Skip to content

Uday prakash.jpg

नींव की ईंट हो तुम दीदी 

पीपल होतीं तुम
पीपल, दीदी
पिछवाड़े का, तो
तुम्हारी खूब घनी-हरी टहनियों में
हारिल हम
बसेरा लेते

हारिल होते हैं हमारी तरह ही
घोंसले नहीं बनाते कहीं
बसते नहीं कभी
दूर पहाड़ों से आते हैं
दूर जंगलों को उड़ जाते हैं

पीपल की छाँह
तुम्हारी तरह ही
ठण्डी होती है दोपहर

ढिबरी थीं दीदी तुम
हमारे बचपन की
आचार का तलछट तेल
अपनी कपास की बाटी में सोखकर
जलती रहीं

हमने सीखे थे पहले-पहल अक्षर
और अनुभवों से भरे किस्से
तुम्हारी उजली साँस के स्पर्श में

जलती रहीं तुम
तुम्हारा धुआँ सोखती रहीं
घर की गूंगी दीवारें
छप्पर के तिनके-तिनके
धुँधले होते गए

और तुम्हारी
थोड़ी-सी कठिन रौशनी में
हम बड़े होते रहे

नदी होतीं, तो
हम मछलियाँ होकर
किसी चमकदार लहर की
उछाह में छुपते
कभी-कभी बूँदें लेते
सीपी बन
किनारों पर चमकते

चट्टान थीं दीदी तुम
सालों पुरानी

तुम्हारे भीतर के ठोस पत्थर में
जहाँ कोई सोता नहीं निझरता,
हमीं पैदा करते थे हलचल
हमीं उड़ाते थे पतंग

चट्टान थीं तुम और
तुम्हारी चढ़ती उम्र के ठोस सन्नाटे में
हमीं थे छोटे-छोटे पक्षी
उड़ते तुम्हारे भीतर

वहाँ झूले पड़े थे हमारी खातिर
गुड्डे रखे थे हमारी खातिर
मालदह पकता था हमारी खातिर
हमारी गेंदें वहाँ
गुम हो गई थीं

दीदी, अब
अपने दूसरे घर की
नींव की ईंट हो तुम तो
तुम्हारी नई दुनिया में भी
होंगी कहीं हमारी खोई हुई गेंदें
होंगे कहीं हमारे पतंग और खिलौने

अब तो ढिबरी हुईं तुम
नए आँगन की
कोई और बचपन
चीन्हता होगा पहले-पहल अक्षर
सुनता होगा किस्से
और यों
दुनिया को समझता होगा

हमारा क्या है, दिदिया री !
हारिल हैं हम तो
आएँगे बरस-दो बरस में कभी
दो-चार दिन
मेहमान-सा ठहरकर
फ़िर उड़ लेंगे कहीं और

घोंसले नहीं बनाए हमने
बसे नहीं आज तक

कठिन है
हमारा जीवन भी
तुम्हारी तरह ही

वे यहीं कहीं हैं … 

एक जनवरी, 1989 को सफ़दर की ह्त्या की स्मृति में लिखी गई कविता

वे कहीं गए नहीं हैं
वे यहीं कहीं हैं
उनके लिए रोना नहीं ।

वे बच्चों की टोली में रंगीन बुश्शर्ट पहने बच्चों के बीच गुम हैं
वे मैली बनियान पहने मलबे के ढेर से बीन रहे हैं
हरी-पीली लाल प्लास्टिक की चीज़ें

वे तुम्हारे हाथ में चाय का कप पकड़ा जाते हैं
अख़बार थमा जाते हैं
वे किसी मशीन, किसी पेड़, किसी दीवार,
किसी किताब के पीछे छुपकर गाते हैं

पहाड़ियों की तलहटी में गाँव की ओर जाने वाली सड़क पर
वे हँसते हैं
उनके हाथों में गेहूँ और मकई की बालियाँ, मटर की फलियाँ हैं

बहनें जब होती हैं किसी जंगल, किसी गली,
किसी अँधेरे में अकेली
तो वे साइकिल पर अचानक कहीं से तेज़-तेज़ आते हैं
और उनके आस-पास घण्टी बजा जाते हैं

वे हवा की ज़िन्दगी, सूरज की साँस, पानी की बाँसुरी,
धरती की धड़कन हैं
वे परछाइयाँ हैं समुद्र में दूर-दूर तक फैली तिरती हुईं

वे सिर्फ़ हड्डियाँ और सिर्फ़ त्वचा नहीं थे कि मौसम के अम्ल में गल जाएँगे
वे फ़क़त खून नहीं थे कि मिट्टी में सूख जाएँगे
वे कोई नौकरी नहीं थे कि बर्ख्वास्त कर दिए जाएँगे

वे जड़े हैं हज़ारों साल पुरानी,
वे पानी के सोते हैं
धरती के भीतर-भीतर पूरी पृथ्वी और पाताल तक वे रेंग रहे हैं
वे अपने काम में लगे हैं जब कि हत्यारे ख़ुश हैं कि
हमने उन्हें ख़त्म कर डाला है

वे किसी दौलतमन्द का सपना नहीं हैं कि
सिक्कों और अशर्फ़ियों की आवाज़ से टूट जाएँगे

वे यहीं कहीं हैं
वे यहीं कहीं हैं
किसी दोस्त से गप्प लड़ा रहे हैं
कोई लड़की अपनी नींद में उनके सपने देख रही है
वे किसी से छुपकर किसी से मिलने गए हैं
उनके लिए रोना नहीं

कोइ रेलगाड़ी आ रही है
दूर से सीटी देती हुई

उनके लिए आँसू नासमझी है
उनके लिए रोना नहीं
देखो, वे तीनों – सफ़दर, पाश और सुकान्त
और लोर्का और नज़रुल और मोलाइसे और नागार्जुन
और वे सारे के सारे
जल्दबाजी में आएँगे
कास्ट्यूम बदलकर नाटक में अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाएँगे
और तालियों और कोरस
और मंच की जलती-बुझती रोशनी के बीच
फिर गायब हो जाएँगे

हाँ, उन्हें ढूँढ़ना जरूर
हर चेहरे को गौर से देखना
पर उनके लिए रोना नहीं
रोकर उन्हें खोना नहीं

वे यहीं कहीं हैं …
वे यहीं कहीं हैं ।।

डाकिया

डाकिया
हांफता है
धूल झाड़ता है
चाय के लिए मना करता है

डाकिया
अपनी चप्पल
फिर अंगूठे में संभालकर
फँसाता है

और, मनीआर्डर के रुपये
गिनता है.

 

सुअर (दो)

एक ऊंची इमारत से
बिलकुल तड़के
एक तन्दरुस्त सुअर निकला
और मगरमच्छ जैसी कार में
बैठ कर
शहर की ओर चला गया

शहर में जलसा था
फ्लैश चमके
जै- जै हुई
कॉफी – बिस्कुट बंटे
मालाएँ उछलीं

अगली सुबह
सुअर अखबार में
मुस्करा रहा था
उसने कहा था
हम विकास कर रहे हैं

उसी रात शहर से
चीनी और मिट्टी का तेल
ग़ायब थे।

 

कुतुबमीनार की ऊँचाई

कुतबुद्दीन ऎबक को
अब ऊपर से
नीचे देख पाने के लिए
चश्मे की ज़रूरत पड़ती

इतनी ऊँचाई से गिर कर
चश्मा
टूट जाता.

