके देख तो ‘आनंद’ का हुनर
लाचार परिंदों का, हसीं आसमान हूँ
मुझे होशियार लोगों को कभी ढ़ोना नहीं आया
मुझे होशियार लोगों को कभी ढ़ोना नहीं आया
कि ज़ालिम की तरह बेशर्म भी होना नहीं आया|
मैं यूँ ही घूमता था नाज़ से, उसकी मोहब्बत पर,
मेरे हिस्से में उसके दिल का इक कोना नहीं आया|
अगर सुनते न वो हालात मेरे, कितना अच्छा था
ज़माने भर का गम था, पर उसे रोना नहीं आया|
खुदा को भी बहुत ऐतराज़, है मेरे उसूलों पर,
वो जैसा चाहता है मुझसे वो होना नहीं आया|
नहीं हासिल हुई रौनक, तो उसकी कुछ वजह ये है
बहुत पाने की चाहत थी मगर खोना नहीं आया|
मैं अक्सर खिलखिलाता हूँ, मगर ये रंज अब भी है,
मुझे ‘आनंद’ होना था …मगर होना नहीं आया|
अपने स्कूलों से तो, पढ़कर मैं आया और कुछ
अपने स्कूलों से तो, पढ़कर मैं आया और कुछ,
जिंदगी जब भी मिली, उसने सिखाया और कुछ!
सख्त असमंजश में हूँ बच्चों को क्या तालीम दूँ ,
साथ लेकर कुछ चला था, काम आया और कुछ !
आज फिर मायूस होकर, उसकी महफ़िल से उठा,
मुझको मेरी बेबसी ने, फिर रुलाया और कुछ !
इसको भोलापन कहूं या, उसकी होशियारी कहूँ?
मैंने पूछा और कुछ, उसने बताया और कुछ!
सब्र का फल हर समय मीठा ही हो, मुमकिन नहीं,
मुझको वादे कुछ मिले थे, मैंने पाया और कुछ!
आजकल ‘आनंद’ के, नग्मों की रंगत और है,
शायद उसका दिल किसी ने फिर दुखाया और कुछ
इतना भी गुनहगार न मुझको बनाइये
इतना भी गुनहगार न मुझको बनाइये
सज़दे के वक़्त यूँ न मुझे याद आइये
नज़रें नहीं मिला रहा हूँ अब किसी से मैं
ताक़ीद कर गए हैं वो, कि, ग़म छुपाइये
मतलब निकालते हैं लोग जाने क्या से क्या
आँखें छलक रहीं हो अगर मुस्कराइये
वो शख्स मुहब्बत के राज़ साथ ले गया
अब लौटकर न आयेगा, गंगा नहाइये
सदियों का थका हारा था दामन में रूह के
‘आनंद’ सो गया है, उसे मत जगाइये
मेरी राम कहानी लिख
मेरी राम कहानी लिख
ये बेबाक बयानी लिख
मरघट जैसी चहल-पहल
इसको मेरी जवानी लिख
मेरे आँसू झूठे लिख
मेरे खून को पानी लिख
मेरे हिस्से के ग़म को
मेरी ही नादानी लिख
मेरी हर मज़बूरी को
तू मेरी मनमानी लिख
ऊँघ रहे हैं लोग, मगर
मौसम को तूफानी लिख
मेरे थके क़दम मत लिख
शाम बड़ी मस्तानी लिख
ज़िक्र गुनाहों का मत कर
वक़्त की कारस्तानी लिख
दिल से दिल के रिश्ते लिख
बाकी सब बेमानी लिख
जब भी उसका जिक्र चले
दुनिया आनी-जानी लिख
लिखना हो ‘आनंद’ अगर
बिधना की शैतानी लिख
क्या तमाशे कर रहा है आदमी
क्या तमाशे कर रहा है आदमी
अब नज़र से गिर रहा है आदमी
बिन लड़े जीना अगर संभव नहीं
बिन लड़े क्यों मर रहा है आदमी
हर जगह से हारकर, सारे सितम
औरतों पर कर रहा है आदमी
देश की नदियाँ सुखाकर, फ़ख्र से
बोतलों को भर रहा है आदमी
हाथ में लेकर खिलौने एटमी
आदमी से डर रहा है आदमी
योग, पूजा, ध्यान नाटक है, अगर
भूख से ही लड़ रहा है आदमी
है पड़ी स्विच-ऑफ दुनिया जेब में
ये तरक्की कर रहा है आदमी
मंज़िल के बाद कौन सफ़र ढूँढ रहा हूँ
मंज़िल के बाद कौन सफ़र ढूँढ रहा हूँ
अपने से दूर तुझको किधर ढूँढ रहा हूँ
कहने को शहर छोड़कर सहरा में आ गया
पर एक छाँवदार शज़र ढूँढ रहा हूँ
जिसकी नज़र के सामने दुनिया फ़िजूल थी
हर शै में वही एक नज़र ढूँढ रहा हूँ
लाचारियों का हाल तो देखो कि इन दिनों
मैं दुश्मनों में अपनी गुजर ढूँढ रहा हूँ
तालीम हमने पैसे कमाने की दी उन्हें
नाहक नयी पीढ़ी में ग़दर ढूँढ रहा हूँ
जैसे शहर में ढूँढें कोई गाँव वाला घर
मैं मुल्क में गाँधी का असर ढूँढ रहा हूँ
यूँ गुम हुआ कि सारे जहाँ में नहीं मिला
‘आनंद’ को मैं शामो-सहर ढूँढ रहा हूँ
बैठा हुआ सूरज की अगन देख रहा हूँ
बैठा हुआ सूरज की अगन देख रहा हूँ
गोया तेरे जाने का सपन देख रहा हूँ
मेरी वजह से आपके चेहरे पे खिंची थी
मैं आजतक वो एक शिकन देख रहा हूँ
सदियों के जुल्मो-सब्र नुमाया है आप में
मत सोचिये मैं सिर्फ़ बदन देख रहा हूँ
दिखती कहाँ हैं आँख से तारों की दूरियाँ
ये कैसी आस है कि गगन देख रहा हूँ
रंगों से मेरा बैर कहाँ ले चला मुझे
चूनर के रंग का ही कफ़न देख रहा हूँ
जुमले तमाम झूठ किये एक शख्स ने
पत्थर के पिघलने का कथन देख रहा हूँ
‘आनंद’ इस तरह का नहीं, और काम में
जलने का मज़ा और जलन देख रहा हूँ
एक हद हो जहाँ…
मेरे ज़ज़्बात से खिलवाड़ को रोका जाए
ये अगर प्यार है तो प्यार को रोका जाए
मैं नहीं कहता कि व्यापार को रोका जाए
पर तिज़ारत से, मेरे यार को रोका जाए
आँख को छीनकर जो, ख़्वाब थमा देता है
वो जालसाज़ इश्तिहार को रोका जाए
कितने बच्चों के निवाले तिजोरियों में मिले
इन गुनाहों से, गुनहगार को रोका जाए
खून में सन गए हैं कुर्सियों के सब पाये
अब जरा जश्न से दरबार को रोका जाए
ढोल दिनरात तरक्की का पीटिये लेकिन
