अनकहा रह जाएगा
यह मेरी
आत्मा का नाद है
जो तुम्हारी देह में बजकर
विलीन हो जाना चाहता तुममें ही
ओ मेरी बांसुरी!
तुम बिन,
अनकहा रह जाएगा यह
भटकता रह जाएगा।
मुझमें शामिल
पुराने खंडहर के
दबे पड़े संगीत में
शामिल सिसकियों की तरह।
अचानक टूट गये खिलौने की
खिसियानी हंसी में
शामिल आंसुओं की तरह।
मुझमें शामिल है कविता
और कविता में तुम।
मुक्ति की कामना
कितनी जगहों पर
कितनी यात्राएं कर चुका अब तक
कहां रहा याद !
हर नई जगह एक नया लोक
हर नया संबंध एक पुनर्जन्म की तरह
एक ही जीवन में जैसे देख लिए
अनेक जन्मान्तर।
देशान्तरों के मध्य दौड़ते-भागते
हांफने लगे हैं प्राण।
ढोते-ढोते
बाहरी छापों और खरोंचों को
निढाल हो चली आत्मा
करने लगती है मुक्ति की कामना।
भरोसे में
भरे जेठ में
जो गमले
बने रहे हरे
वे सूख गये
सावन के भरोसे में।
यात्रा में
यात्रा में हर बार
पुरातन कुछ छूट जाता है
और आ मिलता कुछ नवीन।
यह पगथलियों के साथ आने वाले
अथवा अंजुरी में भर जाने वाले
मिट्टी-जल-फूल-पत्तियों के बारे में नहीं है।
यह आकाश के तारों के लिए है
जो आंखों में आ बसते हर यात्रा में
और छूट जाते
आंसुओं की तरह।
और है भी क्या
यह मेरी व्याकुल आत्मा का संगीत है
सच-झूठ से परे
प्राणों से निचुड़ती भाषा।
इसे झूठ मानोगे तो भटक जाओगे
सच समझोगे तो बहक जाओगे
पर क्या करे कोई ?
बहकने और भटकने के सिवा
और है भी क्या
जीवन में!
टूट जाते हैं ढांचे इसी तरह
घर से चलते हुए पहले ही चौराहे पर
मिल जाए लालबत्ती
तो मिलती ही रहती है लालबत्ती अक्सर
पूरे रास्ते हर चौराहे पर
एक तर्जनी तिरस्कारपूर्ण मुद्रा में
ठहरो!
अभी बारी नहीं है तुम्हारी
पहले निकलने की
अभी गुजरने दो
दूसरी सड़कवालों को
यही सोचते-सोचते
आ रूका सातवें चौराहे पर
सोचते हुए कि और सही एक अडंगा
और सही दो मिनट
पहुंच ही लूंगा मंजिल तक
जब निकला हूं घर से अपने दुपहिया पर।
मेरी ही तरह सोच रहे होंगे
मेरे सहपंथी-
यातायाती इस सड़क के जिस पर
चल रहा हूं मैं अटक-अटक कर
और लालबत्ती अभी तक लाल है सातवें चौराहे की।
हरे सिग्नल की प्रतीक्षा में
बार-बार कलाई घड़ी देखती
स्टार्ट खड़ी है सारी गाड़ियां
बाइक, स्कूटर, टैक्सी, कार, स्कूल बस
होने को उड़न छू
एक हाथ उद्यत, छोड़ने को क्लच
दूसरा व्यग्रता से मसलता हुआ एक्सीलरेटर
टाइम हो चुका कब का पूरा
और लालबŸाी अभी तक लाल है।
गुर्रा रहे हैं सारे एंजिन
पीं-पीं, क्रीं-क्रीं, घुर्र-घुर्र
हुआं-हुआं, पों-पों का समवेत
कपालभेदी शोरशराबा
सफेद, काले धुआं के बादल
पसीनों से लथपथ चालकों के ललाट-चेहरे
कुंकुम को घोलता
नासाग्र से टपकता हुआ
अरुणाभ स्वेदजल बार-बार
पल्लू से पोंछती बेबस चालिकाएं
प्रतीक्षा-दर-प्रतीक्षा
और लालबत्ती अभी तक लाल है।
ट्रैफिक अब तक चार बार
खुलकर, हो लिया होता बंद
जो नहीं बिगड़ती इस तरह अचानक
बत्ती व्यवस्था शहर के
इस व्यस्ततम चौराहे की
और क्षणभर में वह घट गया प्रसंग
नहीं थी जिसकी कोई आशंका या पूर्वयोजना
