लहर थाह लेती है
लहर-बहर
एक लहर
लहर सागर की ।
सागर अथाह
अथाह जलराशि
‘लहर ठहर ज़रा,’
पुकार-पुकार हारेंगे
लहर कभी रूकती है क्या !
लहर
थाह लेती है सागर की
-1998 ई0
फ़क़त एक हलचल
बसेरा
फ़क़त एक हलचल
छोटे – छोटे रास्ते
दौड – दौडकर
पहुँच जाते हैं इधर – उधर
बहुत से क़दमों को
तय करनी हैं दूरियाँ
मरघट तक…
असंभव ।
बोरचिंदी के आते ही
याद आते हैं ज़रूरी काम
गौरैया चाहती है
लोगों के बीच जगह
कितनी पतली टहनी पर
लटका हुआ है
संसार
– 1998 ई0
ख़ामोशी
ख़ामोश हैं
लब
सब ख़ामोश हैं
सब ख़ामोश है
राजा-प्रजा
महल-माढी
घोडा-गाडी
सब
सब के सब ख़ामोश हैं ।
काल कहता है कथा
हूँकारी देती है ख़ामोशी
केवल हाँ केवल ख़ामोशी
सुनती है काल-कथा
शेष
ख़ामोश हैं सब
सबके लब ख़ामोश हैं
– 2000 ई0
उफनती नदी के ख़्वाब में
उफनती नदी के ख़्वाब में
आती हैं
कभी, तटासीन आबाद बस्तियाँ
तो कभी
तीर्थों के गगनचुंबी कलस और
तरूवरों की लम्बीं क़तारें
लेकिन
जब-जब भी उमड़ पड़ा है उफान
तैरकर बचती निकल आई हैं बस्तियाँ।
वहाँ के बाशिंदों की फ़ितरत में
शामिल होता रहा है गहरे पानी का कटाक्ष
वे पार करते रहे हैं कई-कई सैलाब
अपने हौसलों के आर-पार
जब-जब भी झाँकती है नदी
अपनी हद से बाहर
निकलकर दूर जा बसते रहे हैं देवता
और लौटते रहे हैं तीर्थयात्रियों के संग-संग
वापस अपने धाम तक
भक्तों की प्रार्थना सुनने के लिए।
बाँचते रहे हैं शंख और घड़ियाल
दीन-दुखियों की अर्जियाँ
जब-जब भी कगारों को
टटोलती है जलजिह्वा
निहत्थी समर्पित होती रही हैं जड़ें
जंगल के जंगल बहते गए
फिर भी बीज उगाते रहे हैं
क़तारों पे क़तारें फिर से
दो क़दम पीछे ही सही
फिर से खड़ी होती रही हैं
तरूवरों की संतानें
यादों के कारखाने
पुराने दिन इतने पुराने हैं
कि यादों के कारखाने हैं
जाने क्या-क्या हैं यहाँ
बे-सिर-पैर के हज़ारों क़िस्से
बे-पर की उड़ाने
गुमशुदा दोस्ती की महक
बदग़ुमानी का मजा
अनचाहे प्यार की सजा
अचानक मिली ख़ुशियों की गुदगुदी
ख़ुद ही ख़ुद में बेख़ुदी
और तो और
बेहुदगी की बेहद हदें
बेतुकी बातों की ज़दे
इंसां को इंसां से…
इंसां को इंसां से बैर नहीं है
फिर भी इंसां की ख़ैर नहीं है
ये क़ातिल जुल्मी औ’ डाकू लुटेरे
अपने ही हैं सब ग़ैर नहीं हैं
अच्छाई की राहें हैं हज़ारों
उन पर चलने वाले पैर नहीं हैं
दूर बहुत दूर होती हैं मंजिलें अक्सर
लंबा सफ़र है यह कोई सैर नहीं है
अंकित हैं तुम्हारी पगध्वनियाँ
मेरी नींद में अंकित हैं तुम्हारी पगध्वनियाँ
यह सत्य नहीं तो कुछ अंश तो है सच का
मैं देख सकता हूँ तुम्हें अपने अवचेतन एकांत में
मुग़ालते से बचने के लिए चेत जाता हूँ
तुम्हारे गुनगुनाने और थिरकने से कहीं ज्यादा
मेरी साँसों में हैं गुज़रनेवाली हवा का उधम
यह तब जाना जब तुम थक चुकी
मैं तंग आ गया हूँ अपनी रफ़्तार से
कि इतना तेज़ क्योंकर है मेरा दौड़ पड़ना
तुम्हारी ओर समय की तरह
तुमने कभी कुछ कहा क्यों नहीं !