ख़ुदकुशी करने से लाचार को रोका जाए
मुझको उम्मीद है, कुछ लोग तो ये सोचेंगे
एक हद हो, जहाँ बाज़ार को रोका जाए
आस ‘आनंद’ की जिन्दा है, भले थोड़ी है
उसपे क़ातिल के नए वार को रोका जाए
जल है तो अब प्यास नहीं
तू जो मेरी आस नहीं है
जीने का अहसास नहीं है
यद्यपि कुछ संत्रास नहीं है
पर वैसा उल्लास नहीं है
जाने उसको क्या प्यारा हो
कुछ भी मेरे पास नहीं है
यूँ तो दुनिया भर के रिश्ते
लेकिन कोई ख़ास नहीं है
भागीरथी नहीं हर नदिया
हर पर्वत कैलाश नहीं है
कैसा सपना दूं आँखों को
अब ये ही विश्वास नहीं है
मृगमरीचिका जीवन बीता
जल है तो अब प्यास नहीं है
खोजूँ मैं ‘आनंद’ कहाँ पर
जब वो खुद के पास नहीं है
आनंद मजहबों में सुकूँ मत तलाश कर
जब तक है जाँ बवाल हैं सारे जहान के,
कितने ही ख़्वाब देख लिये इत्मिनान के।
ऐ जिंदगी ठहर तू जरा , सोच के बता ,
कब हो रहे हैं ख़त्म ये दिन, इम्तिहान के ।
दुनिया के गलत काम का अड्डा बना रहा,
हम चौकसी में बैठे रहे जिस मकान के ।
जो अनसुने हुए हैं उसूलों के नाम पर,
मेरे लिए वो स्वर थे सुबह की अज़ान के ।
तेरे लिए भी ग़ैर हैं, खुद के ही कब हुए
ना हम ज़मीन के रहे, न आसमान के ।
‘आनंद’ मजहबों में सुकूँ मत तलाशकर,
झगड़े अभी भी चल रहे गीता कुरान के ।
कीमतों का मुद्दआ भर रह गया
ज़ख्म है मरहम है या तलवार है,
आदमी हर हाल में लाचार है।
दे रहा है अमन का पैगाम वो,
जिसकी नज़रों में तमाशा प्यार है।
कीमतों का मुद्दआ भर रह गया,
हर कोई बिकने को अब तैयार है।
भाई इसको तो तरक्की न कहो,
मुफ़लिसों के पेट पर यह वार है।
पहले आयी गाँव में पक्की सड़क,
धीरे-धीरे आ गयी रफ़्तार है ।
अपनी-अपनी चोट सबने सेंक ली,
क्या यही हालात का उपचार है ?
क्या शराफ़त काम आएगी भला,
सामने वाला अगर मक्कार है ।
आपकी नाज़ो-अदा थी जो ग़ज़ल,
आजकल ‘आनंद’ का हथियार है ।
आदमी मैं आम हूँ
वक़्त का ईनाम हूँ या वक़्त पर इल्ज़ाम हूँ,
आप कुछ भी सोचिये पर आदमी मैं आम हूँ
कुछ दिनों से प्रश्न ये आकर खड़ा है सामने,
शख्सियत हूँ सोच हूँ या सिर्फ़ कोई नाम हूँ
बिन पते का ख़त लिखा है जिंदगी ने शौक़ से,
जो कहीं पहुंचा नहीं, मैं बस वही पैगाम हूँ
कारवाँ को छोड़कर जाने किधर को चल पड़ा
राह हूँ, राही हूँ या फिर मंजिलों की शाम हूँ
है तेरा अहसास जबतक, जिंदगी का गीत हूँ
बिन तेरे, तनहाइयों का अनसुना कोहराम हूँ
दुश्मनों से क्या शिकायत दोस्तों से क्या गिला
दर्द का ‘आनंद’ हूँ मैं, प्यार का अंजाम हूँ
अब न यारी रही न यार रहा
न तमाशा रहा न प्यार रहा
अब न यारी रही न यार रहा
मेरे अशआर भला क्या कहते
न शिकायत न ऐतबार रहा
मैंने उससे भी सजाएं पायीं
जो ज़माने का गुनहगार रहा
जिक्र फ़ुर्सत का यूँ किया उसने
सारे हफ़्ते ही इत्तवार रहा
खुशबुएँ बेंचने लगे हैं गुल
इस दफ़े अच्छा कारोबार रहा
आज से मैं भी तमाशाई हूँ
आज तक मुद्दई शुमार रहा
ये बुलंदी छुई सियासत ने
चोर के हाथ कोषागार रहा
दर्द का सब हिसाब चुकता है
सिर्फ़ ‘आनंद’ का उधार रहा
गैर को गैर समझ
गैर को गैर समझ यार को यार समझ
रब किसी को न बना प्यार को प्यार समझ
वक़्त वो और था जब हम थे कद्रदानों में
ये दौर और है इसमें मुझे बेकार समझ
तू जो क़ातिल हो भला कौन जिंदगी माँगे
जिस तरह चाहे मिटा, मुझको तैयार समझ
बावरे मन ! तेरी दुनिया में कहाँ निपटेगी
वक्त को देख जरा इसकी रफ़्तार समझ
तेरा निज़ाम है, मज़लूम को भी जीने दे
देर से ही सही इस बात की दरकार समझ
धूप या छाँव तो नज़रों का खेल है प्यारे
दर्द का गाँव ही ‘आनंद’ का घर-बार समझ
डर लग रहा है दोस्तों का प्यार देख कर
इंसान को हर सिम्त से लाचार देखकर
हैराँ हूँ आज वक्त की रफ़्तार देखकर
माँ रो पड़ी ये सोचकर जाए वो किस तरफ
आँगन के बीच आ गयी दीवार देखकर
माली के हाथ में नहीं महफूज़ अब चमन
डाकू भले हैं, मुल्क की सरकार देखकर
दुनिया के सितम का तो खैर कोई ग़म नहीं
डर लग रहा है दोस्तों का प्यार देखकर
‘आनंद’ शाम तक तो बड़ा खुशमिजाज़ था
सहमा हुआ है आज का अख़बार देखकर
कोई आवाज़ न आये तो खुशी
शाम तनहा चली जाए तो खुशी होती है
इन दिनों कोई रुलाये तो खुशी होती है
उम्र भर उसको पुकारा करूँ दीवानों सा
कोई आवाज़ न आये तो खुशी होती है
तेरे आगोश के जंगल में हिना की खुशबू
आजकल याद न आये तो खुशी होती है
दोस्ती दर्द से ऐसी निभी कि पूछो मत
अब खुशी पास न आये तो खुशी होती है
चाहे जीते जी लगाये या बाद मरने के
आग़ अपना ही लगाये तो खुशी होती है
जहाँ में कोई सबक मुफ़्त नहीं मिलता है
जिंदगी फिर भी सिखाए तो खुशी होती है
ख़्वाब ‘आनद’ के टूटे तो इस कदर टूटे
अब कोई ख़्वाब न आये तो खुशी होती है
कब यहाँ दर्द का हाल समझा गया
बे जरूरत इसे ख्याल समझा गया
कब यहाँ दर्द का हाल समझा गया
