बहुत दिनों बाद
बहुत दिनों बाद
एक गीत लिखा है
लेकिन यह गीत नहीं
पिछले गीतों जैसा
इसमें रोमांटिकता नहीं है
सच ! इसमें भावुकता नहीं है
यह यथार्थ की
टेढ़ी गलियों में घूमा है
इसने-खुरदुरा-
वक़्त का चेहरा चूमा है
यह पानीदार ख़्वाब नहीं है
फिर भी इसका जवाब नहीं है
बहुत दिनों बाद
एक स्वप्न दिखा है
लेकिन यह स्वप्न नहीं
पिछले स्वप्नों जैसा
इसमें लिजलिजी गंध नहीं है
वही घिसा-पिटा छंद नहीं है
इसमें संस्पर्श
गद्य का भी मिल जायेगा
शब्द-शब्द
अनगढ़ साँचे में ढल जायेगा
यह पिघली हुई पीर नहीं है
इसकी कोख में नीर नहीं है
बहुत दिनों बाद
एक जख़्म पका है
लेकिन यह जख़्म नहीं
पिछले जख़्मों जैसा
लेकिन यह गीत नहीं
पिछले गीतों जैसा
–’वैचारिकी संकलन’ (नई दिल्ली), मई, 1996
महक रहा है कब से यह प्रतीक
महक रहा है
कब से
यह प्रतीक
शब्दों के जंगल में
समझ नहीं पाता हूँ
बहुत खूबसूरत
यह फूल
दृष्टि में कैसे खिल गया
मैं उस
प्राचीन मार्ग से ही तो
चला था
रास्ता नया
कैसे मिल गया
दहक रही है
रक्तिम
नई लीक
राहों के जंगल में
महक रहा है कब से यह प्रतीक
शब्दों के जंगल में
विगत कई सदियों से
चिपके
जो बासे संस्कार
सुनो !
दूर बहुत छूट गए
पुरखों के
कर्मकांड के
अंधे मानदंड
प्रातःकालीन सूर्य के स्वर से
टकरा कर टूट गए
चहक रही है
ताजी
युवा सीख
वृद्धों के जंगल में
महक रहा है कब से यह प्रतीक
शब्दों के जंगल में
–’समकालीन भारतीय साहित्य’ (नई दिल्ली), मई-जून, 1996
सोने के पहाड़
डूब गए
कुहरे में
फिर वे
सोने के पहाड़
जो पहाड़
उजलापन
बाँट रहे थे
बरसों से
अचरज है
दीख नहीं रहे मुझे
कल-परसों से
थे जहाँ पहाड़
वहाँ जल है
धुंध है
धुँआ है
बादल है
डूब गए
पानी में
जादू-टोने के पहाड़
जो परबत
डूब गए
उन्हें
डूब मत जाने दो
हे नाविक !
मुझको
फिर से
कविता निर्माणों की
गाने दो
यह कविता
बहुत नई होगी
हर्षित होगा
मन का जोगी
निर्मित होंगे
मन के
सरगम होने के पहाड़
लो देखो
उभर रहे
कोहरे से
फिर वे
सोने के पहाड़
–’समकालीन भारतीय़ साहित्य’ (नई दिल्ली), मई-जून, 1996
निराली पत्ती
यह जो
कालातीत
समय का
वृक्ष है
इसमें
नयी
निराली पत्ती
खिल गई
यह पूर्णिमा है
यह
पूर्णिमा है
उजली
धवल रात
मुझ से
तुम तक
लहराती
गहराती
शेर अपने बिल में
चूहा
अपने बिल में
शेर की तरह
बेखौफ़
ताव देता
मूँछो पर
वक़्त-बेवक़्त
गुर्राता
ज़रूरत पड़ने पर
मारे दहाड़
चुहिया ने
ललकारा
मर्दानगी को
निकला छाती फुलाए
अकड़ाए हुए गर्दन
पूरी ऐंठ के साथ
दूर से ही
दिखी झलक
काल-बिलौटे की
बब्बर शेर
वापस अपने
बिल में।
रचनाकाल : 21 नवम्बर 2005
कृति मेरी पुत्री है
मेरी हर कृति
मेरी पुत्री है;
जिसे जन्म देने के बाद मैंने
कई बार काट-पीट, संशोधन करते हुए सँवारा,
भाषा के सुन्दर वस्त्र पहनाए
नये-नये बिम्बों और प्रतीकों की मदद से
कल्पना के दिव्याभूषणों से किया सज्जित उसे।
एक श्रेष्ठ पत्रिका के
सार्वजनिक मंच से
मुखरित होकर उसने
प्रतिभा अपनी दिखलाई ज्योंही तभी
जजमानी के चक्कर में
आलोचक पंडित
उसका गुणगान कर उठा
पाठक के समक्ष।
रजामंदी मिलते ही
प्रकाशक भी तत्पर हुआ
पाठक के साथ उसका
जीवनभर का गठजोड़ करवाने।
पुस्तक छपने के बाद
लोकार्पण-रूपी उसके परिणय का
किया गया शानदार उत्सव भी।
जिसके पश्चात
भरे नयनों से मैंने
अपनी सुन्दर, सुयोग्य पुत्री को
सौंप दिया पाठक-वर के समक्ष।
लेकिन सदियों से चली आई कुप्रथा से
काली कमाई के आदी हो चुके
उस प्रकाशक ने
दहेज के लालच में
अपने काले धन का थोक खरीद में प्रयोग करते
मेरी उस पुत्री को
पाठक से पृथक कर
डाला सरकारी पुस्तकालय की कारा में।
और विरोध करने पर
उसे ऐसी धमकी दी…
‘ज्यादा चूँ-चपड़ की तो
रद्दी की मिट्टी का तेल उसके तन पर डाल
जला दिया जाएगा उसको!’
बीत गए कितने ही दिन,
महीने और साल भी,
मेरी श्रेष्ठ कृति-पुत्री
बहाती है रोज
आठ-आठ अश्रु;
थोक खरीद वाली लाइब्रेरी की
तिहाड़ जेल में बंदी
उसे नहीं दिया जाता है मिलना
उसके सौभाग्य से;
क्योंकि अब नहीं है किरन बेदी-सी
जेल की सर्वोच्च अधिकारी कोई;
जिसे तिहाड़ जेल के
जंग खाये नियमों-कायदों वाले
तालों को तोड़कर
जेल के ही भीतर
नये आधुनिक सुधार
लागू करने के उपलक्ष्य में
नवाजा गया
मैगसैसे ऐवार्ड से!
मेरी तीन पुत्रियाँ ही
मेरी श्रेष्ठ कृतियाँ हैं।
जिन्हें मैंने
संचित आदर्शों से प्रेरित हो
आन्तरिक गुणों की
मुखर व्यंजक शक्तियों से
बनाया पर्याप्त सक्षम
और प्रतिभाशाली
प्रकृत-रुचिकर अपने-अपने कर्म से।
और जो
अपने परिणयोत्सव से पूर्व ही,
समाज के सुदूर दिग्-दिगंत में
अपनी धवल कीर्ति का
कर रहीं प्रसारण।
समाज का हर सहृदय,
संवेदनशील व्यक्ति
उनके कर्मवाची शब्दों का
पाठक भी श्रोता भी।
पराए घर के धन को ठीक तरह से सँजो रख,
आखिर सौंप ही देना होता उसे
उसके नवनिर्मित घर अपने को।
कृति जो मेरी पुत्री थी
मेरी भी कहाँ रही?
प्रकाशित होने के बाद
हो गई पढ़े-लिखे
समूचे समाज की,
करते हुए भिन्न-भिन्न विमर्श
भिन्न-भिन्न स्थानों पर।
मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना।
पुत्रियाँ जो मेरी ही कृतियाँ थीं,
परिणय के बाद वे
कहाँ रहेंगी मेरी?
हो जाएँगी
किसी और की!
अपने आचरण के अनूठे शब्दों को
समूचे समाज के समक्ष
रखते हुए
यह उत्तर आधुनिक विमर्श :
कि क्यों ऐसा होता है
पुत्री को ही मात्र छोड़ना घर होता अपना।
क्यों उसके जन्म पर
नहीं खुशी होती
समाज के बहुत बड़े तबके को?
सुन्दर या असुन्दर किसी कृति के रचने पर
कालजयी हो अथवा सामयिक,
अल्प पृष्ठों वाली
अथवा महाकाया,
वरिष्ठ, सिद्धहस्त या नवोदित हो
क्यों होता है रचनाकार को अविस्मरणीय सुख या उल्लास,
क्यों उसका रोम-रोम नृत्य कर उठता है मयूर की तरह!
यह सवाल इतना तो कठिन नहीं फिर, भी
हमारे इस आलोचक समाज ने
बना दिया है इसे
बेहद जटिल पहेली।
आपमें से क्या कोई
एक भी मनीषीजन ऐसा है
जोकि कृपापूर्वक मदद मेरी करे
हल करने के लिए
जीवन की इस कठिन प्रमेय को?