चोट हल्की होती है तुम्हारे पत्थर होने पर मेरे पाँवों में ठेस की
दर्द भी हल्का-हल्का होता है
सिसकियाँ भी नहीं, सुबकना भी नहीं
फिर कौन तड़पता है मेरे भीतर
समझाती हो किसे सबकुछ सहकर चुप रहने के लिए
अक्सर मेरे सिरहाने पड़ी रहती है सपनों की थैली
पाँवों में कसी होती है जल्दी टूट जानेवाली रस्सियाँ
हाथ हवा को टटोलते हैं किसी आकार का भ्रम लिए
कोई रंग आँखों में चला जाता है यकसाँ
हरबार की तरह अपना उन्माद लिए
ख़ुश्बुएँ मेरे नथूनों में घुसकर उकसाती हैं
तुम ही तो नहीं जो वक़्त को फुसलाती रहती है मेरे सामने
दीवार होने के लिए
तुमने कहाँ छिपा रखा है अपना चेहरा
कि खिलखिलाहट तो है पर
मुसकान सी कोई
फुसफुसाहट नहीं है
चुभती हैं तुम्हारी पलकें मेरी आँखों में
जादू-सा उतरता है तुम्हारा राग मेरे भीतर कहीं
बजता है एक सितार दूर बहुत दूर
अपने ग़ुम हो जाने के ख़याल में
अभी तुम्हारे अनंग का विस्तार
कहीं सजता होगा
सोचूँ भी तो ऐसा क्यों
कि धड़ाम से गिर पड़े मेरे भीतर कोई
आत्मा के आराम का
समय तय करेंगी धुन कोई
तुम्हारा रव कोई
तुम्हारा नृत्य कोई
तुम्हारा राग कोई
कि चुपके से मिटा न दो कहीं
अपने पाँवों के निशाँ
अपना पत्थर होना
मेरे लिए है अपने पारावार से गुज़रना
– 2002 ई0
रागरंग
राजा था
बेलबुटों की बुनावट से सजा-धजा महल था
रुत थी मौसम था
वाहवाही थी
साथ-साथ राजा के वाहवाह करनेवालों की
साज थे
फिज़ा में ढलती मौसिकी थी
गान था
अपनी लय में चढती-उतरती तान थी
नृत्य था
अपनी तमाम मुद्राओं में मृदुल नुपूर-नाद लिए
राजा के फ़रमान से
सजी तो थी महफ़िल मगर
साजिंदें नहीं थे
गायक नहीं था
नर्तकी नहीं थी
कला के पाखंडी उत्सव में
उपस्थित नहीं थीं उनकी आत्माएं
वे तो उनके बुत थे
जिन पर अटकी हुई थीं सबकी आंखें
बस ऐसे ही
रात ऐसे आती है कि उमड़ पड़ी हो
घटा सावन की
और हम हाथों में चराग लिए
घुमते हैं किसी भूले हुए मुसाफ़िर का
असबाब हो जैसे
एक-एक रोआ टटोलते हैं अँधेरे का
और उसकी छुअन में
मशगूल उँगलियों की पोरों तक को
नहला देते हैं रौशनी से
तब भी ख़ुश नहीं हुआ समा तो
कहे देते हैं के एक कोशिश की हमने
और अब चलते हैं
अभी और काम हैं बहुतेरे
के सुबहो होगी तो
चल पड़ेंगे सफ़र में
और तय करेंगे उन दूरियों को
जो सारी रात पसरे रहें हैं ख़्वाबों में
एक लंबे रास्ते तक
हम अपने मानी की तलाश में हैं
और होना हमारा क्योंकर हैं इस दुनिया में
यही साबित हो तो कुछ हो
वर्ना हम तो हैं बस ऐसे ही
और न होते तो कुछ नहीं पर
हैं तो बस ऐसे ही
आते हैं आने वाले
ये दुनिया है
आते हैं आनेवाले
जाते हैं जानेवाले,
सेतु नहीं है
फिर भी
इस पार से उस पार तक
उस पार से इस पार तक
आते हैं आने वाले……
-1997 ई0