अकारण अटका हुआ सारा हुजूम
जो हो चुका था थक कर चूर
समय के असहनीय बोझ से
जोहता बाट अपनी बारी की ईमारदारी से
छूट पड़ा एक साथ
वेगवती नदी के उफान-सा
फूट पड़ा सारा जमा ट्रैफिक
स्तब्ध रह गए आड़ी सड़क वाले
चलते-चलते ठिठक कर
रह गये हक्के-बक्के एकदम
मिल रही थी जिनको हरी बत्ती मुफ्त में
अब तक अनाधिकृत रूप से।
लालबत्ती अभी भी लाल थी और धड़ाधड़
दौड़े चले जा रहे थे लोग अपनी राह
जैसे सरपट दौड़ते
पगलाये घोड़ों का विशाल झुण्ड
भौंचक देखती ट्रैफिक पुलिस असहाय
और रौंदी जा रही थी लालबत्ती
उमड़ते जन सैलाब के घरघराते पहियों तले।
टूट जाते हैं ढांचें इसी तरह
जो होते हैं अनाधिकृत खड़े
हमारी छातियों पर
करते अतिक्रमण।
बनाए एक सेतुबंध
डूबा रहता है तुम्हारी देह का
तीन चौथाई हिस्सा
गर्व से गरजते
महासागर की कैद में
कहां आ पाया तुम्हारे हिस्से में
पूरा उजाला
समूचा रौशन करता तुमको एक साथ
जब एक गोलार्द्ध पर
पड़ता है प्रकाश
तुम्हारा दूसरा गोलार्द्ध
रहता अंधकार में।
आओ! मिलकर
बनाए एक सेतुबंध
मदमाते समुद्र की छाती पर
बन सकें रास्ते दूर-दराज
निर्वासन भोगती टापुओं की जमीन तक
और सांझ पड़े आया करें
दीया-बाती
जहां पसरी पड़ी है
अंधकार की हठीली सत्ता।
जगह और समय के बीच
‘‘हजारवीं बार एक ही छत पर पहुचंने
वाले आदमी की चाल हो सकती है
अभ्यासवश, कई गुना तेज, सीढ़ियों पर
पहली बार पग धरते आदमी के मुकाबिले,
पर बचे हुए समय में नहीं उगायी जा
सकती एक और सीढ़ी ऊपर की ओर
अवकाश में, न बढ़ाया जा सकता विस्तार
छत का, जब कि, धीरे-धीरे धीमी चाल वाला
अनभ्यस्त वह दूसरा भी पहुंच ही लेता है
उसी छत पर कुछ देर बाद। बेशक, जगहों की
तलाश में खर्च होता है समय, जिसके लिए
जरूरी है बचत समय की और समय की
बचत के लिए सीढ़ी पार करने में चाल बढ़ा
देने का अभ्यास, परन्तु, समय का विस्तार नहीं
बदला जा सकता जगह के आयतन में। जगह
की जगह चाहिए जगह। केवल जगह। समय
के समय चाहिए समय। केवल समय।’’
कि, एक समय की बात है
लाखों वर्ष कोई कम नहीं होते धरती पर
रहते साथ-साथ
अब लेता हूं विदा, मेरे पड़ौसी भाइयो!
अलविदा!
विचरता रहा स्वच्छन्द अब तक
पहाड़ों, घाटियों, जंगलों की
अपनी सल्तनत में लेकिन
तुम्हारी बस्तियों में घुसकर
शायद ही लांघी कभी मर्यादा मैंने
फिर भी जाने-अनजाने
हुई हो कोई भूल-चूक
तो क्षमा करना मनुष्य!
कहा-सुना करना सब माफ
मैं ले रहा हूं अंतिम विदा इस धरती से
तुम्हारी बस्तियां रहें आबाद-मेरे बिना भी
तुम्हारे जंगल रहें आबाद-मेरे बिना भी
तुम्हारी प्राजतियां रहें आबाद-मेरे बिना भी
नहीं, भूला नहीं हूं कुछ भी
इतना कृतघ्न तो नहीं मैं
कैसे भूल जाऊं आखिर,
जग-जननी दुर्गा का वाहन मान कर
मुझको जो मान दिया
परमपिता शिव को ‘बाघाम्बर’ का जो नाम दिया
यहां तक कि
तिरंगे, जन-गण-मन, मोर, कमल…
की गौरवशाली सूची में शामिल कर
दिया ‘राष्ट्रीय’ सम्मान मुझको
हर्गिज नहीं भूल सकता तुम्हारे उपकार
ओ, मनु-अदम के वंशजों!