मेरी बीहड़ आशावादिता कहती है मुझसे
इस विराट पृथ्वी पर कहीं तो
काल की अनन्तता के बीच कभी
मिलेगा मुझे महाश्रमण वह
जिसके दिव्य सम्पर्क में आकर
कलुषित आत्मा की
निगूढ़तम गहराइयों तक
आनन्दित होकर मैं
समाज को नवजीवन और
नवोत्साह
देने की क्षमता वाले
उस अद्भुत मन्त्र का
प्रसार कर सकूँ
सर्वत्र।
छिपकली
छिप छिप
कली कली
छिपकली
छिपकली
जालीदार खिड़की के उस पार
देखते हुए मनुष्य-कारोबार
अपने से करते हुए अधिक प्यार
दुनिया के इन गोरखधन्धों में
मुझ जैसे साधारण बन्दों में
व्याप्त घृणा दरकिनार करते
परम अणु की प्रभुता से न डरते
और बेपरवाह रहते
समय की नदी में बहते
चेतन की त्वचा पर
अचेतन की शक्ति से
अजब अनुरक्ति गजब भक्ति से
थोड़ी-थोड़ी देर में
स्थान अपना बदलते
आशंकित आकस्मिक विपदा से सम्हलते
हाथों और पाँवों के
चार-चार चुम्बकीय पंजों से
मन-ही-मन हँसते-मुस्कराते हुए
जीवन का विचित्र गीत गाते हुए
चिपक ली
चिपक ली
छिपकली
छिपकली
लघु मानव नहीं
लघ्वाकार मगरमच्छ-सी
बम भोले के तृतीय अक्ष-सी
उत्तर आधुनिकता के
परम विनाशकारी
पेंटागन के गोपनीय और अभेद्य कक्ष-सी
तिलाकृति जैसी दोनों आँखों में
एक को खोले रखकर
और दूसरी को मींच
त्रिकोणीय थूथन को
सतह से सटाए
बगुले की प्रकृति वाले
पाखंडी योगी की तरह ध्यानमग्न,
अन्ततः करते अपनी इच्छा को नग्न-
खामोशी से अपने रस्ते चले जा रहे
किसी तैलीय कृमि-कीट को
देते हुए नहीं अवसर
स्वयं को निर्दोष बताने का
किसी जीवन-भक्षी की तरह
उसको उदरस्थ कर
पलक झपकने से पूर्व
अपने श्वेताभ किसी बिल में
छिपने के लिए कहीं
छिपक ली
छिपक ली
छिपकली
छिपकली
जाम पियें
एक-एक जाम पियें
कोलाहल का, आओ!
स्वाद बहुत तीखा है
किंतु इसे पीकर हम
मस्ती में डूब जायँगे
बैठी है जो मन की हलचल सागर-तीरे
वह भीतर खींच लायँगे
एक-एक जाम पियें
इस हलचल का, आओ!
तोता
1
अगर कहीं मैं
तोता होता…
तो क्या होता?
याद मुझे आ गई अचानक
उस तोते की…
तोता उसको कहना ठीक नहीं होगा
…उस शिशु तोते की
जिसे पक्षियों के बजार से
मैंने पिंजड़े सहित खरीदा
अपनी सबसे छोटी बेटी
की सुन-सुन लम्बी फरमाइश
दसियों बरस पूर्व
जब वह थी नन्हीं बच्ची
और मुझे अकसर ही कहती…
पापा! मुझे चाहिए तोता
अगर कहीं मैं तोता होता
तो क्या होता?
2
कानपुर के सीसामऊ वाले बजार से
निकल रहा था जब मैं
नजर अचानक गई
किनारे बैठे पक्षी-विक्रेता के ऊपर
जिसके पास अनेकों
हरियल तोते
अपनी-अपनी उम्र और
कद-काठी के अनुसार
छोटे-बड़े-मँझोले
पिंजड़ों में थे कैद;
और ताकते निर्निमेष
अपने-अपने पिंजड़ों के बाहर
सोच रहे थे…
‘शायद कोई मुक्त हमें
करने को आए।
‘एक शिकारी ने
छीनकर स्वातन्त्र्य हमारा
हमें बना डाला है बन्दी;
शायद कोई
भगत सिंह, गांधी अथवा सुभाष
गुजरता हुआ
इस बजार से, जिसमें
स्थानिकता से लेकर
राष्ट्रीयता एवं
अन्तर्राष्ट्रीयता के
गुण भी भरपूर हैं
मुक्त कराए,
स्वतन्त्रता दिलाये हमको।’
इसीलिए जब मैंने
रिक्शा रुकवाया उस विक्रेता के पास तो
सारे तोते उत्सुकता से लगे देखने मेरी तरफ
और अपेक्षा की नजरों से!
कि ‘आखिरकार मिल गया हमको
भगतसिंह, गांधी, सुभाष जैसा ही कोई,
जो अपने आत्मिक बल,
साहस, चतुराई या कूटनीति से
निश्चय हमें दिला पाएगा वापस
वह स्वतन्त्रता जिसको
खो बैठे थे हम
अपने भोलेपन से या कि मूर्खता से ही!’
सचमुच ऐसा सोच रहे थे वे
कि मुझे ही
झूठा यह आभास हुआ?
झूठ, फरेब और धोखे के
शिकार हो चुकने के बाद
क्या अब वे हो चुके सतर्क
और किसी भी
नये और अनजान व्यक्ति को
ठीक तरह जाँचने-परखने के ही बाद
अपनी आत्मा का
निश्छल सौन्दर्य्य
प्रकट करने को उत्सुक?
3
तोते को जब देखा मैंने
अपनी नन्हीं-मुन्नी आँखों से वह
देख रहा था
पिंजड़े के घेरे से बाहर,
ललक भरी नजरों में उसकी।
चंद दिनों पहले ही उसने
शायद रक्खा कदम
जिन्दगी की धरती पर।
उसे नहीं था ज्ञान
कि यह दुनिया है कैसी!
अक्षर-ज्ञान अभी तक नहीं मिला था उसको,
और न उसे ज्ञान था.
‘तोतारंटत’ वाली अपनी अद्भुत प्रतिभा का ही!
4
अपनी अद्भुत रंटत
विद्या के गुण को
तोतों ने वितरित किया
हम मनुष्यों के बीच
अपनी चित्ताकर्षक मुखाकृति
और हरियल सुन्दरता की
खुशबू के सँग।
प्रत्युत्तर में हमने
उनके साथ किया अत्याचार,
अपने क्षणिक मनोरंजन-हेतु
जबरन अपनी भाषा के
चंद टुकड़े अथवा चंद शब्द
सुनने के लिए!
और इसके लिए हमने
उन्हें अन्न के दानों की जगह
खाने को दी
तिक्त हरी मिर्च!
करते हुए नहीं कोई भी परवाह
कि उसे खाने के पश्चात
उनकी कण्ठ-नली में
होगा प्रवाहित भयंकर दर्द;
‘राम, राम’ …बोले हम,
कहते हुए
‘मिट्ठू! बोलो राम! राम!’
कड़वी मिर्च खिला
उसे मिट्ठू नाम से पुकारनेवाले
निर्दयी हम मनुष्यों को
अपनी भोली-भाली आँखों से
देखते हुए
वाणी की कृपा से वंचित
वे हरियल तोते
चीत्कार करते जोर-जोर से।
और उनका चीत्कार सुनते ही
हर्ष से भर ताली पीटते हम
और कहने लगते आस-पड़ोस से…
देखो! हमारा मिट्ठू
बोल रहा ‘राम-राम’
हमारा ही वाणी में,
कैसा चमत्कारी है!
बेबस तोते अवश्य सोचते…
‘इस निर्दयी मनुष्य को भी
जबरदस्ती कड़वी मिर्चें खिलाकर
क्यों न कोई बाध्य करता
बोली बोलने को हमारी भी।’
5
विक्रेता से तोते को खरीदते वक्त
समझीं मैंने सभी हिदायतें जो थीं
उसके पालन-पोषण हेतु;
और सावधानी के साथ
दर्ज डायरी में की अपनी
जाहिल ढोंगी विक्रेता को
उसका ध्यान रखने
उसे लाड़-प्यार देने का
पूरा आश्वासन देकर
आया चला वहाँ से ले उसको।
लेकिन यह क्या हुआ कि
उसने मुटुर-मुटर आँखों से अपनी
मेरी ओर देखने के बाद भी
नहीं लिया कोई नोटिस मेरा और
बिना एक भी बोले शब्द, वह…
पिंजड़े में बैठा रहा चुप
उदास नजरों से!