खंडहर में
खंडहर में
खंडहर से डर नहीं लगता ।
डर लगता है
हवा से – धूप से
और पानी से,
हवा कभी भी आँधी में बदल सकती है
धूप आग में
और पानी मुसलाधार बारिश में
डर, एक नदी है
रगों में जो चुपचाप बहती है
काटते – छाटते हुए
भीतर ही भीतर
डर, एक आग है
गीली लकडी की
धीरे – धीरे जो
करती है राख
डर, एक आँधी है
झिंझोडती हुई
अस्तित्व
काँप उठता है जिससे
खंडहर में
खंडहर से पहले ढहता है बहुत कुछ
– 1998 ई0
वे जानते हैं
पार करनी थी नदी
तो पुल बाँधे
पार करना था सागर
तो तैरने के गुर साधे
पार करना था जीवन
तो रिश्ते-नाते बाँधे
पार करने थे जन्म-जन्मांतर
तो धरम-करम के सुर साधे
लेकिन जिन्हें
सबकुछ बना-बनाया मिला, और
न तो कुछ बाँधना था न साधना
वे नहीं सम्हाल पाये किसी बंधन को
उन्होंने न पुल बचाया न ही हुनर
न रिश्ते-नाते और न ही धरम-करम ।
तय करने के लिए कोई दूरी नहीं थी
फिर भी भागे-बेतहाशा भागे वे
नदी से, सागर से और
अपने जन्म-जन्मांतर से
यद्यपि
वे जानते हैं
मुक्ति, ऐसे नहीं मिलती
– 2000 ई0
जंगल उदास है
जंगल उदास है
. . . . . . . . .
आँगन में नीम के नीचे
अब नहीं बिछती खाट
कोई नहीं बैठता
घडी दो घडी के लिए भी
उसकी शीतल छाँह में
चौराहे पर खडे पीपल के नीचे
अब नहीं बैठती पंचायत
होता नहीं कोई फ़ैसला,
छिपाकर नहीं रखता किताबों में
कोई भी उसके पत्तों को
जिन पर लिखकर
इक़रार – इज़हार किया जाता था
दिल में पलते हुए प्यार का
गाँव के बाहर
आखर पर तनी हुई
बूढे बरगद की बाँहों में
अब कोई नहीं झूलता
बीसियों बरस पुरानी
इमली के नीचे से
बेख़ौफ़ गुज़र जाते हैं लोग,
अब नहीं रखता कोई भी
चुपके से वहाँ दीपक
अब नहीं रहती वहाँ कोई चुडैल
दूर अमराई में
किसी का पडाव नहीं है
कोई भी वहाँ छिपकर
नहीं तकता राह
ना ही अब होता है वहाँ
जुआरियों का जमघट
जंगल उदास है…
आदमी के भीतर
सतत्
पनप रहा है जंगल,
ये उदासी
किसी दावानल से कम नहीं है
– 1997 ई0
विकल्प
कल
दुनिया के बीज मिलेंगे
अभी तो व्यस्त हैं
दुनिया के नाश के आविश्कारक
विकल्प
जब भी कोई
मिल जाएगा पृथ्वी का
नष्ट कर दी जाएगी दुनिया
जिसका जी नहीं लगता
कल का इंतज़ार करें
इंतज़ार करे पृथ्वी के नष्ट होने तक
मुकम्मल सोच ले तरकीब
बीजों को हथियाने की,
सूँघ ले सारे ठिकाने
जहाँ, हो सकता है दस्तावेज
पृथ्वी के विकल्प का
-1998 ई0
कोई नहीं है
बंद दरवाज़ा
लौटा देता है वापस ,
राह अपनी
थकान, दुनी
हो जाती है जाने से
आने की
रास्ता
पहचानने लगा है
हर मोड़ कुछ
सीधा हो जाता है
सहानुभूति में
कभी भूल से साँकल
खटखटाने पर
झूम उठता है ताला
खिलखिलाकर बताता हुआ,
कोई नहीं है ।
१९९८ ई०
प्रेम उन्हें
जिन्हें प्रेम करना नहीं आता
वे बलात्कार कर रहे हैं
