बाज़ ख़त पुरअसर भी होते हैं
बाज़ ख़त पुरअसर[1] भी होते हैं
नामाबर[2] चारागर[3] भी होते हैं
हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
आईने बदनज़र[4] भी होते हैं
तुम हुए हमसफ़र तो ये जाना
रास्ते मुख़्तसर[5] भी होते हैं
जान देने में सर बुलंदी है
प्यार का मोल सर भी होते हैं
इक हमीं मुंतज़िर[6] नहीं ‘आलोक’
मुंतज़िर बाम-ओ-दर[7] भी होते हैं
- ऊपर जायें↑ असरदार
- ऊपर जायें↑ डाकिया
- ऊपर जायें↑ चिकित्सक
- ऊपर जायें↑ बुरी नज़र
- ऊपर जायें↑ छोटे/अल्प
- ऊपर जायें↑ प्रतीक्षारत
- ऊपर जायें↑ दरवाजे और झरोखे
फिर आने का वादा करके पतझर में
फिर आने का वादा करके पतझर में
हाथ छुड़ाकर चला गया वो पल भर में
सपने जिसके तुम मुझको दिखलाते थे
आँखें अब तक ठहरी हैं उस मंज़र में
मन में मेरे अब तक आशा है बाक़ी
थोड़ी जान बची है अब तक पिंजर में
इतने आँसू कहाँ कि तन की प्यास बुझाऊँ
फूल खिलाऊँ कैसे मन के बंजर में
छुअन मख़मली, स्वप्न सलोने, बातें सब
अब तक लिपटे वहीँ पड़े हैं चादर में
दूर निगाहों की सीमा से हो फिर भी
आँखें तुमको ढूँढती रहती हैं घर में
नयन लगे हैं अब तक मेरे राहों पर
आ जाओ, आ भी जाओ, अपने घर में
आदि काल से सभी मनीषी सोच में हैं
कितने भेद छुपे हैं ढाई आखर में
मन में कुछ -कुछ चुभता रहता है ‘आलोक’
थोड़ी सिलवट छूट गई है अस्तर में
अपने हिस्से की छत खो कर मैंने
अपने हिस्से की छत खो कर मैंने
रच डाले हैं बालू से घर मैंने
भरने को परवाज़[1] बड़ी घर छोड़ा
तन-मन कर डाला यायावर[2] मैंने
हाथ पिता का माँ का आँचल छूटा
प्यार बहन का खोया क्यूँकर मैंने
धुँआ धुँआ सारे मंज़र कर डाले
जीवन का उपहास उड़ाकर मैंने
तंज़ सहे ‘आलोक’ बहुत ग़ैरों के
अपनों से भी खाए पत्थर मैंने
- ऊपर जायें↑ उड़ान
- ऊपर जायें↑ घुमन्तु
ये सोचा नहीं मैं तो ख़ुद मसअला हूँ
ये सोचा नहीं मैं तो ख़ुद मसअला हूँ
ज़माने की उलझन मिटाने चला हूँ
पराया सा लगता है तू साथ रहकर
तो इस साथ से मैं अकेला भला हूँ
रखें याद ये चाँदनी के पुजारी
अमावस में मैं ही दिये सा जला हूँ
ये आँसू, ये क्रंदन, ये बेचैनियाँ सब
तुम्हीं ने दिए थे, तुम्हें दे चला हूँ
जो सिमटूँ तो बन जाऊँ दिल का सुकूँ मैं
जो बिखरूँ तो तूफ़ान हूँ, ज़लज़ला हूँ
कहीं हूँ सहारा मैं टूटे दिलों का
कहीं मैं ही बलहीन का हौसला हूँ
हूँ ‘आलोक’ सच्चा खरा आदमी मैं
इसी वास्ते साहिबों को खला हूँ
उसे जबसे पाया है, खोने का डर है
उसे जबसे पाया है, खोने का डर है
बड़ी ही कठिन प्यार की रहगुज़र है
गई व्यर्थ उसको हँसाने की कोशिश
ख़ुदा जाने क्यों वो उदास इस क़दर है
फ़ना जिसपे दिल हो, नहीं कोई ऐसा
सही लाख तुझसे, कहाँ तू मगर है
अजब मोड़ हैरत भरा आ गया ये
उधर है ख़ुदा, इस तरफ़ हमसफ़र है
कहे हैं मुझे लोग अब जाने क्या-क्या
ये यारों की सुहबत का ‘आलोक’ असर है
बहाने यूँ तो पहले से भी थे आँसू बहाने के
बहाने यूँ तो पहले से भी थे आँसू बहाने के
तरीक़े तुमने भी ढूँढ़े मगर हमको रुलाने के
तुम्हे ऐसी भी क्या बेचैनी थी दामन छुड़ाने की
कि पहले ढूँढ़ तो लेते बहाने कुछ ठिकाने के
मैं दिल की बात करता था तुम्हें दुनिया की चाहत थी
तो मुझको छोड़कर भी तुम न हो पाए ज़माने के