बात जब भी हुई मैंने दिल की कही
क्यों उसे शब्द का जाल समझा गया
महफ़िलें आपकी जगमगाती रहें
आम इंसान बदहाल समझा गया
हमने सौंपा था ये देश चुनकर उन्हें
मेरे चुनने को ही ढाल समझा गया
हालतें इतनी ज्यादा बिगड़ती न पर
देश को बाप का माल समझा गया
हाल ‘आनंद’ के यूँ बुरे तो न थे
हाँ उसे जी का जंजाल समझा गया
आनंद मिल ही जाएगा वो पास ही तो है
ख्वाबों सा टूटकर कभी ढहकर भी देखिये
जीवन में धूपछाँव को सहकर भी देखिये
माना कि प्रेम जानता है मौन की भाषा
अपने लबों से एकदिन कहकर भी देखिये
धारा के साथ-साथ तो बहता है सब जहाँ
सूखी नदी के साथ में बहकर भी देखिये
अपना ही कहा था कभी इस नामुराद को
अपनों की बाँह को कभी गहकर भी देखिये
जन्नत से देखते हो दुनिया के तमाशे को
कुछ वक्त मेरे साथ में रहकर भी देखिये
‘आनंद’ मिल भी जाएगा वो पास ही तो है
अश्कों की तरह आँख से बहकर भी देखिये
जंग ये जारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
भूख लाचारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
जंग ये जारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
अब कोई मज़लूम न हो हक़ बराबर का मिले
ख़्वाब सरकारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
चल रहे भाषण महज औरत वहीं की है वहीं
सिर्फ़ मक्कारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
अमन भी हो प्रेम भी हो जिंदगी खुशहाल हो
राग दरबारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
नदी नाले कुँए सूखे, गाँव के धंधे मरे
अब मेरी बारी नहीं तो और क्या है दोस्तों
इश्क मिट्टी का भुलाकर हम शहर में आ गए
जिंदगी प्यारी नहीं तों और क्या है दोस्तों
रास्ते तो न मिटाए कोई
बेवजह अब न रुलाये कोई
गर कभी अपना बनाये कोई
दिले-नादाँ को संगदिल करलूं
कैसे, मुझको भी बताये कोई
वो नहीं लौटने वाला लेकिन
रास्ते तो न मिटाए कोई
दर्द के फूल दर्द की खुशबू
दर्द के गाँव तो आये कोई
मौत आने तलक तो जीने दे
रात दिन यूँ न सताये कोई
जिनकी महलों से आशनाई हो
क्यों उन्हें झोपड़ी भाए कोई
काश वो भी उदास होता हो
जिक्र जब मेरा चलाये कोई
एक ‘आनंद’ भी इसमें है जब
खामखाँ खुद को मिटाए कोई
अपने से दूर तुझको किधर ढूंढ रहा हूँ
मंज़िल के बाद कौन सफ़र ढूंढ रहा हूँ
अपने से दूर तुझको किधर ढूंढ रहा हूँ
कहने को शहर छोड़कर सहरा में आ गया
पर एक छाँवदार शज़र ढूंढ रहा हूँ
जिसकी नज़र के सामने दुनिया फ़िजूल थी
हर शै में वही एक नज़र ढूंढ रहा हूँ
लाचारियों का हाल तो देखो कि इन दिनों
मैं दुश्मनों में अपनी गुजर ढूंढ रहा हूँ
तालीम हमने पैसे कमाने की दी उन्हें
नाहक नयी पीढ़ी में ग़दर ढूंढ रहा हूँ
जैसे शहर में ढूंढें कोई गाँव वाला घर
मैं मुल्क में गाँधी का असर ढूंढ रहा हूँ
यूँ गुम हुआ कि सारे जहाँ में नहीं मिला
‘आनंद’ को अब तेरे ही दर ढूंढ रहा हूँ
जाने कैसा रोग लगा है सूरज चाँद सितारों को
अब भी कुछ कहना बाकी है तुझसे मौन इशारों में
थोड़ा जीवन बचा हुआ है अब भी इन किरदारों में
हर ‘संगम’ में किसी एक को खो जाना ही होता है
बचता है बस एक अकेला फिर आगे की धारों में
जलते हैं फिर भी चलते हैं कैसे पागल आशिक हैं
जाने कैसा रोग लगा है सूरज चाँद सितारों में
नाम आत्मा का ले लेकर जीवन का सुख लूटेंगे
दुनिया ने यह बात सिखायी है पिछले त्योहारों में
मुझको यहाँ कौन पूछेगा वापस घर को चलता हूँ
जिनको है उम्मीद अभी, वो बैठे हैं बाजारों में
उनका आना या न आना उनकी बातें वो जाने
हम तो दीप जलाकर बैठें हैं अपने चौबारों में
जितनी बची हुई हैं साँसें वो ‘आनंद’ बिता लेगा
चलते-फिरते रोते-गाते यूँ ही अपने यारों में
सुनते सुनते ऊब गए हैं किस्से लोग बहारों के
उड़ते उड़ते रंग उड़ गए हैं सारी दीवारों के
सुनते सुनते ऊब गए हैं किस्से लोग बहारों के
जीते जी जिसने दुनिया में ‘कल का कौर’ नहीं जाना
मरते मरते भी वो निकले कर्जी साहूकारों के
बढते बढते मंहगाई के हाथ गले तक आ पहुँचे
कुछ दिन में लाशों पर होंगे नंगे नाच बज़ारों के
कम से कम तो आठ फीसदी की विकाश दर चहिये ही
भूखी जनता की कीमत पर, मनसूबे सरकारों के
राजनीति से बचने वाले भले घरों के बाशिन्दों
कल सबकी चौखट पर होंगे पंजे अत्याचारों के
कहते कहते जुबाँ थम गयी चलते चलते पांव रुके
अब मेरे कानों में स्वर हैं केवल हाहाकारों के
ये ‘आनंद’ बहुत छोटा था जब वो आये थे घर-घर
अब फिर जाने कब आयेंगे बेटे ‘सितबदियारों’ के
– ‘कल का कौर’ = सुकून की रोटी, यह अवधी का एक मुहावरा है
सितबदियारा = जयप्रकाश नारायण का गाँव
इसमें क्या दिल टूटने की बात है
इसमें क्या दिल टूटने की बात है
जख्म ही तो प्यार की सौगात है
जिक्र फिर उसका हमारे सामने
फिर हमारे इम्तेहां की रात है