जिन्हें बलात्कार करना नहीं आता
वे हत्या कर रहे हैं
जिन्हें हत्या करना नहीं आता
वे आत्महत्या कर रहे हैं
जिन्हें आत्महत्या करना नहीं आता
वे जीने का साहस कर रहे हैं
उनका साहस एक न एक दिन
सिखाएगा उन्हें प्रेम
और वे बच सकेंगे
बलात्कार के अभियोग से
प्रेम उन्हें पागल या दीवाना बना सकता है
वे बन-बन भटक सकते हैं लैला-लैला चिल्लाते हुए
संगसार के शिकार हो सकते हैं
लेकिन वे बच सकेंगे हत्यारा होने से
वे बच सकेंगे आत्महत्या से या बुजदिल होने से
उनका प्रेम उन्हें
इतना साहस देगा
की सारी दुनिया को सिखा सकेंगे प्रेम
नुसरत की आँखें
समझ नहीं आता
वार करती हैं / या प्यार करती हैं
फिर भी बहुत अच्छी हैं
नुसरत की आँखें
राह देख चलती है इनसे
जल्द भाँप लेती है ख़तरा
भीतर तक झाँक लेती है अक्सर
सबको टोहती रहती
लेकिन
उसको खुल के बिखरने नहीं देतीं
नुसरत की आँखें
बकरियों की तरह फिरती
जाने कहाँ-कहाँ दीख जाती
हँसी-चुहल से बलखाती
कमसिन नादां
भरी दुपहरी जेठ की
परछाइ को रौंदती ‘जाती है कहाँ’
अक्सर पूछती हैं
मछली-सी तड़पती
नुसरत की आँखें
आदमी का बच्चा
आदमी का बच्चा
नहीं भर सकता कुलॉंचें
रँभाती गायों के
नवजात बछड़ों की तरह
अभिशप्त है वह
पैदा होते ही रोने को
भय का अंधा समय
भय का अंधा समय
धर्म की लाठी लेकर
पार करना चाहता है
निरपेक्ष रास्तों को
वैधानिक चेतावनी के बावजूद
नशे में धुत्त हो जाता है एक नागरिक
राजस्व प्राप्त कर ख़ुश है प्रशासन
नशा मुक्ति अभियान के लिए
पर्याप्त धन पाकर ख़ुश हैं स्वयंसेवी संगठन
साधु-संत, पुजारी और धर्मानुयायी
पूजा-अर्चना और प्रार्थना से कारगर मानते रहे हैं
जलसा-जुलूस और आंदोलन को
अराजकता और आतंक के अनुबंध
मुँहमॉंगी कीमत पर तय हो रहे हैं
रक़म अदायगी का अनुशासन है
सबब
आज़ाद औरतें जानती हैं
कि
वाक़ई कितनी आज़ाद हैं वे
वे जानती हैं अपने जिस्म और रूह के दरमियान
भटकते-फटकते शरारती फौवारें
उन्हें मालूम है उनके तन और मन के बीच
आज़ादी की कितनी पतली धार है
फासलों की बात अगर छोड भी दें तो
वे जानती हैं बातों के छूट जाने का सबब
स्वप्न
बुद्धू !
चाँद कहीं फलता है क्या ?
हाँ, एक आसमानी पेड़ था धरती पर
ऊपर सबसे ऊपर की शाख पर
अटका था चाँद
और शाखों-टहनियों पर छिटके थे तारे
सच ! सबकुछ झिलमिला रहा था
पूरी धरती – पूरा आसमान
कोई चिड़िया नहीं थी क्या ?
बुद्धू !
चिड़िया सब सो रही थीं
घोसलों के किवाड बंद थे
कहीं कोई आवाज़ नहीं
बहुत सन्नाटा एकदम शांत सब
चिड़िया साँस भी ले रही थीं या नहीं
कुछ मालूम नहीं ?
दूर-दूर तक फैले इस सन्नाटे में
सुनाई पडती है एक पुकार
तभी टूटकर गिर जाता है चाँद धरती पर
और गु़म होता जाता है कहीं
छिटककर तारे चले जाते हैं न जाने कहाँ ?