हमारे गीत और ग़ज़लों में तुमको ढूँढ़ते हैं सब
न करना फ़िक्र दुनिया को नहीं हम कुछ बताने के
यक़ीं है दिल को एक आवाज़ पर ही लौट आओगे
मगर ‘आलोक’ अब हरगिज़ नहीं तुमको बुलाने के
मेरी क़ुरबतों की ख़ातिर यूँ ही बेक़रार होता
मेरी क़ुरबतों[1] की ख़ातिर यूँ ही बेक़रार होता
जो मेरी तरह उसे भी कहीं मुझसे प्यार होता
न वो इस तरह बदलते, न निगाह फेर लेते
जो न बेबसी का मेरी उन्हें ऐतबार होता
वो कुछ ऐसे ढलता मुझमें कि ग़म उसके, मेरे होते
वो जो सोगवार[2] होता तो मैं अश्कबार[3] होता
मुझे चैन लेने देती कहाँ इंक़लाबी फ़ितरत
न मुसाहिबों[4] में होता, न मैं शह[5] का यार होता
मैं उसी के नाम करता ये हयात[6]-मौत सब कुछ
मुझे ज़िंदगी पे ‘आलोक’ अगर इख़्तियार[7] होता
- ऊपर जायें↑ निकटता
- ऊपर जायें↑ दुखी
- ऊपर जायें↑ रोनेवाला
- ऊपर जायें↑ दरबारी
- ऊपर जायें↑ बादशाह
- ऊपर जायें↑ ज़िंदगी
- ऊपर जायें↑ अधिकार
चलते-चलते तू क्यों रुक गया है यहाँ
चलते – चलते तू क्यों रुक गया है यहाँ
मेरे दिल तू किसे खोजता है यहाँ
प्रीतनगरी में आने से पहले ज़रा
सोच ले दर्द कुल देवता है यहाँ
वेदना मन्त्र है अश्रु का आचमन
सबके होंठों पे बस याचना है यहाँ
एक के वास्ते सब स्वजन छूटते
सोच का संकुचित दायरा है यहाँ
चाहिए था दिया देहरी को तेरी
मैंने लेकिन जिया रख दिया है यहाँ
चीख़ किसकी उभरती है प्राचीर से
किसको दीवार में चिन दिया है यहाँ
ऊँची अट्टालिकाएँ नहीं देखतीं
कौन सब कुछ लुटाए खड़ा है यहाँ
ज्ञान परिणाम का है सभी को मगर
है वो क्या जो हमें खींचता है यहाँ
यूँ तो कहने को ‘आलोक’ आज़ाद हैं
शेष पर मानसिक दासता है यहाँ
सुब्ह सवेरे अपने कमरे में जो देखा चाँद
सुब्ह सवेरे अपने कमरे में जो देखा चाँद
आधा जागा, आधा सोया, आँखें मलता चाँद
बाँध सितारों का गजरा इतराता रहता चाँद
छत- आँगन में फिरता रहता बहका- बहका चाँद
तेरे रूप की उपमा मैं उसको दे तो देता
होता जो थोड़ा भी तेरे मुखड़े जैसा चाँद
कितने प्रेमी हर दिन झूठी शान की भेंट चढ़े
खापों – पंचों के निर्णय से सहमा – सहमा चाँद
चंचल चितवन, मंद हास की किरणें बिखराता
मेरे घर, मेरे आँगन में मेरा अपना चाँद
आख़िरकार पुरुष ही ठहरा हरजाई आकाश
अपने चाँद की तुलना करता देख के मेरा चाँद
साँझ ढली, पंछी लौटे, चल तू भी घर ‘आलोक’
बैठ झरोखे कब से देखे तेरा रस्ता चाँद
वो चाँद भी लो हँस पड़ा
वो चाँद भी लो हँस पड़ा
धवल हुई निशा-निशा
हवा में घुल रही हँसी
हँसा गगन, हँसी धरा
खिले सुमन, खिला चमन
महक – महक उठी हवा
सुराहियाँ छलक उठीं
नयन जो हँस दिए ज़रा
हँसी तुम्हारी देख कर
बिहँस उठी दिशा-दिशा
पुकारता है कौन ये
इधर तो आ, इधर तो आ
वो पत्र अब भी पास है
मुड़ा- तुड़ा, कटा – फटा
भुला दिया है प्यार में
सुना-गुना, लिखा-पढ़ा
न फ़ासला था फ़ासला
वो जब हमारे साथ था
वो काशी को क्योटो बनाएँगे कैसे
वो काशी को क्योटो बनाएँगे कैसे
स्वभावों का अन्तर मिटाएँगे कैसे
जहाँ के निवासी हों तम के उपासक
दिये उस जगह वो जलाएँगे कैसे
जड़ें चाहतीं हैं ठहरने को मिट्टी
हथेली पे सरसों उगाएँगे कैसे
हो विधि-भंजना जिनकी आदत में शामिल
सदाचार उनको सिखाएँगे कैसे
अगर आँख वाले भी मूँदे हों आँखें
उन्हें आप दर्पण दिखाएँगे कैसे