दो घड़ी था साथ फिर चलता बना
चाँद की भी दोस्तों सी जात है
साथ अपने रास्ते ही जायेंगे
सिर्फ़ धोखा मंजिलों की बात है
हैं हकीकत बस यहाँ तन्हाइयाँ
वस्ल तो दो चार दिन की बात है
कौन कहता है कि राहें बंद हैं
हर कदम पर इक नयी शुरुआत है
मत चलो छाते लगाकर दोस्तों
जिंदगी ‘आनंद’ की बरसात है
अज़ीब शख्स था अपना बना के छोड़ गया
हरेक रिश्ता सवालों के साथ जोड़ गया
अजीब शख्स था, अपना बना के छोड़ गया
कुछ इस तरह से नज़ारों कि बात की उसने
मैं खुद को छोड़ के उसके ही साथ दौड़ गया
तिश्नगी तो न बुझायी गयी दुश्मन से मगर
पकड़ के हाथ समंदर के पास छोड़ गया
मेरी दो बूँद से ज्यादा कि नहीं कुव्वत थी
सारे बादल मेरी आँखों में क्यों निचोड़ गया
कहाँ से लाऊं मुकम्मल वजूद मैं अपना
कहीं से जोड़ गया वो कहीं से तोड़ गया
हर घड़ी कहता था ‘आनंद’ जान हो मेरी
कैसा पागल था अपनी जान यहीं छोड़ गया
फ़ुरसत में आज सारे ज़माने का शुक्रिया
इस नाज़ुक़ी से मुझको मिटाने का शुक्रिया
क़तरे को समंदर से मिलाने का शुक्रिया
मेरे सुखन को अपनी महक़ से नवाज़ कर
यूँ आशिक़ी का फ़र्ज़ निभाने का शुक्रिया
रह रह के तेरी खुशबू उमर भर बनी रही
लोबान की तरह से जलाने का शुक्रिया
इक भूल कह के भूल ही जाना कमाल है
दस्तूर-ए-हुश्न खूब निभाने का शुक्रिया
आहों में कोई और हो राहों में कोई और
ये साथ है तो साथ में आने का शुक्रिया
दुनिया भी बाज़-वक्त बड़े काम की लगी
फ़ुरसत में आज सारे ज़माने का शुक्रिया
जितने थे कमासुत सभी शहरों में आ गए
इस मुल्क को ‘गावों का’ बताने का शुक्रिया
ना प्यार न सितम न सवालात न झगड़े
‘आनंद’ उन्हें याद न आने का शुक्रिया
आओ आनंद वहीं चल के बसें
उसको जिससे भी प्यार होता है
हाय क्या बेशुमार होता है
मेरा दिलबर मुझे बता के गया
इश्क भी बार बार होता है
कौन जन्नत की आरजू पाले
जब खुदा अपना यार होता है
जिसको नेकी बदी का होश रहे
ख़ाक वो इश्कसार होता है
जिसकी अश्कों से रात न भीगी
वो बुतों में शुमार होता है
मैंने खुद को जला के जाना है
सिर्फ़ हासिल गुबार होता है
आओ ‘आनंद’ वहीं चल के बसें
जिस जगह अपना यार होता है
दुनिया मुझको पागल समझे
बैठे ठाढ़े जितने मुँह उतने अफ़साने हो जायेंगे
ऐसे महफ़िल में मत आओ, लोग दिवाने हो जायेंगे
दिल की बात जुबाँ पर कैसे लाऊं समझ नहीं आता
कभी अगर पूछोगी भी तो हम अंजाने हो जायेंगे
सांझ ढले छत पर मत आना मुझको ये डर लगता है
क्या होगा जब चाँद सितारे सब , परवाने हो जायेंगे
दुनिया मुझको पागल समझे पर मैं दिल की कहता हूँ
तुम जिन गाँवों से गुजरोगी, वो बरसाने हो जायेंगे
कुछ दिन तो तेरी गलियों में, मैं भी रहकर देखूंगा
कम से कम कुछ दिन तो मेरे ख़्वाब सुहाने हो जायेंगे
और कहाँ पाओगे मुझसा, सारे सितम आज़मा लो
मेरी हालत देख-देख कर लोग सयाने हो जायेंगे
ये ‘आनंद’ जहाँ भी तेरा जिक्र करेगा, राम कसम !
कुछ का रंग बदल जायेगा कुछ मस्ताने हो जायेंगे
बाड़ ही खेत को जब खा गयी धीरे-धीरे
दिले पुरखूं कि सदा छा गयी धीरे धीरे
रूह तक सोज़े अलम आ गयी धीरे धीरे ।
मैंने सावन से मोहब्बत कि बात क्या सोंची
मेरी आँखों में घटा छा गयी धीरे धीरे ।
जश्ने आज़ादी मनाऊं मैं कौन मुंह लेकर
बाड़ ही खेत को जब खा गयी धीरे धीरे ।
जो इंकलाब से कम बात नहीं करता था
रास उसको भी दुल्हन आ गयी धीरे धीरे ।
दोस्त मेरे सभी नासेह बन गए जबसे
बात रंगनी मुझे भी आ गयी धीरे धीरे ।
गाँव के लोग भी शहरों की तरह मिलते हैं
ये तरक्की वहाँ भी आ गयी धीरे धीरे ।
लाख ‘आनंद’ को समझाया, बात न मानी
खुद ही भुगता तो अकल आ गयी धीरे धीरे |
शब्दार्थ :-
दिले पुरखूं = ज़ख्मी दिल (खून से भरा हुआ दिल)
सदा = आवाज़
सोज़े अलम = दर्द की आग़
नासेह = उपदेशक
जब भी मिलता है बहारों से मिला देता है
हाल दिल का, वो इशारों से बता देता है
जब भी मिलता है, बहारों से मिला देता है
किस नज़र देखता है, हाय देखने भर से
मेरी नज़रों को नजारों से मिला देता है
जब भी आगोश में लेता है तो दरिया बनकर
प्यास को, गंगा की धारों से मिला देता है
जब कभी मुझको वो पाता है जरा भी तनहा
अपनी यादों के, सहारों से मिला देता है
कितना भी तेज़ हो तूफान वो मांझी बनकर
मेरी कश्ती को, किनारों से मिला देता है
हाँ ये सच है की खुदा, खुद नहीं करता कुछ भी
बस वो ‘आनंद’ को यारों से मिला देता है
बदलाव चाहते हैं तो बदलाव कीजिये
काबा भी खूब जाइए काशी भी जाइए
पहले दिलों में प्यार के दीपक जलाइए
आँखों को नम न कीजिये यूँ बात बात पर
दुनिया के ग़म के देखिये कुछ मुस्कराइए
फौरन से पेश्तर सुकून दिल को मिलेगा
बच्चों के साथ खेलिए उनको हंसाइये
महफ़िल में दिल का दर्द बयाँ कर चुकें हों तो
फ़ाका-क़शों की बात भी थोड़ी चलाइये