नगाडे की आवाज़-सी
टूट पडती है रोशनी
लम्हों की रविश
देखना, तुम
अब छूटा के तब छूटा
– तीर / लगेगा ऐसा ….और
तनी हुई प्रत्यंचा की
टूट जाएगी
डोर — साँसों की
और … देखना
शीशे – सी पिघलती
बर्फ – सी घुलती
रिस – रिस कर बहती
क़ त रा – क़ त रा
छुटती – छटपटाती
आखिर, आख़िरी तक
टूटती – फूटती – दरकती
लम्हों की रविश
दहशत में चाँद
भटका करेगा रात – रात भर
जगमग – जगमग जगमगाकर जुगनू
बाँट चुके होंगे अपने हिस्से की रोशनी,
लटका रहेगा रात का कंबल काला
रंगों की ओट सो चुकी होंगी किरणें
मछलियाँ तैरेंगी हवा में
जल अटकेगा कंठ में फाँस की तरह
टूटे तारे – सा छिटक जाएगा आँख से
एक आँसू
निवीड़ एकांत अंतरिक्ष में
वह दीप्त आभा रह जाएगी
आँधियाँ
जहाँ दो पल बैठा करते हम-तुम,
उन दरख़्तों को उड़ा ले गई आँधियाँ।
छुआ करते जिन बुलंदियों से आसमाँ,
उन परबतों को उड़ा ले गई आँधियाँ।
महक-महक उठते जो ख़ुशबू से,
उन खतों को उड़ा ले गई आँधियाँ।
सिलवट से जिनकी भरा होता बिछौना,
उन करवटों को उड़ा ले गई आँधियाँ।
जुटाती ताक़त जो लड़ने की,
उन हसरतों को उड़ा ले गई आँधियाँ।
पुख़्ता और भी जिनसे होती उम्मीदें,
उन तोहमतों को उड़ा ले गई आँधियाँ।
-1995 ई0
क्यूँ पुकारना ?
क्यूँ पुकारना
ना
ना यूँ
पुकार – ना
सुनता नहीं जब कोई
क्यूँ पुकारना ?
-2000 ई0
नीत्शे का ईश्वर
नीत्शे!
तुम्हारा ईश्वर मरा नहीं होगा
नहीं मरा होगा
हालाँकि
तुम्हारी घोषणा सही थी।
तुम्हारा ईश्वर बना होगा अनास्था से।
विजेता कहने भर के लिए
या, किसी अज्ञात भय से
सुमर लेता है, लेकिन
परास्त लोगो का ईश्वर
बडा शक्तिशाली होता है।
पराजितों की आशा
– विश्वास
आसक्ति और, या आस्था
सशक्त होती है
‘गहरे ताल-सी गहराई’
नीत्शे!
तुमने अपनी बात सतर्क-सटीक की होगी
तर्क और टीका
अवांतर फैली
क्षितिज के विस्तार-सी
विस्तीर्ण
सच से शायद दूर नहीं !
( कुछ अजब बात करते हैं )
सर्द रातों का
गर्म जादू
दूर – दूर … बहुत दूर तक
( मालूम पडता है )
जैसे, फैला हो रेत का संसार
समय के कुछ टुकडे
छूटते छटपटाते – से
ज़िंदगी से दूर … दूर भागते हुए
मिटाना चाहते हैं थकान
ढूँढते हैं पानी रेत के जंगल में
इन्हीं जंगलों से पहुँचते
हैं कई रास्ते
उन गुफाओं तक
जिनसे
निकलकर आ चुके हैं
इन सर्द रातों तक
– 1995 ई0
आसमानों की परवाज़ कर
चल उठ एक नई ज़िंदगी का आगाज़ कर,
पेट खाली ही सही आसमानों की परवाज़ कर ।
मान भी ले अब यह ज़िद अच्छी नहीं,
मिल गया ‘यूटोपिया’ का रास्ता ये आवाज़ कर ।
लबों पे आने मत दे नाम तख्तो-ताज का,
बस उसको दुआ दे, ‘जा राज कर ।
लाख करे कोई उजालों की बात, बहक मत,
तू फ़क़त ज़िंदा रह और ज़िंदगी पे नाज कर ।
-१९९५ ई०
जब तूफ़ान आते हैं
तुम हँसती रहो
खिलखिलाती रहो
अनाहूत प्रेम-सी
मन के किसी कोने में
बाँस के सूखे पत्तों पर फिसलती
हवा की किलकारियों से अनभिज्ञ
किसी दावानल की भेंट चढ़ने से
पहले का सूखापन छू न पाए तुम्हें
यही प्रार्थना का स्वर है तुम्हारे लिए
क्योंकि जब तूफ़ान आते हैं न
तो कुछ भी नहीं बचता
ख़्वाब तक उड़ जाते हैं दूर तिनके की तरह
जब तूफ़ान आते हैं
तो कुछ भी नहीं बचता
ख़्वाब तक उड जाते हैं दूर तिनके की तरह
कई-कई दिनों तक
नींद का अता-पता नहीं मिलता
भूख -प्यास तो लगती ही नहीं
हर आदमी फरिश्ता हो जाता है
कई-कई फरिश्ते भटकते फिरते हैं
जो होश आने पर सहसा पूछ बैठते हैं
“तुम्हारी भी कोई दुनिया उजड़ी है क्या ?”