जो फूलों की रक्षा का दायित्व लेंगे
वो काँटों से दामन बचाएँगे कैसे
ग़ज़ल का हुनर जो न ‘आलोक’ सीखा
तो गागर में सागर समाएँगे कैसे
पढ़ रहा हूँ वेदना का व्याकरण मैं
पढ़ रहा हूँ वेदना का व्याकरण मैं
हूँ समर में आज भी हर एक क्षण मैं
सभ्यता के नाम पर ओढ़े गए जो
नोच फेकूँ वो मुखौटे, आवरण मैं
रच रहा हूँ आज मैं कोई ग़ज़ल फिर
खोल बाँहें कर रहा हूँ दुःख ग्रहण मैं
ये निरंतर रतजगे, चिंतन, ये लेखन
कर रहा हूँ अपनी ही वय का क्षरण मैं
पीछे – पीछे अनगिनत हिंसक शिकारी
प्राण लेकर भागता सहमा हिरण मैं
शक्ति का हूँ पुंज, एटम बम सरीखा
देखने में लग रहा हूँ एक कण मैं
है मेरी पहचान, है अस्तित्व मेरा
कर नहीं सकता किसी का परिक्रमण मैं
ब्रह्म का वरदान हूँ, नूरे – ख़ुदा हूँ
व्योम का हूँ तत्त्व, धरती का लवण मैं
क्या जटायू से भी हूँ ‘आलोक’ निर्बल
देखता हूँ मौन रह सीता हरण मैं
आँखों की बारिशों से मेरा वास्ता पड़ा
आँखों की बारिशों से मेरा वास्ता पड़ा
जब भीगने लगा तो मुझे लौटना पड़ा
क्यों मैं दिशा बदल न सका अपनी राह की
क्यों मेरे रास्ते में तेरा रास्ता पड़ा
दिल का छुपाऊँ दर्द कि तुझको सुनाऊँ मैं
ये प्रश्न एक बोझ सा सीने पे आ पड़ा
खाई तो थी क़सम कि न आऊँगा फिर कभी
लेकिन तेरी सदा पे मुझे लौटना पड़ा
किस – किस तरह से याद तुम्हारी सताए है
दिल जब मचल उठा तो मुझे सोचना पड़ा
वाइज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
पर क्या करूँ कि राह में ये जिस्म आ पड़ा
अच्छा हुआ कि छलका नहीं उसके सामने
‘आलोक’ था जो नीर नयन में भरा पड़ा
हालात की तस्वीर बदल जाए तो अच्छा
हालात की तस्वीर बदल जाए तो अच्छा
हाकिम जो मेरा ख़ुद ही सँभल जाए तो अच्छा
ये उसका अहं प्यार में ढल जाए तो अच्छा
रस्सी तो जली बल भी निकल जाए तो अच्छा
भड़के अभी कुछ और यूँ ही क्रांति की ज्वाला
कुछ देर अभी फ़ैसला टल जाए तो अच्छा
आँधी में जो इक दीप जलाया है किसी ने
बेकार न ये उसकी पहल जाए तो अच्छा
फट जाएँ न संताप से ये तन की शिराएँ
आँखों से लहू बन के निकल जाए तो अच्छा
अन्याय ने भर दी है बहुत आग दिलों में
लंका ही कहीं इसमें जो जल जाए तो अच्छा
तारीख़ पे तारीख़ बदल दे न गवाही
मुंसिफ़ ही अदालत का बदल जाए तो अच्छा
खुल जाएगा सब इसके हर इक शे’र में क्या है
लोगों में न ये मेरी ग़ज़ल जाए तो अच्छा
सम्बन्ध निभाने को है संवाद ज़रूरी
‘आलोक’ अगर बर्फ़ पिघल जाए तो अच्छा
इक ज़रा सी चाह में
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज बिक जाता हूँ मैं
आईने के सामने उस दिन नहीं आता हूँ मैं
रंजो-गम उससे छुपाता हूँ मैं अपने लाख पर
पढ़ ही लेता है वो चेहरा, फिर भी झुठलाता हूँ मैं
कर्ज क्या लाया मैं खुशियाँ जिंदगी से एक दिन
रोज करती है तकाजा और झुँझलाता हूँ मैं
हौसला तो देखिए मेरा, गजल की खोज में
अपने ही सीने में खंजर सा उतर जाता हूँ मैं
दे सजा-ए-मौत या फिर बख्श दे तू जिंदगी
कशमकश से यार तेरी सख्त घबराता हूँ मैं
मौन वो पढ़ता नहीं और शब्द भी सुनता नहीं
जो भी कहना चाहता हूँ कह नहीं पाता हूँ मैं
ख्वाब सच करने चला था गाँव से मैं शहर को
नींद भी खोकर यहाँ ‘आलोक’ पछताता हूँ मैं
ओ प्रियंवदे
ओ प्रियंवदे ! ओ प्रियंवदे !!