सत्संग से मिलाद से कुछ वक़्त बचे तो
दो पल की किसी गरीब का बच्चा पढ़ाइये
बदलाव चाहते हैं तो बदलाव कीजिये
नाहक न यहाँ मुल्क की कमियां गिनाइये
‘आनंद’ वहीं है जहाँ दुनिया में दर्द है
अपने को इस तरह से अलम का बनाइये
ये दिलों की आग़ है दुनिया जला सकते हो तुम
करो कोशिश जिंदगी में रंग ला सकते हो तुम
जोर से चीखो कि सोतों को जगा सकते हो तुम
लाख शोषण जुल्म की गहरी जड़ें हों साथियों
मुझे पुख्ता यकीं है, उनको हिला सकते हो तुम
मत कहो ‘अपना मुकद्दर ही बुरा है’ दोस्तों
चाह लो गर तो मुकद्दर भी बना सकते हो तुम
मैं फ़लस्तीनी हूँ, लेबनानी हूँ, ईराक़ी भी हूँ
अब फ़कत मज़लूम हूँ मैं, साथ आ सकते हो तुम
गौर से देखो ये दौलत के पुजारी कौन हैं
याद रक्खो इन्हें जब चाहो भगा सकते हो तुम
आंसुओं को आँख में शोला बनाकर रोक लो
क्रांति क्या है फिर क़यामत को भी ला सकते हो तुम
इसे तुम ‘आनंद’ का शेर-ओ-सुखन मत सोंचना
ये दिलों की आग है, दुनिया जला सकते हो तुम
अन्ना बाबा को भी अब भगवान होने दीजिए
खुद-ब-खुद ही झूठ सच का ज्ञान होने दीजिए
वरना बेहतर है, मुझे नादान होने दीजिए
थक गया हूँ जिंदगी को शहर सा जीते हुए
गाँव को फिर से मेरी पहचान होने दीजिये
दो तिहाई से भी ज्यादा लोग भूखे हैं यहाँ
आप खुश रहिये उन्हें हलकान होने दीजिये
रात में हर रहनुमा की असलियत दिख जाएगी
शहर की सड़कें जरा सुनसान होने दीजिये
बैठकर दिल्ली में किस्मत मुल्क की जो लिख रहे
पहले उनको कम-अज़-कम इंसान होने दीजिए
उनके दंगे , इनके घपले, देश को महंगे पड़े
अन्ना- बाबा को भी अब भगवान होने दीजिये
कौन जाने आपको ‘आनंद’ अपना सा लगे
साथ आने दीजिये, पहचान होने दीजिये
यकीन मानिये दुनिया मुझे भी समझेगी
अभी निगाह में कुछ और ख्व़ाब आने दो
हजार रंज़ सही मुझको मुस्कराने दो
तमाम उम्र दूरियों में काट दी हमने
कभी कभार मुझे पास भी तो आने दो
बहस-पसंद हुईं महफ़िलें ज़माने की
मुझे सुकून से तनहाइयों में गाने दो
सदा पे उसकी तवज़्ज़ो का चलन ठीक नहीं
ग़रीब शख्स है उसको कथा सुनाने दो
किसी की भूख मुद्दआ नहीं बनी अब तक
मगर बनेगी शर्तिया वो वक़्त आने दो
यकीन मानिए दुनिया मुझे भी समझेगी
अभी नहीं, तो जरा इस जहाँ से जाने दो
क़र्ज़ ‘आनंद’ गज़ल का भी नहीं रक्खेगा
अभी बहुत है जिगर में लहू, लुटाने दो
पर हाय ये जम्हूरियत ही खा गयी मुझे
ऐ ख्वाब तेरी ये अदा भी, भा गयी मुझे
वो सामने थे और नींद आ गयी मुझे
पल भर को मेरी आँख तेरी राह से हटी
जाने कहाँ से तेरी याद आ गयी मुझे
कुछ इश्क़ ने सताया कुछ जिन्दगी ने मारा
आख़िर को एक दिन तो मौत आ गयी मुझे
मैं आम आदमी हूँ आज़ाद तो हुआ था
पर हाय ये जम्हूरियत ही खा गयी मुझे
तू जिंदगी है फिर तो जिन्दगी की तरह मिल
बन के भला रकिब, क्यों मिटा गयी मुझे
तेरे महल से चलकर ‘आनंद’ की गली तक
तेरी दुआ सलामत पहुंचा गयी मुझे
जब भी किसी के प्यार में होती हैं लड़कियाँ
मुस्किल से, जरा देर को सोती हैं लड़कियां,
जब भी किसी के प्यार में होती हैं लड़कियां
पापा को कोई रंज न हो, बस ये सोंचकर
अपनी हयात ग़म में डुबोती हैं लड़कियां
फूलों की तरह खुशबू बिखेरें सुबह से शाम
किस्मत भी गुलों सी लिए होती हैं लड़कियां
उनमें…किसी मशीन में, इतना ही फर्क है,
सूने में बड़े जोर से, रोती हैं लड़कियां
टुकड़ों में बांटकर कभी, खुद को निहारिये
फिर कहिये, किसी की नही होती हैं लड़कियां
फूलों का हार हो, कभी बाँहों का हार हो
धागे की जगह खुद को पिरोती हैं लड़कियां
‘आनंद’ अगर अपने तजुर्बे कि कहे तो
फौलाद हैं, फौलाद ही होती हैं लड़कियां
इक जिस्म रह गया हूँ महज़ दिल नहीं रहा
अब मैं किसी के प्यार के काबिल नहीं रहा,
इक जिस्म रह गया हूँ महज, दिल नहीं रहा |
कैसे गुमान होता मुझे अपने क़त्ल का,
जब मैं किसी के ख़्वाब का क़ातिल नही रहा |
जब से किसी ने मुझको तराजू पे रख़ दिया,
अय जिंदगी, मैं तेरे मुक़ाबिल नही रहा |
मँझधार ही नसीब है, या पार लगूंगा ?
हद्दे निगाह तक कोई साहिल नही रहा |
दुनिया के तकाज़े हैं, खुदगर्ज़ हुआ जाये,
बस एक यही मसला मुश्किल नही रहा |
‘आनंद’ मिट गया औ भनक भी नही लगी,
पहले तो मैं इतना कभी गाफ़िल नहीं रहा |
सर पर तमाम उम्र का बोझा न लाइए
यूँ चाक जिगर अब न किसी को दिखाइए
बस आँख बंद कीजिये औ डूब जाइये
मिलते हैं कई जख्म तो बेहद नसीब से
उसकी इनायतें हैं, गले से लगाइए
हर शै में नुमाया है वही, खोजिये कहाँ
बन्दों को प्यार कीजिये, मौला को पाइये
इतना भी बुरा गीत नहीं है, ये जिंदगी
कोशिश तो कीजिये जरा सा गुनगुनाइए
करनी हो इबादत तो एक काम कीजिये
तनहा बुजुर्ग देखकर उसको हँसाइये
आनंद चाहते हैं तो ‘आनंद’ की तरह
सर पर तमाम उम्र का बोझा न लाइये !