6
विक्रेता की सभी हिदायतों के अनुसार मैंने
पिंजड़े में रक्खे कुछ दाने,
हरी-हरी मिर्च
कटोरी में शीतल जल
और टाँग दिया उसे
अपने कमरे में गर्व से भरकर।
नन्हीं बिटिया उसे देख-देख
खुशी से उछलती,
पीटती ताली।
अगले दिन रात्रि को जब
लौटा मैं दफ्तर से
तोता नहीं दिखा,
नहीं दिखा उसका पिंजड़ा कहीं।
पूछा जब पत्नी से मैंने तो
उसने दुख भरे स्वर में
किया मुझे सूचित कि
मिट्ठू! आज दिन में ही चल बसा,
और उसके दुख में दुखी
बिटिया सो गई रोते-रोते
भोजन छोड़कर।
तोते ने आखिर मुक्ति पा ही ली,
पा ही ली स्वतन्त्रता,
मुझे जैसे एक क्रूर
हृदयहीन व्यक्ति को भी
देते हुए दर्जा
गांधी का, भगतसिंह का,
नेताजी का!
अपनी तथाकथित स्वतन्त्रता पाने के लिए
उसके पास था ही क्या और
जिसे वह खोता?
मेरे भी पास अब शेष था क्य
सिवा इसी उलझन के
कि अगर कहीं
मैं तोता होता
तो क्या होता?
ईंट
मिट्टी को जल से गूँथ
और आग से तपाकर
परिपक्व हुई यह
और अब तैयार है
किसी मस्जिद के गुम्बद में
मन्दिर की नींव में
गिरजाघर के फ़र्श पर या
गुरुद्वारे के ‘गुरु-स्तम्भ’ में लगने को,
होने सुशोभित —
जीवन को पुण्य-कार्य में व्यतीत करने
और सुधारने अपना परलोक
कौन जाने यह लग जाए
किसी कुएँ की बावड़ी
या नदी के घाट पर
या सार्वजनिक शौचालय में,
मज़दूर की काल-कोठरी में
या कुबेर के महल में !
मान लीजिए
गाँव की कच्ची-पक्की सड़क पर यह
कीचड़ और धूल में लथपथ आपको दिखे
जहाँ से उठाकर आपका करोड़ या अरबपति ठेकेदार
इसका बना दे भविष्य
महानगरों को जोड़ते
सुदीर्घ राजमार्ग पर
सबसे अहम् सवाल तो यह है कि
इस पर बैठकर
अजान दी जाए या
खड़े होकर बजाई जाएँ
मन्दिर की घंटियाँ ?
गीता, कुरान,
ग्रँथ साहब या
बाइबिल पढ़ी जाए,
अथवा सरकारी स्कूल की बेसिक रीडर ?
किया जाए पेशाब या नहाया जाए;
मज़दूर इसे तोड़ मिट्टी बनाकर
सड़क पर डाले या कुबेर इसे
बना दे सोने की ईंट
पर इस का
कोई असर नहीं तब तक
जब तक उसे
जवाब न मिले पत्थर का !
मगर मिट्टी तो होती है आहत ।
अपने मूल स्वरूप में
उसकी शुचिता अखण्ड
उस का स्त्रीत्व अक्षत ।
आवारा कुत्ते
आवारा कुत्ते
घूम रहे हैं सड़क पर
इधर-उधर ।
कोई नहीं है
उनकी देखभाल को ।
एक मादा
अपनी पूँछ हिलाते हुए
आती एक पिल्ले के पास
अभी कुछ ही दिनों पहले
जो आया इस दुनिया में ।
पिल्ले को पता नहीं
कैसी है यह दुनिया
उसके लिए समूची दुनिया है
उसकी माँ
और उसके थनों से
उतरता दूध
और उसके
आधा दर्जन
हमउमर भाई और बहन ।
वह बार-बार जाता है
अपनी माँ के पास,
उसके पैरों से लिपटता है,
नन्हीं-नन्हीं
मुँदी-मुँदी आँखों से
माँ के थनों से जा चिपटता है
और पाता है ख़ुद को
अपने आधा-दर्जन
हम उमर
भाई-बहनों के साथ
गुत्थम-गुत्था होते !
उसे नहीं पता
कि अभी
कुछ ही दिनों बाद
उसे इस क्रूर
भयानक दुनिया के बीच
अकेला और
निहत्था छोड़
उसकी माँ हो जाएगी निश्चिन्त !
उसे होगा भरोसा
कि महीने-दो महीने में ही
उसका लाल
हो जाएगा इतना समझदार —
कि ऐसी दुनिया के
दाँव-पेचों को भी लेगा जान,
इसी के बीच
अपने रहने की
तलाश लेगा जगह,
जुगत भिड़ा लेगा
पेट भरने की और
आदमी रूपी
अजाने दुश्मन से बचने
उसे डराने के लिए भूँकने
और वक़्त पड़ने पर
काटने के लिए उसे
आ जाएगा इस्तेमाल करना
अपने दाँतों का !
इतना ही नहीं
जो उतने ही समय में
विकसित कर लेगा
वह अचूक अन्तर्दृष्टि,
जो अनगिनती
सभ्य मनुष्यों के बीच
किसी वास्तविक मनुष्य की
आँखों के सहारे
उसके हृदय में उतरेगी;
और वहाँ अवस्थित
अमूर्त्त भाव की पृथ्वी की
वानस्पतिक गंध से
कस्तूरी हिरण की तरह ;
आबद्ध हो ;
उसे बिना किसी भय के
पूँछ हिलाते हुए
उसके पैरों का स्पर्श करने
और वहाँ लोट-पोट होकर
अपनी स्वामिभक्ति दिखाने को
कर देगी विवश !
मगर ऐसा सम्भव होगा
हज़ारों में एक बार !
फिर भी
माँ तो बेबस है ।
उसे अपने बच्चे को
सिखाना ही होगा यह सब,
क्योंकि वह जानती है
कि कुत्ताजात है
बच्चे का पिता !
जिसे नहीं होगी चिन्ता
कि उसका बच्चा
कहाँ है ?
कैसा है ?
आया है दुनिया में तो
पेट कैसे भरेगा ?
उसने तो
बच्चे की माँ को भी
हवस का शिकार बनाने के बाद
पलभर को देखा नहीं
कभी चिन्ता नहीं की
कि आख़िर उसकी भी है —
आकांक्षा कोई,
कि आख़िर
उसका भी है कोई मन,
कि आख़िर उसे भी
सुरक्षा की दरकार —
आवारा कुत्तों से !
वह तो उसके साथ
क्षणिक सुख भोग
फिर से कहीं गंदगी में मारने मुँह
चला गया !
इसीलिए बेबस माँ
और क्या करे —
कि हाल-हाल जनमे
आधा दर्जन बच्चों को समझाए
कितनी कठिन, क्रूर,
अमानवीय है यह दुनिया !
और आदमी से
आठ गुना तेज़ चलती
उसकी ज़िन्दगी को
ठीक ढँग से पूर्ण करने के लिए
उन्हें आख़िर कैसी-कैसी
जुगतें भिड़ानी होंगी !
माँ को सब पता है,
उसने देखी-समझी और
भोगी है यह दुनिया !
पिल्ला अभी
नहीं जानता कुछ,
किन्तु जान जाएगा जल्दी ही
फ़िलवक़्य कूँ… कूँ करते हुए
देखता है —
अपनी माँ के थनों को ;
क्योंकि आज, अभी तो —
उसकी माँ के थन ही हैं
उसकी समूची दुनिया !
उलटबाँसी
मैंने दृष्टि से
लिया सुनने का काम
मेरी श्रवण-क्षमता ने
मुझे दिखाए स्तब्धकारी दृश्य
स्पर्श ने सुनाया
शास्त्रीय राग कल्याणी दादरा
जीभ को बनाकर कलम
वाणी की रोशनाई से
मैंने मंत्र लिखे सुबह के
और हाथ की उँगलियों ने
भजन गाया परिश्रम का
क्या ये सब
उलटबाँसियाँ हैं कबीर की?
कि इक्कीसवीं सदी के आते-आते
मेरे पाँव हो गए बालिग
और उन्होंने शुरू कर दिया सोचना
संपूर्ण गरिमा के साथ
यहाँ तक कि दिमाग
फटे-पुराने जूते पहनकर भी
दौड़ने लगा ओलंपिक की दौड़ में
उसकी प्रकृति
उसने नालें ठोकीं
घोड़ों के पाँवों में
मगर शूल-धूल
मिट्टी-पानी से बचाव-हेतु
अपने लिए
जूते ईजाद किए
हाथी उसके संकेत पर नाचे
सो लोहे का नुकीला अंकुश
जब-तब भोंका
उसकी गरदन में
शेर का किया शिकार
उसकी खाल को
कभी तो इस्तेमाल किया
अपनी तथाकथित साधना में
व्याघ्र-चर्म बनाकर
कभी ड्राइंगरूम का
सजावटी शौर्य-प्रतीक
रेगिस्तान के
मीलों लंबे सफर को
तय करने
ऊँट को बनाया वाहन
बगैर उसकी भूख-प्यास की
परवाह किए हुए
अपने लिए लादे
ठंडे पानी के मशक
और भारी-भरकम
खाने का सामान
आह! खाना?