 

पिंजड़ा

चिड़िया
पिंजड़े में नहीं है.

पिंजड़ा गुस्से में है
आकाश ख़ुश.

आकाश की ख़ुशी में
नन्हीं-सी चिड़िया
उड़ना
सीखती है.

 

शरारत 

छत पर बच्चा
अपनी माँ के साथ आता है.

पहाड़ों की ओर वह
अपनी नन्हीं उंगली दिखाता है.

पहाड़ आँख बचा कर
हल्के-से पीछे हट जाते हैं
माँ देख नहीं पाती.

बच्चा
देख लेता है.

वह ताली पीटकर उछलता है
–देखा माँ, देखा
उधर अभी
सुबह हो जाएगी.

 

दिन

एक सुस्त बैल
हाँफ रहा है.

उसके पुट्ठों पर
चमक रहा है पसीना
थके हुए नथुनों से
गिर रहा है
सफ़ेद झाग

सफ़ेद झाग
धीरे-धीरे
सारे मैदान में
जमा हो गया है.

 

वसंत

रेल गाड़ी आती है
और बिना रुके
चली जाती है ।

जंगल में
पलाश का एक गार्ड
लाल झंडियाँ
दिखाता रह जाता है.

 

करता है माधो जब कोई इतना ज्यादा प्यार

करता है माधो जब कोई इतना ज्यादा प्यार…

इतना ज्यादा प्यार कि किसी के भीतर से भी
निकाल लेता हो कच्चे अमरुद और कपास के गुड्डे
इतना प्यार कि कहने लगता हो कि संसार रंग बिरंगी
टिकटों का एक अलबम भर है
जो पैंतालीस साल की उम्र में
खोज निकाले अपने स्कूल की कापी
और उसके पन्नों से बनाये हवाई जहाज

इतना ज्यादा प्यार कि निगल जाये स्याही की दवात,
शिराओं में बजे दूसरों को न सुनाई देने वाला शंख
इतना प्यार कि शुद्ध न रहे उच्चारण, वाक्य पूरे न हों

तो माधो जब करता है कोई प्यार
तो उसके हाथ से न तो उजड़ता है कोई घोंसला
न फूटता है कोई कांच का गिलास

न हो सकता उसके हाथों कभी तिनके का भी अनिष्ट!

 

एक ठगे गए मृतक का बयान

जो बेतरह ठगा गया है, ठग उसे देख कर हंसे जा रहे हैं
जो ठग नहीं भी हैं, वे भी हंस रहे हैं
लेकिन जो ठगा गया है, वह प्रयत्न करता है हंसने का
और आख़िरकार हंसता है वह भी एक अजब तरीके से

उसकी हंसी में कोई ज़माना है जहाँ वह लाचार है

जिसे मार दिया गया है वह मरने के बाद बेचैनी से अपना चश्मा ढूँढ़ रहा है
उसे वे चेहरे ठीक से नहीं दिखे थे मरने के पहले
जो उसकी हत्या में शामिल थे
कुछ किताबें वह मरने के बाद भी पढ़ना चाहता है
जो मरने के ठीक पहले मुश्किल से ख़रीदी गईं थीं तमाम कटौतियों के बाद

वह मरने के पहले कोई सट्टा लगा आया था
अब वह जीत गया है
लेकिन वह जीत उधर है जिधर जीवन है जिसे वह खो चुका है

एक सटोरिया हंस रहा है
बहुत से सटोरिये हंस रहे हैं
उन्हीं की हुकूमत है वहाँ, जहाँ वह मरने से पहले रहता था

अरे भई, मैं मर चुका हूँ
तुम लोग बेकार मेहनत कर रहे हो
कोई दूसरा काम खोज़ लो
हत्या के पेशे में नहीं है इन दिनों कोई बेरोज़गारी

एक बात जो वह मरने से पहले पूछना चाहता था कवियों से
वह बात बहुत मामूली जैसी थी
जैसे यही कि तुम लोग भई जो कविताएँ आपस में लिखते हो
तो वे कविताएँ ही किया करते हो

या कुछ और उपक्रम करते हो

इस कदर हिंसा तो कवि में पाई नहीं जाती अक्सर ऐसा पुराने इतिहास में लिखा गया है
अपने मरने के पहले वह उस इतिहास को भी पढ़ आया था
जिस इतिहास को भी पिछले कुछ सालों में बड़े सलीके से
नई तकनीक से मारा गया

जहाँ वह दफ़्न है या जहाँ बिखरी है उसकी राख़
वहाँ हवा चलती है तो सुनाई देती है उस हुतात्मा की बारीक़ धूल जैसी महीन आवाज़

वह लगातार पूछता रहता है
क्यों भई ! कोई शै अब ज़िन्दा भी बची है ज़माने में ?

मैं राख़ हूँ फ़कत राख़
मत फ़ूँको
आँख तुम्हारी ही जलेगी

 

दुआ. 

जहाँ चुप रहना था,
मैं बोला ।
जहाँ ज़रूरी था बोलना,
मैं चुप रहा आया ।

जब जलते हुए पेड़ से
उड़ रहे थे सारे परिन्दे
मैं उसी डाल पर बैठा रहा ।

जब सब जा रहे थे बाज़ार
खोल रहे थे अपनी अपनी दूकानें
मैं अपने चूल्हे में
उसी पुरानी कड़ाही में
पका रहा था कुम्हड़ा

जब सब चले गए थे
अपने अपने प्यार के मुकर्रर वक़्त और
तय जगहों की ओर
मैं अपनी दीवार पर पीठ टिकाए
पूरी दोपहर से शाम
कर रहा था ऐय्याशी

रात जब सब थक कर सो चुके थे
देख रहे थे अलग अलग सपने

लगातार जागा हुआ था मैं

मेरे ख्वाज़ा
मुझे दे नीन्द ऐसी
जो कभी टूटे ना
किसी शोर से

जहाँ मैं लोरियाँ सुनता रहूँ
अपने इस जीवन भर ।

 

वर्षा राग-1 

बरसे मेघ भरी दोपहर, क्षण भर बूंदें आईं
उमस मिटी धरती की साँसे भीतर तक ठंडाईं
आँखें खोलें बीज उमग कर गगन निहारें
क्या बद्दल तक जा पाएंगे पात हमारे?

 

वर्षा राग-2 

मैना डर कर फुर्र हो गई, बिजली तड़की
छींके के सपने में खोई पूसी भड़की
कैसी हलचल आसमान ने मचा रखी है
कल-परसों से नहीं किसी ने धूप चखी है

घड़ों-घड़ों पानी औटाओ, मूसलधार गिराओ
लेकिन सब चुपचाप करो, चिड़ियों को नहीं डराओ!