बेवजह आँख भर गयी फिर से
जुस्तजू सी उभर गयी फिर से
शाम भी कुछ निखर गयी फिर से
तेरा पैगाम दे गया कासिद
जैसे धड़कन ठहर गयी फिर से
तेरी बातों की बात ही क्या है
कोई खुशबू बिखर गयी फिर से
जिंदगी! होश में भी है, या कहीं
मयकदे से गुज़र गयी फिर से ?
रात इतनी वफ़ा मिली मुझको
जैसे तैसे सहर हुयी फिर से
वो तो बेमौत ही मरा होगा
जिस पे तेरी नज़र गयी फिर से
तेरा दीदार मिले तो समझूं
कैसे किस्मत संवर गयी फिर से
कहके ‘आनंद’ पुकारा किसने
बेवजह आँख भर गयी फिर से
जिंदगी की दास्ताँ बस दास्ताँ-ए-गम नहीं
जिंदगी की दास्ताँ, बस दास्तान-ए-ग़म नही
इम्तहाँ भी कम नही, तो हौसले भी कम नही
करने वाले मेरे सपनों की तिजारत कर गये
हम सरे-बाज़ार थे पर हुआ कुछ मालुम नही
कुछ नकाबें नोंच डालीं वक़्त ने, अच्छा हुआ
जो भी है अब सामने, गफ़लत तो कम से कम नही
अय ज़माने के खुदाओं अपना रस्ता नापिए
अब किसी भगवान के रहमो-करम पर हम नही
अब जहाँ जाना है लेकर वक़्त मुझको जाएगा
मौत महबूबा है, लेकिन ख़ुदकुशी लाज़िम नही
रंज मुझको ये नहीं, कि क्यों गया तू छोड़कर
रंज ये है, क्यों तेरे जाने का रंज-ओ-गम नहीं
अपने अब तक के सफ़र में खुद हुआ मालूम ये
लाख अच्छे हों, मगर ऐतबार लायक हम नही
हिज्र की बातें करे या, वस्ल का चर्चा करे
आजकल ‘आनंद’ की बातों में वैसा दम नही
मैं मोहब्बत का चलन क्यों भूलूं
तेरे मदहोश नयन क्यों भूलूँ
तेरा चंदन सा बदन क्यों भूलूँ
तू मुझे भूल जा तेरी फितरत
मैं तुझे मेरे सनम क्यों भूलूँ
जिस्म से रूह तक उतर आई
तेरे होंठों की तपन क्यों भूलूँ
आज खारों पे शब कटी लेकिन
कल के फूलों की छुवन क्यों भूलूँ
तुझसे नाहक वफ़ा की आस करूँ
मैं मोहब्बत का चलन क्यों भूलूँ
बन के खुशबू तू बस गया दिल में
अपने अन्दर का चमन क्यों भूलूँ
कितनी शिद्दत से मिला था मुझसे
मैं वो रूहों का मिलन क्यों भूलूँ
ख़ाक होना है मुकद्दर मेरा
तूने बक्शी है जलन क्यों भूलूँ
इतना कुछ दे डाला है
राज छुपाये दुनिया भर के, खाक जहाँ की छान रहे
कितने ज्ञानी मिले राह में, हम फिर भी नादान रहे
सारे जीवन भर के शिकवे, अपने साथ ले गये वो
मेरे घर भी ख्वाब सुहाने, दो दिन के मेहमान रहे
आखिर उनका भी तो दिल है, दिल के कुछ रिश्ते होंगे
क्यों ये बात न समझी हमने, बे मतलब हलकान रहे
अपने से ही सारी दुनिया, बनती और बिगड़ती है
जिस ढंग की मेरी श्रद्धा थी, वैसे ही भगवान रहे
तू है प्राण और मैं काया, तू लौ है मैं बाती हूँ
ये रिश्ते बेमेल नही थे, भले न एक समान रहे
जाते जाते साथी तूने, इतना कुछ दे डाला है
साथ न रहकर भी सदियों तक, तू मेरी पहचान रहे
दुआ करो ‘आनंद’ सीख ले, तौर तरीके जीने के
फिर चाहे तेरी महफ़िल हो, या दुनिया वीरान रहे
समंदर उबल न जाए कहीं
फिर एक शाम उदासी में ढल न जाये कहीं
आ भी जाओ ये हसीं वक्त टल न जाए कहीं
रोक रक्खा है भड़कने से दिल के शोलों को
मेरे दिल में जो बसा है वो, जल न जाये कहीं
नज़र में ख्वाब पले हैं, औ नींद गायब है
आँखों-आँखों तमाम शब, निकल न जाये कहीं
उन्हें ये जिद कि वो मौजों के साथ खेलेंगे
मुझे ये डर कि समंदर, उबल न जाये कहीं
आपकी बज़्म में आते हुए डर जाता हूँ
हमारे प्यार का किस्सा उछल न जाये कहीं
जानेजां शोखियाँ नज़रों से लुटाओ ऐसी
रिंद का रिंद रहे वो संभल न जाये कहीं
रुखसती के वो सभी पल नज़र में कौंध गये
अबके बिछुड़े तो मेरा दम निकल न जाए कहीं
रूह से मिल गया ‘आनंद’ जब से ऐ यारों
लोग कहते हैं ये इन्सां बदल न जाये कहीं
कितनी मुश्किल से मिला है यार का कूचा मुझे
यार की महफ़िल में तुम न राज़ की बातें करो
दोस्तों, केवल निगाहे नाज़ की बातें करो
कितनी मुश्किल से मिला है यार का कूचा मुझे
भूल कर अंजाम, बस आगाज़ की बातें करों
मुझको आदत पड़ गयी है आसमां की ,चाँद की
पंख की ताक़त पढ़ो , परवाज़ की बातें करो
डूब जाओ इश्क में तुम, भूल कर दुनिया के गम
हुस्न की बातें करो , अंदाज़ की बातें करों
ज़िन्दगी को गीत जैसा , गुनगुनाना हो अगर
साज़-ए-दिल पर बज उठी आवाज़ की बातें करो
आज कल ‘आनंद’ को कुछ तो हुआ है दोस्तों
आँख भर आती है गर हमराज़ की बातें करो
तुमने फिर से वहीं मारा है ज़माने वालों
हर तरीका मेरा न्यारा है, ज़माने वालों
आज कल वक़्त हमारा है, ज़माने वालों
जख्म रूहों के भरे जायेंगे, कैसे मुझसे
तुमने फिर से वहीं मारा है, ज़माने वालों
दो घड़ी चैन से तुमने जिसे जीने न दिया
किसी की आँख का तारा है, ज़माने वालों
बेवजह ही नहीं मैं बांटता, जन्नत के पते
मैंने कुछ वक़्त गुज़ारा है, ज़माने वालों
कौन कम्बख्त भला होश में रह पायेगा
जिस तरह उसने निहारा है, ज़माने वालों
आज ‘आनंद’ की दीवानगी से जलते हो
तुमने ही उसको बिगाड़ा है, ज़माने वालों
एक बार होना चाहिए
ज़िंदगी में कम से कम एक बार होना चाहिए
मेरी ख्वाहिश है सभी को प्यार होना चाहिए !