मेरे लिए
तुमने बनाए अभयारण्य
जहां विचरण कर सके निर्भय
मेरी प्रिय बाघिन
हमारे शावकों के साथ
कि, जहां विचरण कर सकें निर्भय
हमारे हत्यारे
किया जा सके हमारा वध, बे-रोकटोक।
तो, मैं सदा के लिए लुप्त हो जाऊंगा
फिर भी झांकता रहूंगा
अपनी अदम्य दहाड़ के साथ
ट्यूरिज्म डिपार्टमेंट के सुचिक्कण
चित्ताकर्षक पोस्टरों के बीच
लोगों से सुनते हुए
कि, एक समय की बात है
एक बाघ हुआ करता था।
यह झील भी
अकेला मैं ही नहीं
नहाया हूं झील में
हर छपाक पर उछलती
नहायी है यह झील भी मुझमें
डुबकियां लगाने पर
गुदगुदे प्रतिरोध के साथ
अपनी गहराईयों में उतारती मुझको
नहायी है यह झील भी।
ठिठुरती अंगुलियों के पोरवों की सिकुड़न में
उतर आयी हैं हिलोरें
नाखुनों में नीलापन झील का
निचुड़ते कपड़ों में धूजता-सा
खड़ा हूं इसके तट पर
तरंगित यह भी मेरे तीर पर
घाट अभी गीले हैं।
फिसलते पानी की पुकार
जिस तरह सरपट
दौड़ती गाड़ी के ऐन सामने
अकस्मात् आये आदमी को देखकर
तत्काल भींच देता ब्रेक अचूक
चौकन्ना चालक
जिस तरह गहरे पानी में
डूबता आदमी झौंक देता
सारी की सारी ताकत
संपूर्ण छटपटाहट के साथ
बाहर निकल आने को
अब चाहिए उतना ही
चौकन्नापन, ताकत और छटपटाहट
सैंकड़ों बरस पहले कहे गये बाबा रहीम के
मोती-मानस-चून की खातिर
कि सब-कुछ सूना हो जाने से
बचाने के लिए।
कि अब किसी भी क्षण
मेरे संजीवनी हाथों से
छूटने वाली है वह विराट दिव्य चट्टान
जिससे फिसलते-फिसलते
पकड़ मेरी आठों अंगुलियों के
पहले पारों पर आ टिकी है
और मेरी उजली पगथलियों के नीचे
मुझको लीलने को मुंह खोले तैयार
अजगर सरीखी
तुम्हारी सभ्यता का मैला ढोती
नहरों का जाल बिछा है।
मुखौटे
कान जब ललक उठे हों सुनने को
पंडित रविशंकर का सितार वादन
और सुननी पड़ती है किसी बूढ़े के
जर्जर फेफड़ों की बेसुरी धुन स्टेथेस्कोप से
आतुर हो उतरने को
कोई छन्द कागज पर
और लिखना पड़ता है परचा
कड़वी दवाइयों का कड़ी हिदायत के साथ
कूंज रहा हो कबूतर उन्मत्त
ढाई आखर का प्राणों को बेसुध करता
और जाना पड़ता है अकस्मात्
किसी पड़ौसी की शवयात्रा में
उतारकर कपड़े नये फैशन के
जो पहने थे
घूमने जाने के लिए अपनी प्रियतमा के साथ।
कितनी विचित्र होती हैं परिस्थितियां
और इससे भी बढ़कर मनःस्थितियां जीवन की
कि, ठहर जाते है रविशंकर सितार पर
और आत्मीय लगती है फेफड़ों की
बेसुरी धुन, करती तन्मय
ठहर जाती है कविता उतरते-उतरते
और सही-सही उतरती है परचे पर दवाइयां
अचूक, किसी छंद-सी
और आंसुओं से भीग जाता कूंजता कपोत
देखकर शवयात्रा
सच कितने प्यारे हैं ये मुखौटे
कितने आत्मीय! कितने पवित्र!