कहने को
अपनी भूख मिटाने
हकीकत में
अपनी लपलपाती जिह्वा का
बदलने के लिए स्वाद बार-बार
उसने सबका किया शिकार
सुंदर से सुंदर हिरण, खरगोश
बारहसिंघा और मोर
कुरूप और बदशक्ल गैंडा भी
हिंसक चीता
और अहिसंक श्वान
विषैले साँप-बिच्छू और
निर्विष बकरी, मेंढक और मुर्गे
और पवित्र गाय भी!
इतना ही नहीं
घृणित सूअर तक
विशालकाय ऊँट और
क्षुद्रतम चींटा और चींटी भी
नाम सुनते ही
उबकाई आने वाले
छिपकली और गिरगिट तक
और नभचरों में
पकड़ में आने वाली
सारी चिड़ियाएँ
हंस, बत्तख, सारस, कोयल और
यहाँ तक कि कौआ और उल्लू तक!
ओह! प्रकृति के ये विविध उपहार
जिनका अस्तित्व किसी-न-किसी रूप में
प्रकृति के जीवन,
स्वास्थ्य और सौंदर्य को
बनाये रखने के लिए
बेहद उपयोगी था
करते हुए बुद्धि का विकृत उपयोग
उसने उन सबको
बनाया
अपने आहार का साधन
खतरे में डाला
पर्यावरण को
बुद्धिमान हाथी को मारा
दाँतों के व्यापार
और आभूषण बनाने के वास्ते
बुद्धिहीन गधे और खच्चर तक को
बनाया गुलाम
अतिरिक्त भार ढोने-हेतु
मेंढक को चीरा
जीव-विज्ञान की प्रयोगशाला में
नृ-शास्त्र के अध्ययन-हेतु
ऑपरेशन किया बंदर के दिमाग का
कुत्ते को बनाया वफादार साथी
गाय, भैंस, बकरी से निकाला दूध
छीनकर उनकी संतति का हिस्सा
उसने काट डाले जंगल
और नष्ट कर दी हरीतिमा
सौंदर्य पृथ्वी का
अपनी निरंतर बढ़ती
निरर्थक आबादी-हेतु
निर्मित किए कांक्रीट के जंगल
अपनी बुद्धि के और
शक्ति के मद में चूर
प्रकृति के रहस्यों की
जीवन की संभावनाओं की खोज के नाम पर
उसने धावा बोला अंतरिक्ष में
चंद्रमा और मंगल पर
बुध और बृहस्पति पर
शुक्र और शनि पर
सप्ताह के
सात में से छह दिनों पर!
सातवें पर
हमला बोलना तो
हाल-फिलहाल उसके वश में नहीं!
क्या करेगा वह
जीवन का और पता लगाकर?
जहाँ उसके आसपास
जीवन का समंदर
अपने विविध, सुंदर और उपयोगी रूप में
ठाठें मारता था
वहाँ क्या किया उसने?
जीवन को विकृत और
नष्ट करने के अधिकाधिक उपाय
विज्ञान के ध्वंसकारी रूप का उपयोग
अणुबम, परमाणु बम, हाइड्रोजन बम,
दूर तक मार करनेवाली मिसाइलें
जीवन को नरक बनानेवाली गैसें!
उसने हमला किया धर्म पर
संस्कृति पर,
परंपरा पर;
फिर अपने ही द्वारा निर्मित ईश्वर पर
और गर्जना की –
कि मैं ही तो हूँ ईश्वर
वरंच महान ईश्वर से भी;
मुझे किसी दूसरे ईश्वर ने नहीं जन्मा
न ही पैदा हुआ प्रकृति की कोख से
मुझे ज्ञात है ठीक-ठीक
कि मैं परिणाम हूँ अपने माता-पिता के
चंद क्षणों के सहवास का
मुझसे नहीं निर्मित यह प्रकृति
न मेरा इसमें कोई योगदान
मगर मुझमें इतनी है शक्ति
कि इसमें विचलन तो पैदा कर ही दूँ
और असंतुलन होगा तो
मैं ही तो करूँगा इसे नष्ट भी!
यों उसने
तहस-नहस किया
बाहर की और अपने भीतर की
प्रकृति को भी
उसने सिद्ध किया
कि इस दुनिया में
उससे ज्यादा क्रूर और हिंस्र
उससे ज्यादा भयानक और नारकीय
उससे अधिक घृणित और पागल
उससे अधिक स्वार्थी, लोभी और ईर्ष्यालु
उससे ज्यादा दुष्ट, पापी और लंपट
उससे बड़ा अपराधी
और उससे बड़ा हत्यारा
दूसरा कोई जीव नहीं
इस सृष्टि में;
क्योंकि वह रावण है, कंस है, दुर्योधन है
हिटलर है, मुसोलिनी है, नेपोलियन है
क्योंकि अपराजेय
सातवें दिन के प्रकाश के बावजूद
वह निविड़ अँधेरा है!
क्योंकि उसने
प्रकृति से किया छल
और बलात्कार
प्रत्युत्तर में प्रकृति ने उसे
दिया यह ‘उपहार’
कि वह भूल गया अपनी ही प्रकृति को
सत्य, अहिंसा, करुणा, क्षमा और प्रेम को
भूल गया कि वही है राम
वही है कृष्ण
वही है ईसा
वही है महावीर
वही है बुद्ध
वही है गांधी और
मॉर्क्स भी वही है
कि उसी में बोलती है गीता और बाइबिल
कुरान और गुरुग्रंथ साहिब उसी में
उसी में अरस्तू और जरथुस्त्र
व्यास और वाल्मीकि
कबीर और तुलसी
टैगोर और टॉलस्टाय
निराला और शेक्सपियर
कालिदास और मिल्टन
चिड़ियों का चहचहाना
कोयल की कुहुक
मयूर का नृत्य
सिंह की गरिमा
हाथी का धैर्य
हंस की चाल
घोड़े का शौर्य
प्रकृति का हजारमुख सौंदर्य,
औदात्य
– सब कुछ उसी में है
और ईश्वर निर्मित है उसी के द्वारा
तो उसकी अपनी प्रकृति ने ही
उसे किया है निर्मित
इस यत्र-तत्र-सर्वत्र व्याप्त
प्रकृति के
संरक्षण के वास्ते!
सवाल यही है
कि उसकी अपनी प्रकृति
कब होगी प्रकट
अपने प्रकृत रूप में
अपने विकृत रूप को पछाड़कर?
कठपुतली
कठपुतली का खेल देखना
मेरे बचपन के दिनों का
सबसे प्रिय शगल था
डोर से बँधी हुई
कई कठपुतलियों को
खेल दिखानेवाला
हस्त-संचालन और
उँगली के इशारों से
यहाँ-वहाँ नचाता
कभी-कभी
एक कठपुतली
दूसरी को पकड़कर
धराशायी कर देती
और खूब पीटती
धमाधम धमाधम!
कभी प्यार करतीं वे
आपस में
शिद्दत से
और हम सभी बच्चे
देख उनका खेल यह
तालियाँ बजा-बजा
खूब होते प्रसन्न
तरह-तरह के
खेल होते कठपुतली के
और हम हैरत से
देखते हुए उन्हें
भर जाते
कई तरह की
भावनाओं से
उस समय
हमें लगता था ऐसा
जैसे वे जीवित हों
प्राणवंत होकर सारा
क्रिया-व्यापार कर रहीं!
और कुछ समय के बाद
कठपुतली वाले के इशारे पर
वे जब निष्प्राण हो जातीं तो
हम सब बच्चे
हो जाते मायूस
कठपुतली वाला
खेल खत्म कर
उस खेल के या
अपने हुनर के ऐवज में
प्राप्त करता जनता से पैसे और
खूब सराहना भी
बंद करता सारी कठपुतलियों को
झोले में और
सारे बच्चों को छोड़कर उदास
शीघ्र पुनः आने का
देते हुए आश्वासन
चला जाता
दूसरे मुहल्ले या नगर में
इसी भाँति अपनी
आजीविका चलाने के वास्ते!
खेल कठपुतली का
देखने वाले
समस्त बच्चे वे
बुजुर्ग हुए
जिंदगी का बड़ा हिस्सा
जी लिया उन्होंने जब
तब जाकर उन्हें यह प्रतीत हुआ
जीवनभर
खेल खेलते रहे वे
स्वयं भी
कठपुतली का!
हर कोई
दूसरे को
कठपुतली समझता था
जिसकी डोर
उसके ही हाथों में!