 

वर्षा राग-3

यह काग़ज़ की नाव चली जाए अमरीका
सिखला दे उनको पूरब का तौर-तरीका
एट्म-बम से बिल्कुल भी धौरी बछिया नाहि डरती
न्यूट्रान से मड़र गाँव की मक्खी भी नाहिं मरती

गोबर ने चोंगी सुलगा कर लट्ठ सम्भाला
आ जाए अब रीगन हो या बेगिन साला।

 

वे यहीं कहीं हैं …

एक जनवरी, 1989 को सफ़दर की ह्त्या की स्मृति में लिखी गई कविता

वे कहीं गए नहीं हैं
वे यहीं कहीं हैं
उनके लिए रोना नहीं ।

वे बच्चों की टोली में रंगीन बुश्शर्ट पहने बच्चों के बीच गुम हैं
वे मैली बनियान पहने मलबे के ढेर से बीन रहे हैं
हरी-पीली लाल प्लास्टिक की चीज़ें

वे तुम्हारे हाथ में चाय का कप पकड़ा जाते हैं
अख़बार थमा जाते हैं
वे किसी मशीन, किसी पेड़, किसी दीवार,
किसी किताब के पीछे छुपकर गाते हैं

पहाड़ियों की तलहटी में गाँव की ओर जाने वाली सड़क पर
वे हँसते हैं
उनके हाथों में गेहूँ और मकई की बालियाँ, मटर की फलियाँ हैं

बहनें जब होती हैं किसी जंगल, किसी गली,
किसी अँधेरे में अकेली
तो वे साइकिल पर अचानक कहीं से तेज़-तेज़ आते हैं
और उनके आस-पास घण्टी बजा जाते हैं

वे हवा की ज़िन्दगी, सूरज की साँस, पानी की बाँसुरी,
धरती की धड़कन हैं
वे परछाइयाँ हैं समुद्र में दूर-दूर तक फैली तिरती हुईं

वे सिर्फ़ हड्डियाँ और सिर्फ़ त्वचा नहीं थे कि मौसम के अम्ल में गल जाएँगे
वे फ़क़त खून नहीं थे कि मिट्टी में सूख जाएँगे
वे कोई नौकरी नहीं थे कि बर्ख्वास्त कर दिए जाएँगे

वे जड़े हैं हज़ारों साल पुरानी,
वे पानी के सोते हैं
धरती के भीतर-भीतर पूरी पृथ्वी और पाताल तक वे रेंग रहे हैं
वे अपने काम में लगे हैं जब कि हत्यारे ख़ुश हैं कि
हमने उन्हें ख़त्म कर डाला है

वे किसी दौलतमन्द का सपना नहीं हैं कि
सिक्कों और अशर्फ़ियों की आवाज़ से टूट जाएँगे

वे यहीं कहीं हैं
वे यहीं कहीं हैं
किसी दोस्त से गप्प लड़ा रहे हैं
कोई लड़की अपनी नींद में उनके सपने देख रही है
वे किसी से छुपकर किसी से मिलने गए हैं
उनके लिए रोना नहीं

कोइ रेलगाड़ी आ रही है
दूर से सीटी देती हुई

उनके लिए आँसू नासमझी है
उनके लिए रोना नहीं
देखो, वे तीनों – सफ़दर, पाश और सुकान्त
और लोर्का और नज़रुल और मोलाइसे और नागार्जुन
और वे सारे के सारे
जल्दबाजी में आएँगे
कास्ट्यूम बदलकर नाटक में अपनी-अपनी भूमिकाएं निभाएँगे
और तालियों और कोरस
और मंच की जलती-बुझती रोशनी के बीच
फिर गायब हो जाएँगे

हाँ, उन्हें ढूँढ़ना जरूर
हर चेहरे को गौर से देखना
पर उनके लिए रोना नहीं
रोकर उन्हें खोना नहीं

वे यहीं कहीं हैं …
वे यहीं कहीं हैं ।।

 

आँकड़े 

अब से तकरीबन पचास साल हो गए होंगे
जब कहा जाता है कि गांधी जी ने अपने अनुयायियों से कहीं कहा था
सोचो अपने समाज के आख़िरी आदमी के बारे में
करो जो उसके लिए तुम कर सकते हो
उसका चेहरा हर तुम्हारे कर्म में टंगा होना चाहिए तुम्हारी
आंख के सामने

अगर भविष्य की कोई सत्ता कभी यातना दे उस आख़िरी आदमी को
तो तुम भी वही करना जो मैंने किया है अंग्रेजों के साथ

आज हम सिऱ्फ अनुमान ही लगा सकते हैं कि
यह बात कहां कही गई होगी
किसी प्रार्थना सभा में या किसी राजनीतिक दल की किसी मीटिंग में
या पदयात्रा के दौरान थक कर किसी जगह पर बैठते हुए या
अपने अख़बार में लिखते हुए
लेकिन आज जब अभिलेखों को संरक्षित रखने की तकनीक इतनी विकसित है
हम आसानी से पा सकते हैं उसका संदर्भ
उसकी तारीख और जगह के साथ

बाद में, उन्नीस सौ अड़तालीस की घटना का ब्यौरा
हम सबको पता है

सबसे पहले मारा गया गांधी को
और फिर शुरू हुआ लगातार मारने का सिलसिला

अभी तक हर रोज़ चल रही हैं सुनियोजित गोलियां
हर पल जारी हैं दुरभिसंधियां

पचास साल तक समाज के आख़िरी आदमी की सारी हत्याओं का आंकड़ा कौन छुपा रहा है ?
कौन है जो कविता में रोक रहा है उसका वृत्तांत ?

समकालीन संस्कृति में कहां छुपा है अपराधियों का वह एजेंट ?

रचनाकाल : १६ मार्च २००६

 

राजधानी में बैल 1 

बादलों को सींग पर उठाए
खड़ा है आकाश की पुलक के नीचे

एक बूँद के अचानक गिरने से
देर तक सिहरती रहती है उसकी त्वचा

देखता हुआ उसे
भीगता हूँ मैं

देर तक ।

 

राजधानी में बैल 2 

एक सफ़ेद बादल
उतर आया है नीचे
सड़क पर

अपने सींग पर टाँगे हुए आकाश
पृथ्वी को अपने खुरों के नीचे दबाए अपने वजन भर
आँधी में उड़ जाने से उसे बचाते हुए

बौछारें उसके सींगों को छूने के लिए
दौड़ती हैं एक के बाद एक
हवा में लहरें बनाती हुईं

मेरा छाता
धरती को पानी में घुल जाने से
बचाने के लिए हवा में फड़फड़ाता है

बैल को मैं अपने छाते के नीचे ले आना चाहता हूँ
आकाश , पृथ्वी और उसे भीगने से बचाने के लिए

लेकिन शायद
कुछ छोटा है यह छाता ।

 