तेरी लय में लय हुआ ह्रदय
ओ प्रियंवदे ! ओ प्रियंवदे !!
नवगंध भरे, नव रंग भरे
तेरे श्रीमुख से फूल झरे
अपनी नव पाँखुरियाँ लेकर
मन के आँगन में आ उतरे
दे गए पराजय को भी जय
ओ प्रियंवदे ! ओ प्रियंवदे !!
धर बूँद-बूँद रस अधरों पर
इस मन की भी गागर को भर
मैं तृप्त हुआ, जो प्राण प्रिया
मत जा तजकर, मत जा तजकर
तुझसे दूरी का अर्थ प्रलय
ओ प्रियंवदे ! ओ प्रियंवदे !!
तेरे होठों का हास मिले
तो ही मुझको मधुमास मिले
यदि तृप्ति मिले तुझसे हर पल
तो मुझको हर पल प्यास मिले
हर प्यास मुझे तब है मधुमय
ओ प्रियंवदे ! ओ प्रियंवदे !!
कुछ पुराने पत्र मैं, रात भर पढता रहा
कुछ पुराने पत्र मैं,
रात भर पढता रहाI
एक युग मेरी आँखों में,
चलचित्र सा चलता रहाI
मैं समझा था समझ लोगे,
मगर तुम कब समझ पाएI
मगर क्यों दोष दूँ तुमको,
हम भी तो न कह पाएI
जो भेज न पाए जिन्हें,
लिख-लिख कर मैं रखता रहाI
कुछ पुराने पत्र मैं,
कल रात भर पढता रहाI
तुझे चाहत तो थी मेरी,
मुझे चाहत थी बस तेरी,
मगर कर न सका पूरी
वो जो शर्त थी तेरीI
धनुष तेरे स्वयंवर का,
बस मैं दूर से तकता रहाI
कुछ पुराने पत्र मैं,
कल रात भर पढता रहा।
नवम्बर 2012
प्रकाशित – पाक्षिक पत्रिका ‘सरिता’ दिनाँक – जून (द्वतीय) 2013
अब न रावण की कृपा का भार ढोना चाहता हूँ
अब न रावण की कृपा का भार ढोना चाहता हूँ
आ भी जाओ राम मैं मारीच होना चाहता हूँ
थक चुका हूँ, और कब तक ये दुआ करता रहूँ मैं
एक कांधा कर अता मौला कि रोना चाहता हूँ
तुम कि पंछी हो उड़ो आकाश में जिस ओर चाहो
कब तुम्हारी राह की दीवार होना चाहता हूँ
है हक़ीक़त से तुम्हारी आशनाई ख़ूब लेकिन
मैं तुम्हारी आँख में कुछ ख़्वाब बोना चाहता हूँ
आशिक़ों के आंसुओं से था जो तर दामन ग़ज़ल का
अश्क से मज़लूम के उसको भिगोना चाहता हूँ
जिनके हाथों में किताबों की जगह औज़ार देखे
उनकी आँखों में कोई सपना सलोना चाहता हूँ
है क़लम तलवार से भी तेज़तर ‘आलोक’ तो फिर
मैं किसी मजबूर की शमशीर होना चाहता हूँ
अप्रैल 2015
आशनाई – परिचय, मज़लूम – जिस पर ज़ुल्म हुआ हो, शमशीर – तलवार
प्रकाशित – कादम्बिनी (मासिक) जुलाई 2015 नई दिल्ली
मौन के ये आवरण मुझको बचा ले जाएँगे
मौन के ये आवरण मुझको बचा ले जाएंगे
वरना बातों के कई मतलब निकाले जाएंगे
राजनैतिक व्याकरण तुम सीख लो पहले ज़रा
वरना फिर अख़बार में फ़िक्रे उछाले जाएंगे
जानते हैं रहनुमा देंगे हमे कैसा जवाब
आज के सारे मसाइल कल पे टाले जाएंगे
अब अंधेरों की हुकूमत हो चली है हर तरफ़
अब अंधरों की अदालत में उजाले जाएंगे