इश्क में और जंग में हर दांव जायज़ है, मगर
आदमी पर सामने से, वार होना चाहिए !
नाम भी मजनूँ का गाली बन गया इस दौर में
बोलो, कितना और बंटाधार होना चाहिए !
लैस है, ‘वृषभान की बेटी’ नयी तकनीक से ,
‘सांवरे’ का भी नया अवतार होना चाहिए !
हाय क्या मासूमियत, क्या क़त्ल करने का हुनर
आपका तो नाम ही , तलवार होना चाहिए !
आँख भी जब बंद हो और वो तसव्वुर में न हो
ऐसे लम्हों पे तो बस, धिक्कार होना चाहिए !
ज़िंदगी तुझसे कभी कुछ, और मांगूंगा नही
जिस तरह भी हो, विसाल-ए-यार होना चाहिए
खासियत क्या इश्क की ‘आनंद’ से पूछो ज़रा
सच बता देगा मगर, ऐतबार होना चाहिए !!
ढंग से मिलता भी नहीं और बिछुड़ता भी नहीं
आजकल वो मेरी पलकों से उतरता भी नहीं
लाख समझाऊँ वो अंजाम से डरता भी नहीं
आँख जो बंद करूँ, ख्वाब में आ जाता है,
इतना जिद्दी है के फिर, ख्वाब से टरता भी नहीं
उसको यूँ, मुझको सताने की जरूरत क्या है
तंग करता है महज़ , प्यार तो करता भी नहीं
यूँ तो कहता है, चलो चाँद सितारों पे चलें
रहगुजर बनके, मेरे साथ गुजरता भी नहीं
कभी कातिल, कभी मासूम नज़र आता है
ढंग से मिलता भी नहीं, और बिछुड़ता भी नहीं
कह नहीं सकता, उसे प्यार है मुझसे या नहीं,
हाँ वो कहता भी नहीं साफ़ मुकरता भी नहीं
हाल ‘आनंद’ का, मुझसे नहीं देखा जाता
ठीक से जीता नहीं , ठीक से मरता भी नहीं
खत लिख रहा हूँ तुमको
न दर्द न दुनिया के सरोकार लिखूंगा
ख़त लिख रहा हूँ तुमको सिर्फ प्यार लिखूंगा
तुम गुनगुना सको जिसे , वो गीत लिखूंगा
हर ख्वाब लिखूंगा, हर ऐतबार लिखूंगा
पत्थर को भी भगवान, बनाते रहे हैं जो
वो भाव ही लिक्खूंगा वही प्यार लिखूंगा
दुनिया से छिपा लूँगा, तुम्हें कुछ न कहूँगा
गर नाम भी लूँगा, तो ‘यादगार’ लिखूंगा
सौ चाँद भी देखूं जो, तुझे देखने के बाद
मैं एक – एक कर, उन्हें बेकार लिखूंगा
अपने लिए भी सोंचना है मुझको कुछ अभी
‘आनंद’ लिखूंगा या अदाकार लिखूंगा
इन प्यार की बातों से
मेरे यार की बातों से, इजहार की बातों से ,
हंगामा तो होना था, इन प्यार की बातों से !
मैं वो ग़मजदा नहीं हूँ हैरत न करो यारों,
मैं जरा बदल गया हूँ , इकरार की बातों से !
वो उदास सर्द लम्हे, तनहाई ग़म की किस्से,
मेरा लेना देना क्या है, बेकार की बातों से !
वो कशिश वो शोखियाँ वो, अंदाजे हुश्न उनका
फुरसत कहाँ है मुझको , सरकार की बातों से !
मेरी धडकनों पे काबिज ..मेरी रूह के सिकंदर,
मेरा दम निकल न जाए, इनकार की बातों से !
तेरा रह गुजर नहीं हूँ, …ये खूब जानता हूँ
तेरे साथ चल पड़ा हूँ , ..ऐतबार की बातों से !
‘आनंद’ मयकदे तक पहुंचा तो कैसे पंहुचा ?
ये राज खुल न जाए, तकरार की बातों से !
खुद जली दिल जला गयी होली
फिर अदावत निभा गयी होली ,
खुद जली, दिल जला गयी होली !
रंग बरसा न फुहारें बरसीं ,
टीस मन में जगा गयी होली !
दर्द के श्याम, पीर की राधा,
रंग ऐसा दिखा गयी होली !
राह तकता रहा अबीर लिए ,
वो न आये, क्यूँ आ गयी होली ?
उम्र भर तुम भी जलो, मेरी तरह
बोलकर यह सजा गयी होली !
वाह ‘आनंद’ की किस्मत देखो ,
दर्द को कर दवा गयी, होली !!
मैं ही मिला हूँ उससे गुनाहगार की तरह
उसने तो किया प्यार मुझे प्यार की तरह,
मैं ही मिला हूँ उससे गुनहगार की तरह !
कुछ बेबसी ने मेरे पांव बाँध दिए थे,
कुछ मैं भी खड़ा ही रहा दीवार की तरह !
इस दिल में सब दफ़न है चाहत भी आरजू भी ,
मत खोदिये मुझे, किसी मज़ार की तरह !
देने को कुछ नही था मिलता मुझे कहाँ से
दुनिया के क़ायदे हैं, बाज़ार की तरह !
खारों पे ही खिला किये हैं गुल ये सोंचकर,
मैं जिंदगी को जी रहा हूँ खार की तरह !
खामोश निगाहों की तहरीर पढ़ सको तो,
‘आनंद’ भी मिलेगा तुम्हे यार की तरह !!
एक आनंद वहाँ भी है जहाँ
हो लिया प्यार अब चला जाए
व्यर्थ क्यों बर्फ सा गला जाए
बंद कमरे में कौन देखेगा
आइये दीप सा, जला जाये
उनसे मिलने कि ख़्वाहिशें हैं पर
मिला जाए तो क्यों मिला जाए
दूर हूँ या कि पास हूँ उनके
नापने कौन फासला जाए
जिंदगी पड़ गयी छोटी मेरी
कब्र तक ग़म का सिलसिला जाए
इतना मरहम कहाँ से आएगा
जख्म पर जख्म ही मला जाए
एक ‘आनंद’ वहां भी है जहाँ,
बेवजह आँख छलछला जाए
वो नहीं था मैं
यूँ खुश तो क्या था, मगर गमजदा नहीं था मैं,
तुम मुझे जो समझ रहे थे, वो नहीं था मैं |
मेरी बर्बाद दास्ताँ , है कोई ख़ास नहीं,
जब मेरा घर जला, तो आस पास ही था मैं |
चंद लम्हे, जो मुझे जान से भी प्यारे थे,
उनकी कीमत पे मैं बिका,मगर सही था मैं |
दुश्मनो को भी सजा, प्यार की ऐसी न मिले,
मेरी चाहत थी कहीं और, और कहीं था मैं |
तुमने बेकार मेरा क़द बढा दिया इतना,
फलक तो क्या जमीन पर भी कुछ नहीं था मैं |
घर उदासी ने बसाया है, जहां पर आकर,
शाम तक उस जगह ‘आनंद’ था, वहीं था मैं |
खुदा भला करे इनके खरीददारों का
रंग हल्का नही होगा कभी दीवारों का,
उसने ले रखा है ठेका, यहाँ बहारों का !