राजधानी में बैल 3

सूर्य सबसे पहले बैल के सींग पर उतरा
फिर टिका कुछ देर चमकता हुआ
हल की नोक पर

घास के नीचे की मिट्टी पलटता हुआ सूर्य
बार-बार दिख जाता था
झलक के साथ
जब-जब फाल ऊपर उठते थे

इस फ़सल के अन्न में
होगा
धूप जैसा आटा
बादल जैसा भात

हमारे घर के कुठिला में
इस साल
कभी न होगी रात ।

 

राजधानी में बैल 4 

पेसिफ़िक मॉल के ठीक सामने
सड़क के बीचोंबीच खड़ा है देर से
वह चितकबरा

उसकी अधमुँदी आंखों में निस्पृहता है अज़ब
किसी संत की
या फ़िर किसी ड्रग-एडिक्ट की

तीख़े शोर , तेज़ रफ़्तार , आपाधापी और उन्माद में
उसके दोनों ओर चलता रहता है
अनंत ट्रैफ़िक

घंटों से वह वहीं खड़ा है चुपचाप
मोहनजोदाड़ो की मुहर में उत्कीर्ण
इतिहास से पहले का वृषभ
या काठमांडू का नांदी

कभी-कभी बस वह अपनी गर्दन हिलाता है
किसी मक्खी के बैठने पर
उसके सींगों पर टिकी नगर सभ्यता काँपती है
उसके सींगों पर टिका आकाश थोड़ा-सा डगमगाता है

उसकी स्मृतियों में अभी तक हैं खेत
अपनी स्मृतियों की घास को चबाते हुए
उसके जबड़े से बाहर कभी-कभी टपकता है समय

झाग की तरह ।

 

उस दिन गिर रही थी नीम की एक पत्ती

नीम की एक छोटी सी पत्ती हवा जिसे उड़ा ले जा सकती थी किसी भी ओर
जिसे देखा मैंने गिरते हुए आंखें बचाकर बायीं ओर
उस तरफ़ आकाश जहां ख़त्म होता था या शुरू उस रोज़
कुछ दिन बीत चुके हैं या कई बरस आज तक
और वह है कि गिरती जा रही है उसी तरह अब तक स्थगित करती समय को

इसी तरह टूटता-फूटता अचानक किसी दिन आता है जीवन में प्यार
अपनी दास्र्ण जर्जरता में पीला किसी हरे-भरे डाल की स्मृति से टूटकर अनाथ
किसी पुराने पेड़ के अंगों से बिछुड़ कर दिशाहारा
हवा में अनिश्चित दिशाओं में आह-आह बिलखता दीन और मलीन
मेरे जीवन के अब तक के जैसे-तैसे लिखे जाते वाक्यों को बिना मुझसे पूछे
इस आकस्मिक तरीके से बदलता हुआ
मुझे नयी तरह से लिखता और विकट ढंग से पढ़ता हुआ

इसके पहले यह जीवन एक वाक्य था हर पल लिखा जाता हुआ अब तक किसी तरह
कुछ सांसों, उम्मीदों, विपदाओं और बदहवासियों के आलम में
टेढ़ी-मेढ़ी हैंडराइटिंग में, कुछ अशुद्धियों और व्याकरण की तमाम ऐसी भूलों के साथ
जो हुआ ही करती हैं उस भाषा में जिसके पीछे होती है ऐसी नगण्यता
और मृत या छूटे परिजनों और जगहों की स्मृतियां

प्यार कहता है अपनी भर्राई हुई आवाज़ में – भविष्य
और मैं देखता हूं उसे सांत्वना की हंसी के साथ
हंसी जिसकी आंख से रिसता है आंसू
और शरीर के सारे जोड़ों से लहू

वह नीम की पत्ती जो गिरती चली जा रही है
इस निचाट निर्जनता में खोजती हुई भविष्य
मैं उसे सुनाना चाहता हूं शमशेर की वह पंक्ति
जिसे भूले हुए अब तक कई बरस हो गए ।

 

एक अलग-सा मंगलवार

वह एक कोई भी दोपहर हो सकती थी
कोई-सा भी एक मंगलवार
जिसमें कोई-सा भी तीन बज सकता था

एक कोई-सा ऐसा कुछ
जिसमें यह जीवन यों ही-सा कुछ होता

पर ऐसा होना नहीं था

एक छांह जैसी कुछ जो मेज़ के ऊपर कांप रही थी
थोड़ी-सी कटी-फटी धूप, जो चेहरे पर गिरती थी
पसीने की कुछ बूंदे जो ओस बनती जाती थीं
वह एक नन्हीं-सी लड़की
आकाश से गिरती एक पत्ती से छू जाने से खुद को बार-बार
किसी कदर बचा रही थी

एक हथेली थी, जिसने गिलास मेज़ पर रख दिया था
और किसी दूसरी हथेली की गोद में बैठने की ज़िद में थी

चेहरा वह नन्हा-सा कांच का पारदर्शी
ओस में भीगा,
जिसके पार एक हंसी जल जैसी
बे-हद आकांक्षाओं में लिपटी

वह चेहरा तुम्हारा था

एक आंख थी वहां
उस नन्हे-से चेहरे में
मेज़ की दूसरी तरफ़ या मेरी आत्मा के अतल में
किसी नक्षत्र की टकटकी हो जिस तरह
उस मंगलवार में जिसमें बहुत मुष्किल से थोड़ी-सी छांह थी

उस दिन कुछ अलग तरह से तीन बजा इस शताब्दी में
जिसमें यह जीवन मेरा था, जो पहले कभी जिया नहीं गया था इस तरह
जिसमें होठ थे हमारे जिन्हें कुछ कहने में सब कुछ छुपाना था

वह एक बिलकुल अलग-सी दोपहर
जिसमें अब तक के जाने गए रंगों से अलग रंग की कोई धूप थी
एक कोई बिल्कुल दूसरा-सा मंगलवार
जिसमें कभी नहीं पहले जैसा
पहला तीन बजा था

और फिर एक-आध मिनट और कुछ सेकेंड के बीतने के बाद
अगस्त की उमस में माथे पर बनती ओस की बूंदों को
मुटि्ठयों में भींचे एक सफ़ेद बादल के छोटे से टुकड़े से पोंछते हुए
तुमने कहा था
तिनका हो जा।
तिनका हुआ ।

पानी हो जा ।
पानी हुआ ।

घास हो जा ।
घास हुई ।

तुम हो जाओ ।
मैं हुआ ।

अगस्त हो जा । मंगलवार हो जा । दोपहर हो जा ।

तीन बज ।

इस तरह अगस्त के उस मंगलवार को तीन बज कर एकाध मिनट
और कुछ सेकेंड पर
हमने सृष्टि की रचना की

ईश्वर क्या तुम भी डरे थे इस तरह उस दिन
जिस तरह हम किन्हीं परिंदों-सा ?