जबकि
सत्य यह था कि :
उनके हाथों में कभी
नहीं रही कोई डोर
नाचते रहे
वे सारे ही
बन कठपुतली औरों की!
नहीं समझ पाए वे कभी
जीवन के अंतिम क्षणों तक
कौन नचा रहा उन्हें?
राष्ट्र
या समाज
या
उन्हीं का आत्म?
अपने ही जीवन को
जीवन की तरह
कभी नहीं
जी सके वे!
नहीं समझ सके
यह रहस्य
कभी भी वे –
कि कठपुतली का
खेल दिखानेवाला
जीवन अपना ही
जी रहा था;
उसकी कठपुतलियों में
उसका हुनर
प्राण बनकर
होता संचालित था
और तब वह स्वयं भी
अपनी कठपुतलियों के हाथों की
बन जाता
कठपुतली!
दिनभर के
कठिन परिश्रम के बाद
वे कठपुतलियाँ फिर
बड़े प्यार से
अपने हाथों से
रोटियाँ खिलातीं उसे
बनकर जैसे उसकी
माँ ममतामयी और
छोटी बहन!
और तब
खेल दिखानेवाला
अपनी कठपुतलियों को
लाड़ में भर
देखते-निहारते
एक दिन
स्वयं
काठ हो जाता!
करते हुए सिद्ध
अपने आपको फिर
सचमुच की कठपुतली!
हैरत की बात-
उस समय उसके
सर्वोत्कृष्ट
ऐसे अद्भुत खेल पर भी
हृदयहीन दर्शकगण
नहीं बजाते ताली!
तितर-बितर हो जाते
मिट्टी में मिलाकर
उसकी जादुई आकर्षणयुक्त
सम्मोहक कला को
और
अपने-आपको
करने लगते तत्पर –
किसी दूसरे का खेल
देखने के वास्ते!
कबीर : एक ग़ज़ल
हिंदू की मुसलमान की आवाज है कबीर
धड़कन में जो बजता है ऐसा साज है कबीर
नफरत के परिंदों से आसमान भर गया
ऐसे परिंदों के लिए तो बाज है कबीर
जिन मुगलों ने लूटा था सरेआम देश को
उनके लिए ऐ दोस्त! रामराज है कबीर
अब छा गए मसाइल चारों ओर दोस्तों!
क्यों फिक्र करो आप – राजकाज है कबीर
चीजों की कीमतें तो आसमान छू रहीं
मुफलिस की जिंदगी के लिए प्यार है कबीर
हाण्डी
चूल्हे पर चढ़ी है हाण्डी
हाण्डी में पक रहा है एक चावल
खदबद
खदबद
खेत हैं उजड़े
उनमें दरारें जहाँ बड़ी-बड़ी
कुदरत का काला रंग
करता सूखी मिट्टी का शॄंगार
कुछ ऐसे कि बनता है
एक विराट मानचित्र काली हाण्डी का
जिसमें से निकल-निकल भागती है भूख
अपने हाण्डीनुमा घरों को छोड़कर
और बिकने के लिए एक मुट्ठी चावल पर
उसे जनमने वाली माता योनि द्वारा
हाण्डी का चावल
पक रहा है
खदबद खदबद
और उस एक चावल की सुगन्ध
उस काले आदिवासी को
कर रही नियन्त्रित
खाने को पेड़ की छाल
और आम की सड़ी गुठली
और अपने ही जाए बच्चे को करने
खुले आम नीलाम !
उड़ीसा के चूल्हे पर
रक्खी काली हाँडी से
उड़ी साहबजादी
अपने रंगीन पंखों के साथ
काल को बदलते हुए
चौबीसों घण्टे और
बारहों महीने के
अन्यायी काल
याकि अकाल में;
और आसमान में उड़ते
हेलिकॉप्टर और हवाई जहाज़
लेते हैं शक़्ल
चीलों और गिद्धों की जबकि —
मज़े से पक रहा है
एक किनकी चावल का
इस विराट हाण्डी में
भूख के सुलगते चूल्हे पर
खदबद
खदबद
सत्य के कितने कोण
यकीन से कैसे कह सकते हो
कि सत्य की अगर कोई आकृति होगी
तो त्रिकोणीय ही होगी
चतुष्कोणीय
या बहुकोणीय नहीं?
यकीन से कहना तो
यही कहना
मगर यही कहना भी
कहीं असत्य न सिद्ध हो जाये
गोकि ऐसी कोई आकृति तो होती नहीं
जो अनंतकोणीय हो
तुम्हारे ईश्वर की तरह!
तो सत्य की आकृति के बारे में
यकीन से कहना तो यही कहना
वरना कौन जाने
वह स्वयं को एककोणीय ही सिद्ध करे!
और रंग?
तुम्हारा मतलब है नस्ल?
मतलब कि सत्य की आकृति का
कांप्लैक्शन कैसा होगा?
और कैसी होगी नस्ल?
आखिर तुम यकीन से कैसे कह सकते हो
कि वह
सरस्वती के वाहन के रंग का ही होगा –
और उसके वाद्य से झंकृत
सुरों के रंग का नहीं?
क्यों वह
समय-समय पर और
सोच-समझकर बोले गए
श्रीकृष्ण के श्याम झूठ के रंग का नहीं होगा
जिसकी काली कमली पर
नहीं चढ़ता दूजा कोई रंग!
और सत्य की नस्लें कितनी होंगी?
एक-दो
दस-बीस,
सौ
या हजार
या फिर अनगिनती?
सोच-समझकर बोलना
पर यकीन से मत बोलना
और सत्य क्या कोई परिंदा है
जो बोलते ही
आसमान में उड़ जाएगा?
या है जल
जो झूठ के माइनस डिग्री टैंप्रेचर से
जमकर बन जाएगा बर्फ?
बूझना मगर सोच-समझकर
कि सत्य बहती नदी है
कि सुस्थिर पहाड़
आसमान की ओर सिर उठाता
यकीन से बूझना
मगर पूरे यकीन से भी नहीं!
सारा आबिदी
सारा आबिदी
तुम एक जहीन बच्ची थीं,
खुदा की नियामत,
अब्बू और अम्मी की आँखों का तारा,
अपनी क्लास की कमजोर बच्चों की मददगार,
अपनी टीचर्स के लिए कीमती हीरा,
पढ़ाई में अव्वल,
सबकी प्यारी!
तुम्हारे भीतर
कुछ कर गुजरने के हौसले थे
और अब्बू और अम्मी के
बुढ़ापे के लिए कुछ हसीन ख्वाब
मगर तुम्हारे खुदा ने
इसकी मंजूरी नहीं दी
और दसवीं के इम्तहान के बाद
महाराष्ट्र की सैर कर
साल भर की कड़ी मेहनत को
खुशी में ढालने की
तुम्हारी ख्वाहिश को बदल दिया
ऐक्सीडेंट के एक दर्दनाक हादसे में,
तुम्हारी अम्मी को भी
साथ तुम्हारे ही बुलाते हुए!
और जानते हुए कि
तुम्हारे अब्बू कैसे रहेंगे फिर
अकेले इस दुनिया में
और पीछे-पीछे
दौड़ पड़ेंगे खबर सुनते ही!
क्या तुम्हारे खुदा को
इतनी मोहब्बत थी तुमसे –
कि तुम्हें बुला लिया
पंद्रह साल की ही छोटी-सी उम्र में?
और क्या उसे पता था कि
तुम्हें अम्मी से इतनी थी मुहब्बत
कि खुदा भी अकेले तुम्हें नहीं रख पाता खुश?
और क्या खुदा होकर भी
उसे पता नहीं था
कि अब्बू तुम्हारे तुमको ही नहीं
अपनी बेगम को भी करते थे मुहब्बत
उससे भी ज्यादा
जो बादशाह शाहजहाँ
करता था बेगम से अपनी?
कैसा है तुम्हारा यह खुदा जो
जान नहीं पाया कि
तुमसे मुहब्बत तो
तुम्हारे सभी संगी-साथी और टीचर भी
करते बेइंतिहा
और कुछ दिन बाद ही
जब दसवीं के रिजल्ट में तुमको वे देखेंगे
उत्तीर्ण छात्रों की सूची में सबसे ऊपर तो
कलेजा करेगा उनका हाहाकार
आँसू उनके थमने पर भी थमेंगे नहीं
कैसा सूनापन वे करेंगे महसूस
नहीं रहने पर तुम्हारे?
कलेजे में लिए घाव
कोसते रहेंगे उस निर्दयी खुदा को
अपने जीवन भर,
जिसने उनकी यादों को
गहरे दुख की लपटों में
झुलसाकर रख दिया!