कुछ तो खरीद बावली
चुन लिए गए मौसम के सारे फूल
तुम्हारी अगवानी में
वृक्षों ने उतार दी अपनी त्वचा
छापाखानों के लिए
छप रहे है धड़ाधड़ अभिनन्दन पत्र
तुम्हारे स्वागतगान में
सड़कों पर
बिछ गये लोग कालीन की तरह
लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी, कलमजीवी
धुन रहे हैं ढेर-ढेर रूई
बातियां बंटने के लिए चिरागों की
और थाम ली है मशाल व्यापारियों ने
मजबूती से मजबूत हाथों में
तुम, आओगे न जरूर मेरे भी घर ?
क्यों भंग करने पर तुली है
ओ, पागल लड़की।
अरबों-खरबों भरी इस उत्सवी उत्तेजना को
हुलिया तो देख तेरा
वह आ गया बिल्कुल सर पर
और तूने संवारे भी नहीं केश
चुनले-चुनले-चुनले
साबुन, शेंपुओं, सुगंधित तैलों से
पटी पड़ी दुनिया से कुछ भी
कुछ तो खरीद
न अलां ब्रांड की लिपिस्टिक
न फलां ब्रांड की नेपकिन
आखिर कुछ तो खरीद बावली!
बार-बार नहीं आएंगे तेरे द्वारे
ये सुपर स्टार, ये क्रिकेटर
ये कलाकोविद,
ये परियों-सी उतरती अलौकिक सुन्दरियां
बूढ़े कारखानों के सिकुड़ते
फेफड़ों में भरता प्राण
और छोड़ता अपाने हमारे रक्त, मज्जा में
कैसा मदमदाता आ रहा है वह
जर्जर पीढ़ी के खोखले स्नायुओं में
आ रहा है उफान
उसके तूफानी अट्टहासों से
और वह पागल लड़की
अभी भी पूछती है
क्या सचमुच कोई आएगा आधी रात
धूम-धड़ाके के साथ और बदल जाएगा
भूख और रोटी का गणित
जीवन और सपनों का व्याकरण
देह और प्यार का संगीत।
वह नहीं जानती शायद
सैंकड़ों पीढ़ियां गुजर जाने के बाद
आता है एक रोमांचक उत्सवी क्षण
-मिलेनियम पर्व
वह नादान लड़की
इतना भी नहीं जानती
उसकी शान में
ऐसे सवाल पूछना
गुस्ताखी होती है।
(नई सहस्त्राब्दी के आगमन पर लिखी गई कविता)
अभी-बिल्कुल अभी
बहुत दिनों बाद जागा है वह
टूटी है उसकी नींद
बहुत दिनों बाद
वह सोता रहा और सांस लेता रहा
और इस तरह जीता रहा वह
अब उठा रहा है धीरे-धीरे
पसीने में लिथड़ी अपनी विशाल देह
जो पसरी पड़ी थी उबड़-खाबड़
धरती पर।
अब तक दृश्य से बाहर रहा उसका वजूद
आ जमा दुर्गद्वारों की चौखटों पर
तुम्हारे कक्ष की हवा
रूकी-रूकी सी लगेगी।
अचानक जाग उठी है उसकी
सदियों सोयी हुई भूख
वह भख लेना चाहता है बहुत कुछ
घबराओ मत!
उसके हिस्से का मालमत्ता
उड़ाते रहे बाकी लोग
अब तक अनवरत
उसे अनदेखा किये, उसकी
बेसुध-सी काया पर बांधते मचान
करते उछलकूद।
उसकी अंगड़ाई लेती देह अब
चाहती है खुली-खुली जगह
खुली-खुली पुस्तक
खिला-खिला भात
अपनी भभकती आग को शांत करने के लिए
इससे पहले कि वह झपट ले तुम्हारा अंश
छोड़ने होंगे अपने नाज़ायज
पुश्तैनी कब्जे
खाली करने होंगे अभी, बिल्कुल अभी।
उतरने दो उसके गले में
तवे पर गोल-गोल घूमती
आकरी रोटियों का स्वाद
उकेरने दो उसकी अनगढ़
स्वेदसिक्त हथेलियों की छाप
कोरे पृष्ठों पर।
डरो नहीं, वह कोई
ग्रहान्तर से आया अजूबा नहीं
हमारी तुम्हारी तरह का साधारण आदमी है
कुछ समय बाद सब-कुछ
हो जाएगा सामान्य
सहज-प्रसन्न-निर्मल
जैसा पहले कभी नहीं था।