शहर से हाकिम के हरकारे हैं आए गावं में
जाने किसके छीनकर मुँह के निवाले जाएंगे
कब तलक भरते रहें दम दोस्ती का आपकी
आस्तीनों में न हम से साँप पाले जाएंगे
दर्दे-दिल जो मौत से पहले गया तो दर्द क्या
तेरी थाती को हमेशा हम संभाले जाएंगे
प्यार का दोनों पे आख़िर जुर्म साबित हो गया
ये फ़रिश्ते आज जन्नत से निकाले जाएंगे
अश्क ज़ाया हो न पाएं सौंप दो तुम सब हमें
दिल है अपना सीप सा मोती बना ले जाएंगे
तुम अगर हो दीप तो ‘आलोक’ लासानी हैं हम
हम तुम्हारे बाद भी महफ़िल सजा ले जाएंगे
मार्च 2015
प्रकाशित – कादम्बिनी (मासिक) जुलाई 2015
खनखनाती रहीं काँच की चूड़ियाँ
खनखनाती रहीं काँच की चूड़ियाँ
गीत गाती रहीं काँच की चूड़ियाँ
बच्चियों की कलाई में जा के बहुत
खिलखिलाती रहीं काँच की चूड़ियाँ
जब भी मनिहार ने है सजायी दुकाँ
सबको भाती रहीं काँच की चूड़ियाँ
जब किसी ने सरे बज़्म देखा नहीं
कसमसाती रहीं काँच की चूड़ियाँ
गीत साजन की यादों के तन्हाई में
गुनगुनाती रहीं काँच की चूड़ियाँ
प्यार की बात पर, प्यार की सेज पर
जाँ लुटाती रहीं काँच की चूड़ियाँ
और तो कुछ न बोलीं मेरी बात पर
बस लजाती रहीं काँच की चूड़ियाँ
चौथ की रात में चाँद के साथ में
जगमगाती रहीं काँच की चूड़ियाँ
उल्फ़तों में कभी और कभी जंग में
दम दिखाती रहीं काँच की चूड़ियाँ
देख परदेस में इंद्रधनु की छटा
याद आती रहीं काँच की चूड़ियाँ
हमने ‘आलोक’ मेहँदी की तारीफ़ की
मुस्कुराती रहीं काँच की चूड़ियाँ
जनवरी 2014
दर्द ग़ैरों का भी अपना-सा लगा है लोगों
दर्द ग़ैरों का भी अपना सा लगा है लोगो
मुझको ये वस्फ़ मेरी माँ से मिला है लोगो
उसके क़दमों के निशाँ हैं मैं जिधर भी देखूँ,
घर तो माँ का ही तसव्वुर में बसा है लोगो
जो उसूलों का दिया माँ ने किया था रौशन
उम्र भर मुझको मिली उसकी ज़िया है लोगो
उम्र को मुझपे वो हावी नहीं होने देती
जब तलक माँ है ये बचपन भी बचा है लोगो
मुश्किलें हो गयीं आसान मुझे सब ‘आलोक’
मेरे हमराह , मेरी माँ की दुआ है लोगो
मई 2014
तसव्वुर-कल्पना; ज़िया -प्रकाश
प्रकाशित : दैनिक जागरण (साहित्यिक पुनर्नवा) दिनांक : 30 जून 2014
ख़त जो तुमने लिखा नहीं होता
ख़त जो तुमने लिखा नहीं होता
ज़ख़्म दिल का हरा नहीं होता
अपना अपना ख़याल है लेकिन
दर्द, दिल की दवा नहीं होता
तूने चाहा नहीं मुझे वरना
इस ज़माने में क्या नहीं होता
बेख़बर तुम रहो परेशाँ हम
यूँ कोई सिलसिला नहीं होता
दाग़ ही दाग़ जो दिखाए, वो
आईना आईना नहीं होता
सब हैं हालात के फ़रेब ‘आलोक’
कोई खोटा, खरा नहीं होता
दिसम्बर 2013