 

एक अलग-सा मंगलवार

वह एक कोई भी दोपहर हो सकती थी
कोई-सा भी एक मंगलवार
जिसमें कोई-सा भी तीन बज सकता था

एक कोई-सा ऐसा कुछ
जिसमें यह जीवन यों ही-सा कुछ होता

पर ऐसा होना नहीं था

एक छांह जैसी कुछ जो मेज़ के ऊपर कांप रही थी
थोड़ी-सी कटी-फटी धूप, जो चेहरे पर गिरती थी
पसीने की कुछ बूंदे जो ओस बनती जाती थीं
वह एक नन्हीं-सी लड़की
आकाश से गिरती एक पत्ती से छू जाने से खुद को बार-बार
किसी कदर बचा रही थी

एक हथेली थी, जिसने गिलास मेज़ पर रख दिया था
और किसी दूसरी हथेली की गोद में बैठने की ज़िद में थी

चेहरा वह नन्हा-सा कांच का पारदर्शी
ओस में भीगा,
जिसके पार एक हंसी जल जैसी
बे-हद आकांक्षाओं में लिपटी

वह चेहरा तुम्हारा था

एक आंख थी वहां
उस नन्हे-से चेहरे में
मेज़ की दूसरी तरफ़ या मेरी आत्मा के अतल में
किसी नक्षत्र की टकटकी हो जिस तरह
उस मंगलवार में जिसमें बहुत मुष्किल से थोड़ी-सी छांह थी

उस दिन कुछ अलग तरह से तीन बजा इस शताब्दी में
जिसमें यह जीवन मेरा था, जो पहले कभी जिया नहीं गया था इस तरह
जिसमें होठ थे हमारे जिन्हें कुछ कहने में सब कुछ छुपाना था

वह एक बिलकुल अलग-सी दोपहर
जिसमें अब तक के जाने गए रंगों से अलग रंग की कोई धूप थी
एक कोई बिल्कुल दूसरा-सा मंगलवार
जिसमें कभी नहीं पहले जैसा
पहला तीन बजा था

और फिर एक-आध मिनट और कुछ सेकेंड के बीतने के बाद
अगस्त की उमस में माथे पर बनती ओस की बूंदों को
मुटि्ठयों में भींचे एक सफ़ेद बादल के छोटे से टुकड़े से पोंछते हुए
तुमने कहा था
तिनका हो जा।
तिनका हुआ ।

पानी हो जा ।
पानी हुआ ।

घास हो जा ।
घास हुई ।

तुम हो जाओ ।
मैं हुआ ।

अगस्त हो जा । मंगलवार हो जा । दोपहर हो जा ।

तीन बज ।

इस तरह अगस्त के उस मंगलवार को तीन बज कर एकाध मिनट
और कुछ सेकेंड पर
हमने सृष्टि की रचना की

ईश्वर क्या तुम भी डरे थे इस तरह उस दिन
जिस तरह हम किन्हीं परिंदों-सा ?

 

ताना बाना 

हम हैं ताना हम हैं बाना।
हमीं चदरिया, हमीं जुलाहा, हमीं गजी, हम थाना।

नाद हमीं, अनुनाद हमीं, निश्शब्द हमीं, गंभीरा
अंधकार हम, चांद-सूरज हम, हम कान्हां, हम मीरा।
हमीं अकेले, हमीं दुकेले, हम चुग्गा, हम दाना।

मंदिर-मस्जिद, हम गुरुद्वारा, हम मठ, हम बैरागी
हमीं पुजारी, हमीं देवता, हम कीर्तन, हम रागी।
आखत-रोली, अलख-भभूती, रूप घरें हम नाना।

मूल-फूल हम, स्र्त बादल हम, हम माटी, हम पानी
हमीं यहूदी-शेख-बरहमन, हरिजन हम क्रिस्तानी।
पीर-अघोरी, सिद्ध औलिया, हमीं पेट, हम खाना।

नाम-पता ना ठौर-ठिकाना, जात-धरम ना कोई
मुलक-खलक, राजा-परजा हम, हम बेलन, हम लोई।
हम ही दुलहा, हमीं बराती, हम फूंका, हम छाना।

हम हैं ताना, हम हैं बाना।
हमीं चदरिया, हमीं जुलाहा, हमीं गजी, हम थाना।

 

एक अकेले का गाना

धन्य प्रिया तुम जागीं,
ना जाने दुख भरी रैन में कब तेरी अंखियां लागीं।

जीवन नदिया, बैरी केवट, पार न कोई अपना
घाट पराया, देस बिराना, हाट-बाट सब सपना ।
क्या मन की, क्या तन की, किहनी अपनी अंसुअन पागी ।

दाना-पानी, ठौर ठिकाना, कहां बसेरा अपना
निस दिन चलना, पल-पल जलना, नींद भई इक छलना ।
पाखी रूंख न पाएं, अंखियां बरस-बरस की जागी ।

प्रेम न सांचा, शपथ न सांचा, सांच न संग हमारा
एक सांस का जीवन सारा, बिरथा का चौबारा ।
जीवन के इस पल फिर तुम क्यों जनम-जनम की लागीं ।

धन्य प्रिया तुम जागीं,
ना जाने दुख भरी रैन में कब तेरी अंखियां लागीं ।

 

रेख्‍ते में कविता

जैसे कोई हुनरमंद आज भी
घोड़े की नाल बनाता दिख जाता है
ऊंट की खाल की मशक में जैसे कोई भिश्‍ती
आज भी पिलाता है जामा मस्जिद और चांदनी चौक में
प्‍यासों को ठंडा पानी

जैसे अमरकंटक में अब भी बेचता है कोई साधू
मोतियाबिंद के लिए गुल बकावली का अर्क

शर्तिया मर्दानगी बेचता है
हिंदी अखबारों और सस्‍ती पत्रिकाओं में
अपनी मूंछ और पग्‍गड़ के
फोटो वाले विज्ञापन में हकीम बीरूमल आर्यप्रेमी

जैसे पहाड़गंज रेलवे स्‍टेशन के सामने
सड़क की पटरी पर
तोते की चोंच में फंसाकर बांचता है ज्‍योतिषी
किसी बदहवास राहगीर का भविष्‍य
और तुर्कमान गेट के पास गौतम बुद्ध मार्ग पर
ढाका या नेपाल के किसी गांव की लड़की
करती है मोलभाव रोगों, गर्द, नींद और भूख से भरी
अपनी देह का

जैसे कोई गड़रिया रेल की पटरियों पर बैठा
ठीक गोधूलि के समय
भेड़ों को उनके हाल पर छोड़ता हुआ
आज भी बजाता है डूबते सूरज की पृष्‍ठभूमि में
धरती का अंतिम अलगोझा

इत्तिला है मीर इस जमाने में
लिक्‍खे जाता है मेरे जैसा अब भी कोई-कोई
उसी रेख्‍ते में कविता

 

दास्तान-ए-ला-पता

बहुतेरे ऐसे लोग-बाग़ हैं, जो अब उन पतों पर नहीं रहते
जहाँ वे वर्षों से, कभी-कभी तो कई पीढ़ियों से हमेशा पाए जाते थे ।

