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जानना ज़रूरी है

जब वक्त कम रह जाए
तो जानना ज़रूरी है कि
क्या ज़रूरी है

सिर्फ़ चाहिए के बदले चाहना
पहचानना कि कहां हैं हाथ में हाथ दिए दोनों
मुखामुख मुस्करा रहे हैं कहां

फ़िर इन्हें यों सराहना
जैसे बला की गर्मी में घूंट भरते
मुंह में आई बर्फ़ की डली ।

लड़की

गणित पढ़ती है ये लड़की
हिन्दी में विवाद करती
अंग्रेजी में लिखती है
मुस्कुराती है
जब भी मिलती है
गलत बातों पर
तन कर अड़ती
खुला दिमाग लिए
जिंदगी से निकलती है ये लड़की

अगर कल किसी ने कहा
धोखा दिया इसे जिंदगी ने
नहीं मानूंगी
क्यों खाया इसने धोखा
और सच्चाई का ये फल पाया!
तलाश में निकलूंगी
उस झूठ की
इसे साथ लेकर
रोने नहीं दूंगी
क्रोध एक ताकत है
उसे खोने नहीं दूंगी
मुट्ठी में लेता है जो फूल समझकर
डंग लगता है उसे
तो पहला उसका अपना दृष्टि-दोष
तब छद्म की चतुराई को
मुट्ठी की मसलन की सजा

तेजस्विता
एक पिछली हुई रोशनी है
दूर तक जाती
खुद के साथ-साथ
दूसरों को नहलाती
वह उजास
जिसमें दिन फूटता है
कली की तरह
बम की तरह फटता नहीं
जिसमें हालात
हावी नहीं
महज तयशुदा भावी नहीं
गीली मिट्टी से
रौंदे संवारे सुथराए जा सकते हैं
तेजस्विता अगर चाक नहीं
तो मूर्ति का प्रभा-मण्डल है
सुन्दर और निष्प्राण
जीते जागते इंसान के
सिर पर कसा शिकंजा
इतिहास उस वक्त
बिजली के झटके लगाता
कुंद करता
निष्प्रभ बनाता यंत्र मात्र रह जाता है

ये लड़की
हालात को हादसे बनने नहीं देगी
उम्मीद को बंजर जमीन पर
नहीं छिटकाया है मैंने
कितनी ही और भी तो हैं लड़कियां
नजर ने चुना है इसे
दृष्टि दोष होगा नहीं
होगा तो मानूंगी
धोखे की दुहाई नहीं देंगी
आंख को रोने नहीं देंगी!

तीन औरतें 

एक औरत
जो महीना भर पहले जली थी
आज मर गयी
एक औरत थी
जो यातना सहती रही
सिर्फ पांव की हड्डी टूट जाने से
बहाना ढूंढ बैठी न जीने का
दिल जकड़ लिया
मर गयी

बरसों पहले हुआ करती थी
एक लड़की
याद आती है
अच्छी खासी समझदार और दबंग
अनचाहे ब्याह
नेहहीन मातृत्व से रोगी हुई
छोड़ दी दवा
वो भी मर गयी अपनी इच्छा से

तीन मौतें जब राहत देने लगें
मरने और खबर सुनने वालों को
कहीं जबरदस्त गड़बड़ है
घाव बहुत गहरा
संवेदना हादसा है
गठे हुए समाज में
गठान गांठ है
गांठ फांसी का फंदा

जब इन्सान हद से बढ़कर
हिम्मत करता है
जीने के लिए जान दे देता है
तब मर जाता है इतिहास
पुस्तकालय संग्रहालय
धू धू जलने लगते हैं
आदमी अपन गर्दन
हाथ पर उठाए
हाट में निकल आता है
मरने वाला अपने साथ
तमाम को लिए चला जाता है

खांसने लगता है साहित्य
कविता थूक के साथ खून उगलने लगती है!

