कैफ़-ए-सुरूर-ओ-सोज़ के क़ाबिल नहीं रहा
कैफ़-ए-सुरूर-ओ-सोज़ के क़ाबिल नहीं रहा
ये और दिल है अब वो मिरा दिल नहीं रहा
सीने मे मौजज़न नहीं तूफ़ान-ए-आरज़ू
टकराए किस से मौज कि साहिल नहीं रहा
जो कुछ मता-ए-दिल थी वो सब ख़त्म हो गई
अब कारोबार-ए-षौक़ के क़ाबिल नहीं रहा
बज़्म-ए-तरब बिसात-ए-मसर्रत फ़रेब है
मैं ऐष-ए-मुस्तआर का क़ाएल नहीं रहा
कम माइगी ने दिल तुझे बे-क़द्र कर दिया
दुज़्द-ए-निगाह-ए-नाज़ के क़ाबिल नहीं रहा
जिंस-ए-वफ़ा का दहर में बाज़ार गिर गया
जब इष्क़-ए-फै़ज़-ए-हुस्न का हामिल नहीं रहा
आला भी होते हैं कभी असफ़ल से बहरा-वर
गुल क्या खिलें अगर करम-ए-गिल नहीं रहा
कैसे करूँ मैं ज़ब्त-ए-राज़ तू ही मुझे बता कि यूँ
कैसे करूँ मैं ज़ब्त-ए-राज़ तू ही मुझे बता कि यूँ
ऐ दिल-ए-ज़ार शरह-ए-राज़ मुझ से भी तू छुपा कि यूँ
कैसे छुपाऊँ सोज़-ए-दिल तू ही मुझे बता कि यूँ
शम्अ बुझा दी यार ने जैसे था मुद्दआ कि यूँ
एक शिकस्त-ए-ज़ाहिरी फ़त्ह बने तो किस तरह
आईना-दार बन गया क़िस्सा-ए-कर्बला कि यूँ
सोच रहा था ग़म-नसीब बिगड़ी बने तो किस तरह
रहमत-ओ-लुत्फ़-ए-किर्दगार बन गए आसरा कि यूँ
ये जो कहा कि पास-ए-इश्क़ हुस्न को कुछ तो चाहिए
दस्त-ए-करम ब-दोष-ए-ग़ैर यार ने रख दिया कि यूँ
पूछा ख़िताब यार से किस तरहा कीजिए शाम-ए-वस्ल
चुपके से अंदलीब ने फूल से कुछ कहा कि यूँ
लुत्फ़-ए-जफ़ा-ए-दोस्त का कैसे अदा हो शुक्रिया
लज़्ज़त-ए-सोरिश-ए-जिगर देने लगी दुआ कि यूँ
हम-नफ़स-ओ-हबीब-ए-ख़ास बनते हैं ग़ैर किस तरह
बोली ये सर्द-मेहरी-ए-उम्र-ए-गुरेज़-पा कि यूँ
दोनों हों कैसे एक जा ‘मेहदी’ सुरूर-ओ-सोज़-ए-दिल
बर्क़-ए-निगाह-ए-नाज़ ने गिर के बता दिया कि यूँ
बनते ही शहर का ये देखिए वीराँ होना
बनते ही शहर का ये देखिए वीराँ होना
आँख खुलते ही मिरा दहर में गिर्यां होना
दिल की मेरे जो कोई शोमी-ए-क़िस्मत देखे
बाबर आ जाए गुलिस्ताँ का बयाबाँ होना
चश्म-ओ-अबरू के लिए अश्क हैं साज़-ओ-नग़्मा
मेरा गिर्या मिरी आँखों का ग़ज़ल-ख़्वाँ होना
ज़ख़्म हैं लाला-ओ-गुल परतव-ए-सेहन-ए-गुलशन
देखिए दिल का मिरे रश्क-ए-गुलिस्ताँ होना
दश्त-ए-पैमाई से बे-ज़ार तमन्नाएँ हैं
बार है उन को मिरे क़ल्ब का मेहमाँ होना
इन में क्या फ़र्क़ है अब इस का भी एहसास नहीं
दर्द और दिल का ज़रा देखिए यकसाँ होना
अब नज़र आते हो मस्जिद में जनाब-ए-‘मेहदी’
शेब में तुम को मुबारक हो मुसलमाँ होना
मुस्तक़िल अब बुझा बुझा सा है
मुस्तक़िल अब बुझा बुझा सा है
आख़िर इस दिल को ये हुआ क्या है
तुम को चाहा बड़ा कुसूर किया
तुम ही बतला दो कि अब सज़ा क्या है
माँग लूँ उन का दिल अगर वो कहें
क़त्ल का तेरे ख़ूँ-बहा क्या है
क्यूँ नफ़स में कबाब की बू है
मेरे सीने में ये जला क्या है
मोहर है सब्त क़ल्ब-ए-वाइज़ पर
दाग़ माथे पे बद-नुमा क्या हे
हज़रत-ए-दिल हैं क्यूँ उदास उदास
ना-उम्मीदी ने कुछ कहा क्या है
काफ़ी इक लफ़्ज़ है हुज़ूर-ए-ख़ुदा
ये शब-ओ-रोज़ इल्तिजा किया है
वही माँगों कि हो दुआ मक़्बूल
यानी अल्लाह चाहता क्या है
देखिए ये कलाम-ए-‘मेहदी’ में
फ़िक्र इंसाँ की इंतिहा क्या है
मैं ने आँखों से अश्क पोंछे थे
रंग दामन पे लाल सा क्या है
ज़ात ‘मेहदी’ की फिर ग़नीमत है
गर वो अच्छा नहीं बुरा क्या है