बहुत-से ऐसे गाँव-मोहल्ले, दूक़ान, क़िले, घर और बग़ीचे अब उजाड़ हैं बीयाबान
निर्जनता और ख़ामोशियाँ भय और रहस्य के भारी-भरकम जूते पहने
दिन-रात वहाँ गलियों में टहलती है

वहाँ रहने वाले लोगों को कहीं और ले जाया गया है
या वे ख़ुद ही किसी रात या दिन की परछाइयों में चुपचाप अपने पीछे
छोड़ गए हैं अपने पुराने पते

ये जगहें और उनके पुराने पते अब सिर्फ़ उनकी स्मृतियों के अतीत में होंगे
जल उठते होंगे वे कभी-कभी किसी बीमार पुराने बल्ब की तरह
उनके अपने धुन्धले जीवन में, अगर वे अभी भी किसी दूसरे पते पर मौजूद हैं

यहाँ तो अब सन्नाटा बजता है
सायरन या नारे या एम्बुलेंस का अलार्म की आवाज़ में

वे लोग जहाँ कहीं भी हैं
उनका हर रोज़ एक कोशिश है ग़मज़दा, कठिन और दारुण
अपने छूटे पतों पर लौटने की, जिन्हें अब भी वे न भूलने के लिए अक्सर चुप हो जाते हैं

पिछले कई वर्षों-दशकों से, मुग़लों-अँग्रेज़ों से लगाकर आज तक
किसी को लौटते हुए नहीं देखा गया
जो जाता है, लोग-बाग़ डरे हुए या मुस्कुराते हुए कहते हैं — ‘वह चला गया !’
सरकारी और पँजीकृत चिट्ठियों के लिफ़ाफ़ों पर लिखता है पड़ोसी —
‘इस नाम का कोई व्यक्ति इस पते पर नहीं रहता ।’

महाकाव्यों और पॉप्युलर फ़िल्मों में ज़रूर ऐसा पाया जाता है
उसके नायक या पात्र कई-कई साल किन्हीं जँगलों-कन्दराओं के अज्ञातवास में गुज़ारकर
किसी कालजयी विजेता की तरह लौटते हैं दूँदुभियाँ-नगाड़े बजाते, ध्वजाएँ फहराते

यथार्थ में जो लौटता है वह एक हारा हुआ आदमी होता है बीमार बूढ़ा
भगोड़ा या फ़रार अपनी पहचान और चेहरा छुपाता हुआ

कभी-कभी किसी गए हुए ला-पता का शव ही लौटते देखा गया है
लोग उसे किसी विरक्त निस्पृहता के साथ
आसपास की नदी या तालाब के किनारे फूँक कर अपने घरों को लौट आते हैं

मरने के बाद न चाँद रहता है न सूरज
न हवा न पानी
सिर्फ़ मरे हुए की स्मृतियाँ रहती हैं अन्तरिक्ष में
मरने के बाद पुराने पते पर लौटना असम्भव है

जो जीवित होता है वही लौटता है

अगर कभी कोई तुमसे कहे
उसने किसी मृतक को देखा है नए कपड़ों में बाज़ार में कुछ ख़रीददारी करते हुए
खाते-खिलखिलाते हुए अपने जीवित बचे परिवार के साथ
या उसे देखा है किसी बहुत पुराने छूटे हुए वीरान ईंटहे घर की खिड़की से बाहर की ओर
चुपचाप टकटकी बाँधे कुछ निहारते हुए

तो मान लेना कि यह सच है

वैसा ही सच जैसे कोई कहे कि उसने 16 मई 2019 को देखा है
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम के साथ
कोलकाता के भरे बाज़ार में दिन-दहाड़े घूमते और गाते हुए

या कोई अपनी भाषा से निर्वासित सनकी कवि अगर कहे
हर साल और यह कोई अजूबा नहीं कि
30 जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड में
एक बूढ़ा शाल ओढ़े लाठी टेकता
दिल्ली में टहलता दिखता है
तीस जनवरी लेन के किसी सेठ के पते की ओर अकेले पैदल जाते हुए

बोर्गो डोरा, टूरिन 18 मई 2019

(अपने बेहद प्रिय कथाकार मंज़ूर एहतेशाम से शीर्षक के लिए क्षमा माँगते हुए।)

 

घोड़े की सवारी

लड़का उसे बड़ी देर से
घोड़ा कहकर
उसकी टाँगों पर
चढ़ रहा था ।

वह लेटा हुआ था पीठ के बल ।
बायें घुटने पर
दायीं टाँग थी
जो लड़के लिए घोड़े की
पीठ थी ।

उसके पैर के अँगूठे को लड़का
घोड़े के कान की तरह
ऎंठ रहा था ।

उसने टाँगें हिलाईं धीरे से कि
लड़का गिरे नहीं
‘चला घोड़ा, चला’ लड़के ने
ताली पीटी और जीभ से
चख-चख की आवाज़ निकाली ।

उसके सिर में दर्द था सुबह से ही
वह सोना चाहता था तुरत
लेकिन लड़के ने घंटे भर से उसे
घोड़ा बना रखा था

अचानक लड़का गिरा फ़र्श पर
उसका माथा दीवार से टकराज़ा
उसे लगा, लड़के को
चोट ज़रूर आई होगी

उसने वापस आदमी होने की
कोशिश की और
उठकर बैठ गया ‘

वह लड़के को चुप कराना
चाहता था ‘

लेकिन उसके गले में से
थके हुए घोड़े की
हिनहिनाहट निकली सिर्फ़ !

 

मेरी बारी 

पाँच साल से
मरे हुए दोस्त को
चिट्ठी डाली आज

जवाब आयेगा
एक दिन

कभी भी

सीढ़ी, शोर,
टेबिल, टेलिफ़ोन से भरे
भवन की
किसी भी एक
मेज़ पर
मरा हुआ

मैं उसे पढ़ते हुए
हँसूँगा

कि लो,
आख़िर मैं भी !

 

रंगा-बिल्ला

एक था रंगा
एक था बिल्ला

दोनों भाई-भाई नहीं थे
लेकिन दोनों को फाँसी हो गयी ।

एक थे टाटा
एक है बिरला

दोनों भाई-भाई हैं
लेकिन दोनों को फाँसी नहीं हुई ।

 

गांधीजी

गांधी जी
कहते थे–

‘अहिंसा’

और डंडा लेकर
पैदल घूमते थे ।

 

व्यवस्था 

दोस्त चिट्ठी में
लिखता है–
‘मैं सकुशल हूँ ।’

मैं लिखता हूँ–
‘मैं सकुशल हूँ ।’

दोनों आश्चर्यचकित हैं ।

 

करीमन और अशर्फ़ी 

शाहनवाज़ खाँ
तुम अपनी अंटी से तूतनखामेन की
अशर्फ़ी निकालना ।

उधर हाट के सबसे आख़िरी छोर पर
नीम के नीचे
टाट पर
कई साल से अपनी झुर्रियों समेत बैठी
करीमन किरानची होगी ।