मौसम 

ये कैसा मौसम है
कि
छाँह देने वाले पेड़
की शहतीरों से
कमरे में ख़ून
टपकने लगा

कि
कविता पुरस्कृत
होते ही
मेरी अपनी नज़रों में
ख़ुद पर प्रश्नचिन्ह
लग गया ।

सूरज

अपने ही ताप से
पिघला बरस गया
आग की फुहार-सा सूरज

दहकते कोलतार पर
भागते नंगे पैरों को
पता ही नहीं चला

मोटर सवार ने कहा
पैदल चलो तो
लू नहीं लगती !

नंगे पैर ने नहीं सुना–
वर्ना कभी भी वो मोटर
और लू से बदल लेता
रोज़-रोज़ जी पाने की
भट्टी पर
सिकता खौलता अपना
परोसा

बाढ़ में बाँस 

बाढ़ डूबी झोंपड़ियों
के आसमान पर
हेलिकॉटर उड़ान भरता है
दया के क़तरे टपकाता हुआ
बाढ़ बढ़ाता हुआ

बाँस लेकर जूझ रही है
झोपड़ी
फिर खड़ी होने को
टीन की चद्दर खड़खड़ाती है
छप्पर के धुएं से
आसमान में
आग लग जाती है

बच्चा

औरत के सिर पर गठरी है
कमर पर बच्चा
मर्द हाथ में बक्सा
लटकाये है
बच्चा रो रहा है लगातार
हाथ-पाँव पटक रहा
बार-बार
औरत के समझाने
मर्द के झुँझलाने के बावजूद
वह पैर-पैर चलना
चाहता है
और
गठरी अपने सिर पर
उठाना चाहता है।

पीठ पर घर

गाँव पर उगा है सूरज
गाँव उससे पहले
जाग चुका

ओस चमक रही है पीली धूप में
कुएँ की जगत पीली है

धोतियाँ भीगे झण्ड़ों-सी
सूखने को तैयार
धुँआ उठता है
सूरज की तरफ़

सदासुहागिन और केसू
पिघलने लगे
खेत चहकने लगे हैं,
बच्चों के पेट में
गुदगुदी मुट्ठी खोलती है
सागवान के पखवाड़े भील पत्ते
सँभाले हैं
कुर्सी की जून तक
पेड़ का वजूद

आदमी घर से निकलता है परेशान
और आश्वस्त
अपनी शाम की तरफ
उसकी पीठ पर
घर खड़ा है।

जन

मैं उस दुनिया में हूँ जो
सहस्त्रों चाँद से पटी है
किसी सूरज की नहीं
दिल की आग से चमकते हैं
ठण्डे पत्थर
घने से घने जंगल के पैर
धुल रहे हैं उजाले से

कुछ छोटा नहीं, लघु नहीं
हर इनसान के पीछे परेशानियों का
जुलूस
अगुवा है फिर भी
मेरा दोस्त
मेरा पड़ोसी
और हर थकान से निचुड़ कर
निकलती हैं गोल हँसियाकार
तीन-चौथाई लेकिन ताज़ा आवाज़
मेरे घुटे गले में भी
फड़फड़ाती गाती रहती है कविता।

हस्पताल

सूनी इमारत
कहीं कोई नज़र नहीं आता
आती हैं दो आवाज़ें
दर्द को बखानती एक
सहलाती दूसरी
कभी-कभी उड़ने वाले कबूतर
फ़र्श पर घिसे जमें
बींट के निशान

आदमी डाक्टर की तरह
राहत दे
तो
दुनिया में हस्पताल
कम हो जाएं
मरहम में लिपट
घाव भर जाएँ
लोग घरों में सोएँ
छज्जों पर मंजन करते हुए
दाना डालें
जीवन भरे छाती फुला
डैने पसार काम पर उड़ जाएँ

इमारतें गुज़रे ज़माने का
निशाना बन खण्डहर खड़ी रहें

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