जब किसी की दुनिया उजड़ जाती है
तो सारे तूफ़ान बेमानी हो जाते हैं
दुनिया की कोई भी शय कुछ नहीं
बिगाड़़ पाती वीराने का
रुदन
रुदन
एक ग़ैरमामूली हरकत है
इसका इस्तेमाल ज़रा बेबसी
और तनहाई में ही किया करें
माँ याद आए तो देख लें किसी भी
औरत का चेहरा
बहन याद आए तो देख लें किसी भी
औरत का चेहरा
बेटी याद आए तो देख लें किसी भी
औरत का चेहरा
फिर भी न रूके रुलाई तो चीख़-चीख़कर रोएँ बेधडक
दहाड़े मारते देखेगी दुनिया तो
आस-पास जमा होंगी औरतें ही
उन्हीं में मिल जाएगा कोई चेहरा
माँ जैसा
बहन जैसा
बेटी जैसा
जैसे ईश्वर
जैसे ईश्वर
निहारता है धरती को
फिर करता है उर्वर परती को
वह रचता है एक किसान में मेहनत का जज्बा
और भेज देता है गौएँ चरने के लिए
पूरी फ़सल चाट कर
गौमाताएँ करती हैं जुगाली
फिर वही जज्बा
काम करता है
फिर जोतता है खेत, किसान
गौमाताओं की संतानों को फाँदकर
कोचकता है तुतारी उनके पुष्ट पुट्ठों पर
अपना पुश्तैनी गुस्सा निकालते हुए
मुसकराता है ईश्वर
अपनी रचनात्मक ज़िद पर
और रचता है फिर
-2001ई0
और कुछ न था
कल जहाँ
हमने तय की थीं दिशाएँ
अपने-अपने रास्तों की
वहाँ,
जल में तैरती हुई स्मृतियाँ थीं
और कुछ न था
स्मृतियों में
फड़फड़ाती हुई मछलियाँ थीं
और कुछ न था
मछलियों में
भड़कती हुई तृषा थीं
और कुछ न था
तृषा में
किलोले करते हुए मृग थे
और कुछ न था
मृगों में
मैं था, तुम थी, सारा संसार था
और कुछ न था
– 1999 ई०
अभिनय की तरह
छद्म हमें अपनी दुनिया में अकेला
विवश करता है
होने के लिए ।
हम तड़पते हैं और चीख़ नहीं पाते !
कोई भी कर सकता है हमारी मदद
पर, हम, पु का र ते नहीं !
आतंकित होकर भी आतंकित नहीं होते
चलते हैं दौड़ने की तरह
दौड़ते हैं चलने की तरह
आसपास की चीज़ों को
शक्की की तरह निहारते हैं
‘संदिग्ध चीज़ों में विस्फोट का ख़तरा है’
ख़तरे बहुत से हैं
ख़तरों से बचने के उपाय बहुत से हैं
बहुत से हैं भय
भय से बच सकते हैं
पर, बचते नहीं हैं
ख़तरों से बच सकते हैं
पर बचते नहीं हैं
बचकर भी भागते हैं तो बच नहीं पाते
जैसे-तैसे
जी लेते हैं _ अभिनय की तरह
-2000 ई0
अमन की कोई आख़री गुंजाइश नहीं होती
हवाओं का झूलना
वक़्त – बेवक़्त
अपनी उब से, अपने हिंडोले पर
इन हवाओं को
मिला होता रूख, तो ज़रूर जाती
किसी षड्यंत्र में शामिल नहीं होती
हवाओं में
लटकी हैं नंगी तलवारें
सफ़ेद हाथ अँधेरों के
उजालों की शक्ल काली
अमन की कोई आख़री गुंजाइश नहीं होती ।
– 1999 ई0
फिर
थकान के बिस्तर पर बेसुध नींद
मूर्छा की हद तक
कभी-कभी मौत की तरह
बेहद शांत और थिर
फिर
एक चुटकी सुबह की
और मुसकाती धूप
पुचकारती नई लंबी यात्रा के लिए
बहलाती-सी किसी बच्चे की तरह
समझा चुकी होती पूरी तरह एक नया काम