तुम उससे अशर्फ़ी के बदले
लहसुन माँगना ।

यह शर्त रही
कि वह नहीं देगी ।

 

पाँड़े जी 

उस दिन पाँड़े जी
बुलबुल हो गए

कलफ़ लगाकर कुर्ता टाँगा
कोसे का असली, शुद्ध कीड़ों वाला चाँपे का,
धोती नयी सफ़ेद, झक बगुला जैसी ।

और ठुनकती चल पड़ी
छोटी-सी काया उनकी ।

छोटी-सी काया पाँड़े जी की
छोटी-छोटी इच्छाएँ,
छोटे-छोटे क्रोध
और छोटा-सा दिमाग़ ।

गोष्ठी में दिया भाषण, कहा–
‘नागार्जुन हिन्दी का जनकवि है’
फिर हँसे कि ‘मैंने देखो
कितनी गोपनीय
चीज़ को खोल दिया यों ।
यह तीखी मेधा और
वैज्ञानिक आलोचना का कमाल है ।’

एक स-गोत्र शिष्य ने कहा–
‘भाषण लाजवाब था, अत्यन्त धीर-गम्भीर
तथ्यपरक और विशलेषणात्मक
हिन्दी की आलोचना के ख्च्चर
अस्तबल में
आप ही हैं एकमात्र
काबुली बछेड़े।’

तो गोल हुए पाँड़े जी
मंदिर के ढोल जैसे ।

ठुनुक-ठुनुक हँसे और
फिर बुलबुल हो गए
फूल कर मगन !

 

छींक 

ज़िल्लेइलाही
शहंशाह-ए-हिंदुस्तान
आफ़ताब-ए-वक़्त
हुज़ूर-ए-आला !

परवरदिगार
जहाँपनाह !

क्षमा कर दें मेरे पाप ।

मगर ये सच है
मेरी क़िस्मत के आक़ा,
मेरे ख़ून और पसीने के क़तरे-क़तरे
के हक़दार,
ये बिल्कुल सच है

कि अभी-अभी
आपको
बिल्कुल इंसानों जैसी
छींक आयी ।

 

दुआ

हुमायूँ ने दुआ की थी
अकबर बादशह बने

अकबर ने दुआ की थी
जहाँगीर बादशाह बने

जहाँगीर ने दुआ की थी
शाहजहां बादशाह बने

बादशाह हमेशा बादशाह के लिए
बादशाह बनने की दुआ करता है

लालक़िले का बूढ़ा दरबान
बताता है ।

 

खेल 

जो लड़का
सिपाही बना था
उससे दूसरे लड़के ने
अकड़कर कहा–

‘अबे राजा की पूँछ के बाल
मैं चोर नहीं हूँ’

और खेल
बिगड़ गया ।

 

पत्थर 

इस पत्थर के भीतर
एक देवता ज़रूर है

उस देवता के मंत्र से
यह पत्थर है

जैसे हम सब
पत्थर हैं किसी देवता के मंत्र से ।

 

अर्ज़ी

शक की कोई वज़ह नहीं है

मैं तो यों ही आपके शहर से गुज़रता
उन्नीसवीं सदी के उपन्यास का कोई पात्र हूँ
मेरी आँखें देखती हैं जिस तरह के दॄश्य, बेफ़िक्र रहें
वे इस यथार्थ में नामुमकिन हैं

मेरे शरीर से, ध्यान से सुनें तो
आती है किसी भापगाड़ी के चलने की आवाज़

मैं जिससे कर सकता था प्यार
विशेषज्ञ जानते हैं, वर्षों पहले मेरे बचपन के दिनों में
शिवालिक या मेकल या विंध्य की पहाड़ियों में
अंतिम बार देखी गई थी वह चिड़िया

जिस पेड़ पर बना सकती थी वह घोंसला
विशेषज्ञ जानते हैं, वर्षों पहले अन्तिम बार देखा गया था वह पेड़
अब उसके चित्र मिलते हैं पुरा-वानस्पतिक क़िताबों में
तने के फ़ासिल्स संग्रहालयों में

पिछले सदी के बढ़ई मृत्यु के बाद भी
याद करते हैं उसकी उम्दा इमारती लकड़ी

मेरे जैसे लोग दरअसल संग्रहालयों के लायक भी नहीं हैं
कोई क्या करेगा आख़िर ऎसी वस्तु रखकर
जो वर्तमान में भी बहुतायत में पाई जाती है

वैसे हमारे जैसों की भी उपयोगिता है ज़माने में
रेत घड़ियों की तरह हम भी
बिल्कुल सही समय बताते थे
हमारा सेल ख़त्म नहीं होता था
पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण हमें चलाता था
हम बहुत कम खर्चीले थे
हवा, पानी, बालू आदि से चल जाते थे

अगर कोयला डाल दें हमारे पेट में
तो यक़ीन करें हम अब भी दौड़ सकते हैं ।

 

मैं लौट जाऊंगा 

क्वाँर में जैसे बादल लौट जाते हैं
धूप जैसे लौट जाती है आषाढ़ में
ओस लौट जाती है जिस तरह अंतरिक्ष में चुपचाप
अंधेरा लौट जाता है किसी अज्ञातवास में अपने दुखते हुए शरीर को
कंबल में छुपाए
थोड़े-से सुख और चुटकी-भर साँत्वना के लोभ में सबसे छुपकर आई हुई
व्याभिचारिणी जैसे लौट जाती है वापस में अपनी गुफ़ा में भयभीत

पेड़ लौट जाते हैं बीज में वापस
अपने भांडे-बरतन, हथियारों, उपकरणों और कंकालों के साथ
तमाम विकसित सभ्यताएँ
जिस तरह लौट जाती हैं धरती के गर्भ में हर बार

इतिहास जिस तरह विलीन हो जाता है किसी समुदाय की मिथक-गाथा में
विज्ञान किसी ओझा के टोने में
तमाम औषधियाँ आदमी के असंख्य रोगों से हार कर अंत में जैसे लौट
जाती हैं
किसी आदिम-स्पर्श या मंत्र में

मैं लौट जाऊंगा जैसे समस्त महाकाव्य, समूचा संगीत, सभी भाषाएँ और
सारी कविताएँ लौट जाती हैं एक दिन ब्रह्माण्ड में वापस

मृत्यु जैसे जाती है जीवन की गठरी एक दिन सिर पर उठाए उदास
जैसे रक्त लौट जाता है पता नहीं कहाँ अपने बाद शिराओं में छोड़ कर
निर्जीव-निस्पंद जल

जैसे एक बहुत लम्बी सज़ा काट कर लौटता है कोई निरपराध क़ैदी
कोई आदमी
अस्पताल में
बहुत लम्बी बेहोशी के बाद
एक बार आँखें खोल कर लौट जाता है
अपने अंधकार मॆं जिस तरह ।

 