उनको ही नहीं
मेरे जैसे उन हजारों और लाखों लोगों को भी
जिन्होंने नहीं तुम्हें देखा कभी, जाना नहीं –
पर तुम्हारे जाने के महीने भर बाद ही
दसवीं के रिजल्ट में
तुम्हारे अव्वल आने की खबर पढ़कर
आँखों में बादल दिल में अंगारा लिए हुए
गुस्से से भरकर
अपने खुदा को अथवा ईश्वर को,
गुरु को, क्राइस्ट को
बुरा-भला कहेंगे
यह जानते हुए भी कि
कोई असर नहीं पड़ेगा इसका!
क्योंकि या तो उनका अस्तित्व ही नहीं है या
वे गूँगे-बहरे हैं,
अंधे, परपीड़क हैं;
क्रूरता की चरम अवस्था को
पार करते हुए!
लेकिन अपने जाने के बाद हुए पैदा
इस शून्य में,
भटकते हुए
प्रिय बेटी सारा कहीं
मिल जाएँ तुमको वे
तो जरूर माफ उन्हें कर देना।
धरती से उठे बगावत के गर्म
धुएँ के दबाव में
अपनी इस बेहूदा हरकत के लिए
जार-जार शर्मसार होते हुए
तुम्हें दिखेंगे वो बार-बार!
तुम्हें ही
बनाते हुए –
खुदाई खिदमतगार।
मई 2005 के अंतिम सप्ताह में दसवीं कक्षा के सी.बी.एस.ई. के घोषित परिणाम से एक माह पूर्व महाराष्ट्र में एक मार्ग दुर्घटना में अपनी माँ के साथ दिवंगत हुई सारा आबिदी देश में सर्वप्रथम स्थान पानेवाली छात्रा थी। इस हादसे ने उसके साथियों, सहेलियों और अध्यापकों को तो उसके सुंदर-शिष्ट व्यवहार की याद करते हुए संतप्त किया ही, उसके पिता भी इसे सह न पाने के कारण हादसे के तत्काल बाद ही चल बसे!
बाबा मार्क्स, गाँधी बाबा
बाबा मार्क्स!
सोच रहा हूँ कि आज होते तुम
तब तुम
क्या सोच रहे होते?
गांधी बाबा! और अगर होते तुम आज तो
यीशु मसीह की तरह
सूली पर दिखे होते लटके?
बाबा मार्क्स!
दास कैपिटल लिख
उन्नीसवीं शताब्दी में
तुमने जो स्वप्न एक देखा था
वर्ग समानता का
वह पूर्ण हो गया क्या?
‘दुनिया के मजदूरों’! एक हो
तुम्हारे पास पाने को दुनिया है
खोने को कुछ नहीं
इस क्रांतिकारी नारे की
विश्व विजयी यात्रा के बाद भी
दुनिया के सारे मजदूर
हुए क्यों न एक?
माओ-त्से-तुंग के लाल चीन ने रंग बदल लिया
लेनिन का सोवियत संघ
हुआ विघटित
बाबा मार्क्स!
क्या तुमने अपनी
क्रांतिकारी परिकल्पना में
देखा था संशोधनवाद ख्रुश्चेव का
स्टालिन का एकाधिकारवाद?
किसान क्रांति वाला
माओ का महान चीन
बनेगा बाजार पूँजीवाद का
सोचा था क्या तुमने?
बाबा मार्क्स!
सोच रहा हूँ कि आज होते तुम
तब तुम क्या सोच रहे होते?
पूँजीवादी तथाकथित सभ्यता के
नकलीपन और
उसकी नैसर्गिक बर्बरता का
तुमने अपने क्रांतिदर्शी चिंतन से
किया पर्दाफाश था
साम्राज्यवादी शक्तियाँ उभार पर होंगी
उपनिवेशवाद सिर उठाएगा
किंतु आदमी के भीतर अवस्थित
श्रमिक और किसान एकजुट होकर
क्रांति की मशाल थाम चलेंगे
ऊँच-नीच,
गैरबराबरी से विमुक्त विश्व
समता के दर्शन को करेगा साकार
तुमने जो देखा था स्वप्न
किसी हद तक साकार हुआ
लाल हुआ आधा विश्व
किंतु अनायास
स्वप्न बदला दुःस्वप्न में
चीन की महान कही जाती दीवार को
बाजार के आकाश ने
किया बौना
विराट सोवियत संगठन के टुकड़े हुए
भारत में भी
जातिवादी, सांप्रदायिक
ताकतों का वर्चस्व बढ़ा
धर्म हुआ व्यवसायी
कम्यूनिस्ट पार्टियों में टूट-फूट
वामपंथ के अभेद्य किले में
पड़ी दरार
उत्तर आधुनिकता ने
संस्कृति का अवमूल्यन किया और
नींद में जीवन को
पुरुष को
मनुष्य मात्र को ही
विक्रय की जिन्स मात्र
बनते हम देख रहे
पूँजी का राक्षस
विश्व में फैल गई
चकाचौंध से भरी
मंडी में करता अट्टहास
मानव-श्रम
उसके हाथी-पाँव के तुले कुचला जाकर
साँसें आखिरी अपनी गिन रहा
पूँजी ने कर दी घोषणा
हिरणाकश्यप की तरह
वही ईश्वर है
वही है भगवान
उसकी पूजा करनी होगी
सभी को –
ब्राह्मण को,
क्षत्रिय को,
वैश्य और शूद्र को,
नेता-अभिनेता को,
धार्मिक-अधार्मिक को,
हिंदू और मुसलमान,
सिक्ख और ईसाई –
विश्व के समस्त नागरिकों को
चालीस कोटि देवताओं वाले इस देश का
एकमात्र देवता अब
पूँजी है
और एक अरब से भी ज्यादा भारतवासी
कर रहे अब
उसी की आराधना
एकमात्र सच है अब वही
वही एकमात्र धर्म है
एक ही कर्तव्य
एक ही निष्ठा
एक प्यार
उसके अतिरिक्त किसी अन्य की
पूजा आराधना यदि करता हुआ
विश्वग्राम का कोई नागरिक दिखेगा तो
फाँसी पर
लटका दिया जाएगा
सरेआम
ताकि दूसरों को भी
सबक मिले
बाबा मार्क्स!
एक बात निश्चित है
तुम ऋषि थे
देखा था तुमने आदर्श स्वप्न
देने का
विश्व को
समतामूलक समाज एक।
गांधी बाबा!
एक स्वप्न
तुमने भी देखा
मार्क्स के ही स्वप्न से मिलता-जुलता
गांधी के स्वप्न में भी
आर्थिक विषमता के लिए जगह नहीं थी
शोषक के लिए नहीं दया थी
नहीं घृणा शूद्र को
शारीरिक श्रम को
उसने भी
प्रतिष्ठा दी
मजदूरों-किसानों का
अहित कभी चाहा नहीं
पर गांधी को
अपना स्वप्न पूर्ण करने से पूर्व
जरूरी लड़ाई एक
लड़नी थी
अंग्रेजी साम्राज्यवाद
के विरुद्ध
तोड़ फेंकने
दासता की जंजीरें
इसी युद्ध को लड़ने में
गांधी का जीवन
होम हुआ
जाति-वर्ग-संप्रदाय के विष को भरे
घृणा लिए हुए
मानवता के प्रति
एक पागल हत्यारे की
अंधी गोली से
गांधी का चिंतन
उत्प्रेरित हुआ ‘गीता के कर्म अपना करो’ के सिद्धांत से
लेकिन वह मार्क्सवाद का नहीं विरोधी था
धर्म, परंपरा और संस्कृति के देश में
सबसे निर्बल, असहाय
और बेसहारा व्यक्ति
शोषण का हो नहीं शिकार
दुखी हो न,
चिंतित भी न हो –
यही चिंता प्रमुख रूप से
गांधी की थी
और मुझे लगता है
आनेवाले वक्त में
मार्क्स के जनहितकारी दर्शन को
गांधी के चिंतन के साथ मिल
भारत में
एक नया
समतामूलक समाज निर्मित करने का
स्वप्न करना होगा
साकार भी
भारत की मिट्टी के लिए
अर्द्ध गांधी और अर्द्ध मार्क्स का
नया अवतार होगा
जैसे चीन की
किसान क्रांति के लिए माओ
और सोवियत की
बोल्शेविक क्रांति के लिए लेनिन
हुए अवतरित थे
भारत की
परिस्थितियाँ पृथक हैं
यहाँ क्रांति होगी तो
उसका स्वरूप भी पृथक होगा
बाबा मार्क्स!
तुमने भी तो अपने जीवन में
देखा अट्ठारह सौ सत्तावन के भारत का
तथाकथित सैनिक विद्रोह और
अपनी टिप्पणियों में
उसके भीतर के
साम्राज्यवाद-विरोधी
जनक्रांति के बीज
उपस्थित होने के सच को
नहीं नकारा।
इसीलिए
सोच रहा हूँ कि आज होते तुम
भारत में
बाबा मार्क्स!