लोग थकते नही करते सलाम दरिया को,
हाल पूछेगा कौन ढह रहे किनारों का !
ईद का चाँद आपको भी नज़र आ जाये,
काम फिर क्या बचेगा, सोंचिये मीनारों का ?
गौर से देखिये हर चीज़ यहाँ बिकती है,
खुदा भला करे, इनके खरीददारों का !
मैंने हर जख्म करीने से सजा रखा है,
दिल भी अहसानफरामोश नही यारों का !
तमाम मुल्क का दुःख दर्द दूर कर देंगे,
चल रहा इन दिनों अनशन रंगे सियारों का !
भूख कि छत तले ‘आनंद’ दब गया यारों,
दोष इसमें नही, टूटी हुई दीवारों का !!
प्यार औ सरकार दोनों की रवायत एक है
शायरी में भर रहे थे एक मयखाने को हम
अब ग़ज़लगोई करेंगे होश में आने को हम
कौन चाहे मुल्क का चेहरा बदलना दोस्तों
भीड़ में शामिल हुए हैं सिर्फ चिल्लाने को हम
देखिये लबरेज़ हैं दिल इश्क से कितने, मगर
मार देंगे ‘जाति’ से बाहर के दीवाने को हम
एक भी दामन नहीं जो ज़ख्म से महफूज़ हो
रौनकें लाएँ कहाँ से दिल के बहलाने को हम
प्यार औ सरकार दोनों की रवायत एक है
रोज खायें चोट पर मज़बूर सहलाने को हम
इन दिनों ‘आनंद’ की बातें बुरी लगने लगीं
भूल ही जाएंगे इस नाकाम बेगाने को हम
लाठियाँ खा-खा के बच्चों ने
कहूँ मैं कैसे मोहब्बत की कहानी दोस्तों
दाँव पर जब लग गयी है जिंदगानी दोस्तों
साफ कहता हूँ कि मैं अपने लिये चिल्ला रहा
मेरे घर में भी तो है बेटी सयानी दोस्तों
जुल्म खुद हैरान है इस जुल्म का ढंग देखकर
पर नहीं सरकार की आँखों में पानी दोस्तों
लाठियाँ खा-खा के बच्चों ने हमें दिखला दिया
कम नहीं है आज भी जोशो-जवानी दोस्तों
हम बदलकर ही रहेंगे सोच को, माहौल को,
हो गयी कमज़ोर दहशत हुक्मरानी दोस्तों
झांक ले ‘आनंद’ तू अपने गरेबाँ में भी अब
वरना रह जायेंगी सब बातें जुबानी दोस्तों
अमन की बातें न कर तू
अमन की बातें न कर तू, भले चिंगारी न देख
पूरा गुलशन देख भाई, एक ही क्यारी न देख
नज़र में मंज़िल है तो फिर, राह दुश्वारी न देख
हौसले भी देख अपने, सिर्फ लाचारी न देख
मशवरा करके कभी तूफ़ान भी आये हैं क्या
बाजुओं पर भी यकीं कर, पूरी तैयारी न देख
ऐ मेरे शायर हक़े-माशूक़ की खातिर ही लड़
इल्तज़ा है वक़्त की तू खौफ़ सरकारी न देख
आग भरदे ग़ज़ल में, अशआर को बारूद कर
भूल जा काली घटा अब आँख कजरारी न देख
देखना ही ख्वाब हो तो जुल्म से लड़ने के देख
अपनी दुनिया खुद बदल ‘आनंद’ की बारी न देख
भरोसा
अब … जबकि
दिन ब दिन
तुम्हें ‘तुम’ कहना मुस्किल होता जा रहा है
मैं समेट रहा हूँ
धीरे धीरे
अपने सारे शोक गीत
और उनके साथ लिपटी अपनी परछाइयाँ
रखूँगा सहेज कर
इन सबको
एक ही कपड़े में बाँधकर
अपने इस भरोसे के साथ
कि एक न एक दिन प्रेम
ज्यादा जरूरी होगा
सुविधा और सुक़ून से !
उसकी बातें
गाढ़े वक़्त के लिए बचाए गए धन की तरह
वह खर्च करती है
एक-एक शब्द
न कम न ज्यादा;
और मुझे ….
उतने से ही चलानी होती है
अपने प्रेम की गृहस्थी,
महीने के उन दिनों में भी
जब वह नहीं खर्चती एक भी शब्द …!
ज़िन्दगी का प्रश्नपत्र
जिंदगी के प्रश्नपत्र में,
अनिवार्य प्रश्नों की जगह
कभी नहीं रहा प्रेम,
यद्यपि वह होता
यदि मैं निर्धारित करता
जीवन और परीक्षा
अथवा दो में से कोई एक,
भूख और जरूरतें…
सदैव बनी रहीं
दस अंकों का प्रथम अनिवार्य प्रश्न ,
समाज और परिवार
कब्ज़ा जमाये रहे
दूसरे पायदान पर,
मैं और मेरा प्रेम
खिसकते रहे
वैकल्पिक प्रश्नों की सारणी में
और जुटाते रहे
हमेशा, जैसे तैसे
उत्तीर्ण होने भर के अंक !
जल्दी ही सब ठीक हो जायेगा
जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा
मन भर लेगा
किसी न किसी तरह
खाली जगह
गढ़ लेगा हज़ारों बहाने
बिखरे पड़े रह जायेंगे मगर
कभी न भरने वाले
सन्नाटे और …
उनमें बजने वाली तुम्हारी पदचापें,
जितनी बार तुम याद आओगे
हर बार कुछ न कुछ
छनाक से टूटेगा
धमनियों में गड़ेंगी किरचने
रिसेगा लहू बदन के अंदर
होंठ मुस्कराकर
बार बार बोलेंगे झूठ
मन फिर फिर जुगाड़ में लगेगा
किसी आदर्श में ढकने को
अपनी हार,
ऐसे में बहुत काम की लगेंगी
जीवन, कर्तव्य, धर्म और न्याय की सुनी सुनाई बातें
हृदय हर बार चीखेगा
रोयेगा छटपटायेगा
जीवन निःसार हो जायेगा
मगर.…
जल्दी ही सब ठीक हो जायेगा