औरतें 

औरत पर्स से खुदरा नोट निकाल कर कंडक्टर से अपने घर
जाने का टिकट ले रही है
उसके साथ अभी ज़रा देर पहले बलात्कार हुआ है
उसी बस में एक दूसरी औरत अपनी जैसी ही लाचार उम्र की दो-तीन औरतों के साथ
प्रोमोशन और महंगाई भत्ते के बारे में
बातें कर रही है
उसके दफ़्तर में आज उसके अधिकारी ने फिर मीमो भेजा है
वह औरत जो सुहागन बने रहने के लिए रखे हुए है करवा चौथ का निर्जल व्रत
वह पति या सास के हाथों मार दिये जाने से डरी हुई
सोती सोती अचानक चिल्लाती है
एक और औरत बालकनी में आधीरात खड़ी हुई इंतज़ार करती है
अपनी जैसी ही असुरक्षित और बेबस किसी दूसरी औरत के घर से लौटने वाले
अपने शराबी पति का
संदेह, असुरक्षा और डर से घिरी एक औरत अपने पिटने से पहले
बहुत महीन आवाज़ में पूछती है पति से –
कहां खर्च हो गये आपके पर्स में से तनख्वाह के आधे से
ज़्यादा रुपये ?
एक औरत अपने बच्चे को नहलाते हुए यों ही रोने लगती है फूट-फूट कर
और चूमती है उसे पागल जैसी बार-बार
उसके भविष्य में अपने लिए कोई गुफ़ा या शरण खोज़ती हुई
एक औरत के हाथ जल गये हैं तवे में
एक के ऊपर तेल गिर गया है कड़ाही में खौलता हुआ
अस्पताल में हज़ार प्रतिशत जली हुई औरत का कोयला दर्ज कराता है
अपना मृत्यु-पूर्व बयान कि उसे नहीं जलाया किसी ने
उसके अलावा बाक़ी हर कोई है निर्दोष
ग़लती से उसके ही हाथों फूट गयी थी किस्मत
और फट गया था स्टोव
एक औरत नाक से बहता ख़ून पोंछती हुई बोलती है
कसम खाती हूं, मेरे अतीत में कहीं नहीं था कोई प्यार
वहां था एक पवित्र, शताब्दियों लंबा, आग जैसा धधकता सन्नाटा
जिसमें सिंक-पक रही थी सिर्फ़ आपकी खातिर मेरी देह
एक औरत का चेहरा संगमरमर जैसा सफ़े़द है
उसने किसी से कह डाला है अपना दुख या उससे खो गया है कोई ज़ेवर
एक सीलिंग की कड़ी में बांध रही है अपना दुपट्टा
उसके प्रेमी ने सार्वजनिक कर दिये हैं उसके फोटो और प्रेमपत्र
एक औरत फोन पकड़ कर रोती है
एक अपने आप से बोलती है और किसी हिस्टीरिया में बाहर सड़क पर निकल जाती है
कुछ औरतें बिना बाल काढ़े, बिना किन्हीं कपड़ों के
बस अड्डे या रेल्वे प्लेटफ़ार्म पर खड़ी हैं यह पूछती हुई कि
उन्हें किस गाड़ी में बैठना है और जाना कहां है इस संसार में
एक औरत हार कर कहती है -तुम जो जी आये, कर लो मेरे साथ
बस मुझे किसी तरह जी लेने दो
एक पायी गयी है मरी हुई बिल्कुल तड़के शहर के किसी पार्क में
और उसके शव के पास रो रहा है उसका डेढ़ साल का बेटा
उसके झोले में मिलती है दूध की एक खाली बोतल, प्लास्टिक का छोटा-सा गिलास
और एक लाल-हरी गेंद, जिसे हिलाने से आज भी आती है
घुनघुने जैसी आवाज़
एक औरत तेज़ाब से जल गयी है
खुश है कि बच गयी है उसकी दायीं आंख
एक औरत तंदूर में जलती हुई अपनी उंगलियां धीरे से हिलाती है
जानने के लिए कि बाहर कितना अंधेरा है
एक पोंछा लगा रही है
एक बर्तन मांज रही है
एक कपड़े पछींट रही है
एक बच्चे को बोरे में सुला कर सड़क पर रोड़े बिछा रही है
एक फ़र्श धो रही है और देख रही है राष्ट्रीय चैनल पर फ़ैशन परेड
एक पढ़ रही है न्यूज़ कि संसद में बढ़ाई जायेगी उनकी भी तादाद
एक औरत का कलेजा जो छिटक कर बोरे से बाहर गिर गया है
कहता है – ‘मुझे फेंक कर किसी नाले में जल्दी घर लौट आना,
बच्चों को स्कूल जाने के लिए जगाना है
नाश्ता उन्हें ज़रूर दे देना,
आटा तो मैं गूंथ आई थी
राजधानी के पुलिस थाने के गेट पर एक-दूसरे को छूती हुईं
ज़मीन पर बैठी हैं दो औरतें बिल्कुल चुपचाप
लेकिन समूचे ब्रह्मांड में गूंजता है उनका हाहाकार
हज़ारों-लाखों छुपती हैं गर्भ के अंधेरे में
इस दुनिया में जन्म लेने से इनकार करती हुईं
लेकिन वहां भी खोज़ लेती हैं उन्हें भेदिया ध्वनि-तरंगें
वहां भी,
भ्रूण में उतरती है
हत्यारी तलवार। काश

 

सहानुभूति की मांग 

आत्मा इतनी थकान के बाद
एक कप चाय मांगती है
पुण्य मांगता है पसीना और आँसू पोंछने के लिए एक
तौलिया
कर्म मांगता है रोटी और कैसी भी सब्ज़ी

ईश्वर कहता है सिरदर्द की गोली ले आना
आधा गिलास पानी के साथ

और तो और फकीर और कोढ़ी तक बंद कर देते हैं
थक कर भीख मांगना
दुआ और मिन्नतों की जगह
उनके गले से निकलती है
उनके ग़रीब फेफड़ों की हवा

चलिए मैं भी पूछता हूँ
क्या मांगूँ इस ज़माने से मीर
जो देता है भरे पेट को खाना
दौलतमंद को सोना, हत्यारे को हथियार,
बीमार को बीमारी, कमज़ोर को निर्बलता
अन्यायी को सत्ता
और व्याभिचारी को बिस्तर

पैदा करो सहानुभूति
कि मैं अब भी हँसता हुआ दिखता हूँ
अब भी लिखता हूँ कविताएँ।

 

द्वारपाल 

तुम यहाँ कहाँ बैठे हो, द्वारपाल?

यह तो निर्जन मैदान है और चौखट दरवाज़ा नहीं है कहीं भी

तुम्हें सीमेंट से नहीं बनाया गया है, द्वारपाल
तुम जागे हुए या सोए हुए हो, द्वारपाल
भूख तुम्हें लगी होगी, द्वारपाल
क्या बीड़ी पिओगे, द्वारपाल

वे जो असुरक्षित हुआ करते थे ग़रीबों से
वर्षों पहले रात में
यह जगह छोड़कर
कहीं और चले गए हैं, द्वारपाल

तुम अब
बिल्कुल सुरक्षित हो, द्वारपाल।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.