तब तुम क्या सोच रहे होते?
गांधी बाबा!
और अगर
होते तुम आज तो क्या
यीशु मसीह की तरह
सूली पर दिखे होते लटके!
सूअर
मैंने देखा
एक सूअर।
जा रहा था
सड़क पर रफ्ता-रफ्ता
अपनी थूथनी उठाए।
मैंने सोचा
आखिर क्या है
इसका अपराध?
क्यों लिया जन्म इसने
ऐसी योनि में
जो मारती है
गंदगी में अपना मुँह?
विष्ठा देखते ही
उसकी भूख होती जवान,
कोई फर्क नहीं कर पाता जो
प्रकृति की
अपार सुंदरता के समक्ष!
जिसमें
सौंदर्य के
तथाकथित मानदंडों पर
उतरने योग्य
कुछ भी नहीं!
क्यों लिया है उसने जन्म
और कितने दिन
इस दुनिया की घृणा
और नफरत को
झेलता रहेगा वह?
मैंने सोचा
और ध्यान से देखा
उसकी ओर :
उसकी आँखों में
अचानक मुझे
उसके भीतर से एक
निरीह,
सदय
और करुण आदमी
उभरता हुआ दिखा!
और ताज्जुब –
उसके नजदीक खड़े
आदमी की
लपलपाती
क्षुधित आँखों के भीतर से
सिर को
हमलावर मुद्रा में
आगे की ओर सन्नद्ध किए
एक सूअर!
पतंग
आधे से अधिक जीवन
कानपुर में बिताते हुए
पतंगबाजी
ख़ूब मैंने देखी थी
नवाबों के शहर
लखनऊ में भी
बचपन में
स्वयं भी
दादी से पैसे ले
बाज़ार से पतंगें
रंग-बिरंगी ख़रीदता
चरखी, डोरी, मंझा ले
घर की छत पर पहुँचकर
लेता आनंद
पतंगबाजी का !
ऊँची उड़ती पतंग तो
मन भी ऊँचा उड़ता
पेंच लड़ाने में
नहीं माहिर था,
ज़्यादातर मेरी ही पतंग
काट दी जाती
और मैं
रुआँसा हो जाता
कभी-कभी
ऐसा भी सुखद पल आता
जब धोखे से या
विपक्षी की गलती से या
मंझे के पैनेपन से
पतंग दूसरे की कट जाती
तो दिल मेरा ख़ुशी से भर
उछल जाता बल्लियों
पतंग लूटने का नहीं
मुझे शौक था लेकिन
कभी-कभी दूसरी पतंगें
कटकर आ जाती थीं
छत पर
और मैं आनन्दित हो
उन्हें भी उड़ाता था !
इन दिनों
मैं देखता हूँ
भारत और पाकिस्तान
अपनी-अपनी पतंगें उड़ाते हैं
दोनों की ही
कोशिश होती यह —
दूसरे की
राजनीति की पतंग
कट जाए
मिल जाए उन्हें
आसमान काश्मीर का
समूचा ही !
गोकि
इस समय
सबसे ऊँची उड़ती पतंग
अमरीका की
और ये दोनों भाई
इस प्रयास में रहते —
अमरीका
अपनी पतंग से उनकी
काट दे पतंग
ताकि परोक्ष में ही सही
उनकी तरफ़ झुके
शक्ति का समीकरण
और दूसरा भाई
उससे ईर्ष्या करे !
प्रकट है
जिस भाई की कटेगी पतंग
वही अपने आपको
समझने लगेगा बड़े गर्व से भर
अमरीकी सल्तनत का
वजीरे-आज़म !
इस तरह
पतंगबाजी को
मिलेगी प्रतिष्ठा
अन्तरराष्ट्रीय स्तर की !
बकरामण्डी
जामा-मस्जिद की बकरामण्डी में
हज़ारों बकरे सजे-धजे
गले में चमकीली झालरें पहने
सुन्दर सींगों वाले
कइयों के बँधी थी कलँगी
स्वस्थ, हट्टे-कट्टे
सफ़ेद, काले, चितकबरे
अपने-अपने मालिकों के साथ
क्या उन्हें मालिक कहना ठीक होगा ?
क्योंकि वहाँ तो
बोलियाँ लग रही थीं —
यह बकरा तीन हज़ार का
वह काला हृष्ट-पुष्ट दस का
और इधर जो
चितकबरा बकरा देखते हैं आप
इसकी क़ीमत पचीस हज़ार सिर्फ़
अरे, आप घबरा गए ?
यह तो है मण्डी
हमारे पास ग़रीबों के लिए भी हैं
और शहंशाहों के लिए भी
जिसकी हो जैसी भी हैसियत
ख़रीद सकता है उसी के माफ़िक
एक हज़ार से लेकर
एक लाख तक !
कितने सुन्दर और भोले
देख रहे थे वे
एक-दूसरे को
अपने तथाकथित मालिकों को भी कभी-कभी
और फिर उन्हें भी
जो लालायित थे ख़रीदने को ।
बेचनेवाला
अपने-अपने बकरे की
नस्ल और उसके स्वास्थ्य को
माल के विशिष्ट गुण की तरह करता पेश
उसकी अधिक से अधिक क़ीमत बताता
और सोचता-मन-ही-मन आशंकित होता
क्या अपने बकरे की क़ीमत
उसको इतनी मिल पाएगी
कि वह इसी मण्डी से
कम क़ीमत वाला एक बकरा
अपने बीवी-बच्चों के वास्ते
ख़रीद सकेगा और
यों कुर्बानी दे सकेगा
अपने हिस्से की ?
ख़रीदारी करने जो आया था मण्डी में
वह ऐसा सोचता
जो बकरा ख़रीद रहा हूँ
उसका गोश्त होगा इतना लजीज़ क्या
कि मेरे सभी मित्रों-सम्बन्धियों को
अगले साल तक
यह कुर्बानी रहेगी याद ?
क्या सोच रहे थे मगर बकरे ?
एक हज़ार से
एक लाख तक की क़ीमत वाले बकरे वे
आपस में अपनी मूक भाषा में
करते सम्वाद थे
बोलती हुई आँखों के द्वारा
भोलापन लिए हुए
अपनी ही दुनिया में थे मगन
जैसे उनका पिता
मेले में उन्हें घुमाने के लिए
नहला-धुला
नए-नए कपड़े पहनाकर
ले आया हो ताकि
मेले की सैर
सिद्ध हो उनके जीवन का यादगार अनुभव
ये बच्चे ख़ुश थे
क्योंकि उन्हें मेला ले जाने से पूर्व
अच्छी घास और सुस्वादु चारा खिलाकर
उनकी क्षुधा की परितृप्ति की गई थी
और वे हैरत से
चारों ओर देखते
गर्दनें घुमा-घुमा
अपने ही जैसे
और दूसरी नस्लों के भी
हज़ारों बकरों को
वे ख़ुश थे और जानते थे कि
आज का दिन
उनकी ज़िन्दगी का
सबसे स्मरणीय दिन होगा
उनके लिए ही नहीं
उन्हें बेचनेवाले पुराने और
खरीदनेवाले
नए मालिक के लिए भी !
उन्हें पता था कि आज के दिन
वे इतना महान कार्य कर जाएँगे
कि उनके पूर्ववर्ती मालिक के घर में
ख़ुशी के पल —
दिनों और महीनों में बदलेंगे;
और नया मालिक भी अपनी संतृप्ति में
अपने सगे-सम्बन्धियों,
मित्रों और अतिथियों तक को
गर्व से बनाएगा साझीदार ।
ये सभी बकरे
जब आज प्रातः सोकर उठे तब
क्या उन्हें मालूम था
कि यह उनके जीवन का
यादगार दिन है ?
या इसका पता
उन्हें इस मण्डी में आने पर लगा ?
या कसाई के हाथों से
हलाल होते ?
या बहुतेरे भरपेटों के लिए
तृप्ति का साधन बनने के बाद ?
इन बकरों की आँखें
इनका भोला चेहरा
इनकी सुन्दर आकृति
इनकी निश्छलता
इनकी पवित्रता
कुर्बानी का इनका जज़्बा
ये सब पीछा कर रहे हैं
मेरा, तुम्हारा, हम सबका
वे पूछ रहे हैं
कि क्या उनकी ज़िन्दगी का यह दिन
इसी तरह होना था महत्वपूर्ण ?
कोई और तरीका न था
कि वे अपने जीवन को
बना सकते सार्थक
और पूर्व-निर्धारित
संक्षिप्त अपनी आयु को
पूर्ण कर लेते कुछ
कर गुज़रने के वास्ते ?
कुर्बानी किसने दी —
बकरे के मालिक ने ?
भूख से व्याकुल हो —
अपनी सन्तान जैसे बकरे को
बेच दिया जिसने ?
या जिसने महँगे दामों
ख़रीदा उसको
और बाक़ायदा कुर्बानी दी ?
बकरे ने क्या दिया ?
बकरे को क्या मिला !
फ़कत उसने अपनी
मामूली-सी जान दी
किन्तु जान देकर भी
कुर्बानी दे नहीं सका वह
अपने अल्लाह को
भाँति-भाँति के
अपने रूपों से जिसने
उसे दिया शुक्रिया !
बहुरूपिया
उसे देखा था बचपन में
तरह तरह के भेस बनाता
आता जब बाजार में
तो सभी की निगाहें उसकी ओर उठ जातीं
कौतूहल से सभी देखते
कभी विस्मय से
कभी उसकी कलाकारी के लिए
भाव उठता प्रशंसा का भी
क्योंकि उसका रूप
सजीव होता बोलता हुआ
गोकि वह बोलता नहीं था
कभी लाल जीभ बाहर निकाले
गले में मुंडमाला, कौड़ियों की माला डाले
बाएँ हाथ में खप्पर
लाल रंग में भरा गोया खून
दाएँ हाथ में तलवार
पैरों में घुँघरू बाँधे
काले कपड़ों में
लंबे बालों और
काली आँखों वाला वह
जब किसी दूकान पर आता
जहाँ मैं मौजूद होता पहले से
कॉपी या किताब की खरीदारी को
या कोई किताब या पत्रिका को उलटते-पलटते
तो मैं सहम जाता
और दूकान के अंदर खिसकता
जब तक वापस मुड़कर देखूँ
तब तक वह
अपने खप्पर में
छन्न की आवाज के सँग
दुकानदार के फेंके सिक्के को –
चवन्नी-अठन्नी के –
लेकर आगे बढ़ गया होता
दूकान का सारा कार्य-व्यापार
चलता रहता पूर्व की तरह ही
ग्राहक सामान खरीदते रहते
दुकानदार की
बिक्री जारी रहती बदस्तूर
और मैं छलाँग लगाकर बाहर
उसकी पाने एक झलक
निकलता फिर
किंतु काली माँ की तरह
झलक अपनी एक दिखाकर ही
इस दृश्यमान जगत से जो
पहले ही
ओझल होता
मध्ययुगीन योद्धा कभी
कभी सिपाही
कभी सैनिक
कभी गुंडा
कभी नेता
और कभी कभी तो रूप भिखारी के धरे
दीख पड़ता वह!
एक दिन साधु के वेश में,
अगले दिन खूँख्वार जल्लाद!
एक दिन तो सचमुच ही कमाल हुआ
प्रकट हुआ जब वह एक सिपाही के रूप में
नजर आया करता हुआ वकालत
शिक्षा का स्तर सुधारने की!
एक दिन मदारी,
एक और दिन जादूगर,
और कभी अफसर भी!
जादू!
ओह, यह सब कुछ
जादू नहीं तो और क्या था?
एक दिन वह ईश्वर की तरह और
घोषणा करते हुए
कि ‘अधर्म बढ़ गया है इस कदर
अब उसने ले लिया है अवतार
और धरती
जल्दी ही पापमुक्त होगी!’
कभी वह रिश्वत लेता हुआ नजर आया,
कभी घूस देता हुआ!
आखिर एक बार
जब कई दिनों तक
उसका हुनर नहीं हुआ सार्वजनिक
तो मैंने उसकी खबर ली
ज्ञात हुआ
उसका अंतिम रूप एक डाकू था
जो इतना सच्चा था
देश और समाज में श्वेत-शफ्फाक
कपड़ों में विचरण करते हुए
अनगिनत डाकुओं के बीच भी
पुलिस ने अपनी क्राइम फाइल को करने दुरुस्त
पहचानने में नहीं उसे भूल की
और खिलौना पिस्तौल वाले तथाकथित डाकुओं के बीच
मार गिराया उसे
दिन के उजाले में
एक मुठभेड़ में
और इस दुर्दांत ‘दस्यु’ पर घोषित
लाखों रुपये का इनाम पाने को
अलग-अलग प्रांतों की पुलिस के विरोधी गुटों में
मची मारकाट!
इस तरह अपनी मुक्ति के साथ ही
तरह-तरह के भेस धर
गुजर-बसर करते हुए
अप्रतिम उस कलाकार को
आखिर मिल ही गया
अपनी विलक्षण कला के लिए
जीवन का
सबसे बड़ा
पुरस्कार!
पोस्टकार्ड
मोबाइल
और इण्टरनेट के इस युग में भी
अपनी धीमी रफ़्तार के बावजूद
एक आम आदमी की तरह
अभी बचा है उसका अस्तित्व
और जब तक रहेगा
आम आदमी
और उसका दुख
मौजूदा लोकतन्त्र की बहसों के बीच
वह रहेगा इसी तरह
महत्वपूर्ण ।
अपने बजट भाषणों में
प्रतिवर्ष वित्तमन्त्री उसका करेंगे
ख़ास ज़िक्र,
उसकी मूल्य-वृद्धि करते हुए
सरकारें काँपेंगी
और अगर कभी
पाँच-सात सालों में
ऐसी नौबत आने को हुई
तो मचेगा हड़कम्प
विरोधी दलों को
मिलेगा एक मुद्दा !
मगर उसे
इस्तेमाल करनेवाला
एक साधारण जन
लुटा-पिटा करेगा महसूस
नगरों,
महानगरों में काम करनेवाले
करोड़ों जनों का
अपनी जड़ों की सुधि लेना
और भी होगा कठिन
पिछले पचपन बरसों में
पोस्टकार्ड की क़ीमत
पाँच से पचास पैसे तक
जब-जब बढ़ी है,
तब-तब
अनगिनत बूढ़ी आँखों में तैरतीं
जवान कामगर उम्मीदें
कुछ और दूरी पर
खिसक गई हैं —
जैसे आज़ाद भारत में
खिसकती जाती है आज़ादी
हर वर्ष
इंच-दर-इंच
इण्टरनेट की दुनिया में
पोस्टकार्ड की उपस्थिति
एक ग़रीब और शोषित
पीड़ित और उपेक्षित
निरन्तर हाशिए पर धकेले जानेवाले
आम आदमी के द्वारा
अस्तित्व की रक्षा के लिए
किया जानेवाला
शंखनाद है !
अनिवार्य तत्व जल
क्षीर की श्रेणी में अवतरित
बिसूरती अतीत को
दुख और शर्म से
सिकुड़ती
शिखण्डी सभ्यता से
क्षिप्र शरों से लहूलुहान
भीष्म-जननी
क्या प्रतीक्षारत है
सूर्य के उत्तरायण में
आने की बाट जोहते ?
क्या बिगुल बज रहा
मनुष्यता के अन्त का ?
नमक
ब्रह्माण्ड में
जितनी हैं आकाशगंगाएँ
आकाशगंगाओं में
जितनी हैं पृथ्वियाँ
पृथ्वियों में
जितने हैं महासमन्दर
महासमन्दरों में
जितना है नमक
हमारी देह के ब्रह्माण्ड में अवस्थित
रक्तवाहिनियों की आकाशगंगाओं में
तन्तु-कोशिकाओं की पृथ्वियों में
अनवरत लहरें लेते
रक्तकणों के समन्दरों में
घुला है उतना नमक
यह नमक सर्वव्यापी,
दृश्यमान,
अदृश्य भी ।
शक्तिशाली,
जैसे कि एक राजा
उसके अपमान की जुर्रत
कर सकता कोई ?
सहारा
विपन्न का
मायावी
करुणार्द्र
ईश्वर की तरह
क्षण में बदलता रूप
बनता
सुस्वादु व्यंजन
ग़रीब की रोटी का
धूर्त, चतुर, चालाक अधिनायकवादी सत्ता
जब उसे बनाए माध्यम
अपने विदेशी बाज़ार का
तो फिर वह
तोड़-फोड़ सारे कानून दे
रूप ले ले
अग्निकणों के जलते स्फुर्लिंग का
समाते हुए
किसी गाँधी की
बन्द मुट्ठी में
प्रकृति से मिला हमें जो यह उपहार
उसका प्रतिदान
कितना —
क्या किया हमने ?
प्रमाणित किया हमने
स्वयं को नमकहराम ?
हे महासमन्दर !
हे विराट पृथ्वी !
हे आकाशगंगा !
और हे ब्रह्माण्ड !
हम नमक के
एक कण की तरह हैं क्षुद्र
और अपराध हमारा
हिमालय-सा ;
अपनी प्रकृति की तरह
हमें भी कर प्रेरित —
किसी दीन, दुखी,
शापित, अभिशप्त
औ विपन्न व्यक्ति की सूखी रोटी के लिए
बनने को शाक-भाजी
शायद मिल सके हमें क्षमा
किए गए
जीवन में
अपने दुष्